जसनाथ जी महाराज कतरियासर
राजस्थान के लोकदेवताओं में सिद्घाचार्य जसनाथजी का महत्वपूर्ण स्थान है। सर्वगुणसम्पन्न महापुरूष होने से आपको विशिष्ट विशेषणों से सम्बोधित किया जाता रहा है। इनमें निकलंगदेव और निकलंग अवतार ऐसे विशेषण हैं जिनसे इनकी महानता का महात्म्य स्पष्ट झलकता है। इनके देवत्व और सिद्घत्व के गुणों का महिमा-गान राजस्थान ही नहीं, भारतभर में होता है। पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर शहर से 45 किलोमीटर दूर स्थित सोनलिया धोरों की धरती गांव अंतर्राष्ट्रीय ऊंट उत्सव के अग्रि नृत्य से विश्वविख्यात है जहां जसनाथजी का मुख्य धाम है, जबकि बम्बलू, , एवं में इनके बड़े धाम हैं। इनके अलावा कई स्थानों पर जसनाथजी की बाड़ी उपासना स्थल व अन्य अनेक स्थानों पर आसन और मन्दिर बने हुए हैं। इन्होंने जसनाथजी सम्प्रदाय की स्थापना की। जसनाथी सम्प्रदाय का विधिवत प्रवर्तन वि.संवत् 1561 में रामूजी सारण को छतीस धर्म-नियमों के पालन की प्रतीज्ञा करवाने पर हुआ। रामूजी का विधिववत दीक्षा-संस्कार स्वयं सिद्घाचार्य जसनाथजी ने सम्पन्न करवाया था। सिद्घाचार्य जसनाथजी का आविर्भाव पावन पर्व काती सुदी एकादशी देवउठणी ग्यारस वार शनिवार को ब्रह्मा मुहूर्त में हुआ। ईश्वर किसी न किसी निमित्त को दृष्टिगत रखकर ही अवतार लेते हैं। सिद्घाचार्य जसनाथजी के रूप में उनके अवतार लेने का एक निमित्त यह बताया जाता है कि कतरियासर गांव के आधिपति हमीरजी ने सत्ययुगादि में तपस्या की थी। उसी के वरदान की अनुपालना में भगवान कतरियासर गांव से उत्तर दिशा में स्थित डाभला तालाब के पास बालक के रूप में प्रकट हुए। भगवान ने जसनाथजी के रूप में अवतार लेने के उपरान्त हमीरजी के घर पुत्र के रूप में निवास किया। ये बाल्यकाल से ही चमत्कारी थे। जब वे छोटे थे तो अंगारों से भरी अंगीठी में बैठ गए। माता रूपांदे ने घबराकर जब उन्हें बाहर निकाला तो वे यह देखकर दंग रह गई कि बालक के शरीर में जलने का कोई निशान तक नहीं है। मानो वे स्वयं वैश्वानर हों। अग्नि का उन पर कोई असर नहीं हुआ। धधकते अंगारों पर अग्नि नृत्य करना आज भी जसनाथी सम्प्रदाय के सिद्घों की आश्चर्यजनक क्रिया है, जो देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। जसनाथजी का दूसरा चमत्कार दो वर्ष की अवस्था में माना जाता है जब इन्होंने एक ही जगह बैठकर डेढ़ मण दूध पी लिया। एक अन्य चमत्कार के अनुसार बालक जसवंत ने नमक को मिट्टी में परिवर्तित किया। कतरियासर गांव में नमक के बोरे लेकर आए व्यापारियों ने विनोद में बालक जसवंत से कहा देखो जसवन्त इन बोरों में मिट्टी भरी है। यदि चखने की इच्छा हो तो एक डली तुम्हें दें। तब इन्होंने प्रसाद के रूप में उसे ग्रहण करते हुए कहा मिट्टी तो बड़ी स्वादिष्ट और मीठी है। इस प्रकार सारा नमक मिट्टी में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार के अनेक चमत्कार जसनाथजी के बाल्य जीवन से जुडे़ हुए हैं। इनके चमत्कारों और तपोबल की ख्याति सुनकर ही इनके समकालीन सम्प्रदाय के प्रवर्तक , राज्य के लूणकरण और घड़सीजी, दिल्ली का शाह सिकंदर लोदी इत्यादि इनसे मिलने कतरियासर धाम आए थे। सिद्घाचार्य जसनाथजी छोटेथे तब उनकी सगाई राज्य के गांव के निवासी नेपालजी की कन्या काळलदेजी के साथ हुई। काळलदेजी सती और भगवती का अवतार मानी जाती है।
जसनाथजी ने 24 वर्ष की अल्पायु में जीवित समाधि ले ली। इससे पहले उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य बम्बलू गांव के हरोजी को चूड़ीखेड़ा (हरियाणा) जाकर सती काळलदे को समाधि एवं महानिर्वाण की निर्धारित तिथि की सूचना देकर कतरियासर लाने का आदेश दिया। हरोजी के अनुनय-विनय और निशानी के रूप में जसनाथजी की माला देने पर सती काळलदे के साथ प्यारलदे और उनका अपाहिज भाई बोयतजी रथारूढ़ होकर कतरियासर के लिए रवाना हो गए। कहते हैं तब वहां के बेनीवाल परिवार के 140 सदस्य भी सती के साथ आसोज सुदी ब्, विक्रम संव क्भ्म्फ् को कतरियासर पहुंच गए। जब हरोजी ने गोरखमाळिया जाकर जसनाथजी को सती काळलदेजी के आगमन की सूचना दी तो इन्होंने कहा कि उन्हें यहीं लिवा लाओ। लेकिन सती काळलदेजी के कहने पर जब हरोजी उन्हें सामने पधारने का आग्रह करने दुबारा गए तो वे अपने आसन पर नहीं मिले। बाद में बेनीवाल परिवार और अन्य श्रद्घालु भक्तों की कारूणिक-दशा को देखकर सिद्घाचार्य श्रीदेव जसनाथजी उन्हें दर्शन देने के लिए अपने आदि आसन गोरखमाळिया पर पुन: प्रकट हुए और अपने दिव्य दर्शन से श्रद्घालु भक्तों को निहाल कर दिया। बाद में इनहोंने अपने शिष्यों और अनुयायियों को समाधि खोदने की आज्ञा दी। अपने प्रिय शिष्य हरोजी की ज्ञान-प्रार्थना सुनकर जसनाथजी ने उन्हें और अपने अन्य अनन्य श्रद्घालु भक्तों से कहा कि जब मैं भू-खनन समाधि में बैठकर स्थिर हो जाऊं तो तुम मेरी परिक्रमा देना। इससे तुम्हें अपूर्व ज्ञान की प्राप्ति होगी। इस प्रकार आसोज सुदी , विक्रम संवत् क्भ्म्फ् के दिन सिद्घाचार्य श्रीदेव जसनाथजी जीवित समाधि लेकर अंतर्धान हो गए। उसी समय सती शिरोमणि काळलदेजी ने भी कतरियासर की पावन धरा पर ही समाधिस्थ होकर महानिर्वाण का परमपद प्राप्त किया। आज भी प्रतिवर्ष हजारों श्रद्घालु कतरियासर धाम पहुंचकर सिद्घाचार्य श्रीदेव जसनाथजी एवं सती शिरोमण काळलदेजी के सम्मुख दर्शनार्थ धोक लगाकर धन्य-धन्य होते हैं।
जसनाथजी महाराज ने समाधि लेते समय हरोजी को धर्म (सम्प्रदाय) के प्रचार, धर्मपीठ की स्थापना करने की आज्ञा दी. सती कालो की बहन प्यारल देवी को भेजा. संवत 1551 में जसनाथजी ने में जसनाथ संप्रदाय की स्थापना कर दी थी. दस वर्ष पश्चात संवत 1561 में गाँव ( ) के चौधरी रामू ने प्रथम उपदेश लिया. उन्हें 36 धर्मों की आंकड़ी नियमावली सुनाई, चुलू दी और उनके धागा बांधा.
इस संप्रदाय में तीन वर्ग हैं - 1. सिद्ध 2. सेवक 3. साधू
संप्रदाय का एक कुलगुरु होता है. सिद्धों की दीक्षा सिद्ध गुरु द्वारा दी जाती है. कुलगुरु का कार्य संप्रदाय को व्यवस्थित रखना है. जसनाथ संप्रदाय में पाँच महंतों की परम्परा है. , बंगालू ( ) , एवं ( ) और गाँव ( ) यानि बीकानेर में चार और बाड़मेर में एक गद्दी है. इन पाँच गद्दियों के बाद 5 धाम, फ़िर 12 धाम, और 84 बाड़ी, 1o8 स्थापनाएँ और शेष भावनाएँ. इस प्रकार इस संप्रदाय का संगठन गाँवों तक फैला है.
जसनाथ सिद्धों का प्रारम्भ वाम मार्गी एवं भ्रष्ट तांत्रिकों के विरोध में हुआ था. सामान्य जनता शराब, मांस एवं उन्मुक्त वातावरण की और तेजी से बढ़ रही थी उस समय में जसनाथ संप्रदाय ने इस आंधी को रोका. भोगवादी प्रवृति को रोकने एवं चरित्र निर्माण के उद्देश्य से लोगों को आकर्षित किया और अग्नि नृत्य का प्रचलन कराया. इससे लोग एकत्रित होते थे, प्रभावित होते थे, जसनाथ जी उनको उपदेश देते थे. इस प्रकार उनके सद्विचारों का जनता पर काफ़ी प्रभाव पड़ा. बाद में अग्नि नृत्य इस संप्रदाय का प्रचार मध्यम बन गया. इस संप्रदाय के लोग पुरूष पगड़ी (भगवां रंग) बांधते हैं और स्त्रियाँ छींट का घाघरा पहनती हैं. इनके मुख्य नियम है - प्रतिदिन स्नान के बाद बाड़ी में ज्वार, बाजरा, मोठ आदि दाने पक्षियों को डालना, पशुओं को पानी पिलाना, दस दिन का सूतक पालना, देवी देवताओं की उपासना वर्जित है. मुर्दा को जमीन में गाड़ते हैं. बाड़ी में स्थित कब्रिस्थान में ही मुर्दे गाडे़ जाते हैं और समाधि बनादी जाती है.
इनके तीन मुख्य पर्व हैं-1. जसनाथ जी द्वारा समाधि लेने के दिन यानि जसनाथ जी का निर्वाण पर्व आश्विन शुक्ला सप्तमी को मनाया जाता है. 2. माघ शुक्ला सप्तमी को जसनाथ जी के शिष्य हांसूजी में जसनाथ जी को ज्योति प्रकट होने की स्मृति में मनाते हैं. 3. चैत में दो पर्व - चैत्र सुदी चौथ को सती जी का और तीन दिन बाद सप्तमी को जसनाथ जी का पर्व मनाया जाता है.
सिद्ध लोग कतरियासर में सती के दर्शन करने छठ को आते हैं और रात को जागरण के पश्चात सप्तमी को वापिस चले जाते हैं. की और से आने वाले सिद्ध एवं अन्य सेवक ठहर जाते हैं. और सप्तमी का पर्व वहीं मानते हैं. अन्य पर्व सभी अपने-अपन्व गावों में एक दिन पूर्व जागरण करते है. यह अग्नि नृत्य के समय नगाड़ों एवं मजिरों की ध्वनि के सात भजन गाते हैं. एक प्रकार से यह सम्प्रदाय मुख्यतः जाटों का ही हैजसनाथ जी की सवामनी किस चीज की होती है
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