लेखा परीक्षा के उद्देश्यों
लेखा परीक्षा, अंकेक्षण या ऑडिट (audit) का सबसे व्यापक अर्थ किसी व्यक्ति, संस्था, तन्त्र, प्रक्रिया, परियोजना या उत्पाद का मूल्यांकन करना है। लेखा परीक्षा यह सुनिश्चित करने के लिये की जाती है कि दी गयी सूचना वैध एवं विश्वसनीय है। इससे उस तन्त्र के आन्तरिक नियन्त्रण का भी मूल्यांकन प्राप्त होता है। लेखा परीक्षा का उद्देश्य यह होता है कि लेखा परीक्षा के बाद व्यक्ति/संस्था/तन्त्र/प्रक्रिया के बार में एक राय या विचार व्यक्त किया जाय। वित्तीय लेखा परीक्षा (financial audits) की स्थिति में वित्त सम्बन्धी कथनों (statements) को सत्य एवं त्रुटिरहित घोषित किया जाता है यदि उनमें गलत कथन न हों।
परम्परागत रूप से लेखा परीक्षा मुख्यत: किसी कम्पनी या किसी वाणिज्यिक संस्था के वित्तीय रिकार्डों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये की जाती थी। किन्तु आजकल आडिट के अन्तर्गत अन्य सूचनाएँ (जैसे पर्यावरण की दृष्टि से कामकाज की स्थिति) भी सम्मिलित की जाने लगी हैं।
अंकेक्षण की विशेषताएँ
(1) संस्था- अंकेक्षण किसी भी संस्था (सरकारी, गैर-सरकारी, व्यापारिक तथा गैर-व्यापारिक) के हिसाब-किताब का किया जा सकता है।
(2) स्वतन्त्र व्यक्ति- अंकेक्षण कार्य किसी ऐसेव्यक्ति द्वारा होना चाहिए जिसका व्यापार अथवा संस्था से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न हो। तभी निष्पक्ष जाँच संभव है। अत: वर्तमान में चार्ट र्ड लेखापाल की नियुक्ति की गई हैं।
(3) जाँच का स्वरूप- अंकेक्षण द्वारा की गयी जाँच सिर्फ गणित से सम्बन्धित शुद्धता को ही प्रकट नहीं करती बल्कि यह एक बुद्धिमत्तापूर्ण निष्पक्ष जाँच है जो हिसाब की पूर्ण शुद्धता दर्शाती है।
(4) लेखा पुस्तकें- अंकेक्षण में लेखा-पुस्तकों की जाँच होती है। अंकेक्षक को अपना कार्यक्षेत्र सिर्फ पुस्तकों तक ही सीमित नहीं करना होता है बल्कि अन्य वैधानिक पुस्तकें तथा विभिन्न तथ्यों की जानकारी भी करनी होती हैं।
(5) प्रमाणक एवं प्रपत्र- लेखा पुस्तकों की जाँच प्रमाणकों एवं प्रपत्रों के आधार पर की जाती है, यदि यह उपलब्ध न हों तो इनकी प्रति लिपियों से पुष्टि की जाती हैं।
(6) सूचना एवं स्पष्टीकरण- जाँच का आधार प्रमाणक ही होते हैं फिर भी अंकेक्षक यादें प्रमाणक से सन्तुष्ट नहीं है तो लेन-देनों का सत्यापन करने के लिए सूचनाएँ तथा स्पष्टीकरण माँग सकता है।
(7) बुद्धिमत्तापूर्ण- अंकेक्षण द्वारा की जानेवाली जाँच का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है अत: इस कार्य में बुद्धि एवं चतुराई की आवश्यकता होती है जो इस कार्य के अनुभव से प्राप्त होती है।
(8) जाँच का उद्देश्य- लेखा-पुस्तकों की जाँच का उद्देश्य एक निश्चित अवधि में बनाये गये लाभ-हानि खाते के परिणामों को एवं एक निश्चित तिथि को चिट्ठेमें दर्शाये गये सम्पत्ति एवं दायित्वों का सत्यापन करना है तथा सन्तुष्टि पर प्रमाण-पत्र देना होता है। वास्तव में . अंकेक्षक को अन्तिम खातों की जाँच पर अपनी राय प्रकट करनी होती है।
(9) नियमानुकूलता- भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत कम्पनी का चिट्ठा व लाभ-हानि खाता बनाते समय भी कुछ महत्वपूर्ण नियमों को ध्यान में रखना चाहिए। अत: कम्पनी अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट में लिखना होता है कि चिट्ठा नियमानुकूल है अथवा नहीं।
(10) अवधि- अंकेक्षण साधारणतः एक वित्तीय वर्ष या एक लेखा वर्ष के लेखों का किया जाता है। यदि एक से अधिक वर्ष के लेखों का अंकेक्षण किया जाता है तो यह जाँच अनुसन्धान कहलाती है।
(11) परिणाम- लेखों की जाँच के बाद इसकी सत्यता व औचित्य के विषय में रिपोर्ट देनी होती है। यदि अंकेक्षक किसी बात से असन्तुष्ट है तो इसका वर्णन स्पष्ट रूप से अपनी रिपोर्ट में करता है।
अंकेक्षण की विशेषताएँ
(1) संस्था- अंकेक्षण किसी भी संस्था (सरकारी, गैर-सरकारी, व्यापारिक तथा गैर-व्यापारिक) के हिसाब-किताब का किया जा सकता है।
(2) स्वतन्त्र व्यक्ति- अंकेक्षण कार्य किसी ऐसेव्यक्ति द्वारा होना चाहिए जिसका व्यापार अथवा संस्था से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न हो। तभी निष्पक्ष जाँच संभव है। अत: वर्तमान में चार्ट र्ड लेखापाल की नियुक्ति की गई हैं।
(3) जाँच का स्वरूप- अंकेक्षण द्वारा की गयी जाँच सिर्फ गणित से सम्बन्धित शुद्धता को ही प्रकट नहीं करती बल्कि यह एक बुद्धिमत्तापूर्ण निष्पक्ष जाँच है जो हिसाब की पूर्ण शुद्धता दर्शाती है।
(4) लेखा पुस्तकें- अंकेक्षण में लेखा-पुस्तकों की जाँच होती है। अंकेक्षक को अपना कार्यक्षेत्र सिर्फ पुस्तकों तक ही सीमित नहीं करना होता है बल्कि अन्य वैधानिक पुस्तकें तथा विभिन्न तथ्यों की जानकारी भी करनी होती हैं।
(5) प्रमाणक एवं प्रपत्र- लेखा पुस्तकों की जाँच प्रमाणकों एवं प्रपत्रों के आधार पर की जाती है, यदि यह उपलब्ध न हों तो इनकी प्रति लिपियों से पुष्टि की जाती हैं।
(6) सूचना एवं स्पष्टीकरण- जाँच का आधार प्रमाणक ही होते हैं फिर भी अंकेक्षक यादें प्रमाणक से सन्तुष्ट नहीं है तो लेन-देनों का सत्यापन करने के लिए सूचनाएँ तथा स्पष्टीकरण माँग सकता है।
(7) बुद्धिमत्तापूर्ण- अंकेक्षण द्वारा की जानेवाली जाँच का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है अत: इस कार्य में बुद्धि एवं चतुराई की आवश्यकता होती है जो इस कार्य के अनुभव से प्राप्त होती है।
(8) जाँच का उद्देश्य- लेखा-पुस्तकों की जाँच का उद्देश्य एक निश्चित अवधि में बनाये गये लाभ-हानि खाते के परिणामों को एवं एक निश्चित तिथि को चिट्ठेमें दर्शाये गये सम्पत्ति एवं दायित्वों का सत्यापन करना है तथा सन्तुष्टि पर प्रमाण-पत्र देना होता है। वास्तव में . अंकेक्षक को अन्तिम खातों की जाँच पर अपनी राय प्रकट करनी होती है।
(9) नियमानुकूलता- भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत कम्पनी का चिट्ठा व लाभ-हानि खाता बनाते समय भी कुछ महत्वपूर्ण नियमों को ध्यान में रखना चाहिए। अत: कम्पनी अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट में लिखना होता है कि चिट्ठा नियमानुकूल है अथवा नहीं।
(10) अवधि- अंकेक्षण साधारणतः एक वित्तीय वर्ष या एक लेखा वर्ष के लेखों का किया जाता है। यदि एक से अधिक वर्ष के लेखों का अंकेक्षण किया जाता है तो यह जाँच अनुसन्धान कहलाती है।
(11) परिणाम- लेखों की जाँच के बाद इसकी सत्यता व औचित्य के विषय में रिपोर्ट देनी होती है। यदि अंकेक्षक किसी बात से असन्तुष्ट है तो इसका वर्णन स्पष्ट रूप से अपनी रिपोर्ट में करता है।
लेखांकन व लेखापरीक्षा में अन्तर
क्रमांक अन्तर का आधार लेखांकन अंकेक्षण
1. प्रकृति इसमें पुस्तपालन के कार्य की जाँच से लेकर भूल सुधार व समायोजन तक के सभी कार्य सम्मिलित होते है। इसमें पुस्तपालकों एवं लेखापालको द्वारा फिर गयेलेखों की, जाँच की जाती है तथा नियमानुकूलता की भी जाँच करके रिपोर्ट दी जाती है।
2. प्रारम्भ लेखांकन वहाँ शुरू होता है जहां कि पुस्तपालन समाप्त होता है। अंकेक्षण कार्य लेखांकन की समाप्ति पर प्रारम्भ होता है।
3. उद्देश्य इसका उद्देश्य वित्तीय स्थिति का पता लगाने हेतु लेखों का विश्लेषण करना होता है। इसका उद्देश्य लेखों की सत्यता व औचित्य प्रमाणित करना है।
4. नियमानुसार इसमें कार्य नियमबद्ध विधियाँ से किया जाता है। इसमें अंकेक्षण सिद्धान्तों के अतिरिक्त-बुद्धिमत्ता व सूझ-बुझ का प्रयोग भी करना पड़ता है।
5. पूरक एक अंकेक्षक लेखापालक बन सकता है। आवश्यक नहीं कि एक लेखापालक अंकेक्षक हो।
6. योग्यता कोई भी लेखांकन में प्रवीण व्यक्ति लेखापालक बन सकता है। अंकेक्षण कार्य हेतु एक व्यक्ति को चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट होना जरूरी है।
7. प्रतिवेदन लेखापालक द्वारा प्रस्तुत नहीं की जाती हैं। अंकेक्षक को अपना कार्य समाप्त करके रिर्पोंट देनी होती है।
8. उद्गम सन् 1494 में लेखाकर्म का उद्गम हुआ इसी के साथ दोहरा लेखा प्रणाली के विकास का क्रम प्रारम्भ हुआ। अंकेक्षण के कार्य की शुरूआत भारत में सन् 1913 के बाद हुई, जबकि कम्पनी अधिनियम में अंकेक्षण का प्रावधान किया गया।
9. कार्यक्षेत्र समस्त लेखों व प्रपत्रों को तैयार करना तथा एकत्र करना है। अंकेक्षण का कार्यक्षेत्र. वैधानिक अंकेक्षण में विधान द्वारा तथा निजी अंकेक्षण में नियोक्ता द्वारा किया जाता है।
लेखांकन एक अनिवार्यता है जबकि अंकेक्षण विलासिता है
लेखांकन अनिवार्यता के रूप में व्यावहारिक रूप में लेखांकन का सम्बन्ध व्यवसाय को जीवित रखने के लिए तथा समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने हेतु अनिवार्य हैं। इसके लिए निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं :
(1) आज के युग में किसी व्यवसाय से होनेवालेलाभ अथवा हानि का सही-सही ज्ञान बिना लेखांकन के सम्मव नहीं है। व्यवसायी की आर्थिक स्थिति सुद्दढ़ व आर्थिक साधन बहुत अच्छे हों, तो भी अन्य व्यवसायी के मुकाबले सस्ती बेचने के फलस्वरूप बिक्री अधिक हो लेकिन सिर्फ दिवाला निकलने पर ही उसे पता चलेगा कि उसने वस्तु को लागत से भी कम में बेच दिया है।
(2) व्यवसाय में लेन-देन अधिक होते हैं विशेषतः जहां उधार पर माल अधिक बेचा जाता है वहां देनदारों के नाम याद रखना सम्भव नहीं है अत: लेखांकन अनिवार्य हैं।
(3) एक निश्चित अवधि की समाप्ति पर लाभ हुआ अथवा हानि। इसके लिए लेखांकन अनिवार्य है।
(4) व्यावसायिक लेखा-पुस्तकें यदि सुचारूतरीके से रखी जाय तो चालूवर्ष की आय-व्यय या लाभ-हानि की तुलना पिछले वर्षों के लाभ-हानि से की जा सकती है।
(5) लेखांकन के माध्यम से व्यापारी को अपनी वित्तीय स्थिति का ज्ञान हो जाता है।
(6) कर-निर्धारण में लेखों का बहुत महत्व है। यदि लेखेनियमानुसार रखेहों तो यह बहुत ही सहायक सिद्ध होते हैं।
(7) एक व्यापारी को किन-किन व्यक्तियों को कुल कितना रुपया देना है, यह सूचना लेखांकन से ही मिल सकती है।
(8) अलाभप्रद क्रियाओं को छोड़कर लाभप्रद क्रियाएं प्रारम्भ करके अधिक लाभ कमाया जा सकता है तथा यदि कार्यक्षमता में कमी है तो उनके कारणों को जानकर उन्हें दूर किया जा सकता है। यह कार्य लेखाकर्म द्वारा ही सम्भव है।
(9) किसी व्यवसाय में यदि उचित रूप से लेखा-पुस्तकें रखी जाती हैं तो उस व्यवसाय की प्रतिष्ठा बढ़ती है।
लेखांकन के निम्नलिखित लाभ भी हैं :
(i) ख्याति निर्धारण में सहायक- ख्याति का निर्धारण पिछलेवर्षों के लाभ-हानि के आधार पर किया जाता है, यह कार्य लेखांकन द्वारा ही सम्मव है।
(ii) न्यायालय में प्रमाणक- न्यायालय में व्यापार सम्बन्धी विवादों पर लेखा पुस्तकें प्रमाणस्वरूप रखी जा सकती हैं।
(iii) दिवालिया आदेश प्राप्ति हेतु- यदि व्यापारी अपनी आर्थिक स्थिति बिगड़ने के फलस्वरूप ऋण चुकानेमें समर्थ नहीं है तो लेखों के आधार पर स्थिति विवरण व न्यूनता खाता बनाकर प्रस्तुत कर सकता है।
(iv) लाइसेन्स प्राप्ति सुविधा- आयात-निर्यात व्यापार में लाइसेन्स उसी व्यापार को दिया जाता है जो लम्बेसमय से चला आ रहा है। इसकी पुष्टि सिर्फ व्यापार की लेखा-पुस्तकों से की जा सकती है।
(v) ऋण प्राप्ति की सुविधा- व्यापारी यदि वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करना चाहता है तो ऋणदाता ऋण देने से पूर्व संस्था की आर्थिक स्थिति से सन्तुष्ट होना चाहते है जो कि लेखा-पुस्तकों से ही सम्भव है।
(vi) व्यापार बेचने में सहायक- व्यापार की आर्थिक स्थिति का आधार ही व्यापार का क्रय मूल्य होता है जो किसी भी व्यापार को बेचतेसमय आधार होता है। इस दृष्टि से लेखाकर्म जरूरी है।
लेखाकर्म विलासिता के रूप में
छोटे व्यापारियों के लिए इसे विलासिता माना गया है क्योंकि इनकी सीमित आवश्यकताएं होती हैं किन्तु वर्तमान समय में यह पूर्ण रूप से उचित प्रतीत नहीं होती है।
अंकेक्षण विलासिता के रूप में
(1) धन का दुरूपयोग- अंकेक्षण कार्य हेतुएक योग्य चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट की आवश्यकता होती है जिसका पारिश्रमिक इतना अधिक होता है कि छोटा व्यापारी वहन नहीं कर सकता अत: यह धन का दुरूपयोग माना जाता है।
(2) श्रम की बर्बादी- अंकेक्षण कार्य के लिए बहुत सी औपचारिकताओं की पूर्ति करनी होती है। उदाहरण के लिए, प्रमाणकों को तारीखवार क्रम से रखना ऋणदाताओं व देनदारों की सूचियां बनाना, लेखा-पुस्तकों को व्यवस्थित रखना इत्यादि। इसमें छोटे व्यापारी की बहुत शक्ति नष्ट होती है।
(3) अंकेक्षण की निरर्थकता- अंकेक्षण के लाभों में प्रमुख लाभ है लेखांकन की सत्यता का ज्ञान होना जो कि छोटे व्यापारियों को स्वत: ही पता चल जाता है जबकि बड़े व्यवसाय में यह अंकेक्षण के बाद ही सम्भव है। अंकेक्षण का दूसरा लाभ छल-कपट का पता
लगाना है फिर भी हिसाब-किताब में छल-कपट छिपे रह जाते है, जो अंकेक्षक उचित चतुराई व सावधानी के बावजूद नहीं पकड़ सकता हैं। अत: अंकेक्षण निरर्थक है।
(4) कर्मचारियों की कार्यक्षमता में कमी- अंकेक्षण द्वारा बार-बार स्पष्टीकरण व सूचनाएं मांगने के फलस्वरूप कर्मचारियों के कार्य में बाधा उत्पन्न होती है जिससेकार्यक्षमता में कमी होती है।
(5) प्रतिष्ठा का दिखावा- कुछ छोटे व्यापारी अपने व्यापार की प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से अंकेक्षण का कार्य करवाते हैं जो कि किसी भी प्रकार उचित नहीं है।
(6) समय लगना- अंकेक्षण कार्य में समय अधिक लगता है, क्योंकि अंकेक्षण कार्य एक निर्धारित पद्धति से होता है। छोटे व्यापार के लिए इतना समय बर्बाद करना उचित नहीं हैं।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि छोटे-छोटे व्यापार में अंकेक्षण विलासिता है लेकिन सभी व्यवसायों के लिए अंकेक्षण को विलासिता कहना गलत होगा। छोटी संस्थाओं के जहां एक-दो कर्मचारी हैं तथा लेखाकर्म का कार्य स्वामी एकाकी व्यापारी या साझेदार ही देखते है अत: अंकेक्षण आवश्यक नहीं हैं, लेकिन बड़े व्यवसाय में यह लाभप्रद एवं अत्यधिक आवश्यक है, विलासिता नहीं।
अंकेक्षण का विलासिता न होना
(1) कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि- अंकेक्षण करवाने के फलस्वरूप कर्मचारी की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है क्योंकि वे जानते हैं कि कार्य ठीक से न करनेपर अंकेक्षक द्वारा त्रुटि पकड़ी जा सकती है
(2) कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि-कुशल अंकेक्षण के फलस्वरूप कर्मचारियों अपने-अपनेकार्य में दक्ष हो जाते हैं क्योंकि अंकेक्षक समय-समय पर अपनी रिपोर्ट में तथा अंकेक्षण के दौरान भी कमियों को बताता रहता है व मार्गदर्शन भी कता रहता है।
(3) प्रबन्धकों की कार्यक्षमता में वृद्धि- जब प्रबन्धकों को यह मालूम रहता है कि उनके द्वारा कियेगयेकार्य पर अंकेक्षक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा जो कि सर्वमान्य होगी तो वे अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी से करेंगे।
(4) व्यवसाय के विकास में सहायक- अंकेक्षित हिसाब-किताब पर सभी विश्वास करतेहैं तथा इससे व्यापार की ख्याति में वृद्धि होती है तथा सभी ओर से व्यवसाय को सुविधाएं प्राप्त होती हैं जिससे व्यवसाय का विकास होता हैं।
(5) दिवालिया होने की दशा में निर्णय संभव- यदि लेखा-पुस्तकें ठीक प्रकार रखकर अंकेक्षण करवा रखा है तो न्यायालय द्वारा ऋण मुक्ति आदेश प्राप्त करनेमें सहायक सिद्ध होते हैं। हो सकता है इसके अभाव में समय अधिक लग जाय।
(6) भावी योजना बनानेमें सहायक- प्रबन्धक कई वर्षों के अन्तिम खातों के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तथा यह देखते है कि कार्यक्षमता कि स प्रकार बढ़ायी जा सकती है।
(7) प्लाण्ट एवं मशीन की कार्यक्षमता में वृद्धि- लागत लेखों के अंकेक्षण से यह मालूम होता है कि मशीनों की कितनी कार्यक्षमता है तथा किन-किन कारणों से मशीनों की पूर्ण कार्यक्षमता का प्रयोग नहीं हो पा रहा है। इन कारणों की जानकारी प्राप्त करके कार्यक्षमता को बढ़ाया जा सकता है।
अंकेक्षण की अनिवार्यता
अंकेक्षण से कार्यक्षमता पर प्रभाव पड़ता हैं अत: इसेविलासिता नहीं कहा जा सकता हैं। निम्नाकिंत दशाओं में यह अनिवार्य हैं –
(i) कम्पनी अंकेक्षण की अनिवार्यता
(ii) सहकारी समितियों के लिए
(iii) ट्रस्ट के लिए अंकेक्षण की अनिवार्यता
(iv) सरकारी निगम तथा सरकारी विभागों के लिए
(v) फर्म के लिए आयकर अधिनियम के तहत
(vi) एकाकी व्यापार में आयकर अधिनियम के तहत अनिवार्यता।
इस प्रकार यह कहना पूर्णरूप से सत्य न होगा कि लेखांकन अनिवार्य है और अंकेक्षण विलासिता हैं। छोटे व्यापार में कहीं-कहीं लेखांकन भी विलासिता है जबकि बड़े व्यवसायों के लिए अनिवार्य ही है। किन्तु फिर भी लेखांकन व अंकेक्षण एक सिक्के के दो पहलू हैं। यदि लेखांकन न हो तो अंकेक्षण किसका होगा। और लेखांकन सिर्फ अकेला हो तो उसकी सत्यता की विश्वसनीयता नहीं है।
अशुद्धि व कपट
त्रुटि करना मानव स्वभाव का एक भाग हैं अंकेक्षण का प्रमुख उद्देश्य भी अशुद्धि व गबन (कपट) का पता लगाना व उन्हें रोकना होता हैं।
(क) अशुद्धियां- मुख्य अशुद्धियां निम्नांकित है :-
1. सैद्धान्तिक अशुद्धियां,
2. भूल सम्बन्धी अशुद्धियां,
3, दोहराव सम्बन्धी अशुद्धियां
4. हिसाब सम्बन्धी अशुद्धियां
5. क्षतिपूरक अशुद्धियां
अंकेक्षक त्रुटियों का पता लगाने हेतु प्रारम्भिक लेखों की जाँच, जर्नल की जाँच, रोकड शेष की जाँच, खातों के शेषों की जाँच, सहायक बहियों की खतौनी की जाँच, गत वर्ष के तलपट से मिलान, अन्तर की राशि का पता लगाना, तलपट के जोड की जाँच आदि क्रिया अपना सकता हैं।
(ख) कपट या गबन- ऐसी त्रुटियों जिन्हें सोच समझ कर योजना बद्ध तरीके से सावधानी पूर्वक किया गया है ये निम्नांकित प्रकार की हो सकती है :
व्यावसायिक कपट- जो प्रायः व्यवसाय के स्वामी की बिना सहमति के कियेजातेहैं जैसेरोकड का गबन, माल का गबन, सम्पत्तियों का गबन, श्रम का गबन, सुविधाओं का गबन आदि। जबकि व्यवसाय के स्वामी की सहमति से किये जाने वाले गबन में हिसाब किताब में गड़बड़ी करना जो वास्तविक लाभ को बढ़ाने या घटाने के उद्देश्य से किये जाते हैं। प्रायः बडी संस्थाएं दिखावटी व्यवहारों (window dressing) के माध्यम से जानबूझकर अपने अंशों के मूल्य घटाने या बढ़ाने हेतु, चिट्ठे को ऋण लेने हेतु बैंकर्स की आवश्यकता के अनुरूप बनाने के लिए हिसाब किताब में गड़बड़ी करती हैं।
अशुद्धि एवं कपट में अंतर
क्रमांक अन्तर का आधार अशुद्धि कपट
1. ज्ञान अशुद्धि करने वाले व्यक्ति को ध्यान नहीं रहता कि गलती हो गयी है। यह जानबूझकर किया जाता हैं
2. इरादा प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि उससे अशुद्धि न हो। गबन करने वाला पूर्व निर्धारित इरादे से कपट करता है तथा प्रयासरत रहता है कि पकड़ा न जाये।
3. योजना इसमें योजना इस प्रकार बनाते है जिससे कि गलती की सम्भावना बहुत कम रहे। इसमें गबन की योजना बनाकर कार्य किया जाता है।
4. कारण अशुद्धि का कारण लापरवाही या असावधानी होता हैं। कपट या गबन सावधानी से सोच विचार कर लिया जाता है।
5. पता लगाना नैत्यक जाँच अधिकतर सिद्ध होती है। गबन को पकड़ना अत्यंत कठिन होता है क्योंकि यह बहुत बुद्धिमानी से व व्यवस्थित ढंग से किया जाता है।
6. अपराध की गहनता गलती होना अपराध नहीं है यदि उचित सावधानी के बाद भी हो जाये। क्योंकि मनुष्य दोषशील व्यक्ति है। गबन कपटमय इरादे से करने के फलस्वरूप अपराध है जो की अक्षम्य है।
7. परिणाम गलतियों का परिणाम निश्चित नहीं होता है इससे लाभ-हानि हो सकते हैं या नहीं भी होते है। इसमें एक पक्ष को हानि व दूसरे पक्ष को लाभ होता ही है।
अंकेक्षण की स्थिति
यदि अंकेक्षक अपने कार्य में इतनी सावधानी, कुशलता एवं बुद्धिमानी का प्रयोग करे जितना कि उन परिस्थितियों में सम्मव था और उसने पूर्ण प्रयत्न किया हो जो कि त्रुटियों को ढूंढ निकालने हेतु परम आवश्यक था। यदि फिर भी कपट का पता लगानेमें असमर्थ रहा हो तो अंकेक्षक को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता हैं। अंकेक्षण कार्य का अर्थ यह कभी नहीं होता कि अंकेक्षक ने अशुद्धियों एवं गबन का बीमा कर लिया है, न ही वह इस बात की गारण्टी देता है कि समस्त अशुद्धियों एवं गबन को ढूंढ निकालेगा। उससे सिर्फ यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपना कार्य उचित सावधानी एवं चतुराई से करेगा।
अंकेक्षण को नियंत्रित करने वाले आधारभूत सिद्धान्त
AAS-1 में उन आधारभूत सिद्धान्तों के विषय में बताया गया है जो अंकेक्षक के पेशेवर दायित्वों से सम्बन्धित हैं तथा जिनका पालन अंकेक्षण करते समय अनिवार्य है। AAS-1 में निम्न मूलभूत सिद्धान्तों का समावेश है
1 सहृदयता, वस्तुनिष्ठता व निष्पक्षता
2. गोपनीयता,
3. चातुर्य व दक्षता
4. दूसरों द्वारा निष्पादित कार्य के स्वयं दायी हैं।
5. अंकेक्षण साक्ष्य एकत्रीकरण
6. कार्य नियोजन
7. लेखांकन तंत्र व आन्तरिक नियंत्रण व्यवस्था की जानकारी
8. अंकेक्षण निष्कर्ष तथा रिपोर्ट।
अंकेक्षक को प्राप्त अंकेक्षण साक्ष्य से निकाले गये परिणामों की समीक्षा तथा आकलन कर लेना चाहिए तथा वित्तीय सूचनाओं पर अपना मत व्यक्त करने के लिये आधार के रूप में प्राप्त परिणामों की विधिवत समीक्षा करनी चाहिये। यह समीक्षा तथा मूल्यांकन यही बताती हैं कि क्या:
(क) वित्तीय सूचनाएं ऐसेस्वीकार्य लेखांकन नीतियों का पालन करतेहुये तैयार की गई है जिनको निरन्तर लागू किया गया है ?
(ख) वित्तीय सूचनाएं सम्बद्ध नियमाव लियों तथा वैधानिक मान्यताओं का पालन करती है ?
(ग) जहां भी लागूहो वहां वैधानिक मान्यताओं को ध्यान में रखतेहुए वित्तीय सूचनाओं की उचित प्रस्तुति से सम्बन्धित समस्त सारवान विषयों की पर्याप्त अभिव्यक्ति हुई हैं ?
अंकेक्षण प्रतिवेदन में वित्तीय सूचनाओं पर राय की स्पष्टतः लिखित अभिव्यक्ति का समावेश होना चाहिए।
अंकेक्षण का कार्यक्षेत्र
AAS-2 “आब्जेक्टिव ऐण्ड स्कोप ऑफ द आडित ऑफ फाइनेन्सियल स्टेटमेण्ट” में बताया गया है कि अंकेक्षक की नियुक्ति शर्तों, प्रचलित विधानों आदि को ध्यान रखते हुए अंकेक्षक का क्षेत्र निर्धारित होता हैं। वित्तीय विवरणों पर राय कायम करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करतेहुए लेखांकन अभिलेखों व अन्य सूचनाओं की विश्वसनीयता तथा पर्याप्तता की जाँच कर लेनी चाहिये। इस हेतु अंकेक्षक ऐसी प्रविधियों का पालन करता है जिससे वह यह विश्वास दिला सके कि वित्तीय विवरण किसी उपक्रम की वित्तीय स्थिति व परिचालन परिणामों की सही व उचित छवि प्रस्तुत करते हैं।
अंकेक्षक अपने पेशेवर अनुभव व निर्णयन क्षमता से जाँच के निश्चित मानदण्ड तय करता है ऐसा करते समय उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह अपनी दक्षता क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करे। अंकेक्षक अपनेकार्य को सीमा निर्धारित कर ही कार्य प्रारम्भ करता हैं ऐसी दो सीमाएँ हैं :-विस्तृत सीमा, गहन सीमा। विस्तृत सीमा में अंकेक्षक यह तय करता है कि कितने व्यवहारों के लेखों का अंकेक्षण करना है जबकि गहन सीमा में यह तय करता है कि किन व्यवहारों को गहनता से जाचेंगा व कितनी गहराई से जाँच करनी है।
अंकेक्षण के प्रकार
विधि के अन्तर्गत अनिवार्य अंकेक्षण
1. कम्पनी अधिनियम 1958 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियां
2. बैंकिंग अधिनियम 1949 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियां
3. विद्युत आपूर्ति अधिनियम 1948 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियां
4. सहकारी समिति अधिनियम 1912 के अन्तर्गत आने वाली कम्पनियां
5. पंजीकृत सार्वजनिक या धार्मिक प्रन्यास
6. संसद या विधानसभा के द्वारा पारित विशेष अधिनियमों के अन्तर्गत स्थापित निगम
7. आयकर अधिनियम 1961 की विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत विशिष्ट सत्ताएं
8. सरकारी कम्पनी का अंकेक्षण (धारा 619 के अन्तर्गत)
9. विशेष अंकेक्षण (धारा 233A)
ऐच्छिक अंकेक्षण
1. एकाकी व्यवसायी
2. साझेदारी संस्था
3. संयुक्त हिन्दू परिवार
4. शिक्षण संस्थाएं, क्लब आदि के अंकेक्षण
5. निजी प्रन्यास
व्यावहारिक दृष्टि से
1. चालू अंकेक्षण
2. सामयिक अंकेक्षण
3. आन्तरिक अंकेक्षण
4. अन्तरिम अंकेक्षण
5. स्वतंत्र अंकेक्षण
6. लागत अंकेक्षण
7. प्रबन्ध अंकेक्षण
8. निपुणता अंकेक्षण
9. औचित्य अंकेक्षण
10. निष्पादन अंकेक्षण
अंकेक्षण के लाभ
1. स्वयं के व्यापार के लिए
(i) आर्थिक स्थिति की जाँच
(ii) अशुद्धियों तथा छल कपट पता लगाना
(iii) सुविधा पूर्वक ऋण की प्राप्ति
(iv) साख में वृद्धि
(v) व्यापार के कुशल संचालन के लिए सलाह देना
(vi) कर्मचारियों पर नैतिक दबाव
2. मालिकों के लिए
(i) एकाकी व्यापारी को ठीक कार्य होने पर प्रमाण पत्र मिलना
(ii) प्रन्यास में हिसाब किताब विश्वसनीय होना
(iii) कम्पनी में संचालकों पर नियंत्रण होना
(iv) फर्म में अंकेक्षण होने पर सहायक
3. अन्य
(i) व्यावसायिक झगडों को निपटानेमें सहायक
(ii) सरकारी अनुदान व लाइसेंस आदि लेते समय सहायक
(iii) कर अधिकारियों के लिए सहायक
(iv) ऋणदाताओं के लिए उपयोगी
(v) न्यायालय द्वारा मान्यता
(vi) व्यापारिक क्षति के दावों के निपटारे में सहायक
अंकेक्षण की सीमाएं
अंकेक्षण की प्रविधियाँ कुछ ऐसी होती है कि यह विभिन्न अर्न्तनिहित सीमाओं से ग्रस्त हो जाती हैं। अत: एक अंकेक्षक को इन अर्न्तनिहित सीमाओं को समझना महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि उसकी इस समझ से ही अंकेक्षण के सर्वागीण उद्देश्यों के प्रति स्पष्टता प्राप्त हो सकेगी। सीमाएं निम्नाकिंत प्रकार है :-
1. सम्पूर्ण अंकेक्षण कार्यविधि सामान्यत: आन्तरिक नियंत्रण की एक प्रभावी व्यवस्था की विद्यमानता पर निर्भर करती है।
2. कर्मचारियों की ईमानदारी का पूर्ण प्रमाणन नहीं हैं।
3. अंकेक्षण शत-प्रतिशत शुद्ध ता की गारन्टी नहीं देता हैं।
4. समस्त गबन पकड़े जाना सम्भव नहीं हैं।
5. अंकेक्षक का कार्य सिर्फ राय प्रकट करना हैं।
6. अंकेक्षक व्यवहारों के औचित्य को प्रमाणित नहीं करता हैं।
अंकेक्षण सिद्धान्त, प्रक्रिया व प्रविधि
सिद्धान्त का अर्थ एक सारभूत तथ्य, एक आधारभूत नियम से है। अंकेक्षण के सिद्धान्त ऐसे सारभूत सत्य है जो अंकेक्षण के उद्देश्यों का ज्ञान करातेहैं तथा उन तरीकों को बताते है जिनसे इनकी पूर्ति की जा सकती हैं। अंकेक्षण व आश्वासन मानदण्ड जारी कर चार्टर्ड एकाउटेन्ट्स संस्थान ने इस और पहल प्रारम्भ की है।
अंकेक्षण प्रक्रिया में वे सभी कार्य आते है जो अंकेक्षण सिद्धान्तों के अन्तर्गत किसी जाँच के दौरान अपनायेजाते है अंकेक्षण मानदण्डों के अनुसार क्रियाएं निश्चित की जाती हैं। अंकेक्षण प्रविधि में उन उपायों को सम्मिलित करते हैं जिन्हें लेखा परीक्षण के लिए आवश्यक साक्ष्य (evidence) के रूप में एकत्रित करके लेखा पुस्तकों में लिखे व्यवहारों की शुद्धता जाँच के लिए अपनाते हैं। इसमें भौतिक परीक्षण, पुष्टिकरण, पुर्नगणना, मूल प्रपत्रों की जाँच, रिकार्ड से मिलान, सहायक रिकार्ड की जाँच, पूछताछ करना, क्रमानुसार जाँच करना, सम्बन्धित सूचना से किसी मद का सह-सम्बन्ध बिठाना, वित्तीय विवरणों का विश्लेषण, आदि शामिल हैं। अंकेक्षण प्रविधि व प्रक्रिया में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। अंकेक्षण सिद्धान्तों के आधार पर योजना बनाकर अंकेक्षण प्रक्रिया अपनाई जाती है और साक्ष्य / प्रमाण प्राप्त करने के लिए अंकेक्षक प्रविधियाँ अपनातेहैं। इसके कारण लेखों की शुद्धता प्रमाणित की जा सकती हैं।
Lekha Pariksha ke prathmik uddeshy ki vyakhya
lekhakarm prarambh hota hai Jahan pustpalan samapt hota hai aur unke chal prarambh hota hai Jahan lekhakarm samapt hota hai is kathan ki vyakhya kijiye
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