मानव शरीर का पाचन तंत्र
के में एक और सहयोगी ( , आदि) होती हैं।
आहार-नाल, , , , , , , और से बनी होती है। सहायक पाचन ग्रंथियों में , , और हैं।
ग्रहणी से आहार, जिसमें उसके पाचित अवयव होते हैं, क्षुदांत्र के प्रथम भाग अग्रक्षुद्रांत (jejunum) में आ जाता है। इस समय वह शहद के समान गाढ़ा होता है और क्षुदांत्र में भली प्रकार प्रवाहित हो सकता है। यहाँ भी पाचन क्रिया होती रहती है। कुछ समय तक अग्न्याशयी पाचन जारी रहता है।
क्षुदांत्र के रस में भी पाचन शक्ति होती है। वह प्रोटीन को तो नहीं, किंतु प्रोटियोज़ और पैप्टोन को ऐमिनो अम्लों में तोड़ सकता है। पर उसकी विशेष क्रिया डिप्सिन ऐमोइलेज़ और लाइपेज एंज़ाइमों को सक्रिय बनाना है। पेवलॉफ का, जिसने सबसे पहले इस विषय में अन्वेषण किए थे, मत है कि आंत्र रस के मिलने से पहले ये तीनों एंज़ाइम अपने पूर्व रूप में रहते हैं और इसी कारण निष्क्रिय होते हैं। ट्रिप्सिन ट्रिप्सिनोज़न के रूप में रहती है। ऐमाइलेज़ और लाइपेज़ भी पूर्व दशा में रहते हैं। जब आंत्ररस आग्न्याशयरस में मिलता है, तो ट्रिप्सिनोजेन से ट्रिप्सिन बन जाती है और शेष दोनों एंज़ाइम भी सक्रिय हो जाते हैं। आंत्रिक रस के मिलने से पूर्व अग्न्याशय रस निष्क्रिय होता है।
क्षुदांत्र का कार्य विशेषतया अवशोषण (absorption) का है। इसकी आंतरिक रचना के चित्र को देखने से मालूम होगा कि उसके भीतर श्लेष्मल कला में, जो सारे आंत्र को भीतर से आच्छादित किए हुए हैं, गहरी सिलवटें बनी हुई हैं, जिससे कला का पृष्ठ आंत्र से कहीं अधिक हो जाता है। कला की सिलवटों पर अंकुर लगे रहते हैं। इन सबका काम अवशोषण करना है। अंकुरों की सूक्ष्म रचना भी ध्यान देने योग्य है। प्रत्येक अंकुर के बीच में एक श्वेतनलिका उसके शिखर के पास तक चली गई है। यह आक्षीरवाहिनी (lacteal) है। इसके दोनों ओर काली रेखाएँ दिखाई देती हैं, जो धमनी और शिराओं की शाखाएँ और कोशिकाएँ हैं। ये दोनों प्रकार की रचनाएँ, वाहिनियाँ और धमनी तथा शिराएँ, बाहर या नीचे जाकर अधोश्लेष्मिक स्तर में बड़ी रक्तवाहिकाओं और वाहिनियों में मिल जाती हैं। वसा का श्लेष्मलकला द्वारा अवशोषण होकर वह आक्षीरवाहिनियों में पहुँच जाती है और अंत में रक्त में मिल जाती है। ग्लूकोज़ और प्रोटीन का अवशोषण होकर वे रक्तकेशिकाओं द्वारा रक्त में पहुँच जाते हैं। रक्त इन तीनों अवयवों को शरीर के प्रत्येक अंग की कोशिकाओं तक पहुँचाता और उनका पोषण करता है। 20-22 फुट लंबी क्षुदांत्र की नली का यही विशेष कार्य है।
बृहदांत्र का कार्य केवल अवशोषण है। यह अंग विशेषतया जल का अवशोषण करता है। मलत्याग के समय मल जिस रूप में बाहर निकलता है, वह बृहदांत्र के अंत और मलाशय में बन जाता है। 24 घंटे में बृहदांत्र जल का अवशोषण कर लेता है। जल के अतिरिक्त वह थोड़े ग्लूकोज़ का भी अवशोषण करता है, पर और किसी पदार्थ का अवशोषण नहीं करता। इसके अतिरिक्त लोह, मैग्नीशियम, कैलसियम आदि शरीर का त्याग बृहदांत्र ही में करते हैं। यहाँ उनका उत्सर्ग होकर वे मल में मिल जाते हैं।
जीवाणुओं की क्रिया से भी पाचन में सहायता मिलती है। क्षुदांत्र में वे प्रोटीन, वसा तथा स्टार्च आदि का भंजन करते हैं। बृहदांत्र में वे सेलुलोज़ का भी, जिसपर किसी पाचक रस की क्रिया नहीं होती, भंजन कर डालते हैं। इसी से हाइड्रोजन सल्फाइड, मिथेन आदि गैसें उत्पन्न होती हैं तथा वसा के भंजन से वसाम्ल बनते हैं, जिनके कारण मल की क्रिया आम्लिक हो जाती है।
यह गति सारे पाचक नाल में, ग्रासनाल से लेकर मलाशय तक, होती रहती है, जिससे खाया हुआ या पाचित आहार निरंतर अग्रसर होता जाता है। अन्य आशयों में तथा वाहिकाओं में भी यह गति होती है।
आंत्रनाल में श्लेष्मल स्तर के बाहर वृत्ताकार और उनके बाहर अनुदैर्ध्य पेशीसूत्रों के स्तर स्थित हैं। वृत्ताकार सूत्रों के संकोच से नाल की चौड़ाई संकुचित हो जाती है। अतएव संकोच से आगे के आहार का भाग पीछे को नहीं लौट सकता। तभी अनुदैर्ध्य सूत्र संकोच करके नाल के उस भाग की लंबाई कम कर देते हैं। अतएव आहार आगे को बढ़ जाता है। फिर आगे के भाग में इसी प्रकार की क्रिया से वह और आगे बढ़ता है। यही आंत्रगति कहलाती है। दूसरी खंडीभवन (segmentation) गति भी नाल की भित्ति में होती रहती है। ये गतियाँ आहार को आगे बढ़ाने में सहायता देने के अतिरिक्त, भली प्रकार से काइम को मथ सा देती हैं, जिससे पाचक रस और आहार के कणों का घनिष्ठ संपर्क हो जाता है।
भिन्न भिन्न पाचक रसों की क्रिया का जो वर्णन किया गया है उससे स्पष्ट है कि प्रकृति ने ऐसा प्रबंध किया है कि आहार पदार्थों के सब अवयव, जो जांतव शरीर में भी उपस्थित रहते हैं, व्यर्थ न जाने पाएँ। उनका जितना भी अधिक से अधिक हो सके, शरीर में उपयोग हो। उनसे शरीर के टूटे फूटे भागों का निर्माण हो, नए ऊतक (tissues) भी बनें और काम करने की ऊर्जा उत्पन्न हो। आहार का यही प्रयोजन है और आहार के भिन्न अवयवों का उनके अत्यंत सूक्ष्म तत्वों में विभंजन कर देना, जिससे उनका अवशोषण हो जाय और शरीर की कोशिकाएँ उनसे अपनी आवश्यक वस्तुएँ तैयार कर लें, यही पाचन का प्रयोजन है। वास्तव में जिसको साधारण बोलचाल में पाचन कहा जाता है, उसमें दो क्रियाओं का भाव छिपा रहता है, पाचन और अवशोषण। पाचन केवल आहार के अवयवों का अपने घटकों में टूट जाना है, जो पाचक रसों की क्रिया का फल होता है। उनका अवशोषण होकर रक्त में पहुँचना दूसरी क्रिया है, जो क्षुदांत्र के रसांकुरों का विशेष कर्म है।
आहार का जो कुछ भाग पचने तथा अवशोषण के पश्चात् आंत्र में बच जाता है वही मल होता है। अतएव मल में आहार का कुछ अपच्य भाग भी होता है तथा आंत्र की श्लेष्मल कला के टुकड़े होते हैं। इनके अतिरिक्त जीवाणुओं की बहुत बड़ी संख्या होती है। यह हिसाब लगाया गया है कि प्रत्येक बार मल में 15,00,00,00,000 जीवाणु शरीर से निकलते हैं। ये बृहदांत्र से ही आते हैं। वही जीवाणुओं का निवासस्थान है। इस कारण मल में नाइट्रोजन की बहुत मात्रा होती है, जिससे उसकी उत्तम खाद बनती है।
मलत्याग की एक प्रतिवर्त क्रिया है, जिसका संपादन तांत्रिक मंडल के आत्मग विभाग (autonomous nervous system) द्वारा होता है। जब मलाशय में मल एकत्र हो जाता है तो नियत समय पर मलाशय की भित्तियों से मेरुज्जू (spinal cord) के पश्चिमशृंगों (posterior horn cells) की कोशिकाओं में संवेग (impulses) जाते हैं, जहाँ से वे पूर्वशृंगों की कोशिकाओं में भेज दिए जाते हैं। वहाँ से नए संवेग प्रेरक तांत्रिक सूत्रों द्वारा मलाशय में पहुँचकर, वहाँ की संवर्णी (sphincter) पेशियों का विस्तार कर देते और मलाशय की भित्तियों की आंत्रगति बढ़ा देते हैं। इसी समय हमको मलत्याग की इच्छा होती है और हमारे बैठने पर तथा सँवरणी पेशियों के ढीली हो जाने पर मलत्याग हो जाता है। ऊपर की पेशियों के संकोच करने पर उदर के भीतर की दाब बढ़ने से भी मलत्याग में बहुत सहायता मिलती है।
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