मनसबदारी प्रथा कहाँ से ली गयी थी
मुग़लकालीन सैन्य व्यवस्था एक मज़बूत सैन्य व्यवस्था थी। अगर मुग़लों ने
पर इतने लम्बे समय तक शासन किया था, तो उसके पीछे निसंदेह ही उनकी दृढ़,
अच्छे ढंग से सुसज्जित और मज़बूत सैन्य व्यवस्था थी। मुग़लों ने अपनी सेना
का वर्गीकरण भी बहुत ही बेहतरीन तरीक़े से किया था। मुग़ल बादशाहों , , , , और आदि ने अपनी सेना का संगठन कुशल तरीक़े से किया था और यही कारण था कि, वे काफ़ी लम्बे समय तक भारत पर शासन करने में सफल रहे।
के शब्द ‘मनसब’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘पद’। मनसबदारी व्यवस्था की प्रथा ख़लीफ़ा अब्बा सईद द्वारा आरम्भ की गई तथा और ने इसका विकास किया। इस प्रकार अकबर ने मनसबदारी की प्रेरणा मध्य
से ग्रहण की थी। मुग़लकालीन सैन्य व्यवस्था पूर्णतः मनसबदारी प्रथा पर
आधारित थी। अकबर द्वारा आरम्भ की गयी इस व्यवस्था में उन व्यक्तियों को
सम्राट द्वारा एक पद प्रदान किया जाता था, जो शाही सेना में होते थे। दिये
जाने वाले पद को ‘मनसब’ एवं ग्रहण करने वाले को ‘
कहा जाता था। मनसब प्राप्त करने के उपरान्त उस व्यक्ति की शाही दरबार में
प्रतिष्ठा, स्थान व उसके वेतन का ज्ञान होता था। सम्भवतः अकबर की मनसबदारी
व्यवस्था नेता चंगेज़ ख़ाँ की ‘दशमलव प्रणाली’ पर आधारित थी।
‘पद’ या ‘श्रेणी’ के अर्थ वाले मनसब शब्द का प्रथम उल्लेख अकबर के
शासन के 11वें वर्ष में मिलता है, परन्तु मनसब के जारी होने का उल्लेख 1567
ई. से मिलता है। मनसबदार के पद के साथ 1594-1595 ई. से ‘सवार’ का पद भी
जुड़ने लगा। इस तरह अकबर के शासनकाल में मनसबदारी प्रथा कई चरणों से गुज़र
कर उत्कर्ष पर पहुँची थी।
अकबर के शासन काल में प्रत्येक उच्च पदाधिकारी केवल क़ाज़ी एवं
सद्र को छोड़कर सेना में पदासीन होता था। युद्ध के समय आवश्यकता पड़ने पर
उसे सैन्य संचालन भी करना पड़ता था। इन सबको मनसब प्राप्त होता था। परन्तु
सैन्य विभाग से अलग अन्य विभागों में कार्यरत इन पदाधिकारियों को ‘मनसबदार’
के स्थान पर ‘रोजिनदार’ कहा जाता था।
के समय में सबसे छोटा मनसब दस एवं सबसे बड़ा मनसब 10,000 का होता था,
परन्तु कालान्तर में यह बढ़कर 12,000 का हो गया। शाही परिवार के शहज़ादों
को 5000 से ऊपर का मनसब मिलता था। मनसब प्राप्त करने वाले मुख्यतः तीन
वर्गों में विभक्त थे- 10 से 500 तक मनसब प्राप्त करने वाले ‘उमरा’ कहलाते
थे एवं 2500 से ऊपर मनसब प्राप्त करने वाले व्यक्ति ‘अमीर-ए-उम्दा’ या
‘अमीर-ए-आजम’ कहलाते थे।
‘जात’ से व्यक्ति के वेतन व प्रतिष्ठा का ज्ञान होता था। ‘सवार’ पद
से घुड़सवार दस्तों की संख्या का ज्ञान होता था। 1595 ई. में जात पद के साथ
सवार पद को जोड़ देने से जात-ओ-सवार पद तीन श्रेणियों में बँट गया।
प्रथम श्रेणी के
को अपने जात पद के बराबर ही घुड़सवार सैनिकों की व्यवस्था करनी पड़ती थी,
जैसे 5000/5000 जात/सवार। द्वितीय श्रेणी के मनसबदार को अपने जात-पद से
थोड़ा कम या फिर आधे घुड़सवार सैनिकों की व्यवस्था करनी होती थी। जैसे
5000/3000 जात/सवार। तृतीय श्रेणी के मनसबदारों को अपने जात पद से आधे से
कम घुड़सवार सैनिकों की व्यवस्था करनी होती थी, जैसे 5000/2000 जात/सवार।
मनसबदारों को वेतन नक़द व जागीर दोनों ही रूप में देने की
व्यवस्था थी। कार्यकाल के समय मनसबदारों के मरने पर उसकी सम्पत्ति को जब्त
कर लिया जाता था। इस प्रकार मनसबदार का पद आनुवंशिक नहीं था। मनसबदारों की
जागीरें एक प्रांत से दूसरे प्रांत में स्थानान्तरित कर दी जाती थीं। ऐसी
जागीरों को ‘वतन जागीर’ भी कहते थे। के समय में कुल मनसबदारों की संख्या लगभग 1803 थी, जो
के समय में बढ़कर 14,449 हो गई। अकबर के शासन काल के अन्तिम चरण में यह
नियम बनाया गया कि, किसी भी मनसबदार का सवार पद उसके जात पद से अधिक नहीं
हो सकता।
मनसबदारी व्यवस्था में कुछ परिवर्तन करते हुए
ने सवार पद में ‘दु-अस्पा’ एवं ‘सिंह-अस्पा’ की व्यवस्था की। दु-अस्पा में
मनसबदारों को निर्धारित संख्या में घुड़सवारों के साथ उतने ही ‘कोतल’
(अतिरिक्त) घोड़े रखने होते थे, जबकि सिंह-अस्पा में मनसबदारों को दुगुने
कोतल (अतिरिक्त) घोड़े रखने होते थे।
ने अपने शासन काल में मनसबदारी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने
के लिए उन मनसबदारों के लिए नियम बनाये, जो अपने पद की तुलना में
घुड़सवारों की संख्या कम कर देते थे। अब मनसबदारों के लिए यह आवश्यक हो गया
कि वे अपने पद हेतु निर्धारित घुड़सवारों की संख्या की कम से कम एक-चौथाई
फ़ौजी टुकड़ी अवश्य रखें। यदि उनकी नियुक्ति से बाहर होती थी, तो मनसबदारों को एक-चौथाई के स्थान पर 1/5 सैनिक टुकड़ियाँ रखनी होती थीं।
अकबर के काल से ही निरंतर यह शिकायत चली आ रही थी कि, जागीरों की
अनुमानित आय (जमा) तथा वास्तविक आय (हासिल) में अंतर होता था, अर्थात्
जागीरों से होने वाली आय वास्तव में कम होती थी। शाहजहाँ ने वस्तुस्थिति का
अध्ययन करने के बाद समस्या का एक हल निकाला तथा जागीरों को वास्तविक वसूली
के आधार पर महीना जागीरों- शिशमाहा, सीमाहा आदि की व्यवस्था शुरू की।
इसके अनुसार यदि किसी जागीर से राजस्व की वसूली 50 प्रतिशत होती थी, तो
उसको शिशमाहा जागीर माना जाता था तथा वसूली यदि कुल जमा का एक चौथाई होती
थी, तो जागीर सिमाही मानी जाती थी। इस प्रकार यदि किसी को शिशमाहा जागीर प्रदान की जाती थी, तो उसके दायित्वों का भी उसी अनुपात से निर्धारण करके कटौती की जाती थी।
औरंगज़ेब के समय में सक्षम मनसबदारों के किसी महत्त्वपूर्ण पद
जैसे फ़ौजदार या क़िलेदार आदि पर नियुक्त या फिर किसी महत्त्वपूर्ण अभियान
पर जाते समय उसके जात पद में वृद्धि किय बिना किसी सवार पद में अतिरिक्त
वृद्धि का एक और माध्यम निकाला गया, जिसे ‘मशरुत’ कहा गया। मनसबदारों का पद
वंशानुगत नहीं होता था। अयोग्य व अक्षम मनसबदार को सम्राट हटा देता था।
औरंगज़ेब के शासन काल में विशेषकर उच्च श्रेणियों के मनसबदारों की संख्या
में बहुत वृद्धि हुई। स्थिति यहाँ तक आ गयी कि, उन्हें प्रदान करने के लिए
जागीरें नहीं रह गयी थीं। औरंगज़ेब का समकालीन इतिहासकार मामूरी इस समस्या
को बेजागीरी कहकर संबोधित करता है। संकट इतना विकट हो गया कि, सम्राट और
उसके मंत्री बार-बार सभी नयी मूर्तियाँ रोकने की सोचने लगे, लेकिन
परिस्थिति में उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी। मनसबदारों की संख्या
अतिशय वृद्धि और जागीरों के अभाव ने और कृषिजन्य संकट को जन्म दिया। जिसके परिणामस्वरूप के शासन के परवर्ती दिनों में मनसबदारी व्यवस्था भी पतनोन्मुख हो गयी।
अकबर ने अपने शासन के 18वें वर्ष (1574 ई.) में ‘दाग’ प्रथा को चलाया, जिसका विधिवत प्रयोग 19वें वर्ष में प्रारम्भ हुआ। इस प्रथा में
एवं घोड़ों को दागा जाता था। दाग़ में दो तरह के निशान लगाये जाते थे,
दायें या सीधे पुट्टे पर लगने वाला निशान शाही निशान एवं बायें पुट्ठे के
निशान को का निशान माना जाता था। अकबर ने इसके लिए दाग-ए-महाली नामक एक पृथक् विभाग खोला था।
मुग़लकाल में सेना मुख्यतः 4 भागों में विभक्त थी-
गजनाल - पर ले जाने वाली तोपें।
नरनाल - सैनिकों द्वारा ले जाने वाली तोपें।
शुतरनाल - ऊँट पर ले जाने वाली तोपें।
के समय में उस्ताद कबीर एवं हुसैन तोप एवं बन्दूक़ विशेषज्ञ थे। मनूची
ने भी मुग़ल तोपखाने के प्रभारी के रूप में कार्य किया था।
Mansabdari pratha Kahan se le gai thi
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