परमाणु भारों की अवधारणा पर विचार करने वाले पहले लोग कौन थे ? तत्वों के परमाणु भार की गणना पहली बार किस तरह की गई थी ? इस लेख में लेखकों ने परमाणु भार के व्यापक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले अवधारणात्मक ढाँचे की उत्पत्ति से लेकर आज जारी बहसों तक की लम्बी वैज्ञानिक यात्रा की छानबीन की है।
तत्वों का परमाणु भार वह अकेला विचार है जो डाल्टन के परमाणु सिद्धान्त को पदार्थ की प्रकृति के बारे में प्रचलित पूर्ववर्ती कण-आधारित धारणाओं से भिन्न बनाता है। परमाणु भार का सिद्धान्त रासायनिक अभिक्रियाओं तथा उनके परिणामों के सभी मात्रात्मक पहलुओं के पूर्वानुमान को सम्भव बनाता है। हम मानकर चलते हैं कि परमाणु भार की धारणा तो हमेशा से थी, और शायद ही कभी उसके बारे में इस तरह सोचते हों कि यह एक अवधारणात्मक ढाँचा है जो 19वीं सदी में शुरू हुई तल्ख बहसों का परिणाम है। परमाणु भार की गाथा न केवल अत्यन्त रोचक है, वह हमें इस बात को भी समझने में मदद करती है कि वैज्ञानिक किस तरह काम करते हैं। इस कहानी का रास्ता बहुत घुमावदार है और यह उस काल के कई अग्रणी वैज्ञानिकों के योगदानों से समृद्ध बना है। इस अवधारणा के इर्दगिर्द चलने वाली कुछ बहसें आज भी जारी हैं।
आरम्भ
यह एक जाना-माना तथ्य है कि परमाणु जैसे सूक्ष्म कणों की धारणाएँ प्राचीन काल से मौजूद रही हैं। किसी अन्तिम कण की बात भारत में कणाद ने और ल्यूसिपस तथा डेमोक्रिटस ने यूनान में की थी। परन्तु आधुनिक परमाणु के ‘अस्तित्व’ का श्रेय कई रसायनशास्त्रियों के प्रयासों को जाता है, जिनकी परिणति डाल्टन के परमाणु सिद्धान्त में हुई। अठारहवीं सदी में रसायनशास्त्रियों ने रासायनिक क्रियाकलापों का मात्रात्मक रूप से अध्ययन करना प्रारम्भ किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने रासायनिक संयोग के कई नियम प्रतिपादित किए। इनमें द्रव्यमान के संरक्षण का नियम, स्थिर अथवा निश्चित अनुपात का नियम और व्युत्क्रम अनुपात का नियम शामिल थे। इन नियमों को देखते हुए जॉन डाल्टन ने सोचा कि उन्हें केवल तभी समझाया जा सकता था जब हम पदार्थ को किसी अन्तिम अविभाज्य कण से बना हुआ मान लें। यदि वे इस कथन पर ही रुक जाते तो आधुनिक परमाणु वह साधन न बना होता जिससे रासायनिक अभिक्रियाओं को समझा जाता है, उनकी व्याख्या की जाती है और भविष्यवाणी की जाती है। डाल्टन ने प्रतिपादित किया कि:
1. समस्त पदार्थ अन्ततः: परमाणुओं से बने होते हैं, जिन्हें न तो और विभाजित किया जा सकता है और न ही एक-दूसरे में बदला जा सकता है।
2. परमाणुओं का न तो सृजन किया जा सकता है और न ही उन्हें नष्ट किया जा सकता है।
3. एक ही तत्व के सभी परमाणुओं का भार एक समान होता है और वे आकार और रूप आदि में भी एक जैसे होते हैं।
4. रासायनिक परिवर्तन पूरे के पूरे परमाणुओं का एक-दूसरे से जुड़ना या अलग होना होता है।
इन मान्यताओं के आधार पर ऊपर उल्लिखित रासायनिक संयोग के प्रायोगिक नियमों को समझाया जा सकता था। इसके साथ ही, इस सिद्धान्त के आधार पर गुणित अनुपात के नियम की भविष्यवाणी भी की गई। जब यह भविष्यवाणी सही सिद्ध हुई, तो इससे डाल्टन के सिद्धान्त को मजबूती मिली। इस सिद्धान्त की बुनियाद सुदृढ़ थी। इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि ये सारे नियम रासायनिक अभिक्रियाओं के बारे में मात्रात्मक कथन थे और उन्होंने एक ऐसी व्याख्या का मार्ग प्रशस्त किया जो स्वयं भी मात्रात्मक थी।
डाल्टन इसे बहुत अच्छी तरह समझते थे। 1808 में ‘ए न्यू सिस्टम ऑफ केमिकल फिलोस्फी’ में उन्होंने एक सदी पहले रॉबर्ट बॉयल के द्वारा किए गए अवलोकनों और उनसे निकाले गए निष्कर्षों, रासायनिक संयोग के नियमों और विशेष रूप से स्थिर अनुपात के नियम की बात करते हुए लिखा था कि:
‘‘ इन अवलोकनों से एक अनकहा निष्कर्ष निकलता है जो सर्वमान्य्ा लगता है कि सारे पदार्थ, चाहे तरल हों य्ा ठोस, अत्य्ांत छोटे-छोटे अनगिनत कणों से या परमाणुओं से मिलकर बने हैं और य्ो कण एक आकर्षक बल से एक दूसरे से जुडे़ होते हैं, य्ाह बल परिस्थिति के अनुसार कम-ज़्य्ादा शक्तिशाली होता है।‘‘
यह निष्कर्ष पूरी तरह संतोषप्रद लगता है ; मगर हमने इसका कोई उपय्ाोग नहीं किय्ा है और इस उपेक्षा का परिणाम य्ाह है कि रासाय्ानिक क्रिय्ाओं का एक बहुत ही धुँधला चित्र्ा बन पाय्ा है।‘‘
(डाल्टन सबसे छोटे कण को परमाणु (एटम) ही कहते थे, चाहे वह तत्व का हो या यौगिक का ।)
जिस ‘उपेक्षा’ की डाल्टन ने बात की उसका सम्बन्ध उनके सिद्धान्त के बिन्दु 3 से था। उनके पास बहुत-सी जानकारी और आँकड़े थे। बहुत सावधानीपूर्वक इकट्ठी की गई जानकारी के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि:
’ ’ समस्त रासाय्ानिक जाँच-पड़ताल में इस उद्देश्य्ा को उचित ही महत्वपूर्ण माना गय्ा है कि उन सरल पदार्थों के सापेक्षिक भार पता किए जाएँ जिनसे मिलकर यौगिक बनते हैं। मगर दुर्भाग्य्ावश खोजबीन य्ाहीं रुक गई ; जबकि य्ाह सम्भव है कि कुल वजन में सापेक्ष वजन के आधार पर पदार्थों के सबसे छोटे कणों य्ानी परमाणुओं के सापेक्षिक भारों का अनुमान लगाय्ा जा सके, जिनके आधार पर विभिन्न अन्य्ा य्ाौगिकों में उनकी संख्य्ा और वजन पता चल जाएँगे। इससे आगे खोजबीन में मदद और मार्गदर्शन मिलेगा और उनके परिणामों को दुरुस्त किय्ा जा सकेगा। तो सरल व य्ाौगिक दोनों तरह के पदार्थों के अन्तिम कणों के सापेक्षिक भार, किसी य्ाौगिक के एक कण में उपस्थित सरल मूलभूत कणों की संख्य्ा और अपेक्षाकृत बड़े य्ाौगिक कण में उपस्थित छोटे य्ाौगिक कणों की संख्य्ा ज्ञात करने के महत्व और फाय्ादों को दर्शाना इस रचना का एक प्रमुख उद्देश्य्ा है।‘‘
यह कहने के बाद डाल्टन ने भिन्न-भिन्न अन्तिम कणों, अर्थात परमाणुओं, के भारों की गणना की।
डाल्टन ने की परमाणु भार की गणना
डाल्टन को यह तो बहुत स्पष्ट था कि परमाणु इतने छोटे थे कि उन्हें एक-एक करके तौलने का प्रयास करना निरर्थक था। किन्तु हम अनुमान लगा सकते हैं कि उन्होंने औसत भारों की गणना की होगी। परन्तु, याद रखना होगा कि उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में, कुल जानकारी विभिन्न तत्वों के संयोजी भारों की ही थी। उदाहरण के लिए, जब हाइड्रोजन आक्सीजन के साथ अभिक्रिया करती थी, तब उनका अनुपात हाइड्रोजन के 1 ग्राम के साथ आक्सीजन के 8 ग्राम का था। लेकिन इस ज्ञान के आधार पर आप इन दो तत्वों के परमाणु भारों की गणना कैसे कर सकते हैं ?
अभिक्रिया में शामिल इन दो तत्वों के भार आपको इनमें से प्रत्येक तत्व के अभिक्रिया में भाग लेने वाले परमाणुओं की संख्या के बारे में कुछ भी नहीं बताते। और इसका तो कोई तरीका नहीं था कि डाल्टन 1 ग्राम हाइड्रोजन या 8 ग्राम आक्सीजन में मौजूद परमाणुओं की संख्या का पता लगा सकते।
दूसरे शब्दों में, यह जरूरी था कि आपको या तो पहले से पानी का रासायनिक सूत्र ज्ञात हो या प्रत्येक तत्व के किसी खास भार में मौजूद परमाणुओं की संख्या ज्ञात हो। इस कठिनाई को हम आज समझ सकते हैं कि डाल्टन के पास इन दोनों में से किसी को भी जानने का कोई उपाय नहीं था। लेकिन उन्होंने इससे हार नहीं मानी।
वे कुछ बुनियादी मान्यताएँ लेकर इस काम को पूरा करने के लिए आगे बढ़े। हालाँकि उनकी मान्यताएँ गलत सिद्ध हुई, परन्तु उनके चतुराई भरे तर्क और विलक्षण जुगाड़ के महत्वपूर्ण परिणाम हुए।
इस समस्या को हम थोड़े और व्यवस्थित तरीके से देखें। रासायनिक गणित की ठोस जमीन पर दृढ़तापूर्वक स्थापित डाल्टन के सिद्धान्त से स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि रासायनिक अभिक्रियाओं में तत्व पूर्ण परमाणुओं की तरह भाग लेते हैं। इसलिए हम पानी के लिए कई सूत्र लिख सकते हैं।
डाल्टन ने कहा कि:
“यदि ऐसी कोई दो वस्तुएँ, A और B, हैं जिनमें संयुक्त होने की प्रवृत्ति है, तो उनका संयोजन निम्नलिखित क्रम में हो सकता है, जिसकी शुरुआत सबसे सरल संयोजन से होगी, अर्थात:
A का 1 परमाणु +B का 1 परमाणु = C का 1 परमाणु, द्विपरमाणविक ·
A का 1 परमाणु़ +B के 2 परमाणु = D का 1 परमाणु, त्रिपरमाणविक ·
A के 2 परमाणु +B का 1 परमाणु = E का 1 परमाणु, त्रिपरमाणविक ·
A का 1 परमाणु़ +B के 3 परमाणु = F का 1 परमाणु, चतुष्परमाणविक ·
A के 3 परमाणु़ +B का 1 परमाणु = G का 1 परमाणु, चतुष्परमाणविक और इसी प्रकार आगे भी
रासायनिक संश्लेषण से सम्बन्धित हमारी समस्त जाँच-पड़ताल में निम्नलिखित सामान्य नियमों को मार्गदर्शक की तरह अपनाया जा सकता है:
1. यदि किन्हीं दो वस्तुओं का केवल एक संयोजन प्राप्त किया जा सकता हो, तो उसे द्विपरमाणविक माना जाना जरूरी होगा, जब तक कि कोई तथ्य इसके विपरीत न हो।
2. यदि दो संयोजन देखे जाते हैं, तो उनमें से एक को द्विपरमाणविक और दूसरे को त्रिपरमाणविक माना जाना चाहिए।
3. जब तीन संयोजन देखे जाते हैं, तो उनमें से एक को द्विपरमाणविक और शेष दो को त्रिपरमाणविक माना जाना चाहिए।
4. जब चार संयोजन देखे जाते हैं, तो हमें उनमें से एक के द्विपरमाणविक, दो के त्रिपरमाणविक और एक के चतुष्परमाणविक होने की उम्मीद करना चाहिए आदि ।”
पहले से ही अच्छी तरह से ज्ञात रासायनिक तथ्यों के साथ इन नियमों का उपयोग करते हुए, डाल्टन निम्नलिखित ढंग से आगे बढ़े। उनके अनुसार प्रकृति सरल होती है। यदि दो तत्व मिलकर एक यौगिक बनाते हैं, तो निश्चित ही वे ऐसा प्रत्येक के एक परमाणु के सरल अनुपात में करेंगे। यदि उन्हीं तत्वों के संयोजन से एक से अधिक यौगिक बनते हैं, तो ऊपर बताए गए क्रम के अनुसार दूसरे अनुपातों पर विचार किया जा सकता है।
अब इस सन्दर्भ में हम पानी के उदाहरण पर विचार करें।
उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दौर में, हाइड्रोजन तथा आक्सीजन का केवल एक यौगिक ज्ञात था, पानी। इसलिए डाल्टन की विधि और नियमों का पालन करते हुए, हाइड्रोजन का एक परमाणु आक्सीजन के एक परमाणु से संयोजन करके पानी का एक ‘परमाणु’ देगा। वास्तविक भारों की दृष्टि से पाया गया कि हाइड्रोजन का 1 ग्राम, आक्सीजन के 8 ग्राम से मिलकर 9 ग्राम पानी का उत्पादन करते हैं। तो इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि 8 ग्राम आक्सीजन में उतने ही परमाणु होंगे जितने कि 1 ग्राम हाइड्रोजन में होते हैं। इसलिए आक्सीजन का प्रत्येक परमाणु हाइड्रोजन के एक परमाणु की अपेक्षा 8 गुना अधिक भारी होगा।
चूँकि हाइड्रोजन ज्ञात तत्वों में सबसे हल्की थी (और अभी भी है), इसलिए डाल्टन ने हाइड्रोजन के एक परमाणु का भार 1 मान लिया, और इसे परमाणु भार की इकाई के रूप में इस्तेमाल करते हुए, कई तत्वों और यौगिक वस्तुओं के परमाणु भारों की गणना की। जो उनके अनुसार इस प्रकार थे:
1. हाइड्रोजन, उसका सापेक्षिक भार 1
2. ऐजोट (नाइट्रोजन) 5
3. कार्बोन या चारकोल 5
4. आक्सीजन 7
5. फॉस्फोरस 9
6. सल्फर 13
7. मैग्नीशिया 20
8. लाइम 23
9. सोडा 28
10. पोटाश 42
11. स्ट्रोंशाइट्स 46
12. बैराइट्स 68
13. आयरन 38
14. जिंक 56
15. कॉपर 56
16. लैड 95
17. सिल्वर 100
18. प्लेटिना 100
19. गोल्ड 140
20. मरकरी 167
आयतन की बड़ी चुनौती वह रसायनशास्त्र में गहमा-गहमी का समय था और अनेक रसायनशास्त्री इस उभरते हुए विज्ञान की आधारशिलाएँ रखने का प्रयास कर रहे थे। इसलिए, सटीक तर्क करने के लिए डाल्टन को मिली प्रतिष्ठा के बावजूद, परमाणु भारों की उनकी तालिका को जल्दी ही कुछ गम्भीर चुनौतियाँ मिलने लगी। डाल्टन की विधि को सबसे पहली चुनौती गैसों के संयोजन पर किए गए कुछ परिष्कृत प्रयोगों से मिली, जिन्हें प्रमुख रूप से जोसेफ गे-लुसाक ने किया था। जहाँ डाल्टन ने अपने सूत्र निर्मित करने के लिए मुख्य रूप से अभिकारक तत्वों के भारों का उपयोग किया था, वहीं गे-लुसाक (1778-1850) अभिक्रिया करने वाली गैसों के आयतनों का अध्ययन कर रहे थे। अनेक प्रयोगों के आधार पर, वे संयोजी आयतनों के नियम (द लॉ ऑफ कम्बाइनिंग वॉल्यूम्स) पर पहुँचे: किसी दिए गए तापमान और दबाव पर, गैसें आयतन के आधार पर सरल अनुपातों में संयोजन करती हैं। यदि उत्पाद गैसें हों, तो उनके आयतन भी, किसी भी अभिकारक गैस के आयतन से, सरल Pending श्रवेमचीऋस्वनपेऋळंल.स्नेंब फ्राँसीसी भौतिकशास्त्री तथा रसायनशास्त्री जोसेफ लुई गे-लुसाक का चित्र। पूर्णांक संख्या के अनुपातों में होते हैं। उदाहरण के लिए, हाइड्रोजन के 2 ली. आक्सीजन के 1ली. से संयोजन करके पानी की वाष्प के 2 ली. बनाते हैं। इस तरह, इन आयतनों का अनुपात 2:1:2 होता है। कुछ अभिकारक गैसों के संयोजी आयतन नीचे दिए गए हैं:
अभिक्रिया अभिकारकों के आयतनों का अनुपात
हाइड्रोजन + ऑक्सीजन → पानी 2:1
हाइड्रोजन + क्लोरीन → हाइड्रोजन क्लोराइड 1:1
कार्बन मोनोऑक्साइड + ऑक्सीजन → कार्बन डाईऑक्साइड 2:1
मीथेन + ऑक्सीजन → पानी कार्बन डाईऑक्साइड 1:2
गे-लुसाक ने इन परिणामों से कोई निष्कर्ष नहीं निकाला, हालाँकि उनका निष्कर्ष नजरों के बिल्कुल सामने था। यदि तत्व परमाणुओं के रूप में संयोजन करते हैं और संयोजन करने वाली गैसों के आयतन सरल अनुपात में होते हैं, तो आयतन तथा परमाणुओं की संख्या के बीच में कोई सम्बन्ध अवश्य ही होना चाहिए।
बर्ज़ीलियस (1779-1848) ने गे-लुसाक के नियम की व्याख्या करके उसका यह अर्थ निकाला कि तापमान तथा दबाव की एक समान स्थितियों में गैसों के बराबर आयतनों में परमाणुओं की संख्या भी समान होती है। चूँकि डाल्टन ने पहले ही यह विचार प्रतिपादित किया था कि परमाणु सरल पूर्णांक संख्याओं में मिलकर यौगिक बनाते हैं, इसलिए यदि हाइड्रोजन के किसी दिए गए आयतन में, उदाहरण के लिए, 1000 परमाणु हैं, तो वे क्लोरीन के 1000 परमाणुओं से संयोजन करेंगे। चूँकि क्लोरीन की यह मात्रा उतना ही आयतन घेरती है जितना कि हाइड्रोजन, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि तापमान तथा दबाव की एक जैसी स्थितियों में, किन्हीं भी गैसों के समान आयतनों में परमाणुओं की संख्या भी समान होगी।
हाइड्रोजन तथा आक्सीजन की अभिक्रिया पर यह धारणा लागू करने पर वह इस प्रकार दिखेगी:
हाइड्रोजन + ऑक्सीजन → पानी
2 आयतन + 1 आयतन → 2 आयतन
2 n कण + 1 n कण → 2 n कण
यदि हम n को 10 के बराबर मान लें, तो बर्ज़ीलियस यह निष्कर्ष निकालेगा कि हाइड्रोजन के 2 आयतन में 20 परमाणु होंगे और आक्सीजन के 1 आयतन में 10 परमाणु होंगे। इसलिए बर्ज़ीलियस के अनुसार पानी में हाइड्रोजन तथा आक्सीजन के परमाणुओं का अनुपात 2रू1 होगा ; इस आधार पर पानी का सूत्र H
2O होगा (न कि HO जैसा कि डाल्टन ने माना था) और आक्सीजन का प्रत्येक परमाणु हाइड्रोजन के एक परमाणु से 16 गुना भारी होगा।
बर्ज़ीलियस की व्याख्या ने परमाणु भारों को ज्ञात करने के लिए एक सरल विधि प्रदान की: विभिन्न गैसों की हाइड्रोजन के एक.एक आयतन से अलग-अलग अभिक्रियाएँ करवाइए और उन गैसों के उन आयतनों को मापिए जो हाइड्रोजन के एक आयतन के साथ पूरी तरह से संयोजित होते हैं।
अन्तर्विरोध जाहिर है कि डाल्टन को बर्ज़ीलियस के निष्कर्ष को लेकर बड़े सन्देह थे, क्योंकि वह डाल्टन के परमाणु सिद्धान्त की केन्द्रीय स्थापना (अर्थात तात्विक परमाणु की अविभाज्यता) का खण्डन करता हुआ प्रतीत होता था। इस बात को समझने के लिए हम पानी के अपने उदाहरण को जारी रखते हैं। हम शुरुआत पानी की वाष्प के उसके तत्वों में विखण्डन के समीकरण को लिखने से करेंगे:
पानी की वाष्प → हाइड्रोजन + ऑक्सीजन
2 आयतन → 2 आयतन + 1 आयतन
2 परमाणु → 2 परमाणु + 1 परमाणु
1 परमाणु → 1 परमाणु + 1/2 परमाणु
इससे समस्या एकदम स्पष्ट हो जाती है - यदि पानी का एक परमाणु विखण्डित किया जाता है (और यदि उल्टा कहें तो, यदि पानी का एक परमाणु निर्मित किया जाता है), तो हमें आक्सीजन का आधा परमाणु मिलेगा (या उसकी जरूरत पड़ेगी)। इस प्रकार, बर्ज़ीलियस का प्रस्ताव परमाणुओं की अविभाज्यता के नियम के खिलाफ जाता हुआ प्रतीत होता था, इसलिए वह डाल्टन को स्वीकार्य नहीं था।
परमाणु भारों का युद्ध क्षेत्र
न केवल डाल्टन तथा बर्ज़ीलियस, बल्कि कई अन्य लोग भी परमाणु भारों की गणना करने और उन्हें प्रस्तुत करने के अपने-अपने तरीके लेकर आगे आए। अन्य बातों के अलावा उनकी विधियाँ, प्रायोगिक परिणाम और तुलना करने की इकाइयाँ, सभी कुछ भिन्न-भिन्न था (उदाहरण के लिए, बर्ज़ीलियस ने आक्सीजन का परमाणु भार 100 मानने का निर्णय लिया)। एक समय ऐसा था जब अनेक प्रकार के परमाणु भारों और उन पर आधारित सूत्रों (फार्मूलों) के कारण शोधकार्यों के प्रकाशित विवरणों को पढ़ना भी असम्भव हो गया था। ऐसा बताया जाता है कि एसीटिक एसिड के कोई 13 सूत्र थे। इस स्थिति में कई रसायनशास्त्रियों ने परमाणु भारों का उपयोग करना बन्द कर दिया और वापिस केवल संयोजी भारों का उल्लेख करने लगे। कुछ लोगों, जिनमें ड्यूमास और व्होलर जैसे अग्रणी रसायनशास्त्री भी शामिल थे, ने तो यहाँ तक सुझाव दिया कि परमाणुओं की पूरी धारणा को ही त्याग देना चाहिए क्योंकि वह बहुत ज्यादा Pending
एक समाधान जिसकी आधी सदी तक उपेक्षा की गई
हम सभी ने इटली के रसायनशास्त्री एमीदियो एवोगैड्रो का नाम उनकी उस परिकल्पना के सम्बन्ध में सुना हो सकता है, जिसने बर्ज़ीलियस के प्रस्ताव में ‘परमाणु’ शब्द को बदलकर ‘अणु’ शब्द का इस्तेमाल किया था। (यदि आपको याद न हो तो, बर्ज़ीलियस ने सुझाया था कि कि किसी दिए गए दबाव और तापमान पर, सभी गैसों में परमाणुओं की समान संख्या होती है ।) लगभग ऐसा प्रतीत होता है कि एवोगैड्रो शब्दों का खेल खेल रहे थे। मगर सच्चाई यह है कि, वे तत्वों तथा रासायनिक संयोजनों की प्रकृति के बारे में ऐसी गहरी बात व्यक्त कर रहे थे जो - परमाणु भारों की गुत्थी को हल करने तथा गे-लुसाक के परिणामों और डाल्टन के परमाणु सिद्धान्त के बीच आभासी अन्तर्विरोध का समाधान करने के अलावा - रसायनशास्त्र की सोच में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाली थी।
तो, एवोगैड्रो ने क्या कहा और पचास सालों तक उनकी उपेक्षा क्यों हुई ? संक्षेप में, एवोगैड्रो ने प्रस्तावित किया कि तत्वों का अस्तित्व संयुक्त परमाणुओं के रूप में भी हो सकता है और अक्सर होता भी है। अपने 1811 में प्रकाशित शोधपत्र में एवोगैड्रो ने यह परिकल्पना प्रस्तुत की कि अन्तिम कण दो प्रकार के होते हैं - परमाणु तथा अणु। उनका सबसे ‘असंगत’ सुझाव यह था कि तत्व भी अणुओं के रूप में बने रह सकते हैं। इसके आधार पर वे वह प्रसिद्ध परिवर्तन कर सके जिसे अब हम एवोगैड्रो की परिकल्पना के रूप में जानते हैं: किसी दिए गए तापमान तथा दबाव पर सभी गैसों में अणुओं (जिनमें एक से अधिक परमाणु हो सकते हैं) की समान संख्या होती है।
एवोगैड्रो के अनुसार, ऊपर बताई गई हाइड्रोजन तथा आक्सीजन की अभिक्रिया को इस तरह समझा जा सकता है:
हाइड्रोजन + ऑक्सीजन → पानी
2 आयतन + 1 आयतन → 2 आयतन
2 n अणु + 1 n अणु → 2 n अणु
1 अणु + 1/2 अणु → 1 अणु
वास्तव में उन्होंने यह कहा कि हाइड्रोजन तथा आक्सीजन, दोनों अणुओं के रूप में रहती हैं और उनके अणुओं में इन तत्वों के दो-दो परमाणु होते हैं। इस प्रकार आखिरी अभिक्रिया में जो टूट रहा था वह आक्सीजन का एक परमाणु न होकर, उसका एक अणु था। यह डाल्टन के सिद्धान्त के अनुरूप था। यदि हम इस सुझाव को स्वीकार कर लेते हैं, तो चीजें बहुत कम जटिल हो जाती हैं।
कहा जाता है कि यह अत्यन्त महत्वपूर्ण शोधपत्र इतने समय तक गुमनामी में पड़ा रहा क्योंकि यह इटैलियन भाषा में, एक अपेक्षाकृत अज्ञात जर्नल में प्रकाशित हुआ था, और एवोगैड्रो की प्रस्तुति बहुत अनगढ़ थी। परन्तु उस समय के रसायनशास्त्रियों के साथ न्याय करते हुए, हमें यह कहना होगा कि एवोगैड्रो के पास इस सुझाव के लिए कोई सैद्धान्तिक आधार भी नहीं था। उन दिनों की यह आम समझ थी कि तत्व एक-दूसरे से अपने विपरीत आवेशों के कारण अभिक्रिया करते थे। ऐसी समझ में एक ही तत्व के परमाणुओं का जुड़कर आपको एक अणु प्रदान करने की इस धारणा को स्थान देना, यदि असम्भव नहीं तो कठिन जरूर था। इस उपेक्षा का यह भी एक कारण हो सकता है। यह स्पष्ट है कि पदार्थ की प्रकृति के बारे में एक नई अन्तर्दृष्टि प्रदान करने के बजाय, एवोगैड्रो का प्रयास डाल्टन के सिद्धान्त और गे-लुसाक के प्रायोगिक परिणामों की बर्ज़ीलियस द्वारा की गई व्याख्या के बीच में तालमेल बैठाने के लिए किया गया था। परमाणु भारों की अवधारणा एक ऐसा बुनियादी और व्यावहारिक रूप से उपयोगी विचार था कि रसायनशास्त्री उसे त्यागकर पुराने कीमियाई तरीकों पर वापिस जाने के लिए राजी नहीं थे। अतः इस विचार को कामकाजी बनाने के कई अन्य प्रयास भी किए गए।
अन्य प्रयास
क) ड्यूलौंग एवं पेटिट की विधि
ऐसी एक विधि पियरे ड्यूलौंग (1789-1838) तथा ऐलैक्सिस पेटिट (1791-1820) के द्वारा प्रस्तावित की गई। उन्होंने 1819 में एक सम्बन्ध खोजा जिसे एक नियम के रूप में व्यक्त किया जा सकता था : किसी धातु के परमाणु भार को उसकी विशिष्ट ऊष्मा से गुणा करने पर उनका गुणनफल लगभग 6.4 के बराबर होता है।
चूँकि किसी धातु की विशिष्ट ऊष्मा प्रायोगिक रूप से निकाली जा सकती है, इसलिए इस नियम का उपयोग धातुओं के परमाणु भारों के करीबी मान निकालने के लिए किया जा सकता है। कम से कम इसका इस्तेमाल, किसी धातु के प्रायोगिक रूप से निकाले गए विभिन्न दावेदार परमाणु भार मानों में से सही मान ज्ञात करने के लिए तो किया ही जा सकता है। हम एक उदाहरण पर संक्षिप्त नजर डालते हैं।
सिल्वर (चाँदी) की विशिष्ट ऊष्मा से गणना करने पर उसका करीबी परमाणु भार 113.3 निकलता है। एक वास्तविक प्रयोग, जिसमें सिल्वर और आक्सीजन की तौली हुई मात्राओं के बीच अभिक्रिया करवाई गई, से पता चला कि वे 13.51:1 के अनुपात में अभिक्रिया करते हैं। यदि हम यह मान लें कि सिल्वर का एक परमाणु, आक्सीजन के एक परमाणु से अभिक्रिया करता है, तो इसका मतलब है कि सिल्वर का एक परमाणु, आक्सीजन के एक परमाणु से 13.51 गुना अधिक भारी है। इससे सिल्वर के परमाणु भार का जो मान मिलता है वह 216.16 (16 x 13.51) है।
सिल्वर की विशिष्ट ऊष्मा की जानकारी का इस्तेमाल करते हुए, हमारे पास उसके परमाणु भार का करीबी मान 113.3 है, जो ऊपर प्राप्त किए गए मान का लगभग आधा है। इसलिए, सिल्वर आक्साइड का सूत्र Ag
2O~ है, और सिल्वर का परमाणु भार 216.16è2 = 108.08 है।
ख) विक्टर मेयर विधि
बुनियादी रूप से, विक्टर मेयर ने वाष्प घनत्वों को ज्ञात करने की उस समय मौजूद तकनीकों को परिष्कृत किया और परमाणु भारों की तुलना करने के लिए बर्ज़ीलियस की विधि का इस्तेमाल किया। गैसों के अलावा, उस विधि को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने उसे वाष्पों के लिए भी प्रयोग किया।
आप परमाणु भारों को निकालने में सामने आने वाली बुनियादी समस्या को देख सकते हैं। जहाँ हम एक ओर अभिकारकों की स्थूल मात्राओं को नापते हैं, वहीं दूसरी ओर हम उनसे उन अभिकारकों के एक-एक (सूक्ष्म) परमाणुओं के सापेक्षिक द्रव्यमानों के बारे में निष्कर्ष निकालना चाहते हैं। मान लीजिए, कि हमारे पास एक बक्से में 500 ग्राम केले हैं और दूसरे बक्से में 1 किलोग्राम सन्तरे हैं। पर इस जानकारी के होते हुए भी, हम एक केले के भार की तुलना एक सन्तरे के भार से कतई नहीं कर सकते। परन्तु, यदि हम यह मान लें कि हर बक्से में एक दर्जन फल हैं, तो फिर हम कह सकते हैं कि एक सन्तरा, एक केले से दो गुना भारी है। परन्तु परमाणुओं के बारे में हम यह जान नहीं सकते, हम कुछ बातों को केवल मान सकते हैं।
जैसा कि आरम्भ में उल्लेख किया गया था, परमाणु भार इसलिए उपयोगी होते हैं क्योंकि वे हमें रासायनिक अभिक्रियाओं को समझने और उनके परिणामों का पूर्वानुमान लगाने का एक तरीका देते हैं।
ऊपर जो कहा गया है उससे आप उस भ्रम और अफरा-तफरी का अन्दाजा लगा सकते हैं जो परमाणु भार की समस्या के कारण उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पैदा हुई होगी। एक ऐसे ही रसायनशास्त्री, जो इस समस्या से बहुत चिन्तित थे, ऑगस्ट केकुले थे। उन्होंने इसी पहेली का हल निकालने के लिए विभिन्न देशों के रसायनशास्त्रियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि निरन्तर भ्रम की यह स्थिति विज्ञान की प्रगति को अवरुद्ध कर देगी। रसायनशास्त्रियों का यह पहला वैश्विक सम्मेलन, कार्लसु्रहे (जर्मनी) में 1860 में आयोजित किया गया।
ग) कैनिज़रो का प्रवेश
कार्लस्रुहे सम्मेलन को आम सहमति बनाने के एक प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। वह विफल हो गया होता, यदि स्टानिसलाओ कैनिज़रो नाम के एक युवा स्कूल शिक्षक ने सही समय पर हस्तक्षेप न किया होता।
कैनिज़रो का मुख्य योगदान सम्मेलन के सहभागियों का ध्यान एवोगैड्रो के 1811 के शोधपत्र की ओर आकर्षित करना और यह प्रस्तावित करना था कि वह शोधपत्र परमाणु भार ज्ञात करने की एक स्पष्ट विधि उपलब्ध कराता था। वह विधि यहाँ दी गई है क्योंकि वह इस तथ्य को रेखांकित करती है कि परमाणु भार की समस्या का समाधान तर्क और समझदारी का उपयोग करने से हुआ।
कैनिज़रो की विधि
स्टानिसलाओ कैनिज़रो ने सम्मेलन में एक लिखित विवरण सब लोगों के बीच प्रसारित किया जिसमें उन्होंने विभिन्न तत्वों के परमाणुओं के सही भार चुनने के लिए एवोगैड्रो की परिकल्पना का उपयोग किया। उन्होंने यह माना कि:
किसी तत्व के सभी परमाणुओं का एक निश्चित भार होता है। चूँकि अणुओं, जैसे कि एक हाइड्रोजन का अणु या एक पानी का अणु, में परमाणुओं की एक निश्चित संख्या होती है, इसलिए उनके भी निश्चित भार अवश्य होंगे, जिन्हें हम सूत्र भार (फार्मूला वेट्स) कहेंगे। इन सूत्र भारों में मौजूद प्रत्येक तत्व का एक परमाणु भार होता है (या उस परमाणु भार कोई गुणज होता है)। इन मान्यताओं के आधार पर उन्होंने नीचे दिए गए चरणों का अनुसरण करते हुए, परमाणु भारों की गणना करने की एक विधि प्रस्तावित की: ·
एवोगैड्रो के अनुसार, पानी का आणविक सूत्र H2O~ है। यदि सभी गैसों के समान आयतनों में अणुओं की संख्या समान है, तो उनके घनत्व उनके आणविक भारों के समानुपाती होंगे, अर्थात M αD, या M =kD, जहाँ k एक स्थिरांक है, M आणविक भार है, तथा d~ दी गई गैस का घनत्व है। यदि हम किसी गैस का आणविक भार जानते हैं, तो हम उसके घनत्व से स्थिरांक k की गणना कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हाइड्रोजन का आणविक भार 2 है और आक्सीजन का 32 है। इसलिए: Gsa | Molecular weight | Density | k=M/DHydrogen | 2 | 0-09 | 22.25
Oxygen | 32 | 1-43 | 22.4 ·
इस तरह स्थिरांक k का औसत मान 22.23 है (22.25 तथा 22.4 का औसत) कार्बन और क्लोरीन के परमाणु भारों की गणना करने के लिए, हमें कार्बन तथा क्लोरीन के विभिन्न गैसीय यौगिकों के घनत्वों से उनके आणविक भार ज्ञात करने होंगे (डत्राक् का इस्तेमाल करके)। आइए अब हम देखें कि ज्ञात आँकड़ों से ऊपर दी गई जानकारी कैसे निकलती है। चरण 4 (जिसमें समीकरण M = kd का इस्तेमाल किया गया) हमें मीथेन का आणविक भार 16 देता है। मीथेन में कार्बन का प्रतिशत (कॉलम 3) 74.8 है, अर्थात 100 ग्राम मीथेन में 74.8 ग्राम कार्बन है। इसलिए, 16 ग्राम मीथेन (मीथेन का एक मोल) में कार्बन की मात्रा (74.8/100) x 16 = 12 ग्राम होती है। तालिका में दिए गए अन्य मान भी इसी तरह से निकाले गए हैं। हमने दिए गए यौगिकों में से प्रत्येक के एक मोल में हर तत्व की मात्रा की गणना की है। फिर हम इन यौगिकों में मौजूद एक तत्व की न्यूनतम मात्रा को देखते हैं। हम देख सकते हैं कि प्रत्येक यौगिक के एक मोल में कार्बन की मात्राएँ भिन्न-भिन्न हैं। कार्बन के यौगिकों के एक मोल में उसकी न्यूनतम मात्रा 12 ग्राम है। इससे हम कार्बन के परमाणु भार का मान 12 निर्धारित करते हैं, क्योंकि हम मानते हैं कि इन यौगिकों में कम से कम कार्बन का एक परमाणु तो होगा। यदि बाद के अध्ययनों में हमें ऐसे यौगिक मिलते हैं जिनके 1 मोल में 6 ग्राम या 4 ग्राम कार्बन हो, तो हमें कार्बन के परमाणु भार को संशोधित करना पड़ेगा। तब तक कार्बन के परमाणु भार को 12 माना जा सकता है। इसी प्रकार अन्य तत्वों के परमाणु भारों की गणना भी की जा सकती है। आगे की घटनाएँ
कार्लसु्रहे सम्मेलन के साथ यह मामला सुलझ गया प्रतीत होता था। परन्तु समस्थानिकों की खोज ने प्रत्येक तत्व का एक ही परमाणु भार होने की धारणा के लिए नई चुनौतियाँ खड़ी कर दीं। इसके परिणामस्वरूप अपूर्णांक परमाणु भारों का विचार सामने आया।
हाल ही में ’ इण्टरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एण्ड एप्लाइड केमिस्ट्स’ को एक अन्य समस्या का भी सामना करना पड़ा है। यह पता चला कि कुछ तत्वों के परमाणु भार, इस बात पर निर्भर करते हैं वे तत्व कहाँ से और कैसे प्राप्त किए जाते हैं। इसका सम्बन्ध भिन्न-भिन्न स्थानों और पर्यावरणों में तत्वों के अलग-अलग समस्थानिक संघटन से है। इसके लिए सुझाया गया समाधान यह है कि अब आगे से परमाणु भारों को एक इकलौते मान के रूप में व्यक्त करने के बजाय, उन्हें मान के एक दायरे के रूप में व्यक्त किया जाएगा।
हम इन सब नई घटनाओं के विस्तार में यहाँ नहीं जाएँगे, लेकिन अब तक यह तो जरूर साफ हो गया होगा कि आवर्त तालिका में लिखित जिन परमाणु भारों का हम सब उपयोग करते आ रहे हैं, वे आसानी से हाथ नहीं आए हैं। अन्ततः: परमाणुओं और अणुओं की वास्तविक संख्या (एवोगैड्रो संख्या) को गिनने की प्रक्रिया ने ही हमें वह उत्तर दिया जिसे हम अन्तिम मानते हैं। पर क्या यह वाकई में इस मामले में आखिरी बात होगी ?
सुशील जोशी एक स्वतंत्र विज्ञान लेखक और अनुवादक हैं। आई.आई.टी., बॉम्बे से रसायनशास्त्र में पीएच.डी. पूरी करने के बाद वे 1982 में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़ गए और 2002 में उसके समाप्त होने तक उसके साथ कार्यरत रहे।
उमा सुधीर ने रसायनशास्त्र में पीएच.डी. की है और शिक्षा में भी उपाधि प्राप्त की है। वे पिछले 12 वर्षों से एकलव्य से जुड़ी रही हैं। उन्होंने विज्ञान सिखाने तथा सीखने की सामग्री विकसित करने में तथा समीक्षात्मक शिक्षण पद्धति का अनुसरण करते हुए विज्ञान पढ़ाने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करने में योगदान दिया है। अनुवाद: भरत त्रिपाठी