सामान्य मनोविज्ञान की परिभाषा
समकालीन मनोविज्ञान में विभिन्न कसौटियों के आधार पर अनेक शाखाएं हैं जो विकास की विभिन्न अवस्थाओं और व्यवहारिक प्रयोग में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी हुई विद्या-विशेषों की विस्तृत पद्धतियां हैं। ठोस सक्रियता, विकास तथा मनुष्य के समाज से संबंधों के आधार पर मनोविज्ञान की शैक्षिक, विधिक, चिकित्सीय, तुलनात्मक और अन्य शाखाओं के विपरीत सामान्य मनोविज्ञान, जैसा कि इसके नाम से ही ध्वनित होता है, मनोवैज्ञानिक परिघटनाओं का नियमन करने वाले सामान्य नियमों तथा सैद्धांतिक मूलतत्वों से और मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में प्रयुक्त आधारभूत वैज्ञानिक अवधारणाओं तथा शोध प्रणालियों से संबंध रखता है।
सामान्य मनोविज्ञान को कभी-कभी सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक मनोविज्ञान भी कहा जाता है। इसका कार्य मनोविज्ञान के प्रणालीतंत्र तथा इतिहास का और मानसिक परिघटनाओं की उत्पत्ति, विकास और अस्तित्व के लिए लाक्षणिक सर्वाधिक सामान्य नियमसंगतियों के अनुसंधान के सिद्धांत तथा प्रणालियों का अध्ययन करना है। सामान्य मनोविज्ञान संज्ञानात्मक और सृजनात्मक सक्रियता, संवेदनों, प्रत्यक्षों, स्मृति, कल्पना, चिंतन तथा मानसिक आत्म-नियमन के सामान्य नियमों, व्यक्तित्व की विभेदक मनोवैज्ञानिक विशेषताओं, चरित्र तथा स्वभाव, व्यवहार के मुख्य अभिप्रेरकों, आदि का अध्ययन करता है। सामान्य मनोविज्ञान द्वारा किये गये अध्ययनों के परिणाम मनोविज्ञान की सभी शाखाओं और उप-शाखाओं के विकास का आधार बनते हैं।
इसीलिए, फिलहाल हम सामान्य मनोविज्ञान तक ही सीमित रहेंगे और यहां मनोविज्ञान अनुसंधान के सामान्य सैद्धांतिक तत्वों और मुख्य प्रणालियों तथा मूलभूत संकल्पनाओं का विवेचन और मनोविज्ञान जिन नियमसंगतियों की खोज करता है, उन पर ही अपनी चर्चा केन्द्रित करेंगे। शैक्षणिक उद्देश्य से मनोविज्ञान की मूलभूत संकल्पनाओं को तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है : मानसिक प्रक्रियाएं, मानसिक अवस्थाएं, और मानसिक गुण अथवा व्यक्तित्व की विशेषताएं।
मानसिक प्रक्रियाओं में सामान्यतः संज्ञानात्मक परिघटनाओं को शामिल किया जाता है। ये हैं : संवेदन और प्रत्यक्ष, जो ज्ञानेन्द्रियों पर सीधे प्रभाव डालनेवाली वस्तुओं ( क्षोभकों ) के प्रतिबिंब हैं स्मृति, जो यथार्थ का पुनरुत्पादित प्रतिबिंब है कल्पना और चिंतन, जो प्रत्यक्ष संज्ञान की पहुंच से बाहर स्थित यथार्थ के गुणधर्मों का मनुष्य की चेतना में सामान्यीकृत तथा अपरिवर्तित प्रतिबिंब हैं इच्छामूलक प्रक्रियाएं ( आवश्यकताओं अथवा एक खास ढंग की सक्रियता के लिए प्रेरणाओं का पैदा होना, निर्णय करना और उन्हें अमली रूप देना ) संवेगात्मक प्रक्रियाएं ( भावनाओं का पैदा होना और आवश्यकताओं की तुष्टि, आदि पर निर्भर उनका विकास )।
मानसिक अवस्थाओं में भावनाओं की अभिव्यक्तियां ( चित्तवृत्ति, भाव ) , ध्यान ( एकाग्रता अथवा अन्यमनस्कता ) , संकल्प ( आत्मविश्वास अथवा आत्मसंदेह ) , चिंतन ( शंका ) , आदि आते हैं। मानसिक गुणों अथवा व्यक्तित्व की विशेषताओं में व्यक्ति के मन तथा चिंतन की विशेषताओं, उसके इच्छामूलक क्षेत्र की स्थायी विशेषताओं, जो उसके चरित्र, स्वभाव तथा योग्यताओं में साकार बनती हैं, एक निश्चित ढंग से कार्य करने की पहले से विद्यमान अथवा नयी पैदा हुई प्रेरणाओं, स्वभाव ( उत्तेजनशीलता अथवा भावुकता ) , आदि को शामिल किया जाता है।
बेशक सभी मानसिक परिघटनाओं का उपरोक्त तीन श्रेणियों में विभाजन सर्वथा पारिस्थितिक या सशर्त है। “मानसिक प्रक्रिया” की संकल्पना मनोविज्ञान द्वारा स्थापित परिघटना अथवा तथ्य के अस्थिर, गतिशील स्वरूप पर जोर देती है। इसके विपरीत “मानसिक अवस्था” की संकल्पना में मनोवैज्ञानिक तथ्य के अपेक्षाकृत स्थिर तथा स्थायी होने की मान्यता सम्मिलित है, जबकि “मानसिक गुण” अथवा “विशेषता” में व्यक्तित्व की दत्त विशेषता की स्थिरता पर, उसके स्थायी अथवा आवर्ती स्वरूप पर जोर दिया होता है। किसी भी मानसिक परिघटना ( उदाहरणार्थ, भावनाओं के सहसा उभार ) को समान रूप से मानसिक प्रक्रिया भी कहा जा सकता है ( क्योंकि वह भावात्मक अवस्था की गतिकी को, उसके मंच-सरीखे स्वरूप को अभिव्यक्त करती है ) और मानसिक अवस्था भी ( क्योंकि वह एक निश्चित काल-खंड में मानसिक क्रिया की विशेषता होती है ) तथा व्यक्तित्व की विशेषता की अभिव्यक्ति भी ( क्योंकि इससे व्यक्ति की उत्तेजनशीलता, संयमहीनता जैसे गुण सामने आते हैं )।
सामान्य मनोविज्ञान के मुख्य प्रश्नों के समाधान की कुंजी वस्तुसापेक्ष सक्रियता तथा संप्रेषण में व्यक्तित्व के विकास का सिद्धांत है। वह व्यक्ति को संप्रेषण तथा सक्रियता के कर्ता के रूप में आगे लाता है, उसके संज्ञानात्मक, संवेगात्मक तथा इच्छामूलक क्षेत्रों पर ध्यान संकेंद्रित करता है और उसकी मुख्य मनोवैज्ञानिक विशेषताएं ( स्वभाव, चरित्र, योग्यताएं ) दिखाता है।
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