हित समूह और दबाव समूह में अंतर
बाव गुट कोई नया विचार या सिद्धांत नहीं है। लगभग पचहत्तर वर्ष पूर्व आर्थर बेंटले की पुस्तक दि प्रोसेस ऑफ़ गवर्नमेंट प्रकाशित हुई थी, जिसमें उसने अनौपचारिक प्रक्रियाओं पर अधिक ओर औपचारिक संस्थाओं पर कम जोर दिया है।
दबाव समूह से अर्थ एक स्वैच्छिक संगठन से है जिसका उद्देश्य अपने विशिष्ट हितों की सुरक्षा तथा उन्हें विकसित करना या राजनीतिक व्यवस्था में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना है। यह कुछ हद तक हित समूहों तथा स्वैच्छिक संगठनों से मेल खाता है। दबाव समूह सामान्य तथा सर्वव्यापी हितों से संबंधित होते हैं। लेकिन राजनीति में भागीदारी व भूमिका के रूप में दोनों को समान माना जाता है। इन्हें दबाव समूह इसलिए कहते हैं क्योंकि ये दबाव डालकर राजनीतिक या नीतिगत परिवर्तन लाने का प्रयत्न करते हैं। इस अर्थ में वे राजनीतिक दलों से भिन्न होते हैं। क्योंकि ये न तो राजनीतिक दलों की भांति प्रत्यक्ष चुनाव से कार्यालय में आते हैं और ना ही इनका सरकार की सम्पूर्ण गतिविधियों से संबंध होता है। प्रत्येक समूह अपने सदस्यों के हितों के अनुसार ही कार्य करता है। समूहों की संख्या एवं उद्देश्यों को प्राप्त करने की तीव्रता इनकी गतिविधियों की सामूहिक वैधता तथा राजनीतिक व्यवस्था में समूह की मांगों की पूर्ति की संभावना पर निर्भर करती है।
माइरन वीनर के अनुसार- दबाव समूह से हमारा तात्पर्य शासकीय व्यवस्था के बाहर किसी भी ऐसे ऐच्छिक, किन्तु संगठित समूह से है जो शासकीय अधिकारियों की नामजदगी अथवा नियुक्ति, सार्वजानिक नीति के निर्धारण, उसके प्रशासन और समझौता-व्यवस्था को प्रभावित करने का प्रयास करता है।
भारत में बड़े स्तर पर सुसंगठित दबाव समूह आरम्भ से ही कार्य कर रहे हैं। इसका कारण 1947 के पूर्व उपनिवेश विरोधी संघर्ष की प्रकृति एवं उसके बाद की दलीय व्यवस्था का विकास रहा है। औपनिवेशिक कल में ही अपनी मांगों को पूरा करवाने एवं सुरक्षित करने के लिए विभिन्न वर्गों व् हित समूहके द्वारा आन्दोलन शुरू किए गए जो कि उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के रूप में उभरे। मूलतः आरंभ में कांग्रेस भी इसी प्रकार का एक समूह था जो कि मध्यम वर्गों के लिए ब्रिटिश राज से विशिष्ट मांग कर रहा था जैसे-प्रशासनिक सेवा में नियुक्त होने वाले भारतीयों की संख्या में वृद्धि एवं भारतीय विद्यार्थियों के लिए इंग्लैंड में अधिक आरक्षण इत्यादि। इस तरह भारत में दबाव समूहों का विकास एवं भूमिका महत्वपूर्ण रही है। आधुनिक समय में इनकी भूमिका को सही रूप से समझने के लिए सक्रिय समूहों के प्रकार एवं प्रकृति का विश्लेषण करना होगा।
दबाव समूहों के रूप
आमण्ड एवं पॉवेल ने हित समूहों को चार भागों में विभाजित किया है-
संस्थात्मक दबाव समूह
असामान्य दबाव समूह
संगठित दबाव समूह
असंगठित दबाव समूह
आज भारत में दबाव या हित समूह दो प्रकार के हैं-
संगठित दबाव समूह, जिनका उदय विशिष्ट व्यवसायिक हितों के लिए हुआ, तथा
असंगठित समूह।
संगठित दबाव समूह व्यावसायिक क्षेत्रों से तथा समाज के आधुनिक क्षेत्रों से प्रकट होते हैं जैसे- व्यवसाय समूह, व्यापार संगठन तथा संघ,रोजगार संघ, किसान संगठन इत्यादि। असंगठित समूह में धर्म, जाति, जनजाति या भाषा से जुड़े परम्परागत सामाजिक ढांचे पर आधारित समूह आते हैं।
इन सुसंगठित समूहों के अतिरिक्त ऐसे समूह भी हैं जो कि एक अकेले लक्ष्य को पाने का प्रयत्न करते हैं और जिनका अस्तित्व अपने सामयिक उद्देश्यों को प्राप्त करने तक ही रहता है। इसके अलावा कुछ समूह समय-समय पर उदित होते रहते हैं तथा प्रेस के माध्यम से अपने कुछ निश्चित दावों की स्वीकृति के लिए प्रयत्न करते हैं। लेकिन सही मायने में वे संगठन का रूप नहीं ले पाते हैं। यह लाभ वन्दित व्यक्तिगत ताल-मेल है जो कि अनौपचारिक समूह है। राजनीतिक प्रक्रिया की दृष्टि से संगठित या सहयोगात्मक समूह ही महत्वपूर्ण है।
भारत में मुख्य दबाव गुट एवं अनौपचारिक संघ
भारत में कई प्रकार के दबाव समूह हैं। ये समूह देश की सामाजिक संरचना का प्रतिनिधित्व करते हैं। उद्देश्य या हितों की दृष्टि से भारत में दबाव गुटों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
श्रमिक संघ
देश में मजदूर आंदोलन मुख्य रूप से प्रथम विश्व युद्ध के बाद शुरू हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन के सिलसिले में 1918 व 1920 के दौरान बंबई (मुंबई), कानपुर, जमशेदपुर, मद्रास (चेन्नई) और अहमदाबाद आदि विभिन्न औद्योगिक नगरों में लगातार कई हड़तालें हुई। इसी समय मजदूर संघों की स्थापना का प्रयास किया गया। 1920 में लाला लाजपत राय और एन.एम. जोशी के प्रयास से ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना हुई। 1948 में कांग्रेस ने मजदूरों का एक दूसरा केन्द्रीय संगठन खड़ा किया जो इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस के नाम से जाना गया। वर्तमान में मजदूर संघों का संबंध राजनीतिक दलों से जुड़ा हुआ है। भाजपा के नेतृत्व में इण्डियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस और साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व में ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस क्रियाशील है। भारत के विभिन्न नगरों में इस समय बैंक, रेलवे, बीमा, निगम, सरकारी कार्यालयों और बिजली व जल-आपूर्ति में लगे हुए कर्मचारियों की जो यूनियनें हैं, वे उपरोक्त अखिल भारतीय संगठनों में से किसी एक के साथ संबद्ध हैं।
व्यापारिक समूह
व्यावसायिक हित समूहों में आधुनिक दबाव समूह के रूप में कार्य करने की सामर्थ्य सबसे अधिक है। भारत में 1830 में एक व्यापारी संघ का गठन हो गया था। 1834 में कलकत्ता वाणिज्य मंडल की स्थपाना की गई, जिसकी सदस्यता केवल अंग्रेज व्यापारियों तक ही सीमित थी । भारतीयों ने अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए 1887 में भारतीय वाणिज्य मंडल का गठन किया। वर्तमान समय में फेडरेशन ऑफ इण्डियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री अत्यन्त आधुनिक और प्रभावशाली दबाव समूह माना जाता है। यह लगभग एक लाख से भी ज्यादा छोटी-बड़ी व्यावसायिक इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। वर्ष 1958 के बाद तो फेडरेशन ने लॉबी कार्य हेतु संसदीय सम्बद्ध अधिकारी भी रखे हैं। ये अधिकारी संसद सदस्यों की फेडरेशन के दृष्टिकोणों से परिचित करते हैं और आवश्यक आंकड़ें देकर व्यवसायिक हितों की अभिवृद्धि करते हैं।
किसान संगठन
1917-18 में बिहार के चंपारण जिले में किसानों ने नील बगीचों के मालिकों के विरुद्ध संघर्ष, 1919 के असहयोग आंदोलन के दौरान कई जगहों पर किसानों ने लगान देने से मना कर दिया। गुजरात में बारदोली जिले के किसानों ने वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में एक बहुत बड़ा आंदोलन किया था। 1927 में बिहार किसान सभा और 1935 में उत्तर प्रदेश किसान सभा की नींव डाली गई। 1935 में ही अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना की गई। आज भी किसान सभा साम्यवादी दल की भुजा के रूप में कार्यरत है। अन्य दलों ने भी अपने-अपने संगठन बनाए हैं, जैसे- साम्यवादी दल की हिन्द किसान पंचायत तथा वामपंथी दलों की संयुक्त किसान सभा कभी-कभी सक्रिय हो जाती है। वस्तुतः भारत सरकार की कृषि-नीतियों को प्रभावित करने में किसान संघों की प्रभावशाली भूमिका नहीं रही है। फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि आज तक किसान लॉबी के प्रभाव के कारण ही सरकार कृषि पर आयकर नहीं लगा पायी है। गत वर्षों में महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसानों के एक प्रभावशाली संगठन भारतीय किसान यूनियन का उदय हुआ है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में शरद जोशी के शेतकारी संगठन ने भी किसान शक्ति को संगठित करने का प्रयास किया। 14 जुलाई, 1984 को दिल्ली में किसानों की एक अखिल भारतीय संस्था भारतीय किसान संघ बनाने का प्रयत्न किया गया लेकिन 1989 में ही भारतीय किसान संघ के दो प्रमुख नेताओं महेन्द्र सिंह टिकैत और शरद जोशी के बीच न केवल मतभेद वरन् सीधे टकराव की स्थिति ने जन्म ले लिया और किसानों का या अखिल भारतीय संघ भली भांति स्थापना के पूर्व ही टूट गया।
कर्मचारी संगठन
सरकारी कर्मचारियों के भी अपने-अपने विशिष्ट संगठन हैं। ये संगठन अपने-अपने हितों के संरक्षण के लिए तथा प्रशासन द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप की रोकथाम के लिए विभिन्न स्तरों पर कार्य करते हैं। इनमें ऑल इण्डिया रेलवे मैन एसोसिएशन, ऑल इण्डिया पोस्ट and टेलीग्राम वर्कर्स यूनियन आदि प्रमुख हैं।
साम्प्रदायिक संगठन
कई प्रकार के साम्प्रदायिक संगठन भी अपने संघों के माध्यम से विशिष्ट हितों की अभिवृद्धि में लगे रहते हैं। इन संघों में हिन्दू सभा, कायस्थ सभा, अखिल भारतीय ईसाई परिषद्, पारसी एसोसिएशन आदि प्रमुख हैं।
छात्र संघ
विगत लगभग चार दशकों से छात्र राजनीति में महत्वपूर्ण सामाजिक समूह के रूप में उभरे हैं। राजनीति में छात्रों की भागीदारी की स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान विशेष रूप से 1920 से माना गया है। उस समय छात्रों की भागीदारी का मुख्य लक्ष्य ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना व भारत में तीव्र गति से सामाजिक परिवर्तन लाना था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से छात्र संघों की गतिविधियों का विभिन्न पहलुओं में विस्तार होने लगा। छात्र संघ विभिन्न प्रकार की सुविधाओं की मांग में व्यस्त हो गया। रोजगार अवसरों व शिक्षा पद्धति में परिवर्तन या सुधार के लिए दबाव डालने लगा। इसी समय छात्रों ने स्थानीय राजनीतिक संघर्षों, में भी अपने आपको शामिल कर लिया। 1970 में जयप्रकाश नारायण ने छात्रों को राजनीतिक सुधार संघर्षके लिएराजनीति में भागीदारी का आहान किया, जिससे विश्वविद्यालयों का राजनीतिकरण होना आरम्भ हुआ। अब छात्र संगठन राजनीतिक दलों के लिए विस्तार व नए नेताओं की भर्ती का क्षेत्र बन गए हैं। इसलिए छात्र संघ के चुनावों में शक्ति के लिए संघर्ष होने लगा है तथा धन व शारीरिक बल का असीमित प्रयोग होने लगा है। दलों व राजनीतिक नेताओं के प्रति वफादारी तथा छात्र संघों का उनके द्वारा नियंत्रण सरकार व विश्वविद्यालयों पर दबाव का साधन बन गए हैं और इसमें अनुशासनहीनता को बर्दाश्त किया जाने लगा है तथा छात्र नेताओं को भावी राजनीतिक नेता हेतु सहायता दी जाने लगी है। दूसरी ओर शिक्षा के स्तर में सुधार पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
विचारधारा पर आधारित कई आंदोलन व समूह छात्रों में राजनीतिक समाजीकरण करने तथा आवश्यक राजनितिक जागरूकता पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं हालांकि अभी भी छात्र आंदोलन में निर्देशन व लक्ष्य की कमी है।
अन्य दबाव समूह
व्यापार समूह व सफेद कॉलर सेवार्थी समुदायों सहित श्रमिक संघों एवं संगठनों के अतिरिक्त विभिन्न व्यावसायिक व पेशेवर तथा मुद्दे आधारित समूह भी होते हैं। इसमें वकीलों के संघ, उपभोक्ता हित समूह, पर्यावरणवादी समूह तथा समय-समय पर उठने वाले विषय आधारित समूह शामिल होते हैं। ये समूह अधिकतर स्थानीय या प्रान्तीय स्तर पर ही प्रभावकारी होते हैं। सभी स्तरों पर उदित होने वाले महत्वपूर्ण समूहों में किसान, महिलाएं व छात्र संगठन हैं।
दबाव समूह के तरीके एवं रणनीति
दबाव समूह विभिन्न स्तरों पर राज्य निकायों द्वारा निर्मित एवं लागु की जाने वाली नीतियों को प्रभावित करते हैं। इसलिए दबाव समूहों की सफलता नीति-निर्माण प्रक्रिया पर नियंत्रण पा लेने में मानी जाती है। इस संदर्भ में भारत में अनौपचारिक माध्यम से नीति निर्माण की प्रक्रिया पर दबाव डालने का प्रयास किया जाता है जैसे कि संसद की विशिष्ट समितियों पर दबाव डालकर जो कि ज्यादातर व्यवस्थापिका अधिनियमों की जांच करती है। ये दबाव समूह न केवल संसदीय समितियों को ज्ञापन भेजते हैं अपितु उनसे बातचीत भी करते हैं। सरकार की कई सलाहकारी एवं प्रतिनिधियात्मक समितियां भी होती हैं जिन पर दबाव समूह प्रभाव डालते हैं।
दबाव समूह सरकारी तंत्र पर दलीय एवं विधायी माध्यमों से अनौपचारिक रूप से दबाव डालने के प्रयत्न भी करते हैं। जिसके लिए वे ज्ञापन, व्यक्तिगत मुलाकात, अधिकारियों से संबंध बनाने एवं विधायिका एवं सांसदों से लॉबिंग इत्यादि साधनों का प्रयोग करते हैं। भारत में दबाव समूह प्रत्यक्ष रूप से विशेषतया प्रशासन तथा नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। इसकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि सरकार की कुछ निश्चित कार्यवाहियों को रोकना या नीतियों में सुधार कराना है न कि उन्हें लागू कराना। प्रांतीय एवं स्थानीय प्रशासनिक स्तर पर सरकार इस प्रकार के दबावों से खासकर प्रभावित रही है। गौरतलब है कि सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए दबाव समूह प्रायः धरना, ज्ञापन, हड़ताल, तथा नागरिक अवज्ञा आन्दोलन जैसे साधनों को भी अपनाते हैं। यह विशेषकर छात्रों, शिक्षकों, सरकारी कर्मचारियों तथा श्रमिक संघों के द्वारा अपने हितों को मनवाने के लिए अपनाएं जाते हैं। कई संगठन उग्रवादी गतिविधियों का भी सहारा लेते हैं। सामान्यतः दबाव समूह सदैव एक ही विधि या केवल एक ही विधि के प्रयोग तक सिमित नहीं रहते।
दबाव समूहों की भूमिका
कई ऐसे संगठित समूह होते हैं, जो नीति-निर्माण को अपनी दबाव प्रणाली के माध्यम से प्रभावित करते हैं। भारत में इन समूहों का उदय उपनिवेशकाल से ही आरम्भ हो गया था। यद्यपि ये समूह चुनाव की राजनीति में सीधे भाग नहीं लेते परंतु ये राजनीतिक प्रक्रिया के मूल्यांकन, आलोचना और इसकी दिशा निर्धारण में सक्रिय भाग लेते हैं।
दबाव समूह सामाजिक एकीकरण का वाहन है। इनके द्वारा व्यक्तियों को सामूहिक हित की अभिव्यक्ति के लिए लाया जाता है। इससे केवल जनता एवं अभिजनों में एक पुल के रूप में दूरी ही कम नहीं होती अपितु सम्पूर्ण समाज में विभिन्न परम्परागत विभाजन भी होते हैं। इस प्रकार दबाव समूह समरूप एवं समतल दोनों प्रकार के एकीकरण को बढ़ाते हैं।
दबाव समूह अपनी पसंद के व्यक्ति के विधानमण्डल में चुने जाने का प्रयास करते हैं। वे राजनीतिक दलों को चुनाव के समय मदद करते हैं और चुनावी घोषणापत्र तैयार करते हैं।
दबाव समूह अपने पसंद के व्यक्ति के ऊंची कार्यपालिका पद जैसे कैबिनेट में, उचित विभाग का आवंटन एवं गठबंधन सरकार के चलते प्रधानमंत्री, पर चुने जाने का प्रयास करते हैं तथा इस प्रकार नीति क्रियान्वयन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।
नौकरशाह राजनीतिक रूप से तटस्थ होते हैं और इसलिए दबाव समूहअपने हितों की रक्षा के लिए अच्छी टिप्पणियों द्वारा मानाने का प्रयास करते हैं।
एक तरफ भारत में दबाव समूह प्रशासन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं दूसरी तरफ हितों को हमेशा संयुक्त चैनल से नहीं बताया जाता है तथा ना ही दबाव हमेशा समूह के दबाव का रूप ले पाता है। हितों के ढांचे में अत्यधिक अंतर होने के बावजूद भी व्यक्तिगत व्यापारिक घराने, व्यक्तिगत आस्था पर नियमित संबंध बनाए रखते हैं।
अब दबाव समूह लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अभिन्न, अपरिहार्य एवं सहायक तत्व बनकर उभरे हैं। दबाव समूह राष्ट्रीय एवं विशिष्टहितों का संवर्द्धन करते हैं तथा नागरिक और सरकार के बीच संसार की एक कड़ी बनाते हैं। ये आवश्यक सूचना प्रदान करते हैं और राष्ट्र को राजनीतिक रूप से जीवंत बनाए रखते हैं। आज लोकतांत्रिक राजनीति परामर्श, बातचीत एवं कुछ हद तक सौदेबाजी की राजनीति है। यह सब दबाव समूह की अनुपस्थिति से संभव नहीं है। समाज बेहद जटिल हो गया है और व्यक्ति स्वयं अपने हितों का संरक्षण नहीं कर सकता, उन्हें इस कार्य हेतु दबाव समूह की जरुरत होती है। दबाव समूह बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे विकसित या विकासशील या किसी भी प्रकार की सरकार की आवश्यकता तक सीमित नहीं हैं।
मीडिया दबाव समूह के तौर पर
जनसंचार (मीडिया) राजनीति की विभिन्न घटनाओं एवं आमजन के जीवन को बखूबी प्रस्तुत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। भारत जैसे देशों में जनसंचार (रेडियो, टी.वी., सिनेमा एवं प्रेस) सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है और आमजन के हितों के लिए दबाव समूह के तौर पर कार्य करता है तथा सरकार के सभी कार्यों को प्रकट करता है। जनसंचार ही खुले तौर पर सरकार की आलोचना कर सकता है और विशिष्ट स्थितियों में उनके विचारों को सही तरीके से प्रस्तुत करता है। इससे बढ़कर जनसंचार साझा मंच के सृजन में मदद करता है जो समाज एवं इसकी जरूरतों के मुख्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करता है। वस्तुतः इस समकालीन विश्व में मीडिया समाज के सामाजिक विकास पर ध्यान देकर परिवर्तन के कारक के तौर पर कार्य करता है और इस प्रकार सरकार पर दबाव डालने की मीडिया की भूमिका इसे दबाव समूह की प्रकृति प्रदान करती है जो बेहद महत्वपूर्ण है।
हित समूह राजनीति में
कोई भूमिका निभाते हैं
Hit samuh ke kya karye h
what is the HITH SHAMU .....
Napal m sabse pahle loktanter ki sathpana kab hui?
Dabao samooh kya h
Hit samuh or davav samuh m antar
Hit samuh aur dbaw samuh me kya antar hai
Hit smuh our dabav smuh me kya kya antar hai
Hit samuh aur davab samuh Kya h
हित समूह क्या है इसके कार्यों का वर्णन कीजिए
क्या दबाव समूह किसी राजनीतिक दल मे सम्मिलित हो जाए तो इस से हित समूह पर क्या असर पड़ेगा?
Kmw6gtmdb
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