मानव विकास के प्रमाण
मनुष्य विकास का प्रत्यक्ष प्रमाण केवल उसके जीवाश्मों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। डार्विन के समय से अबतक प्राइमेटों के जो जीवाश्म प्राप्त हुए हैं, उन्हें दो मुख्य भागों में संगृहीत कर सकते हैं : अवानरीय और वानरीय।
अवानरीय प्राइमेटों के जीवाश्मों का प्रारंभ क्रिटैशस और आर्टनूतन कल्पों में होता है। यद्यपि अभी तक ये यूरोप और उत्तरी अमरीका में ही पाए गए हैं, तथापि ऐसा अन्य स्थानों में निरीक्षण के अभाव के कारण है, न जीवाश्मों के। उपर्युक्त दो स्थानों में सीमित होने के कारण ये प्रारंभिक जीवाश्म आज के आद्य प्राइमेट टार्सियर से मिलते जुलते हैं।
आदिनूतन कल्प के बाद प्राइमेटों का विकास पृथ्वी के दो भागों में विभक्त हो गया। आदिनूतन कल्प के बाद प्राइमेटों का विकास पृथ्वी के दो भागों में विभक्त हो गया। नवीन संसार (उत्तरी और दक्षिणी अमरीका) में विकास प्लेटीराइन (platyrrhine, चिपटी नाकवाले अर्थात् वानर) और प्राचीन संसार (अफ्रीका और एशिया) में कैटाराइन (catarrhine, उभरी और निचले रंध्रयुक्त नाकवाले अर्थात् मानवाकार कपि) की दिशाओं में अग्रसर होने लगा। प्रारंभिक मानवाकार कपियों के जीवाश्मों को निम्नलिखित क्रम में अध्ययन किया जा सकता है :
पैरापिथीकस (Parapithecus)--इस जीव का पता मिस्र में प्राप्त अल्पनूतन कल्प के केवल जबड़ों द्वारा ही लगा है। यद्यपि इसका दंत सूत्र (formula) आधुनिक मानवाकार कपियों के समान था, तथापि जबड़े की बनावट अभी भी टार्सियर जैसी ही थी, जो उसके टार्सियर जैसे पूर्वज से वंशागत होने की ओर संकेत करती है।
प्रोप्लियोपिथीकस (Propliopithecus)--प्रोप्लियोपिथीकस का भी मिस्र के अल्पनूतन युग से प्राप्त हुए एक जबड़े द्वारा ही पता लगा है। अनुमानत: यह छोटे गिब्बन के बराबर था और मानवाकार की दिशा में पैरापिथीकस से एक पग आगे था।
यद्यपि उपर्युक्त दोनों जीवाश्म, केवल जबड़ों के रूप में ही होने के कारण मानव विकास पर अधिक प्रकाश नहीं डालते, फिर भी उनसे निम्नलिखित दो बातों का बोध अवश्य होता है :
(1) अल्पनूतनयुग जैसे पुरातन काल में ही मानवाकार कपि उपस्थित थे तथा
(2) मानवाकार कपि का विकास टार्सियर जैसे प्राइमेट से बिना वानर की अवस्था में गुजरे ही हुआ है।
वानर मानवाकार कपियों से आद्य माने जाते हैं, अतएव मनुष्य की विकास श्रृंखला में वानर अवस्था का अनुपस्थित होना आशा के प्रतिकूल सा जान पड़ता है; परंतु उपर्युक्त जीवाश्म अत्यंत आद्य होते हुए भी वानरों के कोई लक्षण नहीं प्रस्तुत करते, अपितु उनमें मानवाकार कपियों के गुण प्राप्त होते हैं।
ड्रायोपिथीकस (Dryopithecus)--ड्रायोपिथीकस के मध्यनूतन युगीन जीवश्म प्राचीन संसार के कई भागों में प्राप्त हुए हैं। इसके चर्वणक (molar teeth) के चर्वण धरातल की प्रतिकृति गिब्बन, बृहत् कपि और मनुष्य में भी पाई जाती है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि ड्रायोपिथीकस संभवत: मनुष्य सहित सभी मानवाकार कपियों के सामान्य पूर्वज थे।
लिम्नोपिथीकस (Limnopithecus)--पूर्वी अफ्रीका के मध्यनूतन युगीन स्तरों में पाया गया जीवाश्म वर्तमान गिब्बन से काफी मिलता जुलता है। गिब्बन की भाँति इसके रदनक दंत (canine teeth) लंबे थे और बाहु यद्यपि अपेक्षाकृत छोटे थे, फिर भी वानरों के अनुपात में लंबे थे। अतएव इन्हें वानर और मानवाकार कपि के बीच का कहा जा सकता है।
प्राकॉन्सल (Proconsul)--प्रोकॉन्सल का जीवाश्म कीनिया (अफ्रीका) में प्रारंभिक मध्यनूतन युग के स्तरों से प्राप्त किया गया। इनका मुख वानरों का सा, परंतु दंत प्रतिकृति मानवाकार कपियों जैसी थी। नितंबास्तियों से इनके थलगामी (न कि वृक्षवासी) होने का भास होता है। संभवत: ये वनमानुष और गोरिल्ला के पूर्वज रहे होंगे। मध्यनूतन युग के कपियों में केवल ड्रायोपिथीकस को ही मानव विकास की दिशा की ओर अग्रसर कहा जा सकता है, क्योंकि इसके दाँतों के दंताग्रो (cuspo) का प्रतिरूप यद्यपि वर्तमान मनुष्य में नहीं, तो उनमें अवश्य पाया जाता है जो वर्तमान मनुष्य के पूर्वज समझे जाते हैं। इस सत्य में यदि तनिक संशय रह जाता है, तो वह यह कि ड्रायोपिथीकस के रदनक मनुष्य से कहीं अधिक लंबे हैं और मनुष्य और मनुष्य के पूर्वज में इतने लंबे रदनक (जब कि स्वयं मनुष्य में ये इतने छोटे होते हैं) संभव नहीं जान पड़ते। सच तो यह है कि मध्यनूतन युग के स्तरों में पाए जानेवाले सभी जीवाश्मों में रदनक लंबे, नुकीले और निकले हुए हैं, जो मानवविकास का लक्षण नहीं है।
ओरियोपिथीकस (Oreopithecus)--ओरियोपिथीकस का जीवाश्म इटली में टस्कनी की कोयले की खानों के अतिनूतनयुगीन स्तरों से प्राप्त किया गया। इसका छोटा मुँह, ह्रासमान रदनक तथा जबड़ों का आकार वानरों से दूर और मानवाकार कपियों के समीप था। अपने दाँतों की बनावट में यह स्वयं मनुष्य के समान था। यद्यपि इसकी नितंबास्थियाँ वानर के समान थीं, तथापि मेरुदंड की अग्रिम कशेरुकाओं की बनावट से उसके खड़े होकर चलने का संकेत मिलता है। अतएव यदि उपर्युक्त अनुमान सही है, तो हमें ओरियोपिथीकस में नूतन-जीव-महाकल्प के प्रारंभिक मानव का प्रथम दर्शन मिलता है।
आस्ट्रैलोपिथीकस (Australopithecus)--1924 ईदृ में रेमंड डार्ट (Raymond Dart) को दक्षिणी अफ्रीका के टॉग्स (Taungs) नामक स्थान से कई ऐसी खोपड़ियाँ प्राप्त हुईं जो मानवाकार थीं। डार्ट ने उन्हें आस्ट्रैलोपिथीकस का नाम दिया। आस्ट्रैलोपिथीकस का अर्थ है, दक्षिण में पाया जानेवाला कपि, अतएव इसका ऑस्ट्रलिया देश से कोई संबंध नहीं है। 1936 ईदृ में दक्षिणी अफ्रीका के ही स्टर्कफॉण्टीन (Sterkfontein) नामक स्थान से रॉबर्ट ब्रूम (Robert Broom) ने ऑस्ट्रैलोपिथीकस के अन्य जीवाश्म अत्यंतनूतन युग के स्तरों से प्राप्त किए। आद्य मानव के सभी जीवाश्म इसी युग से प्राप्त किए गए हैं, अतएव इसे मानव विकास का युग कहा जाता है। आस्ट्रैलोपिथीकस का जीवाश्म इस युग के अन्य सभी जीवाश्मों में अधिक मानवाकार था। यहाँ तक कि इसके कुछ लक्षण मनुष्य से भी मिलते थे; उदाहरणार्थ, खोपड़ी की मेरुदंड पर अग्रिम स्थिति (उसके खड़े होकर चलने का द्योतक), ललाट का गोलाकार होना, भौं-अस्थियों के भारी होते हुए भी उभार का न होना, जबड़े की आकृति, कृंतकों (incisors) का छोटा तथा कम नुकीला होना (यद्यपि रदनक लंबे थे), कूल्हे की इलियम (ilium) नामक अस्थि का चौड़ा होना तथा अन्य बहुत से गुणों में आस्ट्रैलोपिथीकस मनुष्य के इतने निकट था कि उसे मानव परिवार, "होमिनिडी" (Hominidae), में समाविष्ट करना स्वाभाविक हो जाता है। कपालगुहा के आयतन (600 घन सेंमीदृ) में अवश्य ही वह मनुष्य (कपालगुहा का आयतन 1,000 घन सेंमी) से पिछड़ा था और विशद विचार रखनेवाले इस गुण को अत्यधिक महत्व देते हैं, परंतु जो भी मनुष्य का पूर्वज होगा, उसकी कपाल गुहा वर्तमान मनुष्य से अवश्य कम रहेगी। ऑस्ट्रैलोपिकस में यह बात महत्व की है कि उसकी कपालगुहा का आयतन मनुष्य से कम होते हुए भी वर्तमान मानवाकार कपियों से अधिक था। फिर भी ऑस्ट्रैलोपिथीकस के मनुष्य के पूर्वज होने में एक शंका रह ही जाती है और वह है युग की। यह सर्वविदित है कि जिस युग में ऑस्ट्रैलोपिथीकस था, उसमें उससे अधिक विकसित मानव उपस्थित थे। अतएव मनुष्य का पूर्वज होने के लिये ऑस्ट्रैलोपिथीकस की उपस्थिति और पहले होनी चाहिए थी।
होमोहैबिलिस (Homohabilis)--पूर्वी अफ्रीका के टैंगैन्यीका (Tanganyika) स्थान से होमोहैबिलिस नामक कुछ विकसित मानव आकृति का जीवाश्म प्राप्त हुआ। इसके आविष्कर्ता थे एलदृ एसदृ बीदृ लीके (L. S. B. Leakey), पीदृ वीदृ टोबियास (P. V. Tobias) तथा जे आर नेपियर (J.R. Napier)। इस मानव की लंबाई 4 फुट और हाथ अधिक विकसित थे, जो उपकरण और झोपड़ी बना सकने की उसकी क्षमता की ओर संकेत करता है। उसकी कपालगुहा का आयतन लगभग 680 घन सेंमी (ऑस्ट्रैलोपिथीकस से अधिक) है।
पिथिकैंथ्रॉपस (Pithicanthropus) या जावा का मानव—सेना के सर्जन डादृ युजीन दुब्वा (Eugene Dubois) को अपने विद्यार्थी काल से ही यह विश्वास था कि मनुष्य का जन्मस्थान एशिया में संभवत: जावा (Java) में था। अपनी धारणा की पुष्टि के लिये वे जावा गए और वहाँ के अत्यंतनवीन युग की चट्टानों से कुछ अस्थियाँ प्राप्त कीं, जिन्हें उन्होंने 1894 ईदृ में पिथिकैंथ्रॉपस (अथवा जावा का मानव) के नाम से वर्णित किया। इस जीवाश्म की कपालगुहा 900 घन सेंमी थी, जो ऑस्ट्रैलोपिथीकस से अधिक और मनुष्य से कुछ ही कम थी। जाँघ की हड्डी से इसके सीधे होकर चलने का भी आभास होता है।
साइनैन्थ्रॉपस (Sinanthropus) या चीन का मानव--चीन में पीकिंग से लगभग 40 मील दक्षिण पश्चिम की ओर चाऊकुटीम (Choukouteim) नामक गाँव के, अत्यंतनूतन युग के, मध्यवर्ती स्तरों से एक और मानव जीवाश्म 1927 ईदृ में प्राप्त हुआ, जिसे साइनैन्थ्रॉपस (या चीन का मानव) कहा गया। जावा और चीन के मानवों की अत्यधिक समानताओं के कारण दूसरे को पहले की एक जाति समझा जाता है और बहुधा उसे पिथिकैन्थॉपस पिकिनेन्सिस (Pithicanthropus pekinensis) का नाम दिया जाता है। इस मानव की कपालगुहा (आयतन 900 से 1,300 घन सेंमीदृ) मनुष्य के समान थी तथा इसके जीवाश्मों के साथ पत्थर के अनेक औजार (उपकरण) प्राप्त हुए। इनसे इनमें उद्योगों (आगे देखिए) के प्रचलन का पता चलता है। आसपास कोयले के कण प्राप्त होने से उनके अग्निप्रयोगी, तथा कई लंबी हड्डियों की चिरी दशा में पाए जाने से उनके मानव भक्षी होने का संकेत मिलता है।
हाइडेल्बर्ग मानव (Heidelberg Man)--सन् 1907 में जर्मनी में हाइडेल्बर्ग नामक स्थान में अत्यंतनूतन युग के प्रारंभिक स्तरों से एक जबड़ा प्राप्त हुआ, जिसके दाँत वर्तमान मनुष्य के समान थे। ठुड्डी का अभाव था, अत: स्पष्ट है कि यह पूर्णत: मनुष्य नहीं बन पाया था।
स्वांसकोंब मानव (Swanscombe Man)--सन् 1935 और 36 में एदृ टीदृ मार्स्टन (A. T. Marston) को इंग्लैंड के स्वांसकौंब नामक स्थान में मानव कपाल की भित्तिकास्थि (parietal) की दो हड्डियाँ प्राप्त हुईं। यद्यपि इन अस्थियों की मोटाई मनुष्य की भित्तिकास्थि से अधिक थी, तथापि कपालगुहा का आयतन लगभग 1,300 घन सेंमी (मनुष्य के समान) हो गया था। गुहा के साँचे से यह भी अनुमान लगता है कि मस्तिष्क के धरातल का परिवलन भी बहुत कुछ मनुष्य जैसा ही था।
स्टीनहाइम मानव (Steinheim Man)--सन् 1933 में जर्मनी के स्टीनहाइम नामक स्थान में एक पूर्ण खोपड़ी प्राप्त हुई जिसका काल स्वांसकोंब मानव के समान था। रचना द्वारा यह पिथिकैंथ्रॉपस और मनुष्य के बीच की कड़ी प्रतीत होती है। इसका कपालगुहा का आयतन 1,000 घन सेंमीदृ, भौं की अस्थि घटित तथा जबड़े बहुत कुछ मनुष्य जैसे थे।
निएंडरथल मानव (Neanderthal Man)--सन् 1856 में जोहैन कार्ल फ्यूलरोटे (Johanne Karle Fuhlrotee) नामक स्थान में मानव जीवाश्म प्राप्त हुआ, जिसे निएंडरथल मानव का नाम दिया गया।बाद में लगभग 100 ऐसे ही जीवाश्म संसार के अन्य भागों (फ्रांस, बेल्जियम, इटली, रौडेज़िया, मध्य एशिया, चीन और जापान तक) में मिले। यद्यपि निर्येडरथाल के मानव होने में अब तनिक भी संदेह नहीं है, फिर भी इसके सदृश अस्थियों वाले चेहरे से पुशता का ही भास होता है - भौं की अस्थियाँ उभरी जबड़े बड़े (यद्यपि दाँत सर्वथा मनुष्य समान) तथा ठुड्डी का अभाव था। इसमें कुछ ऐसे भी गुण थे जो वर्तमान मनुष्य के नहीं मिलते, जैसे कपालगुहा के आयतन का 1,600 घन सेंमीदृ (मनुष्य से अधिक) होना और चर्वण दंत गुहिका का बहुत बड़ा होना। इतना ही नहीं उसकी नितंबास्थियाँ (limb bones) मोटी, टेढ़ी और बेडौल थीं, जिससे इसके लड़खड़ा कर चलने का भास होता है। अतएव एक ओर जहाँ इसमें मनुष्य के अनेक गुण थे, तो दूसरी ओर कई बड़ी भिन्नताएँ भी थीं। अतएव, नियेंडरथाल मानव को मनुष्य विकास की मुख्य शाखा की केवल एक उद्भ्रांत उपशाखा ही मान सकते हैं। अंतिम हिमयुग में इस मानव के अवशेषों का न मिलना यह संकेत करता है कि मनुष्य के आगमन पर या तो ये नष्ट कर दिए गए, या संकरण (hybridization) द्वारा उसी के परिवार में विलीन हो गए।
सामाजिक व्यवस्था में नियेंडरथाल मानव अब तक के सब मानवों से आगे थे। इनमें अपने मृतकों को गाड़ने की प्रथा थी ओर इनके औजार उच्चतम थे।
नियेंडरथाल सदृश अन्य अफ्रीकी तथा एशियाई मानव--सन् 1921 में उत्तरी रोडीज़िया (अफ्रीका) से, 1931-32 में जावा की सोलो (Solo) नदी के पास से और सन् 1953 में सल्दान्हा, (Saldanha), अफ्रीका, से मानवाकार खोपड़ियाँ प्राप्त हुईं, जिन्हें क्रमश: रोडीज़िया, सोला और सल्दान्हा मानवों का नाम देते हैं।
ये सभी मानव अपने अधिकांश लक्षणों में नियेंडरथाल मानव सदृश थे, यद्यपि कपालगहा के आयतन में वे नियेंडरथाल से कम, अर्थात् मनुष्य सदृश, ही थे। उपर्युक्त उपलब्धियों से यह पता चलता है कि नियेंडरथाल मानव का विस्तार विस्तृत था।
क्रोमैग्नॉन मानव (Cromagnon Man) था आधुनिक मानव—दक्षिणी फ्रांस में क्रोमैग्नॉन नामक स्थान से वर्तमान मनुष्य के निकटतम पूर्वजों के जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। इन्हें क्रोमैग्नॉन मानव, अथवा "आधुनिक मानव", कहा जाता है। इनकी अस्थियों से न केवल इनके लंबे, सुडौल, सुदृढ़ और बुद्धिमान होने का आभास होता है, वरन् वर्तमान यूरोपीय जातियों से इन्हें पृथक् कर सकना अत्यंत कठिन हो जाता है। चित्रकला इनमें उन्नति पर थी।
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