Hadauti Ka Itihas हाड़ौती का इतिहास

हाड़ौती का इतिहास

GkExams on 20-02-2019

चौहान राजपूतों की 24 शाखाओं में से सबसे महत्त्वपूर्ण हाड़ा चौहान शाखा रही है। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड को हासी के किले से एक शिलालेख मिला था, जिसमें हाड़ाओं को चन्द्रवंशी लिखा गया है।1 सोमेश्वर के बाद उसका पुत्र राय पिथौरा या पृथ्वीराज चौहान राजसिंहासन पर बैठा। पृथ्वीराज चौहान शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी के साथ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात चौहानों के हाथ से भारत-वर्ष का राज्य जाता रहा। फिर भी चौहान शाखाएँ यत्र-तत्र फैलती गयीं और चौहान क्षत्रिय जहाँ-तहाँ अपना शासन करते रहे।2 जब नाडोल के चौहान कुतुबुद्दीन ऐबक से हारकर भीनमाल में गये। उसी समय उस वंश के माणिक्यराय द्वितीय नामक वीर ने मेवाड़ के दक्षिण पूर्व में अपना राज्य स्थापित किया और बम्बावदा को अपनी राजधानी बनाया। माणिक्यराय की छठीं पीढ़ी में हरराज या हाडाराव नामक एक बड़ा प्रतापी वीर उत्पन्न हुआ। हरराज या हाड़ाराव के नाम पर चौहानवंश की इस शाखा का नाम हाड़ावंश पड़ा है, जिसमें कोटा-बूँदी राज्यों का समावेश होता है।3

हाड़ा शब्द की व्युत्पत्ति


हाड़ौती शब्द ‘हाड़ा’ से बना है। हाड़ा शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद रहा है। अभी तक इस सम्बन्ध में कोई सन्तोषप्रद मत प्रतिपन्न नहीं हो पाया है। अनेक किंवदन्तियाँ इस सम्बन्ध में प्रचलित हैं, परन्तु दो को अधिक आश्रय मिला है। उनमें से एक ‘‘अस्थि’’ शब्द से सम्बन्ध रखती है और दूसरी ‘‘हिडि’’ धातु से सम्बन्धित है। पहली अस्थि सम्बन्धित किंवदन्ती यह है कि बीसलदेव चौहान के पोते व अनुराग के बेटे इस्तपाल मुस्लिम शासक गजनी की सेना के साथ युद्ध करते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए और उनकी तमाम हड्डी-पसली जर्जरित हो गई, उनके कटे हुए अंगों (हाड़ों) को एक स्थान पर एकत्रित किया गया। उस समय उनकी कुलदेवी ने आकर उन पर अमृत छिड़क दिया, जिससे वे पुनर्जीवित हो गये। इसी समय से उनके वंशजों को हाड़ा कहा जाने लगा।4

कर्नल टॉड ने उसके लिये इष्टपाल5 शब्द का प्रयोग किया है, इसी को सुख सम्पत्ति राय भण्डारी ने इतिपाल कर दिया है।

प्रसिद्ध पुरातत्त्वेत्ता श्री गौरीशंकर, हीराचन्द ओझा इसे मनगढ़ंत मानते हैं। वे कहते हैं कि भाटों ने ‘‘हाड़ा’’ शब्द को हाड़ (हड्डी) से निकला हुआ अनुमान कर हड्डी के संस्कृत रूप अस्थि से अस्थिपाल नाम गढ़कर अस्थिपाल से हाड़ा नाम की उत्पत्ति होना मान लिया है। यदि वास्तव में उस पुरुष का नाम अस्थिपाल होता तो उसके वंशज हाड़ा कभी नहीं कहलाते6 उनके अनुसार ‘‘हाड़ा’’ शब्द का सम्बन्ध अस्थि से न होकर ’हरराज’ से है। ‘हरराज’ हाड़ा वंश के मूल पुरुष से जिसका उल्लेख मैनाल के शिलालेख7 और नेणसी की ख्यात8 में मिलता है। विक्रम संवत 1445 के मैनाल के शिलालेख में कोटा बूँदी के हाड़ा अपना मूल पुरुष हरराज और ‘‘नैणसी’’ हाड़ा को बताते हैं। श्री ओझा के मत का ख्यात और शिलालेख का ऐतिहासिक आधार होने से वह अधिक प्रमाणित माना जा सकता है।

इसके अतिरिक्त ‘हिड्डी’ धातु को लेकर जो मत चल रहा है, उसमें ऐतिहासिक और भाषा वैज्ञानिक दोनों मतों का समावेश दिखाई पड़ता है। चौदहवीं शताब्दी के आस-पास ‘हाड़ी’ और ‘हाड़ा’ शब्द का प्रयोग परवर्ती अपभ्रंश में और देशी भाषाओं में घुमक्कड़ या घूमने वालों के लिये प्रयुक्त होता था। ऐसा माना जाता है कि हाड़ा जाति के पूर्वज अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये तथा उपयुक्त अवसर प्राप्त करने के लिये इधर-उधर घूमते-फिरते थे। साहस, बल और अतिक्रमणों से अपनी जीविकोपार्जन करते थे।9

चौहटे च्यंतामणि चढ़ी, हाड़ी भारत हाथि।

अतएव उन लोगों को ‘हाड़ा‘ अमिधा प्रदान की गई थी। इस मत में ओझा का मत भी समविष्ट हो सकता है। क्योंकि वे यह मानते हैं, कि ‘हाड़ा‘ नाडोल से मेवाड़ के पूर्वी हिस्से में आये। फिर उनका अधिकार बम्बावदे पर हुआ। वहाँ की छोटी शाखा के वंशज देवा ने अपने पराक्रम के बल पर बूँदी का राज्य मीणों से छीन लिया, तब से उनकी विशेष उन्नति हुई और उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया।10 इस प्रकार इस मत में हिड्डि’ धातु और हरराज दोनों का सम्बन्ध हाड़ा से बन जाता है। 17वीं शताब्दी का हाड़ाओं का सबसे विश्वसनीय प्राचीन काव्य ‘सुर्जन चरित्र’ है एवं हाड़ाओं के इतिहास की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें हाड़ाओं का मूल पुरुष पृथ्वीराज चौहान तृतीय के छोटे भाई माणिक्यराज को माना है। सुर्जन चरित्र का माणिक्यराज और हरराज एक ही व्यक्ति थे इससे ही हाड़ाओं की उत्पत्ति मानी है, हरराज से हाड़ा होना अधिक युक्तिसंगत लगता है।

पृथ्वीराजस्य तस्यैब समो भ्राता जयत्यजः।
माणिक्यराजो मतिमानं येन बुभुजे महीम (13/2)


इसके बाद इसके पुत्रों चण्डराज, भीमराज, विजयराज, रयण, केल्हण, गंगदेव और देवी सिंह का उल्लेख है। देवी सिंह को बूँदी राज्य का संस्थापक माना जाता है।11 समकालीन फारसी स्रोतों और ख्यातों से स्पष्ट है कि पृथ्वीराज चौहान के छोटे भाई का नाम हरराज था। हरराज ने कुछ समय तक अजमेर के आस-पास मुसलमानों से संघर्ष किया और बाद में ऊपरमाल क्षेत्र में चला गया। इस क्षेत्र से कई लेख चौहानों के मिल चुके हैं। कालान्तर में ऊपरमाल में हाड़ाओं का अधिकार हो गया। बम्बावदा में इनका अधिकार लम्बे समय तक था। इस प्रकार हरराज के ऊपरमाल क्षेत्र में रहने एवं वहाँ के वंशजों द्वारा निरन्तर राज्य करने की बात से यह प्रमाणित है कि हाड़ा उसके ही वंशज थे।

हाड़ौती प्रदेश का नामकरण


‘‘हाड़ौती” शब्द का प्रयोग प्रदेश तथा बोली दोनों के लिये होता है। राजस्थान के दक्षिणी-पूर्व भाग पर लगभग पाँच शताब्दियों से हाड़ा राजपूतों का शासन चला आया है। हाड़ा वंश चौहानों की एक प्रमुख शाखा है। चौहानों का सम्बन्ध शाकम्भरी (सांभर) से रहा है। भैसरोड़गढ़ में शाकम्भरी से आकर चौहानों का एक परिवार बस गया, जिसमें हरराज नामक वीर पुरुष हुआ। यही हरराज हाड़ा वंश का प्रवर्तक माना जाता है।12 कर्नल टॉड के अनुसार ‘‘हाड़ौती’’ उस देश का नाम है, जो (चौहानों की एक शाखा) हाडा के अधीन है। बूँदी राज्य की स्थापना के साथ ही हाड़ौती प्रदेश का निर्माण हो गया था, जिसमें कोटा और बूँदी का समावेश होता है।13 डॉ. मथुरालाल शर्मा द्वारा ‘‘वंश भास्कर’’ के आधार पर आषाढ़ बुदी नवमी सन 1241 ई. को राव देवा का बूँदी पर अधिकार स्थापित करना माना जाता हैं।14 यह तो स्वाभाविक है कि हाड़ा राजपूतों द्वारा प्रशासित यह भू भाग तभी से हाड़ौती कहलाने लगा पर इसका तभी से यह नामकरण हो जाने के पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं। 1579 ईं. में कोटिया भील को मारकर कोटा में माधव सिंह ने अपना राज्य विस्तार किया था, तब दो स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना हो गयी थी। शासन सुविधा की दृष्टि से तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने दोनों राज्यों का नाम हाड़ौती रख दिया हो, ऐसी भी संभावना दिखायी पड़ती है।

कोटा संग्रहालय में दो मोहरें रखी हुई हैं, इनमें से एक 1860 ईं. की है। जिस पर इस प्रकार लिखा हुआ है।

’मोहरें एजेन्सी हाड़ौती सन 1860’
तथा दूसरी मोहर सन 1929 ईस्वी की है, जिस पर इस प्रकार लिखा हुआ है :-

‘‘मोहर कचहरी एजेन्ट हाड़ौती अज तरफ गवर्नर जनरल नाजिम आजम मुमालिका महकमा सरकार दौलत मदार अंग्रेज बहादुर कं. 1929 सन।”

इन दोनों मोहरों से शासन सुविधा के लिये हाड़ौती शब्द को गढ़ लेने की बात उचित सी प्रतीत होती है। बूँदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश (कोटा सहित) दीर्घकाल तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने के कारण हाड़ौती के नाम से विख्यात है। अंग्रेजों के सिक्कों को पुष्ट करने हेतु बूँदी के डिंगल कवि और इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस क्षेत्र ‘‘हड्डवती’’ या “हाड़ौती” के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा हैः-

हड्डन करि विख्यात हुव हड्डवती यह देश,
चहुवान कुल चक्र को रवि जह राम नरेश।15


हाड़ौती क्षेत्र के नामकरण के सम्बन्ध में राजस्थानी भाषा और साहित्य के लेखक फतमल ने अपने गीत में हाड़ौती शब्द का इस प्रकार प्रयोग किया है।

‘‘फतमल तू ही है हाड़ौती रो राव।
हूँ रे टोडा की नागरू बामणी।
पाणीडे गई थी रे तालाब।
लसकर आयो रे हाड़ा राव को।16


सन 1518 ई. के कुंभलगढ़ के शिलालेख में भी हाड़ौती शब्द का उल्लेख ‘‘हाड़ावाटी” मिलता है।

हाड़ावटी देशपतीन स जित्वा तन्मण्डल चात्मवशीचकार।17

यह प्रयोग हाड़ावती शब्द का डिंगल भाषागत चारणी का प्रयोग है। जिसमें ट-वर्गीय ध्वनियों का प्रचुरता से प्रयोग मिलता है। डिंगल राजस्थान की शताब्दियों पूर्व से काव्य भाषा रही है और राजस्थान में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। अतः राजदरबार के वातावरण में संपृक्त ‘‘हाड़ावटी’’ शब्द का शिलालेख में प्रयुक्त होना स्वाभाविक लगता है, जो कालान्तर में हाड़ाउती या हाड़ौती रूप धारण कर गया। विभिन्न साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि हाड़ा राज्य की बूँदी में स्थापना के साथ ही शासन सुविधा की दृष्टि से किसी नामकरण की आवश्यकता हुई होगी, तभी से पण्डितों या चारणों द्वारा दिया गया नाम ‘‘हाड़ावती या हाड़ावटी’’ प्रचलित हो गया।

हाड़ौती बोली/भाषा :


हाड़ौती प्रदेश की भाषा का नाम हाड़ौती है। जहाँ प्रमुख रूप से हाड़ा राजपूत बसे हुए हैं। वर्तमान राजस्थान का कोटा, बूँदी व चितौड़ जिले का पूर्वी भाग विशुद्ध हाड़ौती भाषी क्षेत्र है। कोटा जिले की शाहबाद तहसील में मिश्रित हाड़ौती बोली जाती है, जिसे डांगी बोली कहा जाता है। दक्षिण में असनावर, अकलेरा आदि झालावाड़ जिले की तहसीलों में भी हाड़ौती बोली जाती है, यद्यपि असनावर में मालवी का प्रभाव बढ़ता जाता है। खानपुर तहसील हाड़ौती भाषी है। अब राष्ट्रभाषा का प्रचार बढ़ता जा रहा है और इसलिये शिक्षित व्यक्ति आपस में हिन्दी का व परिवार में हाड़ौती का प्रयोग करने लगे हैं। डॉ. ग्रियर्सन ने 1894 से 1920 ई. तक भारत भर की भाषाओं तथा बोलियों का सर्वेक्षण किया तथा वहाँ की बोलियों की प्रचलित नामों को अपनाया। उनहोंने हाड़ौती बोली शब्द का प्रयोग अपने ग्रन्थ में किया है।18

हाड़ौती का व्यवहार बोलचाल में ही रहा है। साहित्य में इसका प्रयोग होने के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। वंश भास्कर के रचयिता सूर्यमल्ल मिश्रण बूँदी के निवासी हैं और उन्होंने अपनी रचना 1841 ई. में आरम्भ की। उन्होंने इसमें संस्कृत, प्राकृत, डिंगल, ब्रज तथा मरुदेशीय भाषा का प्रयोग किया है। हाड़ौती नरेशों का गुणगान करने वाले इस कवि ने हाड़ौती भाषा को अपने ग्रन्थ में स्थान नहीं दिया है। इससे सहज ही शंका हो जाती है कि हाड़ौती नाम की किसी बोली का नामकरण उस समय तक नहीं हुआ होगा।19 हाड़ौती बोली में सबसे प्रथम मुद्रित ग्रन्थ बाईबिल के ‘न्यू टेस्टामेन्ट’ का हाड़ौती अनुवाद है। यह ग्रन्थ 1808 ई. के आस-पास मुद्रित हुआ था।

हाड़ौती की भौगोलिक स्थिति


भारत में चौहान वंशीय हाड़ा राजपूतों का राज्य सर्वप्रथम राजस्थान में बूँदी में स्थापित हुआ था। कोटा के हाड़ा राज्य का निर्माण इसी बूँदी राज्य की उप-शाखा के रूप में हुआ। हाड़ा के आने से पूर्व यह राज्य मालव प्रदेश का एक भाग था। हाड़ाओं का यह राज्य स्थापित होने से इस भू-भाग को हाड़ौती कहा जाने लगा। हाड़ा हाड़ौती प्रदेश में प्रमुख रूप से बसे निवासी नहीं, अपितु यहाँ के शासक रहे हैं। राजस्थान का दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र एक सुनियोजित भौगोलिक इकाई है जिसे हाड़ौती का पठार के नाम से जाना जाता है। इसके अन्तर्गत चार जिले कोटा, बाराँ, बूँदी एवं झालावाड़ सम्मलित है। हाड़ौती का पठार राजस्थान के दक्षिणी पूर्व में (23‘51’ से 25‘27’ उत्तरी अक्षांश एवं 75’15’ से 77‘25’ पूर्वी देशान्तर के मध्य है।20 यह राजस्थान का एक सीमावर्ती भाग है जिसकी पूर्वी दक्षिणी एवं दक्षिणी पश्चिमी सीमा मध्य प्रदेश से संलग्न हैं तथा उत्तरी एवं उत्तरी पश्चिमी सीमाएँ क्रमशः सवाईमाधोपुर, टोंक, भीलवाड़ा एवं चित्तौड़गढ़ जिलों से मिलती हैं।21 हाड़ौती के अन्तर्गत कोटा, बूँदी, झालावाड़ तथा बारां जिले आते हैं। इसका क्षेत्रफल 24,185 वर्ग किलोमीटर है।

हाड़ौती क्षेत्र के उत्तर में आडावला पर्वत की शृंखला से पृथक ढूँढाण (धुन्धुवाट) प्रदेश है, पूर्व में ग्वालियर (गोपाद्रि) के जंगल हैं। इस क्षेत्र के दक्षिण में मालवा प्रदेश है, जिसे आडवाल की अन्य शृंखला हाडौती से पृथक करती है जिसका नाम मुकन्दरा है। पश्चिम की ओर मेवाड़ की वीर भूमि है। चारों ओर से पर्वतों और घने जंगलों से घिरी हाड़ौती भूमि को चम्बल, काली सिन्ध, पार्वती आदि बड़ी व अनेक छोटी-छोटी नदियाँ सींचती हैं। इन नदियों के किनारे गहरे खड्डे और बीहड़ जंगल हैं। जिन्होंने इस क्षेत्र के निवासियों को अत्यन्त साहसी एवं कर्मकुशल बना दिया है। इसलिये इस क्षेत्र के सभी लोग कृषि जीवी बन गये हैं। यद्यपि हाड़ौती क्षेत्र का एक तिहाई से अधिक भाग जंगलों से ढका हुआ है। भूमि पर्वतावेष्टित होने से पहाड़ी है। पर्वत शृंखलाएँ बीच में मैदानी भागों में घुस आई हैं। फिर भी कृषि के लिये मैदानी भागों में पर्याप्त उर्वरा भूमि है। उर्वरता की दृष्टि से हाड़ौती के मैदानी भाग राजस्थान में प्रथम स्थान रखते हैं और उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना की भूमि से होड़ लेते हैं।22

दक्षिणी-पूर्वी हाड़ौती पठार


राजस्थान के 9.6 प्रतिशत भू-भाग को घेरे हुए यह पठार चम्बल नदी के सहारे पूर्वी भाग में विस्तृत है। अरावली का उत्तर-पूर्वी, पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग इस क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। यह मेवाड़ मैदान के दक्षिण-पूर्व में व उत्तर-पश्चिम में अरावली के महान सीमा भ्रंश द्वारा सीमांकित है। इस क्षेत्र की पश्चिमी सीमा उदयपुर के उत्तर में अरावली का स्पर्श करती है तथा हाड़ौती प्रदेश (अर्थात बूँदी, कोटा एवं झालावाड़ राज्य) के पूर्व में चम्बल का पूर्वी किनारा तथा मेवाड़ की दक्षिणी-पूर्वी समतल भूमि भी इस क्षेत्र में आते हैं। चम्बल, बनास, माही एवं उनकी सहायक नदियों द्वारा यह सम्पूर्ण प्रदेश उर्वर एवं समृद्ध है। इसके अतिरिक्त अन्तरराज्यीय व्यापारिक मार्गों के जो दिल्ली, गुजरात और मालवा को जोड़ते हैं, इसी प्रदेश से होकर जाने के कारण यहाँ के निवासियों का सम्पर्क अन्य राज्यों से निरन्तर बना रहा है और राजस्थान की सीमा के पार तब तक फैला हुआ है, जब तक बुन्देलखण्ड के पूर्ण विकसित कंगार दिखाई नहीं देते। हाड़ौती पठार के अन्तर्गत ऊपरमाल का पठार और मेवाड़ का पठार जिसमें राजनीतिक दृष्टि से झालावाड़ से बूँदी और कोटा, चित्तौड़गढ़ भीलवाड़ा और बांसवाड़ा के कुछ भाग सम्मिलित हैं। यह पठारीय भाग आगे चलकर मालवा के पठार में मिल जाते हैं। इस क्षेत्र का अधिकांश भाग चम्बल नदी तथा इसकी सहायक नदियों जैसे कालीसिंध परवन और पार्वती के द्वारा सिंचित है। अतः कृषि के सनदर्भ में यह राजस्थान का महत्त्वपूर्ण भाग है। इसका ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। यह पठार निम्न दो इकाईयों में विभाजित है -

(अ) विन्ध्य कगार भूमि :- यह कगार भूमि क्षेत्र बड़े-बड़े बलुआ पत्थरों से निर्मित है जो स्लेटी पत्थरों के द्वारा पृथक दिखाई देती है। कंगारों का मुख बनास और चम्बल के बीच दक्षिण व दक्षिणी पूर्वी दिशा की ओर है तथा बुन्देलखण्ड में पूर्व की तरफ फैले हुए हैं। उत्तर-पश्चिम में चम्बल के बायें किनारे पर तीव्र ढाल वाले कगार दिखलाई देते हैं। तत्पश्चात एक कंगार खण्ड स्थित है जो धौलपुर और करौली के क्षेत्रों पर फैला है। इस क्षेत्र की कंगार भूमियों की ऊँचाई 350 मीटर से 550 मीटर के बीच है। इसमें रेतीली चट्टानें तथा पत्थर हैं। इन चट्टानों के विशाल रूप चम्बल नदी के बायें किनारे देखे जा सकते हैं।23

(ब) ढक्कन का लावा पठार :- मध्य प्रदेश के विन्ध्य पठार के पश्चिमी भाग तीन सकेन्द्रिय कगारों के रूप में विस्तृत हैं। यह तीन सकेन्द्रीय कगार, तीन प्रमुख बलवा पत्थरों की परित्यक्त शिलाओं के बीच-बीच में स्लेटी पत्थर भी मिलते हैं। दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान की यह भौतिक इकाई ‘‘ऊपरमाल” के नाम से जानी जाती है। यह विस्तृत एवं पथरीली भूमि है जिसमें कोटा, बूँदी पठारी भाग भी सम्मलित है। विन्ध्य कंगारों के आधार तल क्षेत्रों तक ढक्कन ट्रेप लावा के जमाव दिखाई देते हैं। चम्बल और इसकी सहायक नदियाँ जैसे काली सिन्ध और पार्वती ने कोटा में एक त्रिकोणीय कापीय बेसिन का निर्माण किया है जिसकी औसत ऊँचाई 210 मीटर से 215 मीटर के बीच है। बूँदी व मुकन्दवाड़ा की पहाड़ियाँ इसी पठारीय भाग में है। नदियों द्वारा इस पठारीय भाग को काफी काट-छांट कर परिवर्तित किया है। इसी पठारी भाग से बिजौलिया, माताजी का नाला, बुद्धपुरा बेरीसाल बूँदी आदि स्थानों से मकान की छत में काम आने वाली पट्टियाँ, कातलें आदि बहुतायत से निकाले जाते हैं। इस क्षेत्र में गन्ना, चावल, कपास, अफीम, जौ, गेहूँ, चना आदि की खेती भी कापीय एवं काली मिट्टी के क्षेत्रों में की जाती है। इस भाग में पथरीली भूमि तथा पर्वत हैं। पर्वत इस प्रकार के हैं कि उनके बीच कार, मोटर, बैलगाड़ी आदि चलाना भी कठिन है। इसी पठार में कहीं-कहीं पर काली मिट्टी भी मिलती है।24

पहाड़


इस राज्य के बीचों-बीच आड़ावला पहाड़ है जो उत्तर पूर्व में माधोपुर की पहाड़ियों से मिला हुआ है। लाखेरी के पास से यह दोहरी श्रेणी में चलकर राज्य के दक्षिण-पश्चिम में मेवाड़ की पहाड़ियों से जा मिला है। इस प्रकार आड़ावला पहाड़ से इस राज्य के लगभग दो बराबर भाग हो गये हैं। उत्तर का भाग पहाड़ी है, जिसमें एक ही फसल होती है, दक्षिण का भाग समतल है, जो बहुत ही उपजाऊ तथा दो फसली है। बूँदी राज्य में आड़ावला पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी सथूर के पहाड़ की है, जो समुद्र की सतह से 1795 फीट ऊँची है। यह बूँदी नगर के 10 मील पश्चिम की ओर स्थित है। बूँदी नगर के किनारे पर तारागढ़ नामक पहाड़ी 1426 फीट ऊँची है, अजीतगढ़ में तलवास की पहाड़ी 1662 फीट, गेनोली में 1569 फीट और हिण्डोली में 1138 फीट ऊँची पहाड़ियाँ हैं।

नाला


पहाड़ से होकर निकलने वाले तंग रास्तों को यहाँ नाला कहते हैं, ऐसे नालें इस राज्य में पाँच हैं।25

1. एक राजधानी बूँदी में बांदू की नाल के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें होकर कोटा देवली एवं नसीराबाद की छावनी को सड़क गयी है।

2. दूसरा जैतवास नामक गाँव के पास है, जिसमें होकर टोंक का मार्ग है।

3. तीसरा रामगढ़ और खटकड़ के पास है, जहाँ मेज नदी पहाड़ को काटती हुई उत्तर से दक्षिण की ओर जाती है।

4. चौथा राज्य की सीमा पर लाखेरी घाटा है, जो उत्तर पूर्व में लाखेरी कस्बे के पास है।

5. पाँचवा खिणिया का घाटा है, जो उदयपुर राज्य को जाता है।

मुकन्दरा घाटी व दर्रा


मुकुन्दरा घाटी तथा डाग की पहाड़ियों तथा दक्षिणी झालावाड़ तथा कोटा का क्षेत्र मालवा के पठारी क्षेत्र से जुड़ा हुआ भाग है एवं सांस्कृतिक दृष्टि से उल्लेखनीय है। झालरापाटन और पचपहार की समतल भूमि, अकलेरा और मनोहर थाना की घाटियाँ जिसे जलवायु की दृष्टि से उर्वर तथा सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध सिद्ध करते हैं। मालवा के पठारी क्षेत्र का निकटवर्ती होने से मालवी संस्कृति का प्रभाव भी यहाँ की कला पर दृष्टिगत होता है। इस क्षेत्र की आहू, काली सिन्ध, परवन नदियाँ चम्बल की सहायक नदियाँ हैं, जो मध्य प्रदेश में आर्विभूत होकर मालवा के पठार को सिंचित करते हुए झालावाड़ में प्रवेश करती है।

कोटा राज्य का मुख्य पर्वत दर्रा या मुकन्दरा है। यह 1400 से 1600 फीट तक ऊँचा है और कोटा के दक्षिण भाग में उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व को फैला हुआ है। इसकी लम्बाई लगभग 90 मील है। इसकी प्राकृतिक रचना विचित्र है। यह दो समान्तर पर्वत श्रेणियों के रूप में है, जिनका मध्य भाग कहीं-कहीं तीन मील चौड़ा है। इन दोनों श्रेणियों के बीच में सघन और सुन्दर वन हैं और कहीं-कहीं कृषि योग्य भूमि है। पर्वतमालाएँ छोटे-छोटे वृक्षों और झाड़ियों से ढकी रहती हैं। उत्तर की ओर इन्द्रगढ़ में कुछ पहाड़ियाँ हैं, जिनकी ऊँचाई 1500 फीट से अधिक है, परन्तु सबसे ऊँची पहाड़ी इस राज्य के पूर्व में शाहाबाद के इलाके में है, जो मामूनी की पहाड़ी कहलाती है और 1800 फीट ऊँची है। बारहपाटी नामक पहाड़ सांगोद, कुन्जेड़ और खानपुर की निजामतों के बीच में स्थित है। रामगढ़ का पर्वत किशनगंज निजामत में कूल नदी के तट पर है और इसकी रचना बड़ी सुन्दर है। हार की भाँति गोलाकार श्रेणी कितने ही वर्गमील सुन्दर जंगल को घेरे हुए है, जिसमें प्रवेश करने के लिये केवल एक छोटा सा मार्ग है।

जलवायु


हाड़ौती क्षेत्र के बूँदी-कोटा में उपआर्द्र एवं बारां में आर्द्र प्रकृति की जलवायु पाई जाती है। ग्रीष्म ऋतु में औसत तापमान 320 से 380 सेल्सियस व शीत ऋतु में औसत तापमान 140 से 170 सेल्सियस होता है। इस क्षेत्र की वर्षा का वार्षिक औसत 60 से 80 सेमी है। कुछ वर्षा शीत ऋतु में पश्चिम से आने वाले चक्रवातों से भी होती है अन्यथा अधिकांश वर्षा मानसून काल में ही होती है। कभी-कभी मावठ भी होती है। जंगली भाग जलवायु की दृष्टि से इतना हेय है कि पानी और उपजाऊ भूमि होते हुए भी वहाँ बहुत कम लोग बसते हैं। सन 1900 ई. में 42 इंच के लगभग वर्षा हुई थी। यहाँ घनी सवाना और मानसूनी वनस्पति मिलती है यह क्षेत्र बीहड़ों और जंगलों तथा विंध्याचल पठार का भाग समेटे हुए हैं जहाँ चम्बल, बनास आदि नदियों का अपवाह क्षेत्र आता है।26

नदियाँ


इस राज्य की मुख्य नदियाँ चम्बल, कालीसिंध, आउ, नेवज, परवन, पार्वती, अंडेरी और कूनो हैं। ये सब नदियाँ मालवे की उपत्क्या से निकलकर कोटा राज्य के दक्षिणी भाग से निकलने वाली अनेक छोटी-छोटी सहायक नदियों के जल का संग्रह करती हुई अन्त में सभी चम्बल का रूप धारण करके कोटा राज्य को छोड़ देती हैं। चम्बल नदी का प्राचीन नाम चर्मण्यवती है। चम्बल नदी विंध्याचल पहाड़ के उत्तरी पार्श्व से निकलकर मध्य भारत व उदयपुर राज्यों में होती हुई दक्षिण में बूँदी राज्य व कोटा राज्य की सीमा बनाती हुई बहती है। कोटा नगर के नीचे ये खूब गहरी व चौड़ी है। काली सिंध मध्य प्रदेश के मालवा पठार से कोटा राज्य में दक्षिण से प्रवेश करती है और लगभग 35 मील तक कोटा राज्य को ग्वालियर, इंदौर, झालावाड़ राज्य से अलग करती हुई बहती है। आहू नदी से मिलकर यह दर्रे पहाड़ को काटती हुई ठीक उतर दिशा में बहकर पिपलदा गाँव के पास चम्बल से मिलती है। पार्वती चम्बल की सहायक नदी है लगभग 48 मील तक यह कोटा राज्य को ग्वालियर राज्य से और टोंक राज्य को छबड़ा परगने से अलग करती है और फिर लगभग 40 मील तक कोटा राज्य में बहती है। अटरु के पास इसमें अण्डेरी नदी मिलती है। वहाँ पर इस पर बाँध बाँधा गया है और उसमें से नहर निकाली गई है जिससे लगभग 40 गाँवों की भूमि को सींचा जाता है। परवण नदी अजनार एवं घोड़ा पछाड़ नदी के संगम से बनी है। परवण व उजाड़ दोनों नदियाँ काली सिंध में मिलती हैं। कूनो शाहबाद इलाके की एक छोटी सी नदी है।27 काली सिन्ध, परवण, उजाड, छापी एवं आहू नदियाँ बारह मासी है।

बूँदी राज्य में चम्बल की बड़ी सहायक नदी मेज है जो मेवाड़ के पूर्वी भाग के 1700 फीट ऊँचे पहाड़ों से निकलकर श्यामपुरा होती हुई नेगट के पास बूँदी राज्य में प्रवेश करती है। यह बूँदी की उत्तरी तहसीलों हिण्डोली, गोठड़ा, गंडोली में बहती हुई आडावला पहाड़ को खटकड़ के पास काटकर दक्षिण में लाखेरी होती हुई कोटा बूँदी की सीमा पर पाली के पास चम्बल नदी में मिलती है। यह बूँदी राज्य में 29 मील बहती है। मेज की बड़ी सहायक नदियाँ सूकड़ी या मांगली और बेजिन है। सूकड़ी नदी दक्षिणी पश्चिम की पहाड़ियों में होकर मेवाड़ की ओर से आती है और घोड़ापछाड़ तथा तालेड़ा नदियों के पानी को लेकर भैंसखेड़ा के पास मेज नदी में मिल जाती है। ताई नदी से मिलकर यह कूरल नदी कहलाने लगती है। मांगली की सहायक नदी तालेड़ा जो बिजोलिया की झील से निकलकर तालेड़ा तहसील में बहती हुई संगवदा में मांगली नदी से मिल जाती है। बेजिन नदी पश्चिम की ओर मेवाड़ के इटोडा के पहाड़ों से आकर कुछ दूर तहसील हिण्डोली में बहकर जयपुर राज्य में सीमा बनाती हुई तहसील मोठड़ा में होकर सादेड़ा के संगम पर बड़गाँव के पास मेज नदी में मिल जाती है। इसके अलावा बनास नदी तहसील नैनवां में तीन मील के लगभग बहती है।28

मिट्टी


राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी भागों झालावाड़, बूँदी, बारां, कोटा जिलों में मध्यम काली मिट्टी पाई जाती है। इस मिट्टी का रंग गहरे भूरे रंग का मटियाल की तरह होता है। सामान्यतया इन मिट्टियों में फॉस्फेट, नाइट्रोजन व जैविक पदार्थों की कमी मिलती है लेकिन कैल्शियम व पोटाश की मात्रा इनमें पर्याप्त है। यह मिट्टियाँ कृषि प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप व्यवहार करती हैं और व्यापारिक फसलों की अच्छी उपज के लिये उपयुक्त हैं। इसके अलावा कच्छारी मिट्टी नदी-नालों के किनारों तथा उनके प्रवाह क्षेत्र में पाई जाती है। इस मिट्टी में चूना, फास्फोरिक अम्ल और ह्यूमस की कमी पाई जाती है। यह गठन में मटियार से रेतीली दोमट होती है। यह मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है इसमें नाइट्रोजन व लवण पर्याप्त मात्रा में होते हैं। कच्छारी मिट्टी चम्बल एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा जमा की गई है जिसमें मध्य एवं उत्तरी कोटा जिला प्रमुख है इसके अलावा अपरदन से बनी परिवर्तित मृदा लैटराइट है जो लाल एवं भूरे रंग की है। लाल मिट्टी बूँदी की पहाड़ियों तथा हिण्डोली क्षेत्र व मुकन्दवाड़ा की पहाड़ियों पर दिखायी देती है। पर्वतीय ढालों पर मिट्टी की कटान में वृद्धि कर देते हैं। निरन्तर वनों के कटते जाने से भी यह समस्या और अधिक होती जा रही है। इस क्षेत्र में चावल, ज्वार, गन्ना, गेहूँ, जौ, सरसों, चना, मिर्च, अरहर आदि की कृषि होती है।

वनों की स्थिति


हाड़ौती क्षेत्र के चारों जिलों की नदियाँ अपने दोनों किनारों पर विशाल आकार के कोहड़ा, गुलर, जामुन, सिरस, चुरेल, कलम के पेड़ों तथा करोंदे और जाल तथा मकोये की घनी झाड़ियों से आच्छादित रही हैं। इससे न केवल शीतल छाया बल्कि इनकी जड़ों द्वारा पानी रोक लिये जाने से कम वर्षा के काल में भी नदियों में वर्ष पर्यन्त जल प्रवाह बना रहता है और कुओं का जलस्तर भी कम नहीं होता था। इस प्रदेश में कभी भी जल की कमी महसूस नहीं की गई। यहाँ के जंगलों में धव, धोकड़ा, खैर, सालर, बहेड़ा, गुर्जन, खिरनी, खार, तेन्दू तथा खेजड़ा आदि वनस्पतियाँ अधिक पायी जाती हैं। यहाँ से इमारती लकड़ी, चारकोल, जलाऊ लकड़ी, घास, पत्तियाँ, शहद, गोद, कत्था, बीड़ी बनाने के लिये तेंदू के पत्ते और खिलौने बनाने के लिये खिरनी की लकड़ी प्राप्त होती है। धोकड़ा की पत्तियाँ चमड़ा रंगने के काम आती हैं। लकड़ी महूआ, शहद, गोद, मोम आदि जंगल की पैदावार द्वारा यहाँ के निवासी अपना जीवन निर्वाह करते थे। इसके अलावा लोग पशुपालन भी बहुतायत में करते थे। इस क्षेत्र का 25 प्रतिशत से भी अधिक भू-भाग वनाच्छादित था तथा वनों की सघनता सामान्यतः 0.7 से 0.8 तक थी। ग्रामीण क्षेत्रों में यह 0.3 से 0.5 तक थी।

झालावाड़ कोटा तथा बूँदी के शासक शिकार के प्रयोजन से दिलो-जान से अपने वनों की रक्षा करते थे। यद्यपि वन प्रबंधन की विधि वैज्ञानिक आधार पर नहीं थी और प्रशिक्षित वनकर्मी भी नहीं थे। फिर भी कोई व्यक्ति ईंधन के लिये सूखी लकड़ी प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य किसी भी रूप में वृक्षों की कटाई करने की सोच भी नहीं सकता था।29

इस भाग में शुष्क सागवान के वन 75 से 110 से.मी. वर्षा वाले भागों में पाये गये हैं। इन वनों को मानसूनी या चौड़ी पत्ती वाले वन भी कहते हैं। इन वनों के नीचे स्थान-स्थान पर मोटी बेलें व घास भी पाई जाती हैं। पानी की पर्याप्त मात्रा के कारण वृक्षों की ऊँचाई 10 से 21 मीटर तक की होती है। ग्रीष्मकाल में इनकी अधिकांश पत्तियाँ गिर जाती हैं। अतः यह मानसूनी वनों की श्रेणी में आते हैं।30 मुकन्दरा एवं डांग की पहाड़ियाँ चौड़े जंगलों से घिरी हैं जिनमें चीता और पेन्थर जानवर पाये जाते हैं। मैदान संगठित पेड़ों और लकड़ियों से भरे हैं। यह क्षेत्र नीची पहाड़ियों और सतही मैदानों से घिरा हुआ है। इन पहाड़ियों का विस्तार विंध्यांचल तक है।

इन वनों में जंगली सूअर, काला भालू, कृष्ण मृग, चिंकारा, बेकड़ा, नीलगाय, सांभर, खरगोश, गीदड़, लकड़बग्घा आदि पशु पाये जाते हैं। सोरसन गाँव में गोडावन तथा चम्बल में घड़ियाल भी बड़ी संख्या में उपलब्ध है। कौआ, गौरेया, कबूतर, मैना, बुलबुल, मोर, रॉबिन, जंगली मुर्गा, जंगली बत्तख आदि पक्षी पाये जाते हैं। यहाँ की नदियों, झीलों, तालाबों में रोहू आदि मछलियाँ पायी जाती हैं।

उपज


हाडौती क्षेत्र पहाड़ी और नदी-नालों के कारण एवं वर्षा अच्छी एवं उपजाऊ मिट्टी के फलस्वरूप यह प्रदेश मूलतः एक कृषि प्रदेश है। जहाँ रबी एवं खरीफ दोनों फसलों का उत्पादन समान रूप से होता है। इस क्षेत्र के दक्षिणी भाग में काली चिकनी मिट्टी होने के कारण रबी में गेहूँ, जौ, अलसी एवं चना तथा खरीफ में ज्वार, तिल, मक्का, मूँगफली, गन्ना, कपास एवं तम्बाकू आदि फसलें होती हैं।

सिंचाई


हाड़ौती राजस्थान का अधिक वर्षावाला प्रदेश है और यहाँ वर्षपर्यन्त बहने वाली नदी चम्बल है जिसका सिंचाई के लिये समूचित प्रयोग किया गया है। इस क्षेत्र में सिंचाई हेतु प्रचलित सभी साधनों का उपयोग किया गया है। कोटा एवं बूँदी में नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र अधिक है तथा कुओं से भी पर्याप्त सिंचाई होती है, किन्तु झालावाड़ में कुओं द्वारा ही अधिक सिंचाई होती है।

खानें


कोटा, झालावाड़ में बालुकाष्म के विविध प्रकार के पाषाण बहुलता से प्राप्त होते हैं। इनमें से मुख्य खानें झालरापाटन के पास बक्षपुरा, बगदार, भवरसी में, झालावाड़ के दक्षिण पश्चिम में गिन्डोर, गाँवरी और गुढ़ा में झालावाड़ के पश्चिम में जाजपुर, बलगढ़ और झिरनिया में, झालावाड़ के उत्तर में कोटरा, बिलोनिया और खोखन्डा में, छोटी कलामण्डी में रालेटी और कपसिया कुआँ में, बड़ी कलमाण्डी में नाहर सिंधी, सालोटिया और सिवार में है। झालरापाटन के पास की खानों का बालुकाष्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ 30 फीट लम्बे स्तम्भों के लिये पत्थर तथा 12 x 14 फीट की शिलाएँ जो फर्श आदि के लिये उपयोगी है, निकलती हैं। इसके विपरीत मुकन्दरा क्षेत्र के अन्तर्गत गंगधार, डाग, पचपहार और पिरावा में पत्थर की खानें तो नहीं परन्तु कालिमा लिये हुए लाल रंग की ज्वालामुखी चट्टानें हैं। यह पत्थर यहाँ के मंदिरों के निर्माण में प्रयुक्त हुआ है तथा इन पहाड़ियों में कौलवी, बिनायका और हथिया गौड़ में बौद्ध गुफाओं के निर्माण में सहायक सिद्ध हुआ है। ये मंदिर अधिक स्थायी एवं कला के कठिन प्रहारों को सहन करने में अधिक सक्षम सिद्ध हुए हैं।

झील एवं तालाब


बूँदी के उत्तर में मीणा शासक जैता द्वारा चौदहवीं शताब्दी में बनवाया गया जैतसागर तालाब है जो पहाड़ी से सटा हुआ है। राजा भोज के समय का फूलसागर तालाब, महाराव राजा उम्मेद सिंह का नोलखा तालाब, महाराव दुर्जनशाल के समय में कोटा का छत्रविलास तालाब का निर्माण किया। इसके मध्य जगमन्दिर महल का निर्माण किया गया। इसके अलावा झालावाड़ का खड़िया तालाब, काकाजी का कुआँ, चन्द्रावतजी की बावड़ी, मंगलपुरा की बावड़ी, खाड़ी बावड़ी, कृष्ण सागर आदि जलस्रोत हैं। बूँदी की रानीजी की बावड़ी, भावल्दी बावड़ी, गुल्ला बावड़ी नाहरदुस की बावड़ी नागर सागर कुण्ड, कोटा का भीतरिया कुण्ड, दाँत माता कुण्ड, कपिलधारा एवं गागरोन का जलदुर्ग आदि का निर्माण शासकों ने अपनी जनता की सेवा एवं पुण्यार्थ हेतु करवाया था।

दुगारी में कनक सागर झील लगभग चार वर्ग मील है। हिंडोली में रामसागर तालाब पर बांध है इसकी पक्की पाल महाराव रघुवीर सिंह ने बंधवायी थी। नैनवा का नवलसागर तालाब नवल सिंह सोलंकी द्वारा 1403 ई. में बनवाया गया था। बूँदी से चार मील पर फूलसागर है जहाँ बूँदी नरेशों के गर्मियों में निवास करने के लिये महल बने हैं इसी के दक्षिण में जोधसागर है। बूँदी नगर के दक्षिण में नवलसागर है इससे सम्पूर्ण नगर को पेयजल की आपूर्ति होती थी।

इस भौगोलिक समृद्धि के परिणामस्वरूप ही हाड़ौती क्षेत्र में भास्कर्य कला के सर्वोत्तम एवं अवशेष प्राप्त होते हैं। कन्सुआ, बाडोली, अटरू, रामगढ़, झालरापाटन तथा झालावाड में मूर्तिकला के सर्वोत्तम उदाहरण प्राप्त होते हैं। इस क्षेत्र में सांस्कृतिक परम्पराओं का मिश्रण तथा मूर्तिकला में अन्य क्षेत्रीय विशेषताआें की उपस्थिति इसी अन्तरराज्यीय सम्पर्क का परिणाम प्रतीत होती है। क्षेत्र की सम्पन्नता एवं समृद्धि के कारण यहाँ के निवासियों का जीवन सुलभ एवं सुखद रहा तथा उन्हें जीविकोपार्जन से अतिरिक्त पर्याप्त समय एवं सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं। इसी कारण उनकी सामर्थ्य एवं शक्ति का प्रयोग धार्मिक गतिविधियाँ, मंदिर निर्माण आदि के क्षेत्र में अधिक हुआ। उनके धार्मिक विश्वास एवं आस्थाएँ चम्बल के किनारे बाडोली मंदिर समूह तथा चन्द्रभागा के तट पर चन्द्रावती के मंदिर समूहों के रूप में देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त अटरू, विलास, मुकन्दरा, बिजोलिया आदि स्थानों पर भी मंदिरों का निर्माण हुआ। कठिन पटिट्ताश्म युक्त पाषाणों की सुलभता के कारण ये मंदिर अधिक स्थायी एवं काल के कठिन प्रहारों को सहन करने में अधिक सक्षम सिद्ध हुए हैं।

हाड़ौती का इतिहास परिदृश्य
बूँदी


बूँदी जिले में स्थित अरावली पर्वतमाला की तलहटी में तथा चम्बल नदी घाटी में आदिम सभ्यता के चिन्ह पाये गये हैं। लघु पाषाण उपकरणों की उपस्थिति इस क्षेत्र में मानव जीवन की हलचलों का प्रमाण देती है। महाभारत के अनुसार इस क्षेत्र में मत्स्य जाति निवास करती थी। मत्स्य आगे चलकर मीणा कहलाने लगे। वैदिक काल के राजा सुदास ने दस राजाओं के युद्ध में मत्स्य राजा को भी परास्त किया था। मत्स्यों की मुख्य राजधानी बैराठ थी। मौर्यकाल में मत्स्यों की राजनैतिक पहचान बनी हुई थी। बाद में इस क्षेत्र पर समुद्रगुप्त ने अधिकार कर लिया।

बूँदी का उत्तरी पूर्वी क्षेत्र सूरसेन राज्य में आता था जो अलवर, भरतपुर, करौली तथा धौलपुर तक फैला हुआ था, इसकी राजधानी मथुरा थी। हैहयवंशी राजा सहस्रार्जुन इस देश का राजा था। हैहयवंशी यादवों की ही एक शाखा थी। परशुरामजी ने सहस्रार्जुन को मारकर सूरसेन वंश के राजकुमार को पुनः इस देश का राजा बनाया। मौर्यकाल में यह क्षेत्र मगध के अधीन रहा, किन्तु शक राजाओं के काल में यहाँ पुनः स्वतन्त्र राज्य की स्थापना हुई। ईसा से 75 वर्ष पहले यह क्षेत्र शकों के अधीन आ गया था तथा लगभग 250 वर्षों तक उन्हीं के पास रहा।31 बूँदी राजपूताना में चौहान राजवंश मुख्य और सबसे पुराना राज्य है। चौहान वंश का मूल पुरुष चाहमान माना जाता है। इसी शासक के नाम से चौहान इसके वंशज कहलाने लगे। चौहान चव्हाण का अपभ्रंश है। चाहमान अतिशक्तिशाली शासक था और उसके छोटे भाई धनंजय के नेतृत्व में चाहमान ने समस्त भारत पर अधिकार किया और अंतिम समय में चाहमान धार्मिक केन्द्रों की यात्रा करता हुआ पुष्कर में मृत्यु को प्राप्त हुआ।32 हर्षनाथ के शिलालेख में कहा गया है कि चह्वाण वंशजों के प्रारम्भिक शासक अहिछत्र में राज्य करते थे। मन्दिर के इस शिलालेख में राजा गूवक से दुर्लभराज तक आठ राजाओं की वंशावलियों का उल्लेख है।33 इस वंश के शासक गुवक का राज्यकाल 868 ई. के लगभग रहा, इस वंश के शासक चन्दनराज के समय चौहानों और तंवरों के बीच भयंकर संघर्ष हुआ। उसने तवरावति पर हमला कर तवरवंशी राजा रूद्रेण को मार डाला। चन्दनराज का पुत्र उत्तराधिकारी वाक्यपतिराज था, इसने अपने साम्राज्य को विंध्याचल पर्वत तक फैलाया।34 पृथ्वीराज विजय में दी हुई वंशावली के अनुसार वाक्यपतिराज के तीन पुत्र सिंहराज, लक्ष्मण व वत्सराज थे। वाक्यपति की मृत्यु के बाद सिंहराज सांभर का शासक हुआ। प्रबन्ध कोश से ज्ञात होता है कि उसने अजमेर के पास मुसलमान सेनापति हाजीऊदीन को हराया। सिंहराज के पुत्र विग्रहराज व उसके बाद दुर्लभराज वि.स. 1057 तक सांभर में निष्कंटक राज्य करते रहे। वाक्यपतिराज के दूसरे पुत्र लक्ष्मणराज ने मारवाड़ में नाडोल में अपना अलग राज्य स्थापित किया। नाडोल में चौहानों की इस शाखा ने लगभग 200 वर्षों तक राज्य किया। 1200 ईस्वी के लगभग जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने नाडोल पर आक्रमण किया तो वहाँ के चौहान शासक भीनमाल चले गये।35 भीनमाल की चौहान शाखा में माणिकराय द्वितीय प्रसिद्ध शासक हुआ। माणिकराय ने बम्बावदा पर अधिकार करके उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके समय में मेवाड़ के दक्षिण पूर्वी भाग पर चौहानों का राज्य स्थापित हो गया। इसके बाद संभारण, जैतराव, आनंगराव और विजयपाल शासक हुऐ।36 माणिकराय की छठी पीढ़ी में विजयपालदेव का पुत्र हरराज या हाड़ाराव बड़ा प्रसिद्ध नरेश हुआ। हरराज को भाटों ने अपनी बहियों में हाड़ा कहकर सम्बोधित किया है। इसी हाड़ा के नाम पर इसके वंशज हाड़ा कहलाने लगे। हरराज व राव हाड़ा के पीछे कुछ पीढ़ी तक हाड़ा राजपूत बम्बावदे में राज्य करते रहे। इस वंश के बंगदेव का पुत्र कुंवर देवसिंह बड़ा वीर और साहसी शासक हुआ। उसके समय में राज्य पूर्व में भैसरोड़गढ़, पश्चिम में बम्बावदा और मेनाल तक फैल गया। उसने हाड़ा राज्य का विस्तार किया और बूँदी नगर को अपनी राजधानी बनाया।

बारहवीं शताब्दी के मध्य में राजपूतों ने मीणाओं के क्षेत्र पर जबर्दस्त आक्रमण करने आरम्भ कर दिये। इस कारण मीणाओं को अपना मूल स्थान छोड़कर मालवा की तरफ भागना पड़ा। 1143 ई. में मीणाओं की बहुत बड़ी संख्या मालवा के पठार में पहुँची तथा बांदो घाटी में जाकर जम गई जहाँ से परमार विस्थापित हो चुके थे। लगभग एक शताब्दी तक मीणा वहाँ जमे रहे। इनके दक्षिण में भील, उत्तर में कछवाहे, पूर्व में खींची तथा बम्बावदा क्षेत्र में चौहानों का राज्य थे। इन मीणाओं की अपने पड़ोसी राजपूतों से अक्सर लड़ाई होती थी। तेरहवीं शताब्दी में बांदो घाटी में मीणाओं का मुखिया जैता बड़ा शक्तिशाली राजा हुआ।37

अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिये उसने अपने पुत्रों का विवाह राजपूत कन्याओं से करने का निश्चय किया। उनके सम्बन्ध कभी राजपूतों में हो जाया करते थे क्योंकि जो कोई भूमि का स्वामी होता था वही क्षत्रिय कहलाने लगता था। इसलिये उसने अपने कामदार जसराज चौहान के सामने उसकी पुत्रियों का विवाह अपने पुत्रों के साथ करने का प्रस्ताव रखा, किन्तु इन मीणाओं के रीति रिवाज जसराज को पसंद नहीं थे। उसने इस प्रस्ताव को टालना चाहा। अतः उसने अपनी सहायता के लिये बम्बावदा के हाड़ावंशीय राजकुमार देवी सिंह से याचना की। तब दोनों ने मिलकर एक षड़यन्त्र रचा। जसराज ने जैता मीणा को उक्त विवाह की स्वीकृति देकर षड़यन्त्र के अनुरूप बूँदी से 4 कोस दूर उमरथणा नामक ग्राम में विवाह स्थल निश्चित किया। उक्त आयोजन में देवी सिंह भी निमंत्रित थे। सारे बारातियों को राजकुमार देवी सिंह तथा उसके सैनिकों ने मार डाला। 1241 ई. के दिन बूँदी को राव देवी सिंह ने अपने अधिकार में कर लिया।38 देवी सिंह तक बम्बावदा के हाड़ों की स्थिति साधारण ही थी। तदन्तर देवसिंह ने गौड़ सरदार गजमल से खटपुर, मनोहरदास से पाटन, गोड़ों से गेडोली और लाखेरी और उसके बाद जसकरण से कखर के परगने दबा कर बूँदी राज्य को विस्तृत किया, यह क्षेत्र हाड़ौती कहलाया। अपने पिता के प्रति शक्ति प्रकट करने के लिये देवी सिंह ने अमरथूण से पूर्व की ओर गंगेश्वरी देवी का मन्दिर बनवाया जहाँ पर बावड़ी का निर्माण करवाया। देवीसिंह के पिता गंगदेव का निधन होने पर उसने वंशक्रमानुगत राज्य भी बूँदी में मिला लिया। इस प्रकार अपने बाहुबल से विस्तृत राज्य स्थापित करके तथा अनेक प्रबल शत्रुओं की पराजय से अपनी कुल कीर्ति बढ़ाकर वैषाख शुक्ला 9 सम्वत 1400 को अपने ज्येष्ठ पुत्र समरसिंह का अभिषेक कर बूँदी से पाँच कोस दूर उमरथुणा गाँव में मृत्यु पर्यन्त रहा।39

उपरोक्त वर्णन में तिथिक्रम एवं तथ्यों के उल्लेख में परिकल्पना का सहारा लिया गया है। एक तो राव देवा के बूँदी पर अधिकार का वर्ष वि.सं. 1298 (1241 ई.) आंका गया है। इसका तथ्यगत खण्डन करते हुए श्री जे.एस. गहलोत लिखते हैं कि कविवर सूर्यमल्ल मिश्रण ने ‘वंश भास्कर’ में देवा का मीणाओं को मार कर बूँदी पर अधिकार विसं. 1298 में करना लिखा है परन्तु यह प्रमाणित ज्ञात नहीं होता है क्योंकि देवा के प्रपितामह विजयपाल वि.सं. 1343 से 1354 (1286-1297ई.) का शिलालेख बूँदी शहर के पास केदारनाथ महादेव मन्दिर से मिल चुका है। यदि हम इनके मध्य के प्रत्येक राजा का कार्यकाल 20 वर्ष मानें तो देवा का समय वि.सं. 1394 (1337 ई.) के लगभग निकलता है।

कर्नल टॉड ने ‘एनाल्स एण्ड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में भी देवा का विक्रम सम्वत 1398(1341ई) में बूँदी पर अधिकार होना लिखा है। अतः यही समय ठीक जान पड़ता है।

‘गज नव बारह शब्द गत, सक विक्रम सम्बन्ध।
दिन नवमी आषाढ़ बदी, मीणा तोड़ि मदन्ध।।
मारि सकल इमि पाई मधु, राखि सनातन राह।
धकि लीघी बूँदी घरा, देवे कँवर दुबाह’।। वंश भास्कर ।।


समर सिंह (1343-1346 ई.)


राव देवी सिंह का पुत्र समर सिंह 1343 ई. में गद्दी पर बैठा। इसने कैथून, सीसवली, बड़ौद, रैलावन, रामगढ़, मऊ और सागौर आदि स्थानों के गोड़, पंवार तथा मेड़ आदि राजपूतों को हटा कर उनको अपना सामन्त बनाया40 तथा अपने पैतृक राज्य को सुदृढ़ किया। इस समय हाड़ों का राज्य चम्बल नदी के बाँये किनारे तक फैल चुका था, परन्तु चम्बल के दाहिने किनारे पर कोटा से लगभग पाँच मील दक्षिण-पश्चिम में अकेलगढ़ भीलों की राजधानी थी। अकेलगढ़ दक्षिण-पूर्व में मुकुन्दरा पर्वत की श्रेणियों के साथ-साथ भील लोग मनोहर थाने तक फैले हुऐ थे। भीलों का प्रसिद्ध सरदार कोटया था जिसके नाम पर कोटा नगर बसा था। अकेलगढ़ के पास कोटया भील का समर सिंह से भारी युद्ध हुआ जिसमें भीलों के 900 व हाड़ों के 300 सिपाही मारे गये। कोटया रण से भागकर अपने प्राणों की रक्षा करने के लिये कहीं छिप गया।41 इस प्रकार विजय होकर बूँदी पहुँचने के पश्चात समर सिंह ने अपने तृतीय पुत्र जैतसी का विवाह कैथून के तँवर सरदार की पुत्री से कर दिया। जब जैतसी अपने ससुराल में ठहरा हुआ था तो अकेलगढ़ के भीलों का उच्छेद करके उसने अपने लिये एक छोटा सा राज्य स्थापित करने की योजना की। अपने ससुर की अनुमति से और पिता की सहायता से उसने भीलों के साथ युद्ध करके उनका नाश किया। कोटया भील लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध में जैत सिंह के पक्ष में सैलार खाँ नामक पठान भीलों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार अकेलगढ़ के भीलों को मारकर जैत सिंह ने कोटा नगर पर अधिकार कर लिया। सैलार खाँ की स्मृति में सैलारगाजी का दरवाजा बनवाया गया। समर सिंह के चार पुत्र नरपाल, हरपाल, जैत सिंह और डुंगर सिंह थे। ज्येष्ठ पुत्र नरपाल बूँदी का स्वामी हुआ। हरपाल को जंजावर की जागीर मिली। जैतसिंह के पास कोटा परगना रहा व बूँदी के राजकुमार की जागीर में रहने लगा। जैतसिंह अपने को कोटा राज्य का अधिपति मानते हुए भी बूँदी राज्य के अधीन रहे।

हाड़ा राव नरपालजी (1349-1370 ई.)


समर सिंह की मृत्यु के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र नरपालजी बूँदी के सिंहासन पर बैठे और जैत सिंह कोटा में राज्य करता रहा42 और अपने बड़े भाई की सेवा करता रहा। जब नरपालजी ने टोडा के सोलंकी सरदार रोपाल के साथ युद्ध किया तो जैतसिंह उसमें लड़ता हुआ मारा गया। अपने पिता की भाँति नरपालजी ने चम्बल के दाहिने तट पर अपना राज्य बढ़ाया। उसने पहले पलायथे के महेशदान खींची पर चढ़ाई की। प्रथम बार नरपालजी हार गये, परन्तु दूसरी बार की चढ़ाई में महेशदान ने रणक्षेत्र से भागकर अपने प्राणों की रक्षा की और नरपालजी ने उसके भाई पहाड़ सिंह को मारकर पलायथे के किले पर अपना अधिकार जमाया। इस युद्ध में नरपालजी के पुत्र हल्लू ने बड़ी वीरता दिखाई। 1428 ई. के शृंगी स्थान से मिले शिलालेख से ज्ञात होता है कि मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह ने इनको हराया था तब से बूँदी राज्य मेवाड़ का मातहत हो गया।

हाड़ा राव हामाजी (राव हम्मीर) (1388-1403 ई.)


1388 ई. में राव हामाजी अथवा हम्मीर सिंह बूँदी के सिहांसन पर आरूढ़ हुए। मेवाड़ की गद्दी पर इस समय महाराणा लाखा का अधिकार था जो साम्राज्यवादी लालसा से युक्त थे।43 बूँदी का प्रदेश अल्लाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर अधिकार से पूर्व मेवाड़ के अधीन था। खिलजी आक्रमण से राणा की शक्ति निर्बल हो जाने के कारण उनके अधिकृत प्रदेश स्वतन्त्र हो गये। बूँदी भी उनमें से एक था। अब महाराणा लाखा ने बूँदी नरेश को पुनः अपनी अधीनता स्वीकार करने का आदेश दिया। हम्मीर ने अपने को मेवाड़ का सामन्त मानने से इन्कार कर दिया और कहा कि बूँदी को हाड़ाओं ने मीणाआें से अपनी शक्ति के बल पर प्राप्त किया है। दीर्घकालीन पत्र व्यवहार के उपरान्त राव हम्मीर ने महाराणा से अग्रांकित शर्तों पर सन्धि करना स्वीकार कर लिया।

1. दशहरा और होली के उत्सव पर बूँदी के राव अपनी सेना के साथ चितौड़ में उपस्थित हुआ करेंगे।

2. बूँदी के प्रत्येक नये राजा का राज्याभिषेक करने का अधिकार महाराणा को ही होगा।

3. उपरोक्त बन्धनों के अतिरिक्त बूँदी नरेश पर मेवाड़ के किसी अन्य सामन्त की भाँति कोई बन्धन नहीं होगा।

उपरोक्त शर्तों से महाराणा सनतुष्ट नहीं हो सका। बूँदी को अधीन बनाने तथा राव देवा के उत्तराधिकारियों को हाड़ौती के पठार से निष्कासित कर देने के उद्देश्य से उसने एक अभियान किया। बूँदी के निकट निमोरिया नामक ग्राम में राव हमीर ने 500 हाड़ा सैनिकों के साथ महाराणा का सफल प्रतिरोध किया। सिसोदिया सैनिकों व कुछ वरिष्ठ सामन्तों को खोकर राणा लाखा युद्ध क्षेत्र से भाग निकला और उसने चित्तौड़ पहुँच कर यह प्रतिज्ञा की कि ‘‘जब तक मैं बूँदी पर अधिकार नहीं कर लूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण न करूँगा।’’ राणा की इस प्रतिज्ञा को सामन्तों की राय में इतने अल्पकाल में पूरा करना असम्भव था क्योंकि चित्तौड़ से 60 मील दूर सशक्त हाड़ा राव को परास्त करने में जितना समय लग जाता उतने समय तक अन्न जल त्यागे हुऐ महाराणा का जीवन संदिग्ध ही था। समस्या का यह उपाय खोजा गया कि बूँदी के दुर्ग का एक कृत्रिम नमूना मेवाड़ में ही निर्मित किया जाए तथा उस पर अधिकार करके महाराणा की प्राण रक्षा की जाये, किन्तु इस योजना की क्रियान्विति का मेवाड़ की सेना में सेवारत एक हाड़ा सरदार कुम्भा ने इसे हाड़ाओं के सम्मान का प्रश्न मानकर इस कृत्रिम आक्रमण का सशस्त्र विरोध किया। ‘‘हाड़ा राव हम्मीर ने महाराणा की पुरमाण्डल की ओर बढ़ती सेना को रोककर मध्यस्तता की तथा अपने पिता नापाजी के समय मेवाड़ से छिना गया प्रदेश मेवाड़ को पुनः सौंपकर अपनी एक पौत्री का विवाह महाराणा के पुत्र खेतल से कर दिया।”44

हाड़ा राव वीरसिंह (1403-1413 ई.)


यह राव हम्मीर का ज्येष्ठ पुत्र था। बूँदी के तारागढ़ दुर्ग के निर्माता बरसिंह के भाई तथा खटकड़ के लालसिंह ने पिता हम्मीर की इच्छानुसार अपनी पुत्री का विवाह मेवाड़ के महाराजा कुमार खेतल से गेण्डोली में किया। इस आयोजन में महाराणा के एक चारण बारू ने लालसिंह द्वारा अपमानित किए जाने पर आत्महत्या ली। इसका बदला लेने के लिये महाराणा ने खेतल को अपने ससुर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इस युद्ध में बरसिंह ने लालसिंह का साथ दिया। मेवाड़ की पराजय हुई और खेतल खेत रहे।45

हाड़ा राव बेरीशाल (1413-1459 ई.)


32 वर्ष की आयु में बेरीशाल बूँदी की राजगद्दी पर बैठे। यह एक निर्बल और अयोग्य शासक थे। मेवाड़ के वृतान्तकार कवि श्यामलदास ने वीर विनोद में इस शत्रुता का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि महाराणा लाखा के पिता क्षेत्रसिंह का प्राणान्त बूँदी के आक्रमण के प्रयास में हो गया था। प्रतिहिंसा स्वरूप महाराणा लाखा ने हाड़ा राव को आक्रमण की धमकी दी। इस पर हाड़ा राव ने उनसे क्षमायाचना की तथा अपने परिवार की 12 कन्याओं की विवाह मेवाड़ के राजकुमार एवं सरदारों के साथ सम्पन्न कर दिया।

इसके राज्यकाल की उल्लेखनीय घटना मॉडू (मालवा) के बादशाह महमूद खिलजी ने तीन बार कोटा बूँदी पर चढ़ाई की। पहली 1449 ई. में, दूसरी बार 1453 ई. और तीसरी 1459 ई. में। आखिरी चढ़ाई में सुल्तान ने अपने छोटे बेटे फिदाई खाँ को वहाँ का मालिक बनाया। इसी संघर्ष में बेरीलाल मारे गये।

बेरीलाल के आठ पुत्र अखैराज, चुंड़ा, उदयसिंह, भॉडा, (बन्दो) भापादेव, लोहट, कर्मचन्द और श्यामजी (केषवदेव) थे। पहले तीन राजकुमारों ने लड़ाई में अपने पिता का साथ नहीं दिया। इसलिये पिता ने भांडा (भाणदेव) को अपना उत्तराधिकारी बनाया। बेरीलाल के दो पुत्र लड़ाई में मुसलमानों द्वारा पकड़े गये उनका नाम मुसलमानों ने समरकन्दी व उमरकन्दी रखा।46

हाड़ा राव भांडाजी (1459-1503 ई.)


इनका नाम भरमल, भांडा और बन्दो भी मिलता है। यह बूँदी के इतिहास के एक प्रसिद्ध शासक हुए। इसने अपने भाइयों की सहायता से बूँदी के खोए प्रदेश को पुनः प्राप्त कर लिया तथा बाद में इसने माण्डू (मालवा) तक लूट-खसोट करना आरम्भ कर दिया। इस पर माण्डु के सुल्तान ने हाड़ो को दबाने के लिये समरकन्दी व उमरकन्दी को मय फौज के बूँदी भेजा। इन्होंने राव भाण्डाजी को वहाँ से निकाल दिया। इनका बूँदी पर लगभग 11 वर्ष तक अधिकार रहा। समरकन्दी ने बूँदी लेकर भाण्डाजी को कुछ गाँव जागीर में दे दिए।47 राव भाण्डाजी हाड़ा बड़ा उदार व धार्मिक नरेश था। इसने तीन वर्ष तक का संचय किया हुआ कुल अनाज सन 1492 ई. के घोर दुर्भिक्ष में सबको बाँट दिया।48 भाण्डाजी की मृत्यु मातुण्डा ग्राम में हुई। मातुण्डा में उनकी छत्री अभी भी स्थित है।

राव नारायणदास (1503-1527 ई.)


पिता राव भांडाजी की मृत्यु के समय राव नारायणदास इतना शक्तिशाली नहीं था कि समरकन्दी का विरोध कर सके, परन्तु उसने धीरे-धीरे पठार देश के हाड़ो को इकट्ठा कर नारायणदास ने बूँदी को अपने धर्म भ्रष्ट चाचाओं से वापिस लेने का निश्चय किया। आरम्भ में इन्होंने अपने चाचाओं से मेलजोल बढाकर कुछ जागीरें प्राप्त की। एक दिन उसने मौका पाकर उनको मार डाला। समरकन्दी का पुत्र दाउद भी मारा गया। हाडों ने नारायणदास का साथ दिया और इस तरह बूँदी पर पुनः हाडों का राज्य स्थापित हो गया। इस विजय के उपलक्ष्य में एक स्तम्भ का निर्माण राव नारायण ने बूँदी में करवाया था।49 राव नारायणदास बड़ा वीर और साहसी शासक था। यह चित्तौड़ के महाराणा रायमल के समकालीन थे। जब मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर उसे घेर लिया तब राव नारायणदास अपनी सेना लेकर महाराणा रायमल की सहायता के लिये चित्तौड़ पहुँचे और यवनों को मार भगाया। इस युद्ध में नारायणदास के कई घाव लगे और उसके कई हाड़ा सैनिक युद्ध में काम आये। इस सेवा के उपलक्ष्य में महाराणा रायमल ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह नारायणदास से कर दिया। राणा सांगा से भी इनके सम्बन्ध बहुत मधुर थे। ये दो बार राणा सांगा से मिलने गये एवं कन्वाह (खानवाँ) के युद्ध 1527 ई. में महाराणा सांगा की अधीनता में बाबर के विरुद्ध युद्ध में 24 शामिल हुए।50 महाराणा संग्रामसिंह के साथ हाड़ा राव नारायणदास के अनुज नरबद की पुत्री का विवाह किया गया था। इस कारण से भी हाड़ा राव ने प्रत्येक अवसर पर महाराणा का साथ दिया। 1527 ई. के लगभग यह अपने भाई नरबद हाड़ा के साथ जागीरदार खटकड़ों के हाथ से शिकार में धोखे से मारे गये। इनके तीन पुत्र सूरजमल, रायमल और कल्याणदास थे। इनके छोटे भाई नर्बद की पुत्री कर्मवती महाराणा सांगा को ब्याही थी। इसी कर्मवती (पदमावती) ने चित्तौड़ के घेरे में वीरता पूर्वक भाग लिया था।

राव सूरजमल हाड़ा (1527-1531 ई.)


यह अपने पिता नारायणदास के समान ही वीर तथा उदार नरेश थे। इनके समय में मेवाड़ तथा बूँदी में वैवाहिक सम्बन्ध और प्रगाढ़ हो गये थे। सूरजमल की बहिन सूजाबाई की शादी महाराणा रतनसिंह के साथ हुई थी और महाराणा रतनसिंह ने भी अपनी बहिन का विवाह राव सूरजमल से किया था। महाराणा सांगा की मृत्यु के उपरान्त ज्येष्ठ पुत्र रतनसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे और छोटा पुत्र विक्रमादित्य तथा उदयसिंह अपनी माता महाराणी हाड़ी कर्मवती के साथ अपनी जागीर के रणथम्भौर के किले में रहते थे। उस समय बूँदी के राव उनके अभिभावक थे। महाराणा रतनसिंह व राव सूरजमल में अधिक समय तक मेल नहीं रहा। हाड़ा व सिसोदिया एक दूसरे के रक्तपिपासु बन गये। 1531 ई. में विक्रमादित्य के मेवाड़ पर अधिकार करने की महत्त्वाकांक्षा को हाड़ा राव का समर्थन मिलने से महाराणा क्रोधित हो गये। महाराणा रतनसिंह ने सूरजमल हाड़ा को नाणता के पास गोर्ख तीर्थ पहाड़ी शिकारगाह में शिकार खेलने को बुलवाया। कोठारिया का राव पूर्णमल पूरबिया (चौहान) महाराणा के साथ था। 1531 ई. में राव सूरजमल व महाराणा रतनसिंह दोनों एक दूसरे के हाथों मारे गये। पूर्णमल पूरबिया भी मारा गया। पाटण गाँव में महाराणा रतन सिंह का दाह संस्कार हुआ और महाराणी पंवारजी उनके साथ सती हुई। नाणता में इन दोनों वीरों की छतरियाँ अब तक मौजूद है और इसी घाटी के उपर सूजाबाई की छत्री भी बनी हुई है। राव सूरजमल ने केवल चार वर्ष राज्य किया।51

हाड़ा राव सूरताण (1531-1554 ई.)


यह 1531 ई. में आठ वर्ष की आयु में राज्य के मालिक हुए। इनका विवाह महाराणा उदयसिंह के पुत्र शक्तिसिंह की पुत्री से सम्पन्न हुआ था। इसके समय में महाराणा उदयसिंह ने पठानों से अजमेर छिनकर राव सूरताण हाड़ा को दे दिया। यह अत्याचारी शासक थे जिससे प्रजा बहुत दुःखी रहती थी।52 इनके समय में 1546 ई. में कोटा केसरखाँ व डोकरखाँ नामक दो पठान सैनिकों के हाथ में चला गया एवं बड़ोद और सीसवली के परगने भी रायमल खींची ने अपने कब्जे में कर लिये। राव सुरताण चुपचाप यह देखते रहे। बूँदी और कोटा की ऐसी दुर्व्यवस्था देखकर मालवा के सुल्तान ने भी बूँदी पर आक्रमण कर दिया। यह नगर पहले भी दो बार मालवा के सुल्तानों द्वारा लूटा जा चुका था। हाड़ा लोग अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये लड़ने को भी तैयार हो गये, परन्तु राव सुरताण भयभीत होकर भाग गया। अतः उदयपुर के महाराणा की सलाह पर हाड़ा सरदारों ने इसे 1554 ई. में राजगद्दी से उतार दिया। इसके कोई पुत्र नहीं था।53 सरदारों ने मिलकर भाणदेव के प्रपोत्र अर्जुन को गद्दी पर बैठाया और मुसलमानों का सामना कर बूँदी को बचाया। राव सुरताण ने भागकर महाराणा के सरदार रायमल खींची के यहाँ शरण ली।54 बाद में उसे एक गाँव चम्बल नदी पर जीवन निर्वाह के लिये दे दिया गया। जिसका नाम सुरताणपुर पड़ा। राजच्युत राव सुरताण के वंशधर सुरतानोत हाड़े कहलाते हैं। राव अर्जुन महाराणा विक्रमादित्य की सेवा में ही रहने लगे। जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की तब बूँदी की पाँच हजार सेना का अधिपति होकर हाड़ा अर्जुन चित्तौड़ आये। महाराणा ने उसको चित्तौड़ी बुर्ज का संरक्षक बनाया। मुसलमानों ने सुरंग बनाकर तथा बारूद से भरकर चित्तौड़ी बुर्ज को उड़ा दिया जिसमें अर्जुन हाड़ा व उसके साथी मारे गये। इनके बाद अर्जुन का पुत्र सुर्जन बूँदी की राजगद्दी पर बैठा।

राव सुर्जन हाड़ा (1554-85 ई.)


यह हाड़ा अर्जुन का बड़ा पुत्र था और राव सुरताण के राज्यच्युत होने पर 1554 ई. में बूँदी की गद्दी पर बैठा। इसके समय से पूर्व बूँदी के राव किसी न किसी प्रकार से मेवाड़ के मातहत रहते थे। इसने बूँदी के छीने गये परगनों को जीतने के लिये एक बड़ी सेना इकट्ठी की। इस सेना में उसके दस जागीरदार भाई तथा कई अन्य राजपूत थे। सेना इकट्ठी कर इसने केसरखाँ और डोकरखाँ पठानों को हराकर कोटा को वापिस जीता और अपने पुत्र भोज को सुपुर्द कर दिया जहाँ वह स्वतंत्र शासक की भाँति राज्य करने लगा। मऊ के खींची रायमल को सुर्जन राव ने हराकर उसे कोटा के उत्तर के बड़ोद व सीसवाली परगने वापस लिये। रणथम्भौर से कोटा तक और रामगढ़ से बूँदी तक उसका निष्कंटक राज्य था। बूँदी के एक सरदार सामन्त ने बोदला के चौहानों की सहायता से रणथम्भौर का दुर्ग पठानों से जीतकर बूँदी के अधिकार में ले लिया।55 तभी से रणथम्भौर का दुर्ग भी उसके अधिकार में था। बोदला के चौहान शासक ने रणथम्भौर का किला 1559 ई. में इस शर्त पर दिया था कि वह मेवाड़ के सामन्त के रूप में कार्य करेगा। अकबर की आँखों में चित्तौड़ व रणथम्भौर के किले खटक रहे थे। अतः 1568 ई. में चित्तौड़ विजय करने के बाद अकबर ने रणथम्भौर की विजय हेतु सेनाएँ भेजी। हाड़ा सहज ही अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाले नहीं थे। अतः स्वयं बादशाह अकबर ने रणथम्भौर का घेरा 1569 ई. में डाल दिया।56 लगभग डेढ़ माह तक घेरा पड़ा रहा लेकिन राव सुर्जन ने आत्म समर्पण नहीं किया। तब भारमल कच्छावाहा ने अकबर से कहा कि रणथम्भौर को जीतना चित्तौड़ जैसा सरल कार्य नहीं है। अब यहाँ राव सुर्जन की चाही हुई शर्ते मंजूर करके नीतिपूर्वक दुर्ग पर अधिकार करना चाहिए।57

अकबर ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मानसिंह ने राव सुर्जन से 21 मार्च 1569 ई. को मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार करते समय बादशाह अकबर से कुछ शर्तें तय करायी थी जो इस प्रकार थी -

1. बूँदी के राजाओं से महल में डोला (बेगम बनाने के वास्ते) भेजने को नहीं कहा जायेगा।
2. बूँदी के राजाओं को अपनी स्त्रियाँ को मीना बाजार (नीरोज) में भेजने को नहीं कहा जायेगा।
3. बूँदी के राजाओं को अटक पार जाने को नहीं कहा जाएगा।
4. बूँदी के राजाआें को शस्त्र पहने दीवाने आम व दिवाने खास में आने की आज्ञा रहेगी।
5. बूँदी के राजाआें को दिल्ली राजधानी में लाल दरवाजे तक नक्कारा बजाते हुए आने की आज्ञा रहेगी।
6. बूँदी के राजाओं के घोड़ों के शाही दाग न लगाये जायेगें।
7. बूँदी के राजा कभी किसी हिन्दू सेनापति के बीच नहीं रखे जायेंगे।
8. बूँदी राज्य में जजिया कर नहीं लगाया जावेगा।
9. उनके मन्दिर इत्यादि पुण्य स्थानों का आदर किया जाएगा।
10. बूँदी हाड़ों की राजधानी रहेगी बादशाह उन्हें राजधानी बदलने के लिये लाचार नहीं करेगा।58

सूर्यमल्ल मिश्रण ने ‘वंश भास्कर’ में प्रथम 7 शर्तों का उल्लेख किया है, लेकिन कर्नल टॉड ने 10 शर्तों का उल्लेख किया है।

डॉ. जगदीश सिंह गहलोत ने आमेर (जयपुर) के राजा भारमल कच्छावाहा के समझाने से राव सुर्जन द्वारा 21 मार्च 1569 ई. को मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार करना बताया है। जबकि ‘वंश भास्कर’ में सन्धि करवाने में जयपुर के राजा मान सिंह का उल्लेख है।

इन हाड़ों ने बाद में मुगलों का साथ देकर उनके राज्य विस्तार में योगदान दिया। रणथम्भौर सौंपने के बाद बादशाह ने उसे एक हजारी जात और मनरूट तथा गढ़कंटगा की जागीर ईनाम में दी। वहाँ पर उसने वहाँ के आदिम निवासी गोड़ों का दमन किया और उनकी राजधानी बारीगढ़ पर मुगल अधिकार स्थापित किया। इस पर बादशाह सुर्जन पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसे रावराजा की उपाधि दी तथा पाँच हजार का मनसब दिया। बादशाह ने उसे बूँदी के निकट के 26 परगने तथा बनारस के निकट 26 परगने दिये। वह अपने जागीर के परगनों में ही रहने लगा तथा वहाँ बनारस को अपना निवास स्थान बना लिया। जहाँ पर उसके अनुरोध से ही चन्द्रशेखर कवि ने ‘‘सुर्जन चरित” नामक संस्कृत काव्य की रचना प्रारम्भ की, परन्तु उसकी समाप्ति से पूर्व ही सुर्जन का स्वर्गवास 1585 ई. में हो गया और यह ग्रन्थ उनके पुत्र भोज के समय में समाप्त हुआ। इसमें चौहान वंश की वंशावली श्री चहुवान के वंशधर वासुदेव से लेकर राव सुर्जन तक दी है।

राव सुर्जन के तीन पुत्र दूदा, भोज, और रायमल थे। रायमल को जागीर में पलायथा मिला था जो इस समय कोटा राज्य में था। राव सुर्जन के काशी में रहने के कारण बूँदी का राज्य उसका पुत्र दूदा संभालता था। 1576 ई. में दूदा और भोज में बूँदी के शासन प्रबन्ध को लेकर अनबन हो गई। दूदा अकबर से सम्बन्ध रखने के विरुद्ध था इस कारण सुर्जन ने भोज देव को बूँदी का राज्य देना चाहा। इस पर बादशाह ने विद्रोह को दबाने के लिये दो बार सेना भेजी और राजकुमार भोज को 1577 ई. में बूँदी राज्य दे दिया।

राव भोज (1585-1607 ई.)


यह राव सुर्जन के दूसरे पुत्र व बांसवाड़ा के रावल जगमाल उदयसिंह के दोहिते थे। यह बहुत समय तक मानसिंह के अधीन शाही युद्धों में रहे। 1600 ई. में इन्होंने सूरत और अहमदनगर का किला विजय किया था। अहमदनगर के युद्ध में प्रसिद्ध वीरांगना अहमदनगर की बेगम चाँदबीबी मय अपनी 700 वीर स्त्रियों के साथ देश की स्वतन्त्रता के लिये लड़ते-लड़ते काम आई थी। अहमदनगर के युद्ध में भोज की वीरता पर प्रसन्न होकर बादशाह ने भोज के नाम पर वहाँ के किलों की बुर्ज का नाम भोज बुर्ज रखा था।59 बादशाह अकबर के दरबार में राव भोज का मनसब एक हजारी था। जब बादशाह अकबर का देहान्त 15 अक्टूबर 1605 ई. को हो गया तब राव भोज भी आगरा से बूँदी लौट आये। तख्त पर बैठने के बाद जहाँगीर ने आमेर के राजा मानसिंह की पोती और जगतसिंह की पुत्री जो राव भोज की दोहिती थी, से विवाह करना चाहा, परन्तु भोज ने इसका विरोध किया जिससे बादशाह नाराज हो गया और उसने राव भोज को काबुल से लौटने पर सजा देने का निश्चय किया परन्तु इसी वर्ष में भोज का देहान्त बूँदी में हो गया। राव भोज ने 22 वर्ष तक राज किया। उसके चार पुत्र राजकुमार रतनसिंह, हृदयनारायण, केशवदास और मनोहरदास थे।

राव रतनसिंह हाड़ा (1607-1631 ई.)


राव रतन सिंह 1607 ई. में बूँदी के सिंहासन पर बैठे। अपने पिता भोज की तरह ये भी सम्राट जहाँगीर के कृपा पात्र रहे। 1613 ई. में इनको शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के साथ मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध लड़ने भेजा गया था। बाद में 1613 ई. में यह शाही फौज के साथ दक्खन भी गया। जहाँगीर के विरुद्ध खुर्रम ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया तब रावरतन सिंह को 1623 ई. में शहजादे परवेज और महावत खाँ के साथ शाहजादे खुर्रम का सामना करने के लिये दक्षिण में भेजा। वहाँ से परवेज व महावत खाँ पूर्व को गये तब रतनसिंह को बुरहानपुर जिले का सूबेदार बनाया60 उस समय खुर्रम ने बुरहानपुर का किला लेना चाहा, परन्तु राव रतन हाड़ा ने खुर्रम की सेना का तीन बार मुकाबला कर हटा दिया और खुर्रम को गिरफ्तार कर लिया, परन्तु बाद में रतनसिंह को खुर्रम पर दया आ गई और उसे अपनी कैद से भगा दिया। इस पर जहाँगीर बिगड़ गया और उसने बूँदी पर चढ़ाई करने के लिये सेना भेजी। रतनसिंह की सेनाओं ने जहाँगीर की सेनाओं को परास्त करके भगा दिया। इस बीच 1628 ई. में खुर्रम मुगल साम्राज्य का बादशाह बन गया, उसने रतनसिंह को पुनः मान सम्मान प्रदान किया। 1624 ई. में जिस समय रतनसिंह खुर्रम का विद्रोह दबाने गया था तब कोटा का राजा हृदयनारायण जो रतनसिंह का भाई था युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया। इस पर जहाँगीर ने उसकी जागीर जप्त कर रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को दे दी तथा कोटा को 1631 ई. में बूँदी राज्य से अलग करके स्वतन्त्र राज्य बना दिया।61

राव रतन की दक्षिण की सेवाओं से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने 1625 ई. में उनका मनसब पाँच हजारी जात व पाँच हजार सवार का कर दिया और रावराय (रावराजा) की उपाधि दी।62 जो मुगल साम्राज्य का स्तम्भ माना जाता था। उसने शाही सेना की सहायता से मऊ के खींची चौहानों को हराया और उनके गढ़ गागरुया, मऊ, चाचरण आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में उनका भाई केशवदास अपने सौ साथियों सहित मारा गया। दरियाव खाँ नामक प्रसिद्ध लुटेरे को जो मेवाड़ व उसके आस-पास लूट खसोट करता था इसने पकड़कर सम्राट के पास पहुँचाया। बादशाह ने उस पर प्रसन्न होकर, नौबत नक्कारे का शाही निशान, राजकीय उत्सवों के लिये पीला झण्डा और डेरे के लिये लाल झण्डा लगाने की इजाजत दी। राव रतन का देहान्त 1631 ई. को बालाघाट (म.प्र.) के पड़ाव में हुआ जहाँ उसने बुरहानपुर में अपने नाम पर रतनपुर नामक कस्बा बसाया था।63 इसके तीन राजकुमार थे, पहले गोपीनाथ जिनकी 25 वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गयी। दूसरा माधोसिंह जिसको हृदयनारायण को कोटा की गद्दी से हटाये जाने के बाद राव रतन ने कोटा का राज्य दे दिया था। हरिसिंह को राज्य में पीपलदा की जागीर मिली।64

राव शत्रुसाल हाड़ा (1631-1658 ई.)


राव शत्रुसाल हाड़ा रावरतन के पोते और गोपीनाथ के पुत्र थे। राव शत्रुसाल 25 वर्ष की आयु में बूँदी के राजसिंहासन पर बैठे और ये बादशाह शाहजहाँ के बड़े कृपा पात्र थे। जब यह राजसिहांसन पर बैठे तब बादशाह ने इन्हें राव का खिताब, तीन हजारी जात, दो हजार सवार का मनसब और बूँदी व खटकड़ आदि परगने जागीर में देकर खानेजमा के साथ दक्षिण में भेजा, जहाँ इन्होंने 1632 ई. में दौलताबाद का किला जीतने में बड़ी बहादुरी दिखाई। इसके अलावा इसने शाहजहाँ, दाराशिकोह, मुरादबख्श, औरंगजेब के साथ मिलकर कई युद्धों में भाग लिया। फरवरी 1658 ई. से ही मुगल सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों क्रमशः दारा शुजा, औरंगजेब एवं मुराद में उत्तराधिकार को पाने की लालसा में होड़ प्रारम्भ हो गई। 29 मई 1658 ई. को सामूगढ़ के रणक्षेत्र में दाराशिकोह की सेना के हरावल में हाड़ा, सिसोदिया व गोड़ सैनिकों का नेतृत्व शत्रुसाल को प्रदान किया गया।65 जब सेना के बीच में शहजादा दाराशिकोह जो हाथी पर सवार था एकाएक गायब हो गया। सेना तितर बितर होने लगी। यह देखकर राव शत्रुसाल ने वीरता के साथ लड़ाई की। शत्रुसाल ने स्वयं औरंगजेब व मुराद पर भी आक्रमण किया अचानक उनके ललाट में एक गोली लगी जिससे वह रणक्षेत्र में ही 29 मई 1658 ई. को वीरगति का प्राप्त हुऐ। इस युद्ध में हाड़ा राव के साथ उनके अनुज मुहकम सिंह, पुत्र भारत सिंह तथा भतीजे उदय सिंह भी मारे गये। इनकी स्मृति में धौलपुर के समीप ही चबुतरे बनवाये गये जो रण के चबुतरे के नाम से आज भी विख्यात है।66 शत्रुसाल के चार पुत्र भाव सिंह, भीम सिंह, भगवत सिंह और भारत सिंह थे। इसने बूँदी में छत्र महल व पाटण में केशवराय का मन्दिर बनवाया था।

राव भावसिंह हाड़ा (1658-1681 ई.)


राव शत्रुसाल के ज्येष्ठ पुत्र राव भावसिंह हाड़ा का जन्म 28 फरवरी 1624 ई. में हुआ था। बादशाह औरंगजेब इसके पिता से सामूगढ़ के युद्ध में शत्रुसाल द्वारा दाराशिकोह का पक्ष लेने के कारण नाराज थे लेकिन इसका भाई भगवन्तसिंह हाड़ा जो पहले से ही दिल्ली में शाही सेवा करता था व औरंगजेब के साथ दक्षिण में था। बादशाह ने भगवन्त सिंह को राव का खिताब व बूँदी का कुछ भाग मउ, बारां आदि परगना देकर बूँदी को अलग राज्य बना दिया,67 लेकिन उसके कुछ समय बाद ही उसका देहान्त हो गया, तब औरंगजेब ने भावसिंह को नेक नियति की प्रतिज्ञा करवाकर भावसिंह को उसे आगरा बुलाया और उसे तीन हजारी जात व दो हजार सवार के मनसब डंडा, झण्डा राज की पदवी देकर सम्मानित किया।68 औरंगजेब के समय यह शाही तोपखाने का अफसर भी रहा और दक्षिण में छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध युद्ध भी लड़ा। यह औरंगाबाद (दक्षिण) का फौजदार नियुक्त होकर बहुत समय तक वहाँ रहा। वहाँ उसने कई इमारतें बनवाई और अपनी वीरता, दान और उदार भावों के लिये बहुत प्रसिद्धी प्राप्त की व औरंगाबाद के पास अपने नाम पर भावपुरा नामक गाँव बसाया था। इसी गाँव में सन 1681 ई. में इनका स्वर्गवास हो गया। इनके एक मात्र पुत्र पृथ्वीसिंह की बचपन में ही मृत्यु हो गयी थी।

इसलिये अपने छोटे भाई किशनसिंह को गोद लिया, बाद में औरंगजेब के इशारे पर कट्टर धार्मिक विचारों के कारण 1677 ई. में उज्जैन में किशनसिंह को मृत्यु के घाट उतार दिया। इसके बाद किशनसिंह के पुत्र अनिरुद्ध सिंह के हाथ शासन आया।

राव अनिरुद्ध हाड़ा (1681-1695 ई.)


राव अनिरुद्ध हाड़ा 15 वर्ष की आयु में बूँदी की राजगद्दी पर बैठे, उस समय बादशाह औरंगजेब ने इनके लिये खिलअत व हाथी टीके में भेजे। राव ने औरंगजेब के साथ रहकर बीजापुर का किला विजय किया। हाड़ा दुर्जनसिंह बूँदी राज्य की एक कोटरियात बलबन का जागीरदार तथा अनिरुद्ध सिंह का राजवंशज था और यह मराठों से मिल गया था इसने बूँदी के राज्य पर कब्जा कर लिया। जब इसकी सूचना बादशाह तक पहुँची तो दुर्जनसिंह हाड़ा को बूँदी से निकाल देने के लिये बड़ी फौज के साथ हाथी, घोड़े देकर राव अनिरुद्ध की सहायता के लिये बूँदी के लिये रवाना किया और अनिरुद्ध सिंह के शाही सेना के साथ बूँदी पहुँचते ही दुर्जनसिंह किला छोड़कर भाग गया और वापिस बूँदी पर राव का अधिकार हो गया। बाद में बादशाह ने अनिरुद्ध को काबुल की तरफ मुगल साम्राज्य की उत्तरी सीमा का झगड़ा तय करने को शहजादा मुअज्जम और आमेर के राजा बिशनसिंह के साथ काबुल भेज दिया, जहाँ 1695 ई. में इनका देहान्त हो गया69 इनके बड़े पुत्र बुद्धसिंह बूँदी की गद्दी पर बैठे। इसके पुत्र बुद्धसिंह, जोधसिंह, अमरसिंह और विजयसिंह थे।

राव राजा बुद्धसिंह (1695-1739 ई.)


1707 ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब के उत्तराधिकार की प्राप्ति हेतु उसके पुत्रों- मुअज्जम, आज्जम एवं कामबख्श में जाजव नामक स्थान पर संघर्ष छिड़ गया।70 इस युद्ध में बूँदी नरेश बुद्धसिंह ने मुअज्जम का तथा कोटा के महाराव रामसिंह ने औरंगजेब के दूसरे पुत्र आज्जम का पक्ष लिया।

18 जून 1707 ई. को जाजव के रणक्षेत्र में आज्जम और कोटा महाराव दोनों मारे गये और मुअज्जम व बूँदी नरेश विजयी रहे। इससे प्रसन्न होकर मुअज्जम जो बहादुरशाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा ने बुद्धसिंह को ‘‘महाराव राणा” का खिताब तथा कुछ परगने जागीर में दिये।71 उस समय बुद्धसिंह ने कोटा को भी हथियाना चाहा परन्तु कोटा के सरदारों के विरोध के कारण कोटा पर अधिकार नहीं कर सका।

इस पर बहादुरशाह ने रामसिंह के पुत्र भीमसिंह को कोटा का राज्य सौंप दिया। बहादुरशाह ने बूँदी नरेश को जयसिंह और अजीतसिंह के खिलाफ अभियान पर जाने का आदेश दिया किन्तु बुद्धसिंह के वहाँ नहीं जाने पर बादशाह ने बूँदी राज्य जब्त करके कोटा नरेश को दे दिया। उस समय तक दिल्ली की राजगद्दी पर फरुखशियर आसीन हो गया, तब मौका पाकर कोटा के महाराव भीमसिंह ने फरुखशियर से फरमान प्राप्त कर बूँदी पर कब्जा कर लिया। फरुखशियर ने बूँदी का नाम फर्रूखाबाद रख दिया। बाद में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के कहने पर फरुखशियर ने बूँदी बुद्धसिंह को लौटा दिया।72 1718 ई. में सैयद बन्धुओं ने फरुखशियर को बर्खास्त कर दिया। सैयद बन्धुओं से बुद्धसिंह जी के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे, बादशाह फरुखशियर 1719 ई. में मारा गया।

फरुखशियर के बाद सवाई जयसिंह और बुद्धसिंह का शाही दरबार में प्रभाव घट गया तब भीमसिंह ने शाही सेना की सहायता से 17 नवम्बर 1719 को बूँदी पर चढ़ाई कर दी, घमासान युद्ध हुआ और बूँदी पर कोटा का अधिकार हो गया। कोटा की ओर से वहाँ फौजदार भगवानदास धाभाई नियुक्त किया गया। 1720 ई. में कोटा नरेश भीमसिंह की मृत्यु हो गयी तब धाभाई भगवानदास ने बूँदी पुनः बुद्धसिंह को सौंप दिया। बूँदी राव बुद्धसिंह के मानसिक विकार से ग्रस्त होने की चर्चाएँ सुनकर जयपुर के कच्छवाहा नरेश सवाई जयसिंह ने 1730 ई. में बूँदी पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की योजना बना ली। तदनुरूप ही उन्होंने राव बुद्धसिंह के पुत्र भवानीसिंह, जो सवाई जयसिंह की बहन का पुत्र था एवं जिसके जन्म की वैधता पर शंका थी, का वध कर दिया। तद्नतर उन्होंने आक्रमण करके महाराव बुद्धसिंह को बूँदी से निर्वासित कर दिया तथा कखर के जागीरदार सालिमसिंह के पुत्र दलेलसिंह को बूँदी का शासक नियुक्त किया।73 बुद्धसिंह को बूँदी से भाग जाना पड़ा। बाद में राव बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी ने मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर को पूना से छः हजार रुपये देकर सहायतार्थ बुलवाया, उसने बूँदी पर आक्रमण कर दलेलसिंह के पिता सालिमसिंह को गिरफ्तार कर लिया व कच्छवाही रानी को राज्य सौंप कर राव बुद्धसिंह का शासन घोषित कर दिया, रानी ने होल्कर को राखी बाँध भाई बना लिया था74 किन्तु होल्कर के लौटते ही पुनः बूँदी को जयपुर की सेना ने जीतकर दलेलसिंह को दिया और मराठों को रुपये देकर सालिमसिंह को मराठों से छुड़वा लिया। मराठों के राजस्थान में आने की यह प्रथम घटना थी। राव बुद्धसिंह के जीवन के अन्तिम दस वर्ष ससुराल बेंगु में ही बीते और 26 अप्रैल 1739 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

महाराव उम्मेदसिंह (1743-1771 ई.)


राव बुद्धसिंह की मृत्यु के उपरान्त सवाई जयसिंह के निर्देश पर बुद्धसिंह के पुत्रों उम्मेदसिंह व दीपसिंह को बेंगु से उनके नाना ने निष्कासित कर दिया। अतः वे 1739 ई. से कोटा महाराव दुर्जनशालसिंह की शरण में मधुकरगढ़ में रहने लगे। 21 सितम्बर 1743 ई. को सवाई जयसिंह का स्वर्गवास होने के बाद सुअवसर देखकर उम्मेदसिंह ने बूँदी का राज्य वापिस लेने की ठानी। कोटा के महाराव दुर्जनशाल, गुजरात के सूबेदार फखरूदीन को एक लाख रुपये देकर तथा शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह से सैनिक सहायता से 1744 ई. में उम्मेदसिंह का बूँदी पर कब्जा हो गया। दलेलसिंह नेनवा भाग गया। उम्मेदसिंह को बूँदी का काफी हिस्सा कोटा नरेश को युद्ध खर्च की एवज में देना पड़ा।75 कोटा नरेश ने पलायथा के अपजी रूपसिंह को बूँदी राज्य में अपना प्रतिनिधि व अन्ता के महाराज अजीतसिंह को किलेदार बनाकर तारागढ़ उसके सुपुर्द किया।76

सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरसिंह ने दलेलसिंह को बूँदी वापिस दिलाने के लिये पचास लाख रुपये के बदले मराठों से सहायता माँगी जिसमें पेशवा बाजीराव, जियाजी सिन्धिया व रामचन्द्र पण्डित की सेनाओं ने मिलकर बूँदी पर कब्जा कर लिया और कोटा को घेर लिया और मराठा सेनाओं ने बूँदी जीतकर महाराव कोटा से एक सन्धि 1745 ई. में की। जिसके अनुसार बूँदी पर दलेलसिंह का अधिकार हुआ तथा केशवरायपाटन व कापरेन के परगने मराठों को प्राप्त हुए।77

पेशवा बाजीराव जयपुर नरेश ईश्वरसिंह की बेरुखी से रुष्ठ था। उम्मेदसिंह ने मल्हारराव होल्कर व गंगाधर तात्या की मराठा सेना व कोटा की सेना से 1748 ई. को बगरू के युद्ध में ईश्वरसिंह को पराजित कर बूँदी को उम्मेदसिंह ने अधिकार में ले लिया। मराठों ने अपनी सहायता के बदले बूँदी में केशवरायपाटन के परगने का राजस्व एवं राजनैतिक अधिकार दोनों की पुष्टि प्राप्त कर ली। महाराजा ईश्वरसिंह के बाद माधोसिंह जयपुर की राजगद्दी पर बैठे। माधोसिंह का बर्ताव बूँदी के साथ अच्छा रहा। उम्मेदसिंह ने 1771 ई. में संन्यास ले लिया। राज्य का भार युवराज की पदवी के सहित अजीतसिंह को सौंप दिया। इसी दौरान संन्यासी के जीवन में उन्हें सूचना मिली कि उसके लड़के अजीतसिंह का 1773 ई. में देहान्त हो गया है। तब उम्मेदसिंह ने विष्णुसिंह के युवा होने तक अभिभावक का काम किया। उसके बाद पुनः संन्यास लेकर काशी चला गया। 1804 ई. में 75 वर्ष की आयु में उम्मेदसिंह का स्वर्गवास हो गया।

महाराजा राव विष्णु सिंह (1773-1821 ई.)


महाराजा राव विष्णु सिंह 1773 ई. को जब राजगद्दी पर बैठे उस समय वह केवल चार मास के थे। उनके दादा उम्मेदसिंह ने धाय भाई सुख राम को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त कर राज्य की देखभाल का काम सम्भाला। 1810 ई. में महाराव विष्णु सिंह के चचेरे भाई बलवन्त सिंह ने उपद्रव कर नैनवा किले पर अपना अधिकार कर लिया। इस पर महाराव ने उसका दमन किया। 1804 ई. में अंग्रेजों की सेना को जसवन्त राव होल्कर से लड़ने कोटा राज्य में भेजा गया लेकिन मुकन्दरे के घाटे में उसे हार खाकर लौटना पड़ा। इस हारी हुई अंग्रेज सेना को बूँदी राज्य ने सहायता दी थी, इससे होल्कर बूँदी का कट्टर शत्रु हो गया और 1804 ई. से 1810 ई. तक होल्कर व सिन्धिया की मराठी सेनाओं ने तथा पिण्डारियों की लगातार लूट-खसोटों ने बूँदी को तबाह कर दिया। मराठों तथा पिण्डारियों ने बूँदी से खिराज वसूल किया। विष्णुसिंह नाम मात्र का राजा रह गया। तब बूँदी नरेश महाराव विष्णु सिंह ने मराठों से पीछा छुड़ाने के लिये 10 फरवरी 1818 ई. को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से एक सन्धि कर बूँदी महाराव ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली और बूँदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजों पर चला गया। इस सन्धि के अनुसार :-

1. बूँदी अंग्रेज सरकार के संरक्षण में आ गया जो खिराज होल्कर का दिया जाता था वह अंग्रेज सरकार द्वारा माफ कर दिया गया।
2. बूँदी के जो परगने होल्कर ने 50 वर्ष पहले दबा लिये थे बूँदी को वापिस दिलवा दिये गये।
3. सिन्धिया ने बूँदी के परगने जो दबा लिये थे वो भी बूँदी को वापिस लौटाए गये।
4. महाराव राजा ने अंग्रेज सरकार को 80 हजार रुपये खिराज में देना स्वीकार किया परन्तु बाद में यह रकम घटाकर 40 हजार रुपये कर दी।
5. अंग्रेज सरकार एवं बूँदी के महाराजा तथा उनके उत्तराधिकारियों के मध्य सदैव मैत्री तथा पारस्परिक हितों की समानता होगी।
6. बूँदी महाराव अंग्रेज सरकार की मांग पर अपनी सामर्थ्यनुसार सैनिक सेवा प्रस्तुत करेंगे।

महाराव राजा राम सिंह (1821 -1889 ई.)


महाराव विष्णुसिंह की मृत्यु के उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह 1821 ई. को बूँदी के सिंहासन पर बैठे। इसके सात दिन पश्चात ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पॉलीटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड ने बूँदी आकर राजा राम सिंह को सिरोपाव भेंट किया तथा उन्हें बूँदी नरेश के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान किये।78 महाराव रामसिंह का अल्पव्यस्क होने के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्रशासन के लिये एक कॉउन्सिल का गठन किया। रामसिंह ने केशवरायपाटन का परगना प्राप्ति हेतु हस्तान्तरण सन्धि अंग्रेज सरकार के साथ 26 नवम्बर 1847 ई. में की। जिसके फलस्वरूप केशवरायपाटन का प्रशासन बूँदी नरेश के अधीन हो गया, इसके बदले कम्पनी की छः शर्तों की पालना महाराव को करनी पड़ी।

जिसकी शर्तें निम्नलिखित है :-


1. बूँदी महाराव केशवरायपाटन के 2/3 भाग के वर्तमान स्वामी ग्वालियर नरेश, जावद एवं नीमच को कम्पनी की मुद्रा में 80 हजार रुपये दो समान किश्तों जनवरी व जुलाई महीने में देना स्वीकारते हैं, बदले में इस भाग का प्रशासन उन्हें प्राप्त होगा।

2. बूँदी महाराव इस प्रदेश के पेन्शन पाने वाले कर्मचारियों को 3430 रुपये, सात आने नौ पैसे कोटा हाली के सिक्कों में देंगे।

3. बूँदी महाराव इस परगने में कर मुक्त भूमि, जो 7503 बीघा 15 बिस्वा थी, के पट्टे व उनको दी गई छूटे उनके स्वामियों को बहाल करेगें।

4. अंग्रेजों ने ग्वालियर नरेश को सन्धि में इस परगने की जो सम्प्रभुता दी थी उसे ग्वालियर नरेश के पास ही निरन्तर बनाये रखने का वचन दिया था। वही वचन बूँदी महाराव ग्वालियर नरेश को बूँदी राव ने प्रदान की।

5. यदि बूँदी महाराव उपरोक्त शर्तों की पालना में असफल रहते हैं तो अंग्रेज सरकार व ग्वालियर नरेश उनके इस परगने की पुनः माँग तो नहीं करेंगे किन्तु बूँदी द्वारा अधिकृत 1/3 परगने के राजस्व में से बकाया सहित कर वसूल कर सकेंगे।

6. केशवरायपाटन जिले के 2/3 हिस्सों के बन्दोबस्त में बूँदी महाराव अधिक हस्तक्षेप नहीं करेंगे जब तक वे उपरोक्त शर्तों का पूर्णतया पालन नहीं करते।

मई 1857 ई. में बूँदी नरेश ने अंग्रेजों की खूब सहायता की। बूँदी महाराव को आदेश दिया कि बूँदी राज्य के समस्त मार्गों, घाटों व नाकों पर कड़ी निगरानी की जाए जिससे क्रान्तिकारी बूँदी में प्रविष्ट न हो सके। महाराव ने तत्काल आदेश का पालन किया और बूँदी की सेना को नीमच छावनी में भी बुलाया गया, जहाँ इनकी निष्ठापूर्वक सेवाओं पर बूँदी महाराव को प्रशस्ति पत्र दिये गये। ‘वंश भास्कर’ नामक उत्तम पद्यात्मक कृति के रचियता कवि सूर्यमल्ल चारण राव रामसिंह के आश्रित थे। 1857 ई. की क्रान्ति के समय राज कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने क्रान्ति का आह्वान किया, जबकि राजा अंग्रेजों की मदद कर रहा था। मिश्रण ने पिपलिया के ठाकुर फूलसिंह व नीमली के ठाकुर बख्तावरसिंह को क्रान्ति का समर्थन देने पर मार्मिक पत्र लिखे। 1 जनवरी 1877 ई. को लार्ड लिंटन ने दिल्ली में दरबार किया। इस अवसर पर महाराव भी वहाँ गये। महारानी विक्टोरिया की ओर से इन्हें सितारे हिन्द, पहली श्रेणी का तमगा व महारानी के सलाहकार की उपाधि मिली। 1886 ई. में महाराव राजा ने पुराने सिक्के की जगह अपने नाम का नया सिक्का चलाया। इस सिक्के में एक तरफ अंग्रेजी भाषा में महारानी विक्टोरिया 1886 ई. व दूसरी तरफ बूँदी का भक्त राम सिंह 1942 अंकित था। यह रामशाही रुपये के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके समय में दरबार में संस्कृत के धुरन्धर विद्वान गंगादास की देखरेख में एक भौगोलिक यन्त्र व दूसरा खगोल यन्त्र राज बनवाया गया। 28 मार्च 1889 में 68 वर्ष राज करने के उपरान्त इनका देहान्त हुआ।

महाराजा राव रघुवीर सिंह (1889-1927 ई. )


महाराव राम सिंह की मृत्यु उपरान्त 12 अप्रैल 1889 ई. को 20 वर्ष की आयु में रघुवीरसिंह बूँदी की राजगद्दी पर बैठे। 1890 ई. में अंग्रेज सरकार ने इन्हें राजा के पूर्ण अधिकार सौंप दिये। ब्रिटिश शासन के साथ इनके अच्छे सम्बन्ध रहे और अंग्रेज सरकार ने इन्हें कई उपाधियाँ देकर सम्मानित भी किया। ये 1911 ई. के दिल्ली दरबार में शामिल हुए व राजराजे महारानी मेरी को बूँदी राजधानी में निमन्त्रण देकर उसका बड़ा आदर सत्कार किया।79 1914 ई. से 1919 ई. के मध्य प्रथम विश्व युद्ध में बूँदी राज्य ने अंग्रेजों को अपनी सामर्थ्य से अधिक सहायता प्रदान की। बूँदी के 100 सैनिकों को मोर्चा पर भेजा गया, जिनमें 35 मारे गये अथवा लापता हो गये। युद्ध में मृत सैनिकों की विधवाओं को अंग्रेज सरकार ने पेंशन देने की घोषणा की।80 बूँदी महाराव ने अंग्रेजों के युद्ध कोष में 19 लाख रुपये 5 समान किश्तों में देने की घोषणा की व अंग्रेज सेना द्वारा कोटा से देवली जाते हुए बूँदी में पड़ाव करने पर महाराव ने उसे खाद्य सामग्री प्रदान की। महाराव रघुवीर सिंह ने 1924 में ब्रिटिश सरकार से एक सन्धि कर केशवरायपाटन परगने के 2/3 भाग की सम्प्रभुता प्राप्त कर ली।

महाराव राजा ईश्वर सिंह (1927-1945 ई.)


महाराव रघुवीरसिंह के दत्तक पुत्र ईश्वर सिंह का राज्याभिषेक 26 जुलाई 1927 ई. के दिन हुआ। महाराव ईश्वरसिंह को अंग्रेज सरकार की ओर से जी.सी.आई.ई की उपाधि मई 1937 ई. में मिली। 1939 ई. में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने पर महाराव ने ब्रिटिश सरकार का सामर्थ्य के अनुसार सहयोग दिया। राजकीय कर्मचारियों को वार सर्विस81 में सम्मिलित होने की स्वीकृति दी गई। युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों को शौर्य प्रदर्शन के कारण पदक भी प्रदान किये गये। बूँदी में नेशनल वार फ्रन्ट नामक संस्था गठित की गई। बूँदी महाराव की विशेष उल्लेखनीय सेवा अपने दतक पुत्र बहादुर सिंह को युद्ध में भेजने की थी जो 1942 ई. में सेना में भर्ती हुए थे। उन्हें इसी वर्ष मई में आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल बंगलुरु में भेजा गया। वहाँ इन्हें 19 नवम्बर 1942 ई. को प्रोबिनहार्स इन्डियन आर्म्ड कोटस में कमीशन प्रदान किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध में ये बर्मा मोर्चे पर नियुक्त किये गये। इनको मेकटीला में वीरता का प्रर्दशन करने पर 1945 ई में ‘‘मिल्ट्री क्रोस‘‘ नामक पदक जो ब्रिटिश सरकार ने इनके शौर्य प्रर्दशन पर प्रसन्न होकर दिया। महाराव ईश्वर सिंह की मृत्यु 23 अप्रैल 1945 ई. में हुई।

महाराव राजा बहादुर सिंह (1945 -1948 ई.)


महाराव ईश्वर सिंह के दत्तक पुत्र बहादुर सिंह को ब्रिटिश सरकार ने ऑनरेरी पर्सनल ए.डी.सी तथा भारतीय सेना में ऑनर मेजर नियुक्त किया। इस उपलक्ष्य में बूँदी राज्य में 28 व 29 जनवरी 1946 ई. को उत्सव मनाये गये। इनको चेम्बर ऑफ प्रिन्सेज की स्टेन्डिग कमेटी का सदस्य चुना गया। इनके समय में उच्च पदों पर आसीन अंग्रेज अधिकारियों ने महाराव बहादुर सिंह का आतिथ्य स्वीकार किया और बूँदी की यात्राएँ की।

1944 ई. में हरिमोहन माथुर की अध्यक्षता में बूँदी लोक परिषद की स्थापना हुई। महाराव बहादुर सिंह ने 1946 ई. में राज्य में विधान परिषद तथा लोकप्रिय मन्त्रिमण्डल की स्थापना की घोषणा की तथा बूँदी लोक परिषद को इसमें भाग लेने के लिये आमन्त्रित किया। किन्तु लोकपरिषद ने महाराव का आमन्त्रण अस्वीकार कर दिया। 15 अगस्त 1947 ई. को देश स्वतंत्र हो गया तथा भारत में रह गई रियासतों के एकीकरण का कार्य आरम्भ हुआ। 3 मार्च 1948 को कोटा, डूंगरपुर, और झालावाड़ के शासकों ने रियासती विभाग के समक्ष प्रस्ताव रखा कि बाँसवाड़ा, बूँदी, डूंगरपुर, किशनगढ, कोटा, प्रतापगढ, शाहपुरा, टोंक, लावा और कुशलगढ़ को मिलाकर संयुक्त राजस्थान का निर्माण किया जाए। प्रस्तावित संघ के क्षेत्र के बीच में मेवाड़ राज्य भी था जो भारत सरकार की नीति के अनुसार स्वतंत्र भारत में अपना अलग अस्तित्व बनाये रख सकता था। इसलिये मेवाड़ के महाराणा भोपाल सिंह ने नये संघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया। महाराणा के मना कर देने के बाद दक्षिणी पूर्वी रियासतों को मिलाकर 25 मार्च 1948 के वी.एस गाडगिल द्वारा सयुंक्त राजस्थान का विधिवत उदघाटन किया गया। कोटा नरेश को राजप्रमुख, बूँदी नरेश को वरिष्ठ उप राज प्रमुख और डूंगरपुर नरेश को कनिष्ठ उपराज प्रमुख बनाया गया। गोकुल लाल असावा को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस संघ का क्षेत्रफल 17000 वर्ग मील, जनसंख्या 24 लाख तथा कुल राजस्व लगभग 2 करोड़ का था। मेवाड़ महाराणा ने मेवाड़ रियासत की आंतरिक परिस्थितियों से घबराकर, इस संघ में सम्मिलित होने के लिये भारत सरकार से अनुरोध किया। इस पर भारत सरकार ने युनाईटेड स्टेट्स ऑफ राजस्थान नामक नये संघ के निर्माण का निर्णय लिया। मेवाड़ महाराणा भोपाल सिंह को इस संघ का आजीवन राजप्रमुख बनाना स्वीकार कर लिया। कोटा के महाराव भीम सिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख, बूँदी व डूंगरपुर के राजाओं को कनिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रमुख नेता श्री माणिक्य लाल वर्मा को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। राजस्थान निर्माण के अगले चरण में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर तथा जैसलमेर राज्यों को भी यूनाइटेड स्टेटस ऑफ राजस्थान में सम्मलित करने का निर्णय किया गया। इसके साथ ही राजस्थान का एकीकरण का कार्य अजमेर, मेरवाड़ा व सिरोही के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरा हो गया। 1 नवम्बर 1956 को इन्हें भी राजस्थान में मिला लिया गया और इस तरह राजस्थान सभी रियासतों को मिलाकर वर्तमान राजस्थान का स्वरूप दे दिया गया।82

कोटा का इतिहास


कोटा क्षेत्र में आदिमयुगीन बस्तियों का प्रसार चम्बल अथवा चर्मण्यवती नदी के किनारे हुआ। कोटा जिले में स्थित पहाड़ियों में बनी प्राकृतिक गुफाओं में आदिमयुगीन मानव के कुछ शेलाश्रय खोजे गये हैं। पौराणिक काल में ययाति के बड़े पुत्र यदु को 39 चर्मण्यवती, वेत्रावती (बेतवा) तथा सुक्तिमती (केन) नदियों से सिंचित होने वाले क्षेत्र दिये गये थे। जबकि ययाति के अन्य पुत्र द्रुहू को यमुना के पश्चिम का तथा चर्मण्यवती के उतर का क्षेत्र दिया गया था। कोटा जिले के निकट ही टोंक जिले के कारकोट नगर से मालव शासकों के 150 ई.पू. से 100 ई.पू. के सिक्के बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। जिससे ज्ञात होता है कि मालवों का उस समय बहुत बड़े क्षेत्र पर अधिकार था तथा वर्तमान कोटा जिले का क्षेत्र भी मालवा गणराज्य के अधीन था।

कोटा जिले के बड़वा गाँव से तीन फर्लांग पूर्व में थामतोरण स्थान से मौखरी कालीन यूप प्राप्त हुये हैं। यहाँ कुल चार यूप हैं। ये चारों यूप एक चतुष्कोण के चारों कोणों पर स्थित है। प्रत्येक यूप 16 फीट लम्बा है और प्रत्येक यूप पर कुषाणकालीन ब्राह्मी लिपि में प्राकृत मिश्रित संस्कृत भाषा का लेख उत्कीर्ण है जिससे ज्ञात होता है कि विक्रम संवत 295 (238 ई.) में मौखरी वंश के महासभापति राजा बल के चार पुत्रों ने त्रिराज यज्ञ करके यह लेख स्थापित किये थे। इन यूपों से सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र में शक क्षत्रपों के काल में वैदिक धर्म की उन्नति हुई। बड़वा मोखरीवंशी राजा बल की राजधानी थी। मौखरी वंश ने वर्तमान हाड़ौती प्रान्त पर तीसरी सदी के अन्त तक राज्य किया। गुप्त साम्राज्य के उदित होने पर मोखरी राज्य एवं मालवा गणराज्य गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गया। कोटा जिले के चारचौमा शिवमन्दिर से गुप्तकालीन लिपि एवं संस्कृत भाषा वाले लेख मिले हैं। इसमें गुप्तकालीन प्रतिमाएँ आज भी देखी जा सकती हैं।

इलाहाबाद की हरिषेण द्वारा लिखित ‘‘समुद्रगुप्त प्रशस्ति’’ से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने अच्युत नागसेन को उखाड़ फेंका था। इस अच्युत नागसेन का राज्य कोटा और उसके आस-पास के क्षेत्र पर होना अनुमानित किया जाता है। शेरगढ़ के बरखेड़ी दरवाजे की सीढ़ियों की नीचे की ताक में देवदत नामक बोद्ध धर्मावलम्बी नागवंशी राजा का विक्रम संवत 870 (813 ई.) का शिलालेख प्राप्त हुआ है। यह संस्कृत भाषा व सुन्दर लिपि में है।

गुप्तों के पतन के बाद पुनः नागवंशी राजाओं ने इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम किया। 790 ई. का सामन्त में देवदत्त का एक अभिलेख कोटा के शेरगढ़ से प्राप्त हुआ है। इस लेख में उसके तीन पूर्वजों के नाम दिये गये हैं जिनके नाम के अन्त में ‘‘नाग’’ शब्द लिखा हुआ है। झालावाड़ से 690 ई. का राजा दुर्गनाथ का एक अभिलेख मिला है, जो मौर्यवंशी राजा था। अतः इस बात की संभावनाएँ काफी पुष्ट होती हैं कि सातवीं-आठवीं शताब्दी में इस क्षेत्र में मौर्यवंशी व नागवंशी शासक मिलकर शासन करते थे। इनके दो पाषण लेख कोषवर्धन में नागवंशी राजा का लेख और कनसुआ में शिवगण मौर्य के शिलालेख मिले हैं। नाग मौर्यों के अधीन थे। मौर्यां के क्षीण हो जाने पर यह क्षेत्र धार के परमार राजाओं के अधीन चला गया। शेरगढ़ के लक्ष्मीनारायण मन्दिर से विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के दो शिलालेख मिले हैं। इनमें से एक में धार के परमार राजाओं की वाक्यपति देव से लेकर महाराज उदयादित्य देव तक की वंशावली दी गई है। परमार राजा नरवर्मन देव का राज्य प्राचीन बूँदी राज्य तक विस्तृत था। परमार राज्य के विश्रृंखलित हो जाने पर भीलों एवं मीणों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला। उनके छोटे-छोटे अनेक कबीले राज्य के रूप में संगठित होकर बान्दो घाटी (बूँदी) तथा ढूंढाड़ (जयपुर) में स्थापित हो गये। अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में बान्दो घाटी में जेता मीणा के अधीन 300 घरों की बस्ती थी। जैता मीणा बहुत शक्तिशाली था और वह अपने पुत्रों का विवाह राजपूत कन्याओं से करना चाहता था। उसने चौहान राजपूत जसराज गोलवाल से जब अपनी दो पुत्रियों का विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो विरोध स्वरूप जसराज ने बम्बावदा के हाड़ावंशीय राजकुमार देवीसिंह की सहायता प्राप्त कर षड़यन्त्र पूर्वक जैता मीणा को खत्म किया और बूँदी पर अपना अधिकार कर लिया। देवा हाड़ा शाकम्भरी के चौहान वाक्पति राजा के पुत्र राव लक्ष्मण का वंशज था। लगभग बाहरवीं शताब्दी में लक्ष्मण का वंशज आल्हण हुआ। आल्हण के वंशज हरराज को भाटों ने अपनी बहियों में हाड़ा कहकर सम्बोधित किया है। इसी हाड़ा के नाम पर उसके वंशज हाड़ा कहलाने लगे और इस प्रकार चौहानों की हाड़ा शाखा का आरम्भ हुआ। कोटा के राजा चहुवान जात के हाड़ा गौत्र में बूँदी की शाख कहलाते हैं। राव सुर्जनहाड़ा की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र भोज बूँदी का राजा तथा सुर्जन का द्वितीय पुत्र हृदयनारायण कोटा का शासक बना। हृदयनारायण ने पूरे 15 वर्ष तक कोटा पर शासन किया। अकबर ने शाही फरमान जारी करके हृदयनारायण को कोटा का शासक स्वीकार किया। सन 1607 में बूँदी के शासक भोज की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र रावरतन बूँदी की गद्दी पर बैठा।

मुगल शासक जहाँगीर व खुर्रम की सेना के मध्य 1624 ई. में इलाहाबाद के पास झांसी नामक स्थान पर हुए युद्ध में रावरतन का भाई हृदयनारायण युद्ध से डरकर भाग गया तो बादशाह ने रावरतन को कोटा का राज्य स्थाई रूप से सुर्पुद कर दिया तथा इस बात की प्रतीक्षा करने लगा कि जब भी सुअवसर उपस्थित हो रावरतन जहाँगीर से अपने बेटे माधोसिंह के नाम कोटा राज्य का फरमान जारी करवा सके।83 रावरतन ने 1625 ई. में कोटा का शासक अपने पुत्र माधोसिंह को सौंप दिया। 15 वर्ष की उम्र में ही माधोसिंह अपने पिता रावरतन के साथ रहकर मुगलों के अधीन कई लड़ाइयों में भाग लिया।

बुरहानपुर से हारकर खुर्रम दक्षिण की ओर भागा, परन्तु फिर वह बुरहानपुर में कैद कर लिया गया।84 रावरतन और महावत खाँ दोनों बुरहानपुर के शासन नियुक्त हुए। जब महावत खाँ शाही दरबार में बुला लिया गया, तो बुरहानपुर केवल राव रतन के अधिकार में रह गया। खुर्रम की देखरेख के लिये राव रतन ने अपने छोटे पुत्र हरिसिंह को नियुक्त किया परन्तु उसने शहजादे खुर्रम के साथ दुर्व्यवहार किया। इस पर खुर्रम ने रावरतन से हरिसिंह की शिकायत की। तब रावरतन ने दूसरे राजकुमार माधोसिंह को खुर्रम की निगरानी के लिये नियुक्त किया। इस दौरान माधोसिंह ने खुर्रम से अच्छी मित्रता गांठ ली। माधोसिंह के पिता रावरतन ने बुरहानपुर से खुर्रम को भगाने में हर सम्भव सहायता की थी। जहाँगीर कश्मीर से लौटते समय बीमार हुआ और लाहौर से कुछ मील उत्तर की ओर 1627 ई. में उसका देहान्त हो गया। खुर्रम ने तत्काल उत्तर की ओर प्रयाण किया और अपने ससुर आसफजहाँ की सहायता से शाही तख्त पर बैठ गया, तब उसने माधोसिंह को कोटा की जागीर प्रदान की तथा खजूरी, अरण्खेड़ा, कैथून, आवाँ, कनवास, मधुकरगढ़, दीगोल व रहल के सात परगने भी प्रदान किये।85 1631 ई. में राव रतन का देहान्त हो गया। इस अवसर पर शाहजहाँ ने माधोसिंह को सम्मान सूचक पौषाक खिलअत प्रदान की और मनसब व सवारों में पाँच-पाँच हजार की वृद्धि की। इस प्रकार माधोसिंह अब 2500 के मनसबदार और 2000 सवारों के अफसर बन गये।86

माधोसिंह के अभिषेक के समय उनका राज्य छोटा सा था। पूर्व में पलायथा तथा मांगरोल तक उत्तर में बड़ौद और पश्चिम में चम्बल नदी के बाँये किनारे पर नान्ता सीमा तक एवं दक्षिण में मुकन्दरा की पर्वत श्रेणी तथा शेरगढ़ तक इसकी सीमा फैली हुई थी।

कोटा नरेश माधोसिंह ने मुगलों की बड़ी सेवा की। खानेजहाँ लोदी के विद्रोह को दबाने का काम माधोसिंह पर छोड़ा गया। माधोसिंह ने केन नदी के किनारे खानेजहाँ लोदी तथा उसके दो पुत्रों के सिर काट दिये और शाहजहाँ को लाकर भेंट किये। शाहजहाँ ने माधोसिंह को तीन हजारी मनसबदार बनाया87 तथा रामगढ़, रहलावण, कोटड़ा, सुल्तानपुर, बड़वा, मांगरोल, खैराबाद, सुकेत, चेचट, मण्डाना, रणपुर, नीमोदा, सोरसन, पलायथ, कोयला, आटोण तथा सोरखण्ड सहित कुल 17 परगने प्रदान किये। माधोसिंह ने अपनी बेटी का विवाह आमेर (जयपुर) नरेश जयसिंह के साथ किया। मुगल शासक के साथ 1635 ई. में वीरसिंह बुन्देला के पुत्र जुझारसिंह ने विद्रोह किया तो उसे दबाने के लिये भी माधोसिंह को भेजा गया। गोड़ों की राजधानी चान्दा की सीमा पर दोनों पक्षों में लड़ाई हुई। अन्त में जुझारसिंह को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। युद्ध से थके हुये जुझारसिंह को गोड़ों ने पकड़ लिया तथा उसका व उसके पुत्र विक्रम सिंह का सिर काटकर मुगलों को भेंट किया। काधार, कांगड़ा, बल्ख बदखंशा की लड़ाइयों में भी माधोसिंह ने अच्छी कीर्ति अर्जित की। बल्ख व बदखंशा को शाहजहाँ अपने पैतृक राज्य का अंश मानता था क्योंकि पूर्व में यहाँ पर बाबर का राज्य रहा था इसलिये बल्ख पर आधिपत्य स्थापित करने के लिये राजपूत राजाओं के नाम शाही सेना के साथ कुच करने के फरमान जारी हुए। माधोसिंह उस समय लाहौर में थे। उनके नाम भी लाहौर से बल्ख रवाना होने का फरमान जारी हुआ।88 बूँदी के राव राजा शत्रुसाल, राजा विठलदास गौड़ व माधोसिंह ने सेना का नेतृत्व किया। नजर मोहम्मद युद्ध से भाग गया व उनके रिश्तेदारों को शाही सेना ने गिरफ्तार कर काबुल भेज दिया। किले पर शाही सेना का अधिकार हो गया। माधोसिंह बल्ख में ही डटे रहे। 7 अप्रैल 1647 ई. को बादशाह ने औरंगजेब को बल्ख व बदख्शा के लिये रवाना किया। उसी समय नजरमोहम्मद ने तुरान के राजा अब्दुल अजीज की सहायता से बल्ख पर भयंकर आक्रमण कर दिया। माधोसिंह ने हिम्मत व बहादुरी के साथ अल्पसंख्यक राजपूत सैनिकों की सहायता से दुर्ग की सफलता पूर्वक रक्षा की। 25 मई 1647 ई. को औरंगजेब बख्श पहुँचा। बादशाह ने औरंगजेब के साथ माधोसिंह के वास्ते चाँदी के आभूषणों अलंकृत एक घोड़ा जिसका नाम ‘‘बाद रफ्तार‘‘ (पवनवेग) भेजा था। औरंगजेब ने माधोसिंह जी को यह घोड़ा देकर सम्मानित किया।89

1648 ई. में जब माधोसिंह जी बल्ख और बदखशाँ के युद्ध से वापिस कोटा लौटे तब तक विदेशी और पहाड़ी जलवायु ने उनके स्वास्थ्य को नष्ट कर डाला था। अतः कोटा वापिस आने पर वे अधिक समय तक जीवित नहीं रह सके और 1648 ई. में ही उनका देहान्त हो गया। मृत्यु के समय माधोसिंह तीन हजार के मनसबदार व तीन हजार सवारों के हाकिम थे।

माधोसिंह के शासन काल में कोटा में बड़ा महल, राजमहल के आगे का होद, बौलसरी की डयौढ़ी, नक्कारखाने का दरवाजा, राजधानी का किला, कैथुनीपोल, पाटनपोल तथा किशोरपुरा दरवाजे का निर्माण हुआ। कोटा से बाहर कोस की दूरी पर माधोसिंह ने मधुकरगढ़ नामक कस्बा बसाया जिसकी प्राचीर के रूप में पहाड़ियों का प्रयोग किया गया। इनमें से किसी भी भवन पर मुगल कला का कोई भी प्रभाव नहीं है।

राव मुकन्दसिंह (1648-1658 ई.)


माधोसिंह के देहान्त के पश्चात मुकन्दसिंह कोटा की राजगद्दी पर बैठे। तब मुकन्दसिंह को मुगल सम्राट शाहजहाँ ने खिल्लत दी और वे दो हजार के मनसबदार और डेढ़ हजार सवारों के अफसर बनाये गये। फिर पाँच सौ सवार का इजाफा हुआ।

मुकन्दसिंह, औरंगजेब के साथ दो बार कन्धार की लड़ाई में शामिल हुए। वहाँ से लौटने पर मुकुन्दसिंह को अस्ल इजाफा कर तीन हजार मनसब व दो हजार सवार का हाकिम बनाया गया।90 1657 ई. में जब शाहजहाँ बीमार पड़ा तो उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र दारा को अमीर और उमरावों के सामने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और भली-भाँति राज्य करने का उपदेश दिया। शाहजहाँ की मृत्यु सननिकट जानकर उसके चारों पुत्रों में मुगल साम्राज्य के अधिकार को लेकर लड़ाई छिड़ गई।91 मुगल राजकुमार औरंगजेब व मुराद की संयुक्त सेना ने दारासिंह से राज्य हड़पने के लिये उज्जैन के निकट धर्मत नामक स्थान पर डेरा डाला। औरंगजेब व मुराद के इरादों को देखकर दारा ने शाही सेना रवाना करने का आयोजन किया। कासिम खाँ और जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह के नेतृत्व में शाही सेना कूच के लिय सुसज्जित हो चुकी थी। इसमें मुकुन्दसिंह ने पाँच हजार सवारों के साथ हिस्सा लिया। उन्हीं के साथ उनके चारों भाई मोहनसिंह, जुझारसिंह, कन्हीराम तथा किशोर सिंह भी दारा की सहायता के लिये धर्मत पहुँचे। 15 अप्रैल 1658 ई. में युद्ध शुरू हुआ। मुकुन्दसिंह को सेना के अग्र भाग में नियुक्त किया गया। औरंगजेब की तोपों के गोलों की बरसात के बीच मार्ग बनाकर मुकुन्दसिंह और उसके चारों भाई, छः हिन्दू सरदार तथा पाँच सौ वीर सैनिक औरंगजेब की सेना में घुस गये। मुकुन्दसिंह, मोहनसिंह, कानसिंह और जुझारसिंह92 चारों बहादुरी से मुकाबला करते हुऐ मारे गये और किशोर सिंह 42 जख्म खाकर जिन्दा बचे।93 जसवन्तसिंह आहत होकर जोधपुर चले गये और औरंगजेब ने विजय होकर इस स्थान का नाम फतेहाबाद रखा। मुकुन्दसिंह ने अपने शासन काल में राज्य की दक्षिण सीमा के पहाड़ी घाट में किलेबँदी की और दर्रे की घाटी में दरवाजा बनवाया। सैनिक दृष्टि से यह किला बड़े महत्त्व का है। यह मालवा व हाड़ौती को विभक्त करता है और दो सेनाओं में मुठभेड़ होने के लिये खास स्थान है। 1615 ई. में जब कोटा को स्थापित हुए लगभग 30 वर्ष ही हुए थे तो साम्राज्य के प्रधान मार्ग पर इस प्रकार अधिकार करना राजनैतिक दृष्टि से असाधारण काम था। उस समय हिन्दू नरेशों को किला बनवाने की इजाजत नहीं दी जाती थी। अतः नवस्थापित राज्य की सीमा पर और शक्तिशाली सम्राट शाहजहाँ के शासनकाल में मुकन्दसिंह का किला बनवाना जाहिर करता है कि मुगल दरबार में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। मुकुन्दसिंह के नाम पर इस किले का और पास ही बसाये गये गाँव का नाम मुकन्दरा रखा गया। तब से पहाड़ की श्रेणियों का नाम भी मुकन्दरा हो गया। शहर आबाद करके उसका नाम मुकुन्दरा रखा।94

राव जगतसिंह (1658-1683 ई.)


जगतसिंह जी 1658 ई. में मुकुन्दसिंह के धर्मत युद्ध में वीरगति प्राप्त करने के बाद राजगद्दी पर बैठे। ठाकुर लक्ष्मणदान ने लिखा है कि राज्याभिषेक के समय जगतसिंह की अवस्था 14 वर्ष की थी। धर्मत के मैदान में 500 से अधिक शूरवीर मारे गये थे एवं राज्य की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। मऊ मैदान का परगना शाहजहाँ ने बूँदी नरेश शत्रुसाल को पहले ही दे दिया था। मऊ के परगने की लौटाफिरी के कारण बूँदी और कोटा में माधोसिंह के जमाने में ही वैमनस्य हो गया था। ऐसी विकट स्थिति में राज्य व परिवार को सम्भालना जगतसिंह के लिये वास्तव में उत्तरदायी पूर्ण कार्य था।95 सामूगढ़ में विजय प्राप्त करने के बाद औरंगजेब ने आगरे के किले में अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर लिया। औरंगजेब ने अब शाही चिह्न धारण कर साम्राज्य को अपने हाथ में ले लिया और 21 जुलाई 1658 ई. को विधिपूर्वक दिल्ली के तख्त पर बैठा।

तख्त पर बेठते ही उसने जसवन्त सिंह, जगतसिंह और भाऊसिंह (बूँदी) को दिल्ली बुलाया। सतलज के तट पर जगतसिंह और अन्य हिन्दू राजा औरंगजेब से मिले। अन्य नरेशों के साथ जगतसिंह का भी सम्मान किया गया और उनको आश्वासन दिलाया कि उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं होगा। जगतसिंह को दो हजार का मनसब और खिल्लत दिया गया।96 इस समय जगतसिंह को कोटा की गद्दी पर बैठे हुए केवल तीन महीने हुऐ थे। जगतसिंह ने उस समय कोटा से अपने काका किशोर सिंह को भी बुला लिया, जिसके धर्मत के युद्ध के घाव अभी भरे भी नहीं थे। दिल्ली से औरंगजेब ने पूर्व दिशा में कूच करते समय जसवन्तसिंह, जगतसिंह और भाऊसिंह को साथ में ले लिया। 3 जनवरी 1659 को शुजा के विरुद्ध खानवा में युद्ध की तैयारियाँ की जाने लगी। 15 वर्षीय जगतसिंह को सेना के अग्र भाग में नियुक्त किया। उनके साथ में किशोर सिंह थे। जसवन्तसिंह ने औरंगजेब के विरोध को तब तक नहीं भुलाया था इसलिये वह ऐनवक्त पर औरंगजेब का साथ छोड़कर शुजा से जा मिले। जब शुजा की सेना ने आक्रमण किया, तो जगतसिंह व किशोर सिंह ने अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए वीरता से लड़ाई की व औरंगजेब बहुत सी लूट के साथ विजय होकर वापिस आया।97 दक्षिण में औरंगजेब ने मराठों का दमन करने के लिये खाँजहाँ बहादुर को एक बड़ी शाही सेना का अफसर बनाकर भेजा। उसकी मदद के लिये जगतसिंह भी उसके साथ गये। औरंगाबाद के पास मराठों पर कई आक्रमण किये। बहुत अर्से तक यह चढ़ाईयां जारी रही, परन्तु विजय दोनों में से किसी को नहीं मिली। एक रात हैदराबाद के सेनानायक मुहम्मद इब्राहिम खाँ ने आक्रमण कर दिया। अचानक हमले से शाही सेना में हड़बड़ मच गयी। खाँजहाँ बहादुर लड़ने को तैयार हुआ और सेना को सामना करने के लिये व्यवस्थित किया। उससे पहले मुहम्मद इब्राहिम खाँ ने कितने ही शाही सैनिकों को और अफसरों को मार डाला, परन्तु जगतसिंह जी ने वीरता से मुहम्मद इब्राहिम का सामना किया और विजय दिलवायी। जगतसिंह और किशोर सिंह दोनों औरंगजेब की तरफ से दक्षिण में मराठों, बीजापुर तथा गोलकुण्डा के सुल्तानों के विरुद्ध लड़ने के लिये नियुक्त किये गये थे। हैदराबाद की लड़ाई में 1683 ई. में जगतसिंह शेख मिन्हाज के विरुद्ध घोर युद्ध करते हुए धाराशायी हुए तब किशोर सिंह बीजापुर की लड़ाई में व्यस्त थे। जब जगतसिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुऐ। उस समय उनके कोई औलाद नहीं थी तब रियासती लोगों ने कोयला के कान्हसिंह के बेटे प्रेमसिंह को गद्दी पर बैठा दिया, लेकिन चाल-चलन खराब होने के कारण 13 महीने बाद ही गद्दी से उतार दिया। माधवसिंह के पाँचवें बेटे किशोर सिंह का कार्तिक शुक्ला द्वितीया 1684 ई. में राजतिलक कर दिया गया और प्रेमसिंह को वापिस कोयला भेज दिया गया।

राव किशोर सिंह (1684-1695 ई.)


किशोर सिंह को अपने पिता से चौबीस गाँव सहित सांगोद की जागीर मिली थी। शाहजहाँ के समय में वे चार सौ के मनसबदार थे और बल्ख व बदख्शां के युद्ध में अपने पिता राव माधोसिंह के साथ थे। धर्मत के युद्ध में औरंगजेब के विरुद्ध लड़ते हुऐ जख्मी हुए, परन्तु इस समय तक इनको एक हजार का मनसब मिल चुका था व औरंगजेब के विश्वासपात्र बन चुके थे। उनकी वीरता और प्रेमसिंह की अयोग्यता को देखकर औरंगजेब ने खिल्लत और फरमान देकर किशोर सिंह को दक्षिण से अपने पिता की गद्दी पर बैठने के लिये कोटा रवाना किया।98 इस समय औरंगजेब बड़े जोर के साथ दक्षिण के युद्ध में लगा हुआ था अतः किशोर सिंह को कोटा में रहने का अवकाश नहीं मिल सका। राज्याभिषेक का उत्सव समाप्त होते ही वे पुनः युद्ध में सम्मिलित होने दक्षिण चले गये। किशोर सिंह के इस समय चार पुत्र बिशनसिंह, रामसिंह, अर्जुनसिंह, हरनाथसिंह थे। दक्षिण जाते समय किशोर सिंह अपने साथ कुंवर बिशनसिंह जी को ले जाना चाहते थे परन्तु इन्होंने अपनी माता के कहने से साथ जाने के लिये इन्कार कर दिया। उनके इन्कार करने से क्रोधित होकर किशोर सिंह ने उसको उत्तराधिकार से वंचित कर दिया और दूसरे कुंवर रामसिंह को ज्येष्ठ पुत्र मानकर अपने साथ ले गये। बिशनसिंह को अधिकार की दृष्टि से कनिष्ठ पुत्र बनाकर अणते की जागीर दे दी।99 1684 ई. उनका अधिकांश समय दक्षिण में युद्ध स्थल में ही बीता। इन्होंने बीजापुर, इब्राहिमगढ़, हैदराबाद में औरंगजेब को विजय दिलायी व मराठों के विरुद्ध रायगढ़, बसनतगढ़ विजय में भी शामिल थे।

कोटा की तवारीख में लिखा है कि सिनसिनी के जाटों की बगावत मिटाने के लिये आलमगीर बादशाह ने अपने पोते बेदारबख्श के साथ राव किशोर सिंह को भेजा। इनके साथ गये घाटी के रावत तेजसिंह, राजगढ़ के आपजी, गोवर्धनसिंह, पाना हेड़ा के ठाकुर सुजानसिंह सोलंकी व तारज के ठाकुर राजसिंह मारे गये। ये जख्मी हालत में कोटा आये और कुछ अर्से बाद औरंगजेब ने इनको दक्षिण में बुलाया। किशोर सिंह बीमारी से लाचार थे, उन्होंने अपने बेटे विष्णुसिंह व हरनाथसिंह को दक्षिण में भेजना चाहा, परन्तु उन्होंने बहाना बनाकर जाने से इन्कार कर दिया। तब रामसिंह पिता के हुक्म के मुताबिक खुशी से रवाना होकर बादशाह के पास पहुँचे। कुछ दिनों बाद किशोर सिंह भी बीमारी से फुर्सत पाकर बादशाही खिदमत में हाजिर हुए और 1695 ई. में अर्काट के हमले में बड़ी बहादुरी के साथ लड़ते हुए मारे गये। इनके बेटे रामसिंह जो जख्मी होकर जिंदा बचे व उनके बाद कोटा की गद्दी पर बैठे। राजा बनने से पूर्व किशोर सिंह एक हजार के मनसबदार थे। बीजापुर की विजय के बाद शोलापुर के कैम्प में किशोर सिंह को एक हाथी, पाँच घोड़े और बहुत से जवाहरात भेंट किये गये थे व कवाई परगना दिया गया था। जाटों से युद्ध करते हुए बूँदी के राव राजा अनिरुद्धसिंह रणक्षेत्र से भाग निकले थे परन्तु किशोर सिंह वीरता पूर्वक लड़ते रहे थे। इसलिये केशोरायपाटन का परगना बूँदी से छीनकर मुगल शासक द्वारा किशोर सिंह को दिया गया था। मृत्यु के समय किशोर सिंह चार हजार जात के मनसबदार और तीन हजार सवारों के हाकिम थे।

राव रामसिंह (1695-1707 ई.)


राव रामसिंह को राज्यभिषेक के समय युद्ध का काफी अनुभव हो चुका था। गद्दी पर बैठने के समय रामसिंह को औरंगजेब ने तीन हजार का मनसबदार और तीन हजार सवारों का अफसर बना दिया था।

रामसिंह की प्रसिद्धी उनके तोपखाने के कारण थी, इसलिये रामसिंह ‘भड़बूज्या’ कहलाने लगे थे। जब रामसिंह दक्षिण में औरंगजेब के साथ थे। उनके भाई बिशनसिंह ने कोटा के तख्त पर अधिकार कर लिया। अतः रामसिंह शाही सेना लेकर कोटा आये। आवां में बिशनसिंह और रामसिंह में लड़ाई हुई। बिशनसिंह पराजित हुए। बिशनसिंह के पृथ्वीसिंह नामक एक पुत्र थे, जिनको रामसिंह ने कोटा बुलाया और उनको अन्ते की जागीर प्रदान की।100 दक्षिण में मराठा शासक राजाराम के दुर्ग ‘‘जिंजी‘‘ को पाने के लिये जब जुल्फिकार खाँ को सफलता हाथ नहीं लगी तब जनवरी 1698 ई. में रामसिंह अपने वीर हाड़ा सैनिकों के साथ लकड़ी का पुल पालकर दुर्भेद्य द्वार में प्रवेश किया और दुर्ग पर विजय प्राप्त की।101

1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों मुअज्जम और आजम में सत्ता प्राप्ति को लेकर संघर्ष होने लगा। बूँदी नरेश बुद्धसिंह हाड़ा ने मुअज्जम का और कोटा नरेश रामसिंह ने आजम का पक्ष लिया। धौलपुर के पास जाजव के मैदान में दोनों शहजादों की सेनाओं में युद्ध हुआ। 20 जून 1707 को रामसिंह इस युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए व मुअज्जम की विजय हुई। युद्ध की समाप्ति पर उनके शव का नुराबाद में विधिपूर्वक अन्त्योष्टि संस्कार किया गया।102 औरंगजेब ने रामसिंह की वीरता से प्रसन्न होकर नक्कार व ढाई हजारी मनसब प्रदान किया। रामसिंह के समय में रामपुरा बाजार, दरवाजा और कोट बनवाया गया। इन्होंने रावठे के तालाब का निर्माण करवाया और रामनिवास बाग लगवाया, किशोर सागर का काम भी रामसिंह के समय तक जारी रहा था।

महाराव भीमसिंह (1707 -1720 ई.)


राव रामसिंह की मृत्यु होने के बाद उनका पुत्र भीमसिंह कोटा का राजा हुआ, उस समय मुगल साम्राज्य में मुअज्जम बहादुरशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। बूँदी नरेश बुद्धसिंह ने बहादुरशाह को प्रभाव में लेकर 54 परगने बूँदी राज्य में शामिल करने की आज्ञा प्राप्त कर ली। इस बात को लेकर बूँदी व कोटा के मध्य पाटण के पास मुकाबला हुआ। बूँदी की फौज को भीमसिंह ने परास्त किया। फरुखशियर के समय में भीमसिंह ने 1713 ई. में बूँदी पर चढ़ाई की और अपना अधिकार जमा लिया103, परन्तु कखर का सालमसिंह उनका सामना करने को तैयार हो गया व बूँदी के राज्य को लूटने लगा, तब भीमसिंह ने धाभाई भगवानदास को एक सेना के साथ उसको रोकने के लिये भेजा। दोनों सेनाओं का धनावदें में भारी युद्ध हुआ, जिससे सालमसिंह के वंशज और कई मेवाती मारे गये। धाभाई भगवानदास के भी कई घाव लगे अन्त में विजय भीमसिंह की हुई। जयपुर के सवाई जयसिंह ने बुद्धसिंह को बूँदी वापिस दिलाने का प्रयत्न किया और फर्रुखशियर से निवेदन किया। फर्रुखशियर ने जयसिंह की बात मानकर नवाब दिलावर खाँ को शाही सेना के साथ बूँदी पर बादशाह का अधिकार स्थापित करने के लिये रवाना किया गया और उसके साथ सवाई जयसिंह के कामदार को भी भेजा गया।

दिलावर ने बूँदी पर आसानी से अधिकार कर लिया और उसको विधिपूर्वक खालसे करके (मुगल साम्राज्य में मिलाकर) फिर तत्काल बुद्धसिंह को दे दिया। इस प्रकार भीमसिंह ने बूँदी का जीता हुआ प्रदेश 1715 ई. में वापिस कर दिया। बारां व महू के परगनों को जो कोटा के अधिकार में थे, वापिस नहीं किये, परन्तु फर्रुखशियर के दबाव के कारण ये इलाके भी भीमसिंह को बूँदी वापिस करने पड़े। बुद्धसिंह को बादशाह की सहायता से बूँदी वापिस मिल तो गया था, परन्तु वे उसको सम्भालकर रख नहीं पाये थे। भीमसिंह ने बूँदी पर पुनः चढ़ाई की। 1719 ई. में बूँदी में अपना शासन स्थापित किया।

महाराव भीमसिंह की शाही दरबार में व राजपूताने की सब बड़ी रियासतों में बड़ी प्रतिष्ठा थी। फर्रुखशियर ने उनको पाँच हजार का मनसब और पाँच हजार सवारों का सवार बनाकर महाराव की पदवी से विभूषित किया था। महाराव भीमसिंह का देहावसान 20 जून 1720 ई. को हो गया था। उस समय उनके चार पुत्र अर्जुनसिंह, श्यामसिंह, दुर्जनसिंह और किशनसिंह में से सबसे बड़े अर्जुनसिंह राजगद्दी पर बैठे परन्तु मुगल साम्राज्य में सैयद बन्धुओं की पराजय व 1720 ई. में मुहम्मदशाह के बढ़ते प्रभाव के कारण कोटा के शासक का महत्त्व कम हो गया था। इस समय धाभाई भगवानदास उनके प्रतिनिधि के हैसियत से बूँदी पर शासन कर रहा था। उसने परिस्थितियों को देखकर बूँदी का इलाका बुद्धसिंह को वापिस दे दिया और बूँदी के सब परगनों से कोटा के थाने उठवा लिये।104 यह खबर सुनकर सालमसिंह झिलाय से कूच करके बूँदी आ पहुँचा और बुद्धसिंह का मन्त्री बनकर राजकार्य करने लगा। महाराव अर्जुनसिंह ने सिर्फ तीन वर्ष राज्य किया। कार्तिक शुक्ला सप्तमी सम्वत 1780 (1723 ई.) में उनका देहान्त हो गया। इनके कोई औलाद नहीं होने के कारण उनके भाई दुर्जनसाल कोटा गद्दी पर बैठा।

महाराव दुर्जनसाल (1723-1756 ई.)


राजपूतों के परम्परा के अनुकूल भीमसिंह जी के द्वितीय पुत्र श्यामसिंह को गद्दी मिलनी चाहिये थी।

परन्तु दुर्जनसाल को सरदारों ने अपना स्वामी स्वीकार किया। इससे नाराज होकर श्यामसिंह ने जयपुर के सवाई जयसिंह का आश्रय लिया और कोटा का राज्य दिलवाने की उनसे प्रार्थना की। सवाई जयसिंह की सैनिक सहायता से उदयपुरया के मैदान में दोनों सेनाओं में मुठभेड़ हुई, श्यामसिंह घायल हुए और रणक्षेत्र में ही उनके प्राण छूट गये।105 दुर्जनसाल का राज्यकाल अधिकतर बूँदी के झगड़े में व्यतीत हुआ। उन्होंने बूँदी को बुद्धसिंह को और फिर उम्मेदसिंह को दिलाने में निरन्तर प्रयत्न किया। उसके कुछ समय बाद ही जयसिंह ने बूँदी पर चढ़ाई कर दी। बुद्धसिंह लड़ाई किये बिना ही बूँदी से भाग निकले और जयसिंह ने बूँदी पर अधिकार करके राजा सालमसिंह के लड़के दलेलसिंह को अपनी अधीनता में बूँदी का राजा नियत किया।

जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह का इन्तकाल हुआ, तब बूँदी के रावराजा उम्मेदसिंह जो अपने ननिहाल बेंगू में रहते थे, दुर्जनसिंह के पास सहायता के लिये आये और उनकी सहायता प्राप्त कर बूँदी पर फिर से कब्जा कर लिया। सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरसिंह ने दलेलसिंह को बूँदी वापिस दिलाने के लिये मराठों से सहायता लेकर बूँदी पर कब्जा कर लिया व कोटा को घेर लिया। मराठा सेनाओं ने कोटा नरेश दुर्जनसाल से 1745 ई. में एक सन्धि सम्पन्न की जिसके अनुसार बूँदी पर दलेलसिंह का अधिकार हुआ व केशवरायपाटन व कापरेन के परगने मराठों को प्राप्त हुए। दुर्जनसाल का विवाह उदयपुर की राजकुमारी ब्रजकुँवर बाई से हुआ था। यह महाराणा संग्रामसिंह की द्वितीय पुत्री थी जिनका देहान्त हो जाने के कारण उसका कन्यादान उसके भाई महाराणा जगतसिंह ने किया था।106 01 अगस्त 1756 ई. को महाराव दुर्जनसाल का देहान्त हो गया। दुर्जनसाल के कोई पुत्र नहीं था। अतः उनके निकटतम सम्बन्धी अजीत सिंह को कोटा का शासक मुकर्रर किया, इन्होंने थोड़े दिन ही राज्य किया और 1758 ई. में देहान्त हो गया। अजीतसिंह के दो पुत्र शत्रुसाल और गुमानसिंह जी थे जिनमें बड़े पुत्र शत्रुसाल सिंह राज्य के शासक बने।

महाराव शत्रुसाल (1758-1764 ई.)


महाराव शत्रुसाल के समय जयपुर के माधवसिंह से हुई भारी लड़ाई का हाल कोटा की तवारीख में इस तरह लिखा गया कि ‘‘रणथम्भौर किला जब बादशाही मुगलों ने जयपुर के महाराजा माधवसिंह को सौंप दिया, तो बादशाही मुगल के समय इन्द्रगढ़, खातोली, गैता, बलबन, करवाड़, पीपलदा, आंतरौदा, निमौला के जागीरदार हाड़ा रणथम्भौर किले के फौजदार को पेशकशी और नौकरी देते थे। जब रणथम्भौर का किला जयपुर के हाथ आया तो महाराजा माधोसिंह ने इन सरदारों से पूर्ववत कर लेना चाहा, इस पर हाड़ा तैयार नहीं हुए, सब मिलकर महाराव शत्रुसाल के पास आये।107 महाराव शत्रुसाल ने जागीरदारों से कोटा की मातहती का इकरार लिखवा लिया। यह सुनकर महाराजा माधवसिंह ने एक बड़ी भारी फौज कोटा को बर्बाद करने के लिये भेज दी। कोटा से अठारह कोस पर भटवाड़ा गाँव के पास मुकाबला हुआ, दोनों पक्षों के सैकड़ों आदमी मारे गये। आखिरकार जयपुर की फौज भाग निकली, विजय कोटा को मिली। शत्रुसाल ने केवल छः वर्ष के लगभग राज्य किया। भटवाड़े के मैदान में सेना का संचालन तथा नेतृत्व उनके फौजदार झाला जालिम सिंह के सुपुर्द था जिनसे कोटा राज्य के इतिहास में एक विशेष परिर्वतन का सूत्रपात हुआ।

महाराव गुमानसिंह (1764-1770 ई.)


महाराव शत्रुसाल के कोई पुत्र नहीं था अतः उनके देहान्त के पश्चात उनके छोटे भाई गुमानसिंह जी राजगद्दी पर बैठे। उनका फौजदार जालिम सिंह भी उस समय नवयुवक था व भटवाड़े की रणभूमि में अपने पराक्रम व नीति नैपुण्य का परिचय दे चुका था। जालिम सिंह की बहिन का विवाह गुमानसिंह के साथ हुआ था, इस कारण से भी वह राज्य में सर्वेसर्वा था। उसकी शक्ति को इस प्रकार उत्तरोतर बढ़ती देख हाड़ा जागीदार बहुत क्षुब्ध थे। कई जागीरदारों की जागीरें उसने कम कर दी थी और महत्त्वपूर्ण जागीरदारों को निकाल कर उनकी जागीरें खालसे कर ली थी। इसलिये सब जागीदारों ने संगठित होकर कोटा नरेश से जालिम सिंह की शिकायत की, उधर जालिम सिंह भी अपने आपको सभी प्रकार से कर्ता-धर्ता समझकर महाराव गुमानसिंह की आज्ञाओं का यथोचित पालन नहीं करता था। इसलिये गुमानसिंह ने जालिम सिंह को फौजदार के पद से हटाकर राज्य से विदा कर दिया और ठाकुर भोपतसिंह भॉकरोत को नया फौजदार नियुक्त किया। भोपतसिंह इस पद पर थोड़े दिन ही रह पाया। एक तरफ मराठों की बढ़ती हुई माँगें तथा दूसरी ओर जयपुर के आक्रमण का निवारण करने में यह यथोचित निपुणता नहीं दिखा सका। अतः इटावे के जागीदार स्वरूपसिंह को यह पद दिया गया। यह भी उस समय की विषम स्थिति को नहीं संभाल सके और महाराव गुमानसिंह को पुनः जालिम सिंह को बुलाने पर विचार करना पड़ा।

कोटा की नौकरी छोड़कर झाला जालिम सिंह ने महाराणा उदयपुर के यहाँ नौकरी कर ली। इस समय महाराणा बड़ी विपत्ति में थे। समस्त जागीरदार महाराणा के घोर विरोधी बन चुके थे। जागीरदारों ने कुम्भलगढ़ में राणा रतन सिंह को महाराणा घोषित कर दिया था। महाराणा ने जालिम सिंह को चीताखेड़े की जागीर और राजराणा की उपाधि दी परन्तु उज्जैन की हार से उदयपुर की स्थिति डावाडोल थी और विजयी माधवराव सिन्धिया की सेनाएँ मेवाड़ राज्य को चारों ओर से खूंद रही थी। उधर गुमानसिंह ने जालिम सिंह को वापिस कोटा लौटने का प्रस्ताव रखा, तो उसने तत्काल स्वीकार कर लिया।108 जालिम सिंह को दोबारा फौजदार बने हुऐ थोड़ा ही अर्सा हुआ था कि महाराव गुमानसिंह बीमार हो गये। उस समय महाराज कुमार उम्मेद सिंह केवल दस वर्ष के थे। मराठा के आक्रमण का रात दिन भय रहता था। ऐसी स्थिति में गुमानसिंह ने अपने लड़के उम्मेदसिंह को जालिम सिंह के सुपुर्द कर 1770 ई. में इस दुनिया से कूच कर गये।

महाराव उम्मेदसिंह (1770-1819 ई.)


महाराव उम्मेदसिंह के गद्दी पर बैठते समय अल्पवयस्क होने के कारण जालिम सिंह ही महाराव का संरक्षक व सर्वेसर्वा था। जब उसने शासन सूत्र अपने हाथ में लिया तो मालगुजारी खजाना और जकात आदि का प्रबन्ध महाराज स्वरूपसिंह के अधीन था। जालिम सिंह सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को स्वयं अपने हाथ में केन्द्रीभूत करना चाहता था। स्वरूपसिंह राज परिवार के नजदीकी भाई थे इसलिये जालिम सिंह ने उनका अन्त करने के लिये एक षड़यन्त्र रचा और राजमाता को स्वरूपसिंह के विरुद्ध भड़काया और छल से धाभाई जसकरण को लोभ देकर स्वरूपसिंह का वध करवा दिया।109 उसके बाद महाराज उम्मेदसिंह के समक्ष धाभाई जसकरण के विरुद्ध हत्या का आरोप लगाकर कोटा छुड़वा दिया। धाभाई जसकरण को विवश होकर कोटा छोड़ना पड़ा और जयपुर राज्य में दुःख और दरिद्रता के साथ अपना जीवन काटना पड़ा।

1790 ई. में कैलवाड़ा और शाहबाद का किला महाराव उम्मेदसिंह और जालिम सिंह ने जीतकर अपनी रियासत में मिला लिया। इसी तरह गंगरार वगैरह परगने लेकर जालिम सिंह ने रियासत को ताकतवर किया और मराठा से मेल मिलाप रखकर मुल्क में शान्ति बनाये रखी। जालिम सिंह ने मराठों व अंग्रेजी अफसरों से भी मेल मिलाप रखकर राज्य में शान्ति बनाये रखी।110 1803 ई. में हिंगलाज के पास जसवन्तराय होल्कर का अंग्रेज कर्नल मान्सन से विरोध बढ़ा तो मान्सन की मदद के लिये कोटा से कोयला व फलायता के जागीरदारों को भेजा गया। होल्कर ने एक हजार सैनिकों के साथ कोटा की सेना को घेर लिया तब कर्नल मान्सन को जालिम सिंह ने सुरक्षित रूप से मुकुन्दरा की घाटी में पहुँचाया। मान्सन के पलायन से होल्कर को असंतोष हो गया, उसने कोटा से बदला लेने की ठानी और कूच करता हुआ कोटा में घुस गया। होल्कर के साथ सन्धि की बातचीत प्रारम्भ हुई और यह तय हुआ कि कोटा राज्य ने कम्पनी को सहायता देकर होल्कर को जो क्षति पहुँचायी है उसके दण्डस्वरूप कोटा दस लाख रुपये जुर्माना देगा परन्तु जालिम सिंह ने उसको स्वीकार नहीं किया,।111 फिर होल्कर तीन लाख रुपये लेकर कोटा से रवाना हो गया और शेष सात लाख रुपये माँगना उसने कभी नहीं छोड़ा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की उभरती हुई ताकत को देखकर जालिम सिंह ने मराठों से निपटने का मानस बना लिया। जब कभी मेवाड़, जयपुर अथवा मारवाड़ नरेशों ने मराठों से लड़ाई की तो जालिम सिंह ने अपनी सेना मराठों के विरुद्ध भेजी। जब मराठों ने मेवाड़ घेर लिया तो जालिम सिंह स्वयं फौज लेकर गया और मराठों को मार भगाया। जब मेवाड़ के महाराणा ने जालिम सिंह के परममित्र इंगले के भाई भालेराव को कैद कर लिया तो जालिम सिंह ने उसे छुड़ाने के लिये मेवाड़ आया और उसने महाराणा पर आक्रमण कर दिया और महाराणा को परास्त कर भालेराव को मुक्त करा लिया और फौज खर्च की एवज में जहाजपुर का किला और परगना छीन लिया।112 उसने मेवाड़ के ईटोंदा, शक्करगढ़, कोटड़ी और हस्तड़ा के परगने महाराणा से पट्टे में प्राप्त किये और महाराणा को इकहत्तर लाख रुपये कर्जा ब्याज पर दिया। 1814 ई. में कर्नल टॉड ने यह परगने जालिम सिंह के मातहत अधिकारी बिशनसिंह शक्तावत से पुनः प्राप्त कर मेवाड़ में मिलाये। धीरे-धीरे जालिम सिंह के प्रति स्थानीय राजपूत सरदारों का विरोध बढ़ने लगा, तो उसने उनका अधिकाधिक दमन करना शुरू कर दिया। अपनी सत्ता के बल से उसने हाड़ा सरदारों की शक्ति को तो क्षीण कर दिया लेकिन उनके असंतोष को वह नहीं मिटा सका। उनके द्वारा जालिम सिंह के प्राण लेने के अनेक षड़यन्त्र किये गये पर सब विफल रहे। 1817 ई. में जालिम सिंह ने कम्पनी की बढ़ती शक्ति को देखकर महाराव उम्मेदसिंह के साथ एक सन्धि भी की। 18 नवम्बर 1819 ई. में महाराव उम्मेदसिंह का इन्तकाल हो गया।

महाराव किशोर सिंह (1819-1827 ई.)


जालिम सिंह ने नवम्बर 1819 ई. में महाराव किशोर सिंह का पट्टाभिषेक किया और पश्चिमी राजपूताना के पॉलिटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड को इसकी सूचना भिजवायी। राज्याभिषेक के बाद किशोर सिंह और जालिम सिंह के आपस में मतभेद बढ़ने लगे। किशोर सिंह को जालिम सिंह के दबाव में रहना पसनद नहीं था। जालिम सिंह के एक बेटे गोवर्धनदास ने भी महाराव को अपने पिता के विरुद्ध भड़काया जो जालिम सिंह के दूसरे बेटे माधव सिंह के खिलाफ था। महाराव किशोर सिंह ने अन्त में निश्चय कर लिया कि जालिम सिंह के हाथ से शासन की बागडोर छीनकर अपने हाथ में ली जावे। तब महाराव ने पॉलिटिकल एजेन्ट के मार्फत गवर्नल जनरल को खरीता भेजा113 कि 1817 ई. की सन्धि अनुसार स्वर्गीय नरेश के उत्तराधिकारी कोटा राज्य के अनियन्त्रित शासक रहने चाहिए। इसलिये कम्पनी जालिम सिंह की सहायता नहीं करे। मार्च 1818 ई. में जालिम सिंह और कम्पनी में जालिम सिंह को सहायता दी जाने की, जो गुप्त सन्धि हुई उसकी जानकारी महाराव को भी नहीं थी। कम्पनी ने जालिम सिंह का पक्ष लिया क्योंकि पिण्डारियों व भागे हुए सरदारों को पकड़वाने में जालिम सिंह ने कम्पनी को बड़ी सहायता की थी। कर्नल मान्सन को मदद देकर व राजपूताने में सर्वप्रथम कम्पनी के साथ संधि करके दूसरे राज्यों के साथ सन्धि का उसने रास्ता खोल दिया था। इसलिये खरीते के उत्तर में कम्पनी ने लिखा कि ‘‘महाराव नाममात्र का शासक है। जालिम सिंह के साथ जो कम्पनी की सन्धि हुई उसके खिलाफ महाराव की दलीले नहीं सुनी जा सकती।” कोटा राज्य का वास्तविक शासक जालिम सिंह है न कि महाराव। महाराव की स्थिति सताराके राजा या मुगल सम्राट से ज्यादा अच्छी नहीं थी। ये बातें कोटा नरेश को स्वीकार नहीं थी इसलिये जालिम सिंह से लड़ाई करने के लिये सेना के साथ किशोर सिंह रंगबाड़ी तक आ पहुँचे। तब कम्पनी के पॉलिटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड ने रंगबाड़ी पहुँचकर कोटा नरेश को विश्वास दिलाया कि उनकी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान में कोई कमी नहीं आयेगी। साथ में यह भी कहा कि कम्पनी ने जो शासन शक्ति जालिम सिंह को दी हैं। उसमें भी किसी प्रकार की कमी नहीं आयेगी।114 पॉलिटिकल एजेन्ट ने कम्पनी की ओर से महाराव किशोर सिंह और जालिम सिंह को खिलअते देकर सम्मानित किया।115 और गोवर्धनदास को कोटा से बाहर कर दिल्ली और झाबुआ भेज दिया। अब जालिम सिंह और किशोर सिंह आमने-सामने हो गये। किशोर सिंह ने देखा कि आत्मरक्षा करना असम्भव है, तो वह मध्य रात्रि को गुप्त रास्ते से बूँदी पहुँच गये। जहाँ बूँदी नरेश राव राजा विष्णुसिंह ने किशोर सिंह का स्वागत किया और सम्मानपूर्वक अपने पास ठहराया और सहायता का आश्वासन दिया। कम्पनी के एजेन्ट और जालिम सिंह ने अब बूँदी नरेश के नाम खरीते भेजे कि महाराव किशोर सिंह का बूँदी में रहना वांछनीय नहीं है, तब किशोर सिंह भरतपुर होते हुए दिल्ली पहुँचे जहाँ पर कम्पनी के कर्नल टॉड ने बहुत समझाया, परन्तु किशोर सिंह ने निश्चय कर लिया कि जालिम सिंह से शासन सूत्र छीनने के लिये एक बार पुनः प्रयत्न किया जावे। इस उद्देश्य से वह कोटा की ओर रवाना हो गये। गोवर्धनदास के प्रयत्न से रेजिडेन्सी का खजांची और मीरमुंशी कोटा नरेश के पक्ष में हो गये। मार्ग में किशोर सिंह यह घोषित करते हुए आये कि कम्पनी सरकार से उनका कोई विरोध नहीं है और कम्पनी की आज्ञा से वह अपना राज्य प्राप्त करने के लिये कोटा जा रहे हैं।

कम्पनी का खजांची साथ होने से लोग भी उनके साथ सहानुभूति करने लगे। महाराव किशोर सिंह 1821 ई. के वर्षाकाल में कोटा की सीमा में पहुँचे, हाड़ा राजपूत और जागीरदार सब जालिम सिंह के शासन से असन्तुष्ट थे। वे लोग उसके शासन को राजनीतिक अतिक्रमण समझते थे और सब किशोर सिंह को गद्दी पर बैठाने के पक्षधर थे। इसलिये सब हाड़ा सरदार महाराव के पक्ष में लड़ने के लिये उनके झण्डे के नीचे एकत्र होने लगे। उधर जालिम सिंह ने कम्पनी से सैनिक सहायता प्राप्त कर ली। मांगरोल के पास दोनों सेनाएँ आमने-सामने आ गयी। लड़ाई आरम्भ होने से पहले पॉलिटिकलएजेन्ट और एक अंग्रेज अफसर दरबार को समझाने के लिये उनके डेरे पर गये, परन्तु महाराव किशोर सिंह ने इस बात को नहीं माना और पुनः 1818 ई. में कर्नल टॉड को भेजी गयी शर्तों को दोहराया, जिसमें जालिम सिंह के फौजदार बने रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी। माधोसिंह को जागीर देकर कोटा से दूर रखने, ब्रिटिश सरकार को या अन्य रियासतों को पत्र दरबार की सम्मति से भेजे जाने, सेना दरबार के अधिकार में रहने की बात कही गयी थी। उपरोक्त शर्तों को मानने के लिये पोलिटिकल एजेन्ट तैयार नहीं हुआ। कम्पनी सरकार अपनी गुप्त सन्धि के अनुकूल जालिम सिंह को वास्तविक और महाराव को नामधारी शासन बनाने पर तुली हुई थी। अन्त में 1 अक्टूबर 1821 ई. में लड़ाई शुरू हो गयी।116 युद्ध में महाराव किशोर सिंह की हार हुई। महाराव किशोर सिंह पार्वती नदी को पार करके बड़ौद पहुँचे। यहाँ पर उन्होंने अपने वीर हाड़ा भाइयों से विदा ली और स्वयं नाथद्वार की ओर रवाना हुये। वहाँ उनसे मिलने के लिये उदयपुर नरेश महाराव भीमसिंह आये। महाराणा भीमसिंह की कोटा राजपरिवार से रिश्तेदारियाँ थीं। महाराणा भीमसिंह ने कम्पनी सरकार और महाराव किशोर सिंह में समझौता कराने के लिये मध्यस्थ की हैसियत से पत्र व्यवहार किया। 1822 ई. को नाथद्वारा में महाराव किशोर सिंह और कुंवर माधोसिंह और कम्पनी के प्रतिनिधि कर्नल टॉड के बीच एक सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुकूल निम्नलिखित शर्तें तय हुई-

कुँवर माधोसिंह झाला कोटा का फौजदार रहेगा और राज्य शासन उसके हाथ में रहेगा। पुण्य ईनाम, त्योहार और सैनिक जुलूसों का प्रबन्ध कोटा नरेश के सुपुर्द होगा। छत्र, चवर आदि राजचिह्न किले में रहेंगे, वहीं नक्कारखाना रहेगा। सवारी में राज्य का सम्पूर्ण लवाजमा दरबार के साथ रहेगा। इनाम जो वितरण किया जावेगा वह कोटा नरेश की तरफ से होगा। नगर के भीतर के व बाहर के सब राजमहलों पर कोटा नरेश का अधिकार होगा और उनकी रक्षा तथा मरम्मत के लिये पर्याप्त रुपये दिये जावेंगे। महाराजा पृथ्वीसिंह के पुत्र रामसिंह के निर्वाह के लिये उचित प्रबन्ध होगा और विष्णुसिंह जिन पर दरबार का विश्वास नहीं है वह अणता में रहेंगे। महाराव किशोर सिंह के व्यक्तिगत और अन्तपुर के खर्च के लिये उतना रुपया निश्चित किया जावेगा, जितना महाराणा उदयपुर खर्च करते हैं।117

जब महाराव किशोर सिंह 1821 ईस्वी में कोटा पहुँचे तो पॉलिटिकल एजेन्ट और जालिम सिंह ने उनका स्वागत किया और पुनः कोटा राज्य का शासन पूर्ववत होने लगा। महाराव किशोर सिंह के वापिस आने के बाद जालिम सिंह भी अधिक अर्से तक जीवित नहीं रहे और 1823 ई. में जालिम सिंह का देहान्त हो गया और उनका बेटा माधवसिंह रियासत का काम करता रहा। महाराव किशोर सिंह भी अधिक दिन तक राजसुख नहीं भोग सके। आषाढ़ शुक्ला अष्टमी 1827 ई. के दिन उनका देहान्त हो गया।

महाराव रामसिंह (1827-1865 ई.)


जब महाराव किशोर सिंह की मृत्यु हो गयी तो गद्दी पर बैठने का हक उनके दूसरे भाई अणता के जागीरदार महाराज विष्णुसिंह का था लेकिन महाराव किशोर सिंह, जालिम सिंह की अदावत के कारण कोटा से निकले तो विष्णुसिंह जालिम सिंह झाला के साथ रहा और तीसरा भाई पृथ्वीसिंह महाराज के साथ रहकर मांगरोल की लड़ाई में मारा गया था। इससे किशोर सिंह ने उसके बेटे रामसिंह को वलीअहद बनाया। 1827 ई. को रामसिंह का राज्याभिषेक हो गया। गुप्त सन्धि के अनुकूल शासन शक्ति झाला माधोसिंह के हाथ में ही रही।118 सन 1831 ई. में महाराव रामसिंह, झाला माधोसिंह तथा कोटरियात के सरदारों के साथ अजमेर में लार्ड बेंटिक की मुलाकात को गये जहाँ पर झाला माधोसिंह को चँवर प्रदान किये गये। गवर्नर जनरल से कोटा नरेश की यह प्रथम भेंट थी। ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद गवर्नल जनरल ने राजपूताने का यह पहला दौरा किया था। माधोसिंह झाला का 1833 ई. में देहान्त हो गया तो उसका बेटा मदनसिंह झाला ने स्वतः ही फौजदार बनकर अपने स्वर्गीय पिता की शक्ति और सम्पत्ति ग्रहण कर ली। मदनसिंह स्वभाव से ही उदण्ड, असहनशील, स्वतन्त्र प्रवृत्ति वाला था, इसलिये वह रामसिंह की आज्ञाओं की अवहेलना करने लगा। उसने स्वयं ही सब राजसी चिह्न धारण कर लिया। तोपों की सलामी लेना शुरू कर दिया। सब आज्ञा पत्रों पर उसका नाम नरेश की भाँति लिखा जाने लगा। इस कारण से मदनसिंह से महाराव का विरोध बढ़ने लगा। आखिरकार 1838 ई. में मि. लेडलो जो कोटा में कम्पनी का पॉलिटिकल एजेन्ट था, ने गवर्नर जनरल से विचार-विमर्श कर बारह लाख रुपये सालाना आमदनी के सत्रह परगने चेचट, सुकेत, आवर, डग, गंगराड़, झालरापाटन, रीछबा, बकानी, दहलनपुर, कोटड़ा, भालता, सरड़ा, रटलाई, मनोहरथाना, फूलबड़ौद, चाचोरनी, गुंजारी, छींपा, बड़ौद और शाहबाद मदनसिंह को देकर एक पृथक राज्य झालावाड़ स्थापित कर दिया। कोटा में एक फौज कम्पनी की ‘‘कोटा कन्टिजेन्ट” के नाम से महाराव के खर्च पर रखी गयी। इस प्रकार राज्य के टुकड़े हो जाने से रामसिंह का स्वतन्त्र शासन हो गया और निर्विघ्न राज्य करने लगे, परन्तु उनको घोर साम्पतिक संकट का सामना करना पड़ा। राज्य की आमदनी एकदम घट गयी। जो इलाके मदनसिंह को दिये गये थे, उनके अधिकांश राज्य कर्मचारी तो झालावाड़ के मातहत बन गये, परन्तु जो लोग कोटा आ गये, उनकी परवरिश का प्रश्न महाराव रामसिंह को हल करना पड़ा। ऐसे जागीरदारों को महाराव रामसिंह ने अपने राज्य में जागीर दी।

1857 ई. में अंग्रेजी राज्य से असन्तुष्ट छोटे-छोटे जागीरदारों तथा सैनिकों ने विद्रोह कर दिया तब कोटा कन्टिजेन्सी में भी विद्रोह हो गया। महाराव की सेना ने विद्रोह को दबाना चाहा परन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। बागियों ने मेजर बर्टन का बंगला घेर कर मेजर बर्टन व उसके दो पुत्रों की हत्या कर दी और महाराव रामसिंह के दुर्ग पर भी अधिकार करने की कोशिश की। सैकड़ों राजपूत सैनिक पूरे राज्य से चम्बल नदी से नावों में बैठकर किले में आये। करौली व अंग्रेज सेना भी कोटा पहुँची और बागियों को मार भगाया। कोटा नगर पर जनरल रॉबर्ट्स का अधिकार हो गया। इस विद्रोह के दब जाने के बाद रामसिंह जी ने कोटा की सेना, प्रशासन और राज्य का पुनर्गठन किया, शासन में अनेक सुधार व परिर्वतनों को पार करते हुए आधुनिक शासन शैली का सूत्रपात करके 1865 ई. में उन्होंने अपना, शरीर त्याग दिया। इससे आगे का इतिहास अंग्रेजों के संरक्षण में कोटा राज्य के महाराव शत्रुसाल एवं महाराव उम्मेदसिंह के शान्तिपूर्वक शासन करने का इतिहास है। 1947 ई. में देश स्वतन्त्र हो गया। 30 मार्च 1949 को सरदार पटेल ने वृहत राजस्थान का विधिवत उद्घाटन किया, तब कोटा जिला अस्तित्व में आया।

झालावाड़ का इतिहास


झालावाड़ प्राचीन मालवा प्रदेश का हिस्सा है। ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व मालव जाति उत्तर-पश्चिमी भारत में रहा करती थी। जब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया तो पश्चिमी भारत के छोटे-छोटे जनपदों को अपना मूल स्थान छोड़कर दक्षिण पूर्व की ओर जाना पड़ा। मालवा जाति भी अपना पुराना स्थान छोड़कर उस क्षेत्र में आ गई जिसे बाद में मालवा के नाम से जाना गया। वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ और वेद व्यास रचित महाभारत में भी मालव जाति का उल्लेख आया है। ‘विष्णु पुराण’ के अनुसार मालव का मूल निवास स्थान पूर्वी विंध्याचल की परियात्रा पहाड़ियों में था।

छठी शताब्दी में रचित ‘वृहतसंहिता’ में जिस भू भाग के लिये मालवा प्रदेश कहा गया है वह आज के मालवा का भू भाग नहीं है। वह अवन्तिका व उज्जैयनी के लिये प्रयुक्त हुआ है। सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया। उसने मालवा तथा उज्जैन को अलग-अलग क्षेत्रों में वर्णित किया है। उसने मालवा को उज्जैन के पश्चिम में बताया है। संभवत उस समय मालवा क्षेत्र गुजरात की सीमा में था। मालवों की एक शाखा ने नगर नामक क्षेत्र पर अपना अधिकार किया जो वर्तमान कोटा नगर से 72 किमी उत्तर में थी। यहाँ से मालवों के सिक्के बड़ी संख्या में मिले हैं, ये सिक्के ईसा की चौथी शताब्दी तक के हैं। पौराणिक सनदर्भों के अनुसार मालव जाति ने अपने मुखिया के नेतृत्व में एक अल्प तन्त्र प्रकार की सरकार बना रखी थी, यूनानी लेखकों के अनुसार मालवों ने रावी नदी के दोनों किनारों पर अपना निवास बनाया। पाणिनी के शिष्य अपिसाली ने “क्षुद्रक मालवा’’ संयुक्त जनपद का उल्लेख किया है। डॉ. स्मिथ ने ‘‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’’ में दर्शाया है कि कुरुक्षेत्र युद्ध में मालवों ने कौरवों की तरफ से लड़ाई लड़ी थी। बाद के काल खण्ड में मालव राजपूताना, अवन्ति तथा माही नदी घाटी के आस-पास पाये जाते थे। सिकन्दर को भारत आक्रमण के समय क्षुद्रकों तथा मालवों से यु़द्ध करना पड़ा था। ये दोनों ही जातियाँ युद्धजीवी थी। सिकन्दर को भारत में पैर रखते ही मल्लोई जाति से प्रथम साक्षात्कार करना पड़ा था। मल्लोई की मित्रता सिवोई गणराज्य से थी। उस समय मालवों के नगर चेनाब और उनकी राजधानी पंजाब में रावी नदी के तट पर थी। मल्लोई की राजधानी के एक युद्ध में सिकन्दर बुरी तरह घायल हो गया और मृत्यु के काफी नजदीक पहुँच गया। उस समय मालवों की सेना में एक लाखयोद्धा थे।119 मालव शिवि तथा अन्य जनपदों ने सिकन्दर के पास अपने राजदूत भेज। मालवों के राजदूत ने सिकन्दर से कहा कि ‘‘वह दूसरों से ज्यादा स्वतन्त्रता व स्वायत्तता चाहते हैं और मालव जाति उसी दिन से स्वतन्त्र हैं, जिस दिन से भगवान ने उनका निर्माण किया’’। सिकन्दर के लौट जाने के बाद मालव भटिण्डा होते हुए कर्कोट नगर की तरफ बढ़े। स्वतन्त्रता बनाये रखने के आश्वासन पर मालव अपने निवास पंजाब को छोड़कर मालवा व राजपूताना में चले गये।

कर्कोटनगर (टोंक) से प्राप्त ब्राह्मी लिपि के जो सिक्के मिले हैं जिन पर ‘मालवा नाम जय ‘मालवा जय’ और ‘मालवा गणस्य’ लिखा हुआ है। ईसा से 57 वर्ष पूर्व मालवों को एक युद्ध में बड़ी भारी विजय मिली। इसी विजय की स्मृति में ये सिक्के ढाले गये तथा अलग से एक संवत स्थापित किया गया, जिसे विक्रम संवत कहा गया। इससे 800 वर्ष पहले से मालव संवत चला करता था। मालवों में प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य हुए जिन्होंने मालवा के साथ उज्जैन में भी शासन किया। सन 119 ई. में शकों के राजा नहपान ने मालवों को परास्त कर दिया। बाद में गौतमीपुत्र सातकर्णी के हाथों नहपान मारा गया। अतः मालव पुनः स्वतन्त्र हो गये। कुछ ही समय बाद रुद्रमन प्रथम ने पुरा मारवाड़ गुजरात, मालवा, सिन्ध और कठियावाड़ जीत लिया। रुद्रमन की मृत्यु के बाद 225 ई. सन के आस-पास मालवों ने अपनी स्वतन्त्रता को एक बार फिर से प्राप्त किया। मालवों के नेता श्री सोम ने स्वतन्त्रता की घोषणा का सूचक षष्ठी यज्ञ किया। तीसरी शती में मालवों ने और प्रगति की तथा मेवाड़ का सारा क्षेत्र मालवों के अधीन आ गया परन्तु चौथी शताब्दी के आते-आते मालव राज्य को शासन समुद्र गुप्त की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी, किन्तु इससे उनकी स्वतन्त्रता नष्ट नहीं हुई। दूसरी सदी से सातवीं शताब्दी के बीच के काल खण्ड में उत्तरी भारत में क्षत्रिय, गुप्त तथा हर्षवर्धन ने अपनी सर्वोच्च सत्ता कायम की। मालव लोग इन बड़ी सत्ताओं के अधीन रहकर किसी न किसी तरह अपना आस्तित्व तथा स्वन्त्रता बनाये रखने में सफल रहे।

गंगधार से विक्रम संवत 480 (423ई.) में नरवर्मन के पुत्र विश्वर्मन के समय का एक शिलालेख मिला है जिसमें कहा गया है कि नरवर्मन के मन्त्री मयूराक्षक ने यहाँ एक मन्दिर बनवाया। उसी ने गारगृट नामक नगर बसाया जो अब गंगधार कहा जाता है। वि.सं. 795 (738 ई.) का एक शिलालेख कोटा नगर से 4 किलोमीटर दूर स्थित एक शिवमन्दिर से प्राप्त हुआ है। इसमें यह कहा गया है कि यह पूरा क्षेत्र मौर्य राजा धवल के अधीन था। उसने यह क्षेत्र अपने मित्र शिवगण को प्रदान किया। 689 ई. के चन्द्रावती अभिलेख के अनुसार यह क्षेत्र दुर्गण के अधीन था और इस क्षेत्र में वोपक ने एक मन्दिर बनवाया। वि.सं. 770 (713 ई.) का एक लेख चित्तौड़ स्थित मानसरोवर तालाब के किनारे मिला है उसमें कहा गया है कि इसके आस-पास का सारा क्षेत्र मौर्य राजा ‘मान’ के अधीन था। आठवीं शताब्दी के बाद मौर्य राजा उज्जैन के अधीन हो गये और वे उनके अधीन रहकर छोटे-छोटे राज्यों के जागीरदार बने रहे। इन मौर्य राजाओं ने बौद्ध धर्म को खूब बढावा दिया। कोलवी, विनायगा, हाथी गौड़ तथा गुनाई में मिली पाँच दर्जन से भी अधिक बौद्ध गुफाएँ इस बात का पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करती हैं कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म को प्रश्रय मिला और उसका कुछ विस्तार भी हुआ। उज्जैन के हिन्दू राजाओं ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया जिनके कारण बौद्ध यहाँ से पलायन कर गये तथा जनता पुनः वैष्णव बन गई। आठवीं शताब्दी और उसके बाद के अनेक शिव मन्दिर चन्द्रावती में प्राप्त हुए हैं। कुछ बौद्धों को हिन्दू धर्म में लेकर क्षत्रियों का दर्जा दिया गया जो आगे चलकर राजपूतों में विलीन हो गये। दसवीं शताब्दी के आस-पास इस क्षेत्र में राजपूतों का उत्कर्ष हुआ और झालावाड़ क्षेत्र परमारों के अधीन चला गया। झालरापाटन से प्राप्त विक्रम सम्वत 1199 (1142 ई.) के शिलालेख में परमार राजा नरवर्मनदेव, यशोवर्मदेव तथा आठ मन्त्रियों के नाम दिये गये हैं। 1235 ई. में अल्तमश ने उज्जैन जीत लिया तब से झालावाड़ भी मुसलमानों के अधीन चला गया और 1401 ई. तक दिल्ली के अधीन रहा। 1401 ई. से 1531 ई. तक दिलावर खाँ दिल्ली का स्वतंत्र शासक बन गया और झालावाड़ दिल्ली के हाथों से निकल गया। इसके बाद यह गुजरात, मालवा तथा माण्डू के अधीन रहे। माण्डू के सुल्तान मुहम्मद खिलजी तथा बाज बहादुर भी इसके शासक रहे। 1562 ई. में कोटा के राव सुर्जन हाडा ने केसर खाँ तथा डोकर खाँ को परास्त करके इस क्षेत्र को कोटा राज्य में शामिल कर लिया।

मुगल इतिहासकार अबुल फजल के अनुसार मुगलशासन काल में झालावाड़ मालवा सूबे के अन्तर्गत ही रहा। 1420 ई. में माण्डू के सुल्तान ने राघवदेव झाला को मालवा के सुल्तान होसंग की तरफ से गुजरात के सुल्तान अहमदशाह से मोर्चा लेने के उपलक्ष्य में झालावाड़ का परगना जागीर में दिया। गंगधार के बाहर दलसागर तालाब के किनारे पर एक 1658 ई. का शिलालेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि राघवदेव के वंशज नरहरदास को जहाँगीर ने अनेक परगने प्रदान किये और नरहरदास ने गंगधार को अपनी राजधानी बनाया। नरहरदास का वंशज दयालदास धर्मत की लड़ाई में 105 राजपूतों सहित मारा गया। दयालदास का स्मारक 1699 ई. में प्रतापसिंह ने बनवाया, जो आज भी सुरक्षित है। झालावाड़ का डग कस्बा पूर्व में राठौड़ राजकुमार जसवंतसिंह के अधिकार में था। उसके पुत्र मानसिंह ने काफी कीर्ति अर्जित की। मानसिंह के पुत्र कल्याणसिंह ने 1611 ई. में कल्याण सागर तालाब बनवाया। 1665 ई. में मुगल गर्वनर होंशदार खाँ ने डग जीत लिया उसके पुत्र हिदायत खाँ ने 1685 ई. में डग का नाम बदल कर हिदायत नगर रख दिया। 1715 ई. में यह क्षेत्र मल्हार राव पवार के अधीन चला गया। 1728 ई. में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने यह क्षेत्र अपने अधिकार क्षेत्र में लेकर मिश्रीमल को यहाँ का हाकिम नियुक्त किया। 1736 ई. में यह क्षेत्र पुनः पवारों के हाथ में चला गया तथा पवार आनन्द राव यहाँ का राजा बना। उसके मन्त्री अवघूत राव ने केशवराय का मन्दिर बनवाया। 1801 ई. में यह पूरा क्षेत्र माधवराव उम्मेदसिंह के अधीन आ गया। उस समय कोटा की वास्तविक सत्ता जालिम सिंह के पास थी। जालिम सिंह ने अनेक पड़ोसी राज्यों से परगने पट्टें पर प्राप्त किये और आय व प्रतिष्ठा बढ़ाई। उसने कई पुराने नगरों की दशा सुधारी तथा नये नगर स्थापित किये। झालरापाटन शहर की सुन्दरता का सारा श्रेय जालिम सिंह को जाता है। यह नगर उस समय भारत के सुन्दरतम नगरों में गिना जाता था। 1791 ई. में उसने झालावाड़ नगर बसाया। 1824 ई. में जालिम सिंह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र माधोसिंह उसका उत्तराधिकारी बना। इसी बीच कोटा महाराव उम्मेद सिंह की भी 1821 ई. में मृत्यु हो गई। उम्मेदसिंह की मृत्यु के बाद रामसिंह कोटा के राजा बने। 1834 ई. में कोटा नरेश रामसिंह व जालिम सिंह के पौत्र मदनसिंह के बीच झगड़ा हुआ। अंग्रजों ने कोटा नरेश से बातचीत करके कोटा राज्य में से जालिम सिंह के शासनाधिकार वाले क्षेत्रों को निकाल कर एक स्वतंत्र राज्य झालावाड़ की स्थापना कर दी। इस नये राज्य में 17 परगने थे, जिनकी वार्षिक आय 12 लाख रुपये थी। मदनसिंह को इस राज्य का प्रथम शासक नियुक्त किया गया। 8 अप्रैल 1838 को झालावाड़ नरेश मदनसिंह तथा अंग्रेज सरकार के बीच एक सन्धि हुई जिसके अनुसार मदनसिंह की राजराणा की उपाधि स्वीकार की गई। उसका दर्जा राजपूताना के दूसरे राजाओं के समान माना गया। उसके वंशजों को ही झालावाड़ राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी माना गया। इस सबके बदले में मदनसिंह ने अंग्रेजों को अपना राज्य का संरक्षक माना तथा उनसे बिना पूछे किसी राज्यों से शत्रुता अथवा मित्रता न करने का वचन दिया। झालावाड़ राज्य द्वारा अंग्रेजों को सालाना 80 हजार रुपये कर तथा आवश्यकता पड़ने पर सैन्य सहायता भी देने का वचन दिया गया। 1845 ई. में मदनसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पृथ्वीसिंह झालावाड़ की गद्दी पर बैठा।

1857 ई. के विद्रोह में पृथ्वी सिंह ने अंग्रेजों की मदद की तथा उनके शरणागत अंग्रेजों की जान बचाई। जिसके पुरस्कार स्वरूप 1862 ई. में पृथ्वीसिंह को उत्तराधिकारी गोद लेने का अधिकार दिया गया। पृथ्वीसिंह के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसने अपना उत्तराधिकारी गोद लेना चाहा। इस पर कोटा नरेश ने आपत्ति उठाई कि मदनसिंह के वंशजों में से किसी के भी पुत्र नहीं होने पर झालावाड़ राज्य पुनः कोटा को लौटाया जाना चाहिए, किन्तु अंग्रेजों ने कोटा नरेश को यह कह कर शान्त कर दिया कि झालावाड़ का राजा राजस्थान के दूसरे राजाओं के समान ही संप्रभुता रखता है। अतः कोटा राज्य का झालावाड़ राज्य पर कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार 1873 ई. में पृथ्वीसिंह ने काठियावाड़ के बड़वान से बखतसिंह नामक बालक को गोद लिया जो उसी परिवार से था जिस परिवार से पृथ्वीसिंह के पूर्वज काठिवाड़ से चलकर राजस्थान आये थे। 29 अगस्त 1875 को महाराज राणा पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गई। राणा पृथ्वीसिंह की रानी के गर्भवती होने के कारण उत्तराधिकार कुछ समय के लिये अनिश्चित रहा, परन्तु जून 1876 तक रानी के कोई बालक पैदा नहीं होने पर 24 जून 1876 को बख्तसिंह जालिम सिंह (द्वितीय) के नाम से झालावाड़ राज्य का राजा बना। अंग्रेजों ने भी उसे झालावाड़ राज्य का राजा स्वीकार कर लिया। 1881 ई. में अंग्रेजों ने झालावाड़ राज्य से नमक की सन्धि की। इसके अनुसार झालावाड़ राज्य न तो स्वयं नमक बना सकता था और न किसी अन्य राज्य से नमक मंगा सकता था। पूरे राज्य में केवल ब्रिटिश कम्पनियों का ही नमक प्रयोग में लाया जा सकता था। इसके बदले में अंग्रेज सरकार झालावाड़ के राजा को 7000 रुपये तथा प्रत्येक जागीरदार को 250 रुपये महिना चुकाने लगी। नवम्बर 1883 ई. में बख्तसिंह के वयस्क होने पर 21 फरवरी 1884 ई. को राज्य के सारे अधिकार उसे सौंप दिये परन्तु यह शर्त रखी गई की कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय करने से पहले महाराजा के लिये पॉलिटिक्ल एजेंट की सहमति प्राप्त करना तथा कोई भी प्रशासनिक बदलाव लाने के लिये पूरी तरह एजेंट पर निर्भर रहना आवश्यक था। जालिम सिंह ने उस समय तो ये बातें स्वीकार कर ली, परन्तु अंग्रेजी एजेन्ट द्वारा राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करना उसे पसंद नहीं आया और शीघ्र ही उसका अंग्रेजों से झगड़ा हो गया। तब सितम्बर 1887 से उसके नाबालिक रहते समय की गई व्यवस्था पुनः लागू कर दी जिसके तहत पॉलिटिक्ल एजेन्ट एक काउंसिल के माध्यम से सरकारी कामकाज चलाता था। यह व्यवस्था 1892 ई. तक चालू रही। जालिम सिंह ने अंग्रेजों से पुनः वायदा किया कि वह अंग्रेजों की इच्छानुसार ही शासन करेगा। इस पर अंग्रेजों ने 1894 ई. में राज्य के सारे अधिकार उसे सौंप दिये परन्तु स्वाभिमानी जालिम सिंह अधिक समय तक अंग्रेजों को खुश नहीं रख सका। अन्त में 22 मार्च 1896 को जालिम सिंह को राजा के पद से हटा दिया।

अंग्रेजों ने 1838 की सन्धि को पुनर्स्थापित किया जिसके तहत जालिम सिंह प्रथम के वंशज राजा की सन्तान को ही झालावाड़ का उत्तराधिकारी माना गया था। अतः इस सन्धि की आड़ में शाहाबाद, खानपुर, अकलेरा तथा मनोहरथाना आदि सारे क्षेत्रों को मिलाकर एक नया राज्य बनाया गया तथा जालिम सिंह प्रथम की सेवाओं का आदर करने का बहाना लेकर उसके परिवार के भरण-पोषण के लिये फतहपुर के ठाकुर छत्रशाल के पुत्र कुंवर भवानीसिंह को इस नये राज्य का राजा बनाया गया। इस प्रकार जनवरी 1899 को परगनों का स्थानान्तरण हो गया तथा झालावाड़ का नवीन किन्तु खण्डित राज्य अस्तित्व में आया। 6 फरवरी 1899 को भवानीसिंह नये झालावाड़ राज्य का राजा बना तथा उसे राज चलाने की पूरी शक्तियाँ दी गई। भवानीसिंह को अपना उत्तराधिकारी गोद लेने के अधिकार भी दिये गये तथा राज्य द्वारा 30 हजार रुपया वार्षिक शुल्क ब्रिटिश सरकार को दिया जाना निश्चित हुआ। इस राज्य में देशी सिक्कों का प्रचलन बन्द कर दिया गया तथा सिक्के एवं कानून अंग्रेजों द्वारा बनाये गये ही चल सकते थे। नमक नीति वही पुरानी वाली रखी गयी किन्तु इसके बदले राज राणा के 7000 रुपया के स्थान पर 2500 रुपया वार्षिक ही देना तय हुआ। अक्टूबर 1900 में झालावाड़ राज्य में ब्रिटिश पोस्टल पद्धति लागू की गई। भवानी सिंह ने राज्य के आधुनिकीकरण में कई कार्य करवाये।

झालावाड़ में उसने नगरपालिका की स्थापना की। कई स्कूल चालू कर निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की। महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये उसने राजकोष से महिलाओं को साड़ियाँ देना प्रारम्भ किया। 1904 में दरबार ने नागदा-मथुरा रेल के निर्माण और कार्य के लिये बिना शुल्क भूमि हेतु सहमति दी। राज्य के पिछड़े लोगों के कल्याण के लिये कई काम करवाये। उसने कोटा राज्य को लौटाये गये परगने प्राप्त करने के सारे प्रयास किये किन्तु वह असफल रहा और 1929 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुआ। भवानीसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजेन्द्र सिंह झालावाड़ राज्य का महाराज राणा बना। वह एक पढ़ा लिखा युवक व कवि था। हरिजनों के कल्याण के लिये उसने बहुत काम किया। उसके शासन काल में पुलिस व सेना की व्यवस्था में परिवर्तन किया गया। हाइकोर्ट का निर्माण करवाया गया तथा झालावाड़ और झालरापाटन में बिजली लगवायी गई। सड़कों व सिंचाई व्यवस्था में सुधार किया गया। छोटी कालीसिन्ध नदी पर गंगधार के पास पुल बनवाया गया। सितम्बर 1943 में राजेन्द्र सिंह की मृत्यु हो गयी तथा उसका पुत्र हरिशचन्द्र झालावाड़ की गद्दी पर बैठा। उसके शासन काल में लोकप्रिय सरकार का गठन हुआ। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कोटा, बूँदी, टोंक, शाहपुरा, डूंगरपूर, बासवाडा, प्रतापगढ, किशनगढ़ तथा कुशलगढ़ नामक 10 रियासतों ने मिलकर एक संघ बनाने की घोषणा की। इस संघ का राजप्रमुख कोटा नरेश को तथा प्रधानमंत्री गोकुलनाथ असावा को बनाया गया। 25 मार्च 1948 को केन्द्रीय मन्त्री एनवी गाडगिल ने इस संघ का उद्घाटन किया। बाद में इस संघ का विलय राजस्थान में हो गया। केन्द्र सरकार ने इस नये प्रान्त में जिलों के निर्माण के लिये एक कमेटी गठित की। इस कमेटी ने कोटा नामक संभाग का निर्माण करके उसमें कोटा, बांरा, सिरौंज, झालावाड़, बूँदी तथा टोंक नामक जिले उसके अधीन रखे। झालावाड़ जिले में गंगधार, डग, पचपहाड़, झालरापाटन, असनावर, बाकानी, अकलेरा, मनोहरथाना, पिड़ावा तथा झालावाड़ तहसीलों को रखा गया। अक्टूबर 1949 ई. में इस जिले में बांरा परगने की खानपुर तहसील को भी शामिल किया गया। 1956 ई. में मध्य भारत की सुनेल नामक तहसील को भी झालावाड़ जिले में स्थानान्तरित कर दिया गया। वर्तमान झालावाड़ जिला आजादी के पहले के झालावाड़ राज्य से 6 गुना बड़ा है किन्तु 1938 ई. के झालावाड़ राज्य से अब भी छोटा है।

बारां का इतिहास


रियासती काल में बारां, कोटा राज्य में एक निजामत था। वर्तमान बारां जिले का सम्पूर्ण भाग कोटा राज्य के अन्तर्गत ही आता था। जब 1947 ई. में देश आजाद हुआ तब 25 मार्च 1948 को कोटा, बूँदी, झालावाड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, किशनगढ़, टोंक और शाहपुरा रियासतों को मिलाकर राजस्थान संघ का निर्माण किया गया। 1949 ई. में जिलों का निर्माण किया गया जब कोटा, टोंक तथा झालावाड़ राज्य के कुछ हिस्सों को मिलाकर कोटा जिले का निर्माण किया गया। उस समय बारां गाँव अटक तहसील में आता था। 1961 ई. में बारां को अटक तहसील से बारां तहसील में स्थानान्तरित किया गया तथा कोटा, बारां, छबड़ा तथा चेचट (खैराबाद) नामक चार उपखण्ड गठित किये गये। इन चारों उपखण्डों में उस समय 17 तहसीलें-इटावा, पीपलदा, बड़ोद, मांगरोल, डिगोद, अन्ता, बारां, किशनगंज, शाहबाद, लाडपुरा, चेचट, रामगंज मण्डी, कनवास, सांगोद, अटरू, छीपा बड़ोद तथा छबड़ा नामक 17 तहसीलें गठित की गई। 1975 ई. में जिले के राजस्व प्रशासन का पुनर्गठन किया गया और लाडपुरा, बारां, रामगंज मण्डी और छबड़ा नामक चार उपखण्ड बनाये गये। इन उपखण्डों में पीपलदा, डिगोद, लाडपुरा, मांगरोल, बारां, किशनगंज, शाहाबाद, रामगंजमण्डी, सांगोद, अटरू, छीपा बड़ोद तथा छबड़ा नामक 12 तहसीलें गठित की गई। 1991 ई. में जिले का पुनः पुनर्गठन किया गया तथा इसे कोटा और बारां नामक दो जिलों में विभक्त कर दिया गया। 10 अप्रैल 1991 से बारां नामक जिला अस्तित्व में आया।

इस जिले में कोटा राज्य की बारां, किशनगंज, शाहाबाद, मांगरोल तथा आन्ता नामक निजामतें शामिल की गई। इस नये जिले में बारां, अटरू, किशनगढ़, शाहबाद तथा छबड़ा में उपखण्ड मुख्यालय और बारां, मांगरोल, शाहबाद, किशनगंज, छबड़ा, अटरू, अन्ता तथा छीपा बड़ोद नामक 8 तहसीलें गठित की गईं।120

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38. रामकरण आसोपा- उपरोक्त, भाग 3, पृ.स. 1625,
39. जगदीश सिंह गहलोत -उपरोक्त, पृ.सं. 44
40. पं. जगत नारायण- उपरोक्त, भाग-1, पृ.सं. 38
41. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, 4 पृ.सं. 1678
42. तब नरपाल सज्जि दल सत्वर, प्रथम चढ़यो खिच्चिये महेश पर, कोटा पुरहि प्रपात किय, द्रुत तँहँ बन्धु जुगहि उपदा दिय-वंशभास्कर भाग 4,पृ.सं. 1725
43. अरविन्द कुमार सक्सेना - बूँदी राज्य का इतिहास, पृ.स.10, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 1992
44. रामकरण ओसापा -उपरोक्त, भाग 4, पृ. सं. 1791-92
45. डॉ गौरीशंकर हीराचंद ओझा -उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग 3, पृ.स. 24, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर 1938
46. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त, पृ.सं.49-50
47. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 3, पृ.सं. 1708
48. बलदेव मिश्र, ज्वाला प्रसाद मिश्र एवं राय मुंशीप्रसाद- टॉड कृत राजस्थान का इतिहास, भाग 2, जिल्द-4, पृ.सं. 794 यूनिक ट्रेडर्स जयपुर, 1987
49. कविवर श्यामलदास- वीर विनोद, भाग 2, पृ.सं. 107, महाराणा मेवाड़ हिस्टोरिकल पब्लिकेशन ट्रस्ट, उदयपुर, 2007
50. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 4, पृ.सं. 2065
51. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ.सं. 14
52. कविवर श्यामलदास- उपरोक्त भाग- 2, पृ.सं. 87, 108
53. डॉ. जगदीश सिंह गहलोत-उपरोक्त, पृ.सं. 56
54. रामकरण आसोपा, उपरोक्त भाग 5, पृ.सं. 2201
55. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना -उपरोक्त, प्र.सं. 15
56. कर्नल जेम्स टॉड - उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.सं. 805
57. कुम्भ भगवन्त तबसाह प्रति यू कहो लग्गि चिर निठ्ठ चितौर अप्पन लझो। मुख्य दुर्गेश जयमल्ल जो ना मरै पुनिहुँ जय माहि बहु अब्द संसय परै।। तोहु तिमि हास बहू आस दल को तहाँ ज्योति अब आहि गढ माहि सुर्जन जहाँ।। इपट तिहि अप्पि यह दुर्ग अब अंग मै। जिमि सु निज होइ इत अमल अप्पन जमै।। वंश भास्कर भाग 5, पृ.स. 2264
58. जगदीश सिंह गहलोत-उपरोक्त, पृ.स. 59-60
59. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग 2, पृ.स. 809
60. खाफीखा जिल्द 1, पृ.स. 384 उद्रत, जगदीश सिंह गहलोत, उपरोक्त, पृ.स. 67
61. रामकरण आसोपा, भाग 5, पृ.स. 2496
62. कविवर श्यामलदास- उपरोक्त, भाग 2, पृ.स. 111
63. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग 2, पृ.स. 811
64. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ. स. 20
65. जदुनाथ सरकार -हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब, भाग 4, पृ.स. 268, 272, एम.सी. एण्ड सनसकोलकाता 1942 ई.
66. लज्जाराम मेहता -पराक्रमी हाड़ा राव, पृ.सं. 179 श्री वेकंटेश्वर स्टीम मुद्रणालय मुम्बई 1915
67. प. गंगासहाय-वंश प्रकाश पृ.सं. 76
68. जगदीश सिंह गहलोत- उपरोक्त, पृ.सं. 73
69. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.सं. 819
70. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ.सं. 21
71. कविवर श्यामलदास- उपरोक्त, भाग-2, पृ.सं. 115
72. जगदीश सिंह गहलोत- उपरोक्त, पृ.सं. 79
73. पीताम्बरदत्त शर्मा-बूँदी राज्य के ऐतिहासिक स्थल, पृ.सं.25, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 2008
74. पंडित गंगा सहाय - उपरोक्त, पृ.सं. 89
75. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 7, पृ.सं. 3371
76. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त, पृ.सं. 84
77. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ.सं. 27
78. पं. गंगासहाय-वंश प्रकाश, पृ.सं. 116
79. एचिसन- ट्रीट्रीज, जिल्द-3, पृ.सं. 219 उद्रत जगदीश सिंह गहलोत, उपरोक्त पृ.स.-103
80. पीताम्बर दत्त शर्मा- उपरोक्त, पृ.स 30,
81. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त पृ.सं. 106
82. डॉ. मोहनलाल गुप्ता-कोटा सम्भाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन, पृ.सं. 9 राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 2009
83. पं. जगतनारायण - उपरोक्त, भाग 1, पृ.सं. 59
84. रामकरण आसोपा, उपरोक्त, भाग 5, पृ.सं. 2499
85. खर्जूरी, अरण्डखेटक, केथोनी रुपये आवा कनवास मधुकरगढ़, दिग्धोद रहलमिलि अष्टक यह ग्रामक सहआस।। वंश भास्कर।। 2543
86. माधोसिंह पिसरे रावरतन रा ब इजाफा पान्सदी जात व पान्सद सवार व मन्सब दो हजार व पान्सदी हजार व पान्सदी सवार बरनावाख्ता परगना कोटा व पलायता रा दर जागीर ओ मुकर्रर गर्दानीदन्द-बादशाहनामा। अब्दुल हमीद लाहौरी- बादशाहनामा, पहली जिल्द पृ.सं. 401
87. पं. जगतनारायण - उपरोक्त, भाग 1, पृ.सं. 66
88. अब्दुल हमीद-बादशाहनामा, जिल्द 2, पृ.सं. 423, उद्रत कोटा राज्य का इतिहास, भाग 1, पृ.सं. 71
89. अब्दुल हमीद-बादशाहनामा, जिल्द 2, पृ.सं. 641
90. कविवर श्यामदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1410
91. पं. जगतनारायण - उपरोक्त,भाग-1, पृ.सं. 93
92. मोहम्मद सालेह काम्बोह-अमर ए सालेह, जिल्द 3, पृ.स. 286, 287, उद्रत प. जगतनारायण, भाग 1, पृ.स. 97
93. कविवर श्यामदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1410
94. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग-1, पृ.स. 92
95. उपरोक्त, भाग-1, पृ.सं. 100-101
96. रामकरण आसोपा, भाग 5, पृ.स. 2338, वीर विनोद, भाग 3, पृ.सं. 1411
97. मिर्जा निज़ाम मुहम्मद - काज़मी-आलमगीरनामा, पृ.सं. 263, उद्रत प. जगतनारायण, भाग 1,पृ.स. 103
98. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 5, पृ.स. 2889, वीर विनोद भाग 3, पृ.सं. 1411
99. कर्नल जेम्स टॉड-उपरोक्त, भाग-2, जिल्द-4, पृ.सं. 866
100. मुंशी मूलचन्द-तवारीख राज्य कोटा हिस्सा अव्वल, भाग-1, पृ.स.122, उद्रत पं. जगतनारायण - कोटा राज्य का इतिहास, भाग 1, पृ.सं. 129
101. पं. जगतनारायण, उपरोक्त, पृ.स. 132
102. ईरविन-लेटर मुगल्स, जिल्द 1, पृ.सं. 34 प. जगतनारायण, भाग 1, पृ.स. 138
103. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 6, पृ.सं. 3040-43
104. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द-3, पृ.स. 555
105. श्यामरू दुर्जनसल्ल के, भो भूहित घमसान, अग्रज भ्याम ही मारी कै, भो नृप दुज्जनसाल।। वंश भास्कर।। 3094
106. डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा- उपरोक्त, भाग 3, पृ.स. 933
107. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग-2, पृ.स. 48
108. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.सं. 883
109. रामकरण आसोपा- उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 3817
110. कविवर श्यामलदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1420
111. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग 2, जिल्द 4, पृ.सं. 911-12
112. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 3912
113. पं. जगत नारायण- उपरोक्त, भाग-2, पृ.सं. 112
114. कर्नल जेम्स टॉड उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.स. 935-936
115. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 4024
116. कविवर श्यामलदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1424
117. कर्नल जेम्स टॉड-उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.स. 947
118. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग 2, पृ.सं. 127
119. डॉ. बी.एन.घौघियाल-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजेटियर झालावाड़, पृ.स. 21, 22, गवर्नमेन्टसेन्ट्रल प्रेस जयपुर 1964
120. डॉ. बी.एन. घौघियाल- राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजैटियर, बांरा, पृ.स. 42-46, गवर्नमेन्टसैन्ट्रल प्रेस, जयपुर, 1997

राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में जल विरासत - 12वीं सदी से 18वीं सदी तक


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1

उपसंहार



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चौहान राजपूतों की 24 शाखाओं में से सबसे महत्त्वपूर्ण हाड़ा चौहान शाखा रही है। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड को हासी के किले से एक शिलालेख मिला था, जिसमें हाड़ाओं को चन्द्रवंशी लिखा गया है।1 सोमेश्वर के बाद उसका पुत्र राय पिथौरा या पृथ्वीराज चौहान राजसिंहासन पर बैठा। पृथ्वीराज चौहान शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी के साथ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात चौहानों के हाथ से भारत-वर्ष का राज्य जाता रहा। फिर भी चौहान शाखाएँ यत्र-तत्र फैलती गयीं और चौहान क्षत्रिय जहाँ-तहाँ अपना शासन करते रहे।2 जब नाडोल के चौहान कुतुबुद्दीन ऐबक से हारकर भीनमाल में गये। उसी समय उस वंश के माणिक्यराय द्वितीय नामक वीर ने मेवाड़ के दक्षिण पूर्व में अपना राज्य स्थापित किया और बम्बावदा को अपनी राजधानी बनाया। माणिक्यराय की छठीं पीढ़ी में हरराज या हाडाराव नामक एक बड़ा प्रतापी वीर उत्पन्न हुआ। हरराज या हाड़ाराव के नाम पर चौहानवंश की इस शाखा का नाम हाड़ावंश पड़ा है, जिसमें कोटा-बूँदी राज्यों का समावेश होता है।3

हाड़ा शब्द की व्युत्पत्ति


हाड़ौती शब्द ‘हाड़ा’ से बना है। हाड़ा शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद रहा है। अभी तक इस सम्बन्ध में कोई सन्तोषप्रद मत प्रतिपन्न नहीं हो पाया है। अनेक किंवदन्तियाँ इस सम्बन्ध में प्रचलित हैं, परन्तु दो को अधिक आश्रय मिला है। उनमें से एक ‘‘अस्थि’’ शब्द से सम्बन्ध रखती है और दूसरी ‘‘हिडि’’ धातु से सम्बन्धित है। पहली अस्थि सम्बन्धित किंवदन्ती यह है कि बीसलदेव चौहान के पोते व अनुराग के बेटे इस्तपाल मुस्लिम शासक गजनी की सेना के साथ युद्ध करते हुए गंभीर रूप से घायल हो गए और उनकी तमाम हड्डी-पसली जर्जरित हो गई, उनके कटे हुए अंगों (हाड़ों) को एक स्थान पर एकत्रित किया गया। उस समय उनकी कुलदेवी ने आकर उन पर अमृत छिड़क दिया, जिससे वे पुनर्जीवित हो गये। इसी समय से उनके वंशजों को हाड़ा कहा जाने लगा।4

कर्नल टॉड ने उसके लिये इष्टपाल5 शब्द का प्रयोग किया है, इसी को सुख सम्पत्ति राय भण्डारी ने इतिपाल कर दिया है।

प्रसिद्ध पुरातत्त्वेत्ता श्री गौरीशंकर, हीराचन्द ओझा इसे मनगढ़ंत मानते हैं। वे कहते हैं कि भाटों ने ‘‘हाड़ा’’ शब्द को हाड़ (हड्डी) से निकला हुआ अनुमान कर हड्डी के संस्कृत रूप अस्थि से अस्थिपाल नाम गढ़कर अस्थिपाल से हाड़ा नाम की उत्पत्ति होना मान लिया है। यदि वास्तव में उस पुरुष का नाम अस्थिपाल होता तो उसके वंशज हाड़ा कभी नहीं कहलाते6 उनके अनुसार ‘‘हाड़ा’’ शब्द का सम्बन्ध अस्थि से न होकर ’हरराज’ से है। ‘हरराज’ हाड़ा वंश के मूल पुरुष से जिसका उल्लेख मैनाल के शिलालेख7 और नेणसी की ख्यात8 में मिलता है। विक्रम संवत 1445 के मैनाल के शिलालेख में कोटा बूँदी के हाड़ा अपना मूल पुरुष हरराज और ‘‘नैणसी’’ हाड़ा को बताते हैं। श्री ओझा के मत का ख्यात और शिलालेख का ऐतिहासिक आधार होने से वह अधिक प्रमाणित माना जा सकता है।

इसके अतिरिक्त ‘हिड्डी’ धातु को लेकर जो मत चल रहा है, उसमें ऐतिहासिक और भाषा वैज्ञानिक दोनों मतों का समावेश दिखाई पड़ता है। चौदहवीं शताब्दी के आस-पास ‘हाड़ी’ और ‘हाड़ा’ शब्द का प्रयोग परवर्ती अपभ्रंश में और देशी भाषाओं में घुमक्कड़ या घूमने वालों के लिये प्रयुक्त होता था। ऐसा माना जाता है कि हाड़ा जाति के पूर्वज अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये तथा उपयुक्त अवसर प्राप्त करने के लिये इधर-उधर घूमते-फिरते थे। साहस, बल और अतिक्रमणों से अपनी जीविकोपार्जन करते थे।9

चौहटे च्यंतामणि चढ़ी, हाड़ी भारत हाथि।

अतएव उन लोगों को ‘हाड़ा‘ अमिधा प्रदान की गई थी। इस मत में ओझा का मत भी समविष्ट हो सकता है। क्योंकि वे यह मानते हैं, कि ‘हाड़ा‘ नाडोल से मेवाड़ के पूर्वी हिस्से में आये। फिर उनका अधिकार बम्बावदे पर हुआ। वहाँ की छोटी शाखा के वंशज देवा ने अपने पराक्रम के बल पर बूँदी का राज्य मीणों से छीन लिया, तब से उनकी विशेष उन्नति हुई और उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया।10 इस प्रकार इस मत में हिड्डि’ धातु और हरराज दोनों का सम्बन्ध हाड़ा से बन जाता है। 17वीं शताब्दी का हाड़ाओं का सबसे विश्वसनीय प्राचीन काव्य ‘सुर्जन चरित्र’ है एवं हाड़ाओं के इतिहास की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें हाड़ाओं का मूल पुरुष पृथ्वीराज चौहान तृतीय के छोटे भाई माणिक्यराज को माना है। सुर्जन चरित्र का माणिक्यराज और हरराज एक ही व्यक्ति थे इससे ही हाड़ाओं की उत्पत्ति मानी है, हरराज से हाड़ा होना अधिक युक्तिसंगत लगता है।

पृथ्वीराजस्य तस्यैब समो भ्राता जयत्यजः।
माणिक्यराजो मतिमानं येन बुभुजे महीम (13/2)


इसके बाद इसके पुत्रों चण्डराज, भीमराज, विजयराज, रयण, केल्हण, गंगदेव और देवी सिंह का उल्लेख है। देवी सिंह को बूँदी राज्य का संस्थापक माना जाता है।11 समकालीन फारसी स्रोतों और ख्यातों से स्पष्ट है कि पृथ्वीराज चौहान के छोटे भाई का नाम हरराज था। हरराज ने कुछ समय तक अजमेर के आस-पास मुसलमानों से संघर्ष किया और बाद में ऊपरमाल क्षेत्र में चला गया। इस क्षेत्र से कई लेख चौहानों के मिल चुके हैं। कालान्तर में ऊपरमाल में हाड़ाओं का अधिकार हो गया। बम्बावदा में इनका अधिकार लम्बे समय तक था। इस प्रकार हरराज के ऊपरमाल क्षेत्र में रहने एवं वहाँ के वंशजों द्वारा निरन्तर राज्य करने की बात से यह प्रमाणित है कि हाड़ा उसके ही वंशज थे।

हाड़ौती प्रदेश का नामकरण


‘‘हाड़ौती” शब्द का प्रयोग प्रदेश तथा बोली दोनों के लिये होता है। राजस्थान के दक्षिणी-पूर्व भाग पर लगभग पाँच शताब्दियों से हाड़ा राजपूतों का शासन चला आया है। हाड़ा वंश चौहानों की एक प्रमुख शाखा है। चौहानों का सम्बन्ध शाकम्भरी (सांभर) से रहा है। भैसरोड़गढ़ में शाकम्भरी से आकर चौहानों का एक परिवार बस गया, जिसमें हरराज नामक वीर पुरुष हुआ। यही हरराज हाड़ा वंश का प्रवर्तक माना जाता है।12 कर्नल टॉड के अनुसार ‘‘हाड़ौती’’ उस देश का नाम है, जो (चौहानों की एक शाखा) हाडा के अधीन है। बूँदी राज्य की स्थापना के साथ ही हाड़ौती प्रदेश का निर्माण हो गया था, जिसमें कोटा और बूँदी का समावेश होता है।13 डॉ. मथुरालाल शर्मा द्वारा ‘‘वंश भास्कर’’ के आधार पर आषाढ़ बुदी नवमी सन 1241 ई. को राव देवा का बूँदी पर अधिकार स्थापित करना माना जाता हैं।14 यह तो स्वाभाविक है कि हाड़ा राजपूतों द्वारा प्रशासित यह भू भाग तभी से हाड़ौती कहलाने लगा पर इसका तभी से यह नामकरण हो जाने के पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते हैं। 1579 ईं. में कोटिया भील को मारकर कोटा में माधव सिंह ने अपना राज्य विस्तार किया था, तब दो स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना हो गयी थी। शासन सुविधा की दृष्टि से तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने दोनों राज्यों का नाम हाड़ौती रख दिया हो, ऐसी भी संभावना दिखायी पड़ती है।

कोटा संग्रहालय में दो मोहरें रखी हुई हैं, इनमें से एक 1860 ईं. की है। जिस पर इस प्रकार लिखा हुआ है।

’मोहरें एजेन्सी हाड़ौती सन 1860’
तथा दूसरी मोहर सन 1929 ईस्वी की है, जिस पर इस प्रकार लिखा हुआ है :-

‘‘मोहर कचहरी एजेन्ट हाड़ौती अज तरफ गवर्नर जनरल नाजिम आजम मुमालिका महकमा सरकार दौलत मदार अंग्रेज बहादुर कं. 1929 सन।”

इन दोनों मोहरों से शासन सुविधा के लिये हाड़ौती शब्द को गढ़ लेने की बात उचित सी प्रतीत होती है। बूँदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश (कोटा सहित) दीर्घकाल तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने के कारण हाड़ौती के नाम से विख्यात है। अंग्रेजों के सिक्कों को पुष्ट करने हेतु बूँदी के डिंगल कवि और इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस क्षेत्र ‘‘हड्डवती’’ या “हाड़ौती” के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा हैः-

हड्डन करि विख्यात हुव हड्डवती यह देश,
चहुवान कुल चक्र को रवि जह राम नरेश।15


हाड़ौती क्षेत्र के नामकरण के सम्बन्ध में राजस्थानी भाषा और साहित्य के लेखक फतमल ने अपने गीत में हाड़ौती शब्द का इस प्रकार प्रयोग किया है।

‘‘फतमल तू ही है हाड़ौती रो राव।
हूँ रे टोडा की नागरू बामणी।
पाणीडे गई थी रे तालाब।
लसकर आयो रे हाड़ा राव को।16


सन 1518 ई. के कुंभलगढ़ के शिलालेख में भी हाड़ौती शब्द का उल्लेख ‘‘हाड़ावाटी” मिलता है।

हाड़ावटी देशपतीन स जित्वा तन्मण्डल चात्मवशीचकार।17

यह प्रयोग हाड़ावती शब्द का डिंगल भाषागत चारणी का प्रयोग है। जिसमें ट-वर्गीय ध्वनियों का प्रचुरता से प्रयोग मिलता है। डिंगल राजस्थान की शताब्दियों पूर्व से काव्य भाषा रही है और राजस्थान में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। अतः राजदरबार के वातावरण में संपृक्त ‘‘हाड़ावटी’’ शब्द का शिलालेख में प्रयुक्त होना स्वाभाविक लगता है, जो कालान्तर में हाड़ाउती या हाड़ौती रूप धारण कर गया। विभिन्न साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि हाड़ा राज्य की बूँदी में स्थापना के साथ ही शासन सुविधा की दृष्टि से किसी नामकरण की आवश्यकता हुई होगी, तभी से पण्डितों या चारणों द्वारा दिया गया नाम ‘‘हाड़ावती या हाड़ावटी’’ प्रचलित हो गया।

हाड़ौती बोली/भाषा :


हाड़ौती प्रदेश की भाषा का नाम हाड़ौती है। जहाँ प्रमुख रूप से हाड़ा राजपूत बसे हुए हैं। वर्तमान राजस्थान का कोटा, बूँदी व चितौड़ जिले का पूर्वी भाग विशुद्ध हाड़ौती भाषी क्षेत्र है। कोटा जिले की शाहबाद तहसील में मिश्रित हाड़ौती बोली जाती है, जिसे डांगी बोली कहा जाता है। दक्षिण में असनावर, अकलेरा आदि झालावाड़ जिले की तहसीलों में भी हाड़ौती बोली जाती है, यद्यपि असनावर में मालवी का प्रभाव बढ़ता जाता है। खानपुर तहसील हाड़ौती भाषी है। अब राष्ट्रभाषा का प्रचार बढ़ता जा रहा है और इसलिये शिक्षित व्यक्ति आपस में हिन्दी का व परिवार में हाड़ौती का प्रयोग करने लगे हैं। डॉ. ग्रियर्सन ने 1894 से 1920 ई. तक भारत भर की भाषाओं तथा बोलियों का सर्वेक्षण किया तथा वहाँ की बोलियों की प्रचलित नामों को अपनाया। उनहोंने हाड़ौती बोली शब्द का प्रयोग अपने ग्रन्थ में किया है।18

हाड़ौती का व्यवहार बोलचाल में ही रहा है। साहित्य में इसका प्रयोग होने के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। वंश भास्कर के रचयिता सूर्यमल्ल मिश्रण बूँदी के निवासी हैं और उन्होंने अपनी रचना 1841 ई. में आरम्भ की। उन्होंने इसमें संस्कृत, प्राकृत, डिंगल, ब्रज तथा मरुदेशीय भाषा का प्रयोग किया है। हाड़ौती नरेशों का गुणगान करने वाले इस कवि ने हाड़ौती भाषा को अपने ग्रन्थ में स्थान नहीं दिया है। इससे सहज ही शंका हो जाती है कि हाड़ौती नाम की किसी बोली का नामकरण उस समय तक नहीं हुआ होगा।19 हाड़ौती बोली में सबसे प्रथम मुद्रित ग्रन्थ बाईबिल के ‘न्यू टेस्टामेन्ट’ का हाड़ौती अनुवाद है। यह ग्रन्थ 1808 ई. के आस-पास मुद्रित हुआ था।

हाड़ौती की भौगोलिक स्थिति


भारत में चौहान वंशीय हाड़ा राजपूतों का राज्य सर्वप्रथम राजस्थान में बूँदी में स्थापित हुआ था। कोटा के हाड़ा राज्य का निर्माण इसी बूँदी राज्य की उप-शाखा के रूप में हुआ। हाड़ा के आने से पूर्व यह राज्य मालव प्रदेश का एक भाग था। हाड़ाओं का यह राज्य स्थापित होने से इस भू-भाग को हाड़ौती कहा जाने लगा। हाड़ा हाड़ौती प्रदेश में प्रमुख रूप से बसे निवासी नहीं, अपितु यहाँ के शासक रहे हैं। राजस्थान का दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र एक सुनियोजित भौगोलिक इकाई है जिसे हाड़ौती का पठार के नाम से जाना जाता है। इसके अन्तर्गत चार जिले कोटा, बाराँ, बूँदी एवं झालावाड़ सम्मलित है। हाड़ौती का पठार राजस्थान के दक्षिणी पूर्व में (23‘51’ से 25‘27’ उत्तरी अक्षांश एवं 75’15’ से 77‘25’ पूर्वी देशान्तर के मध्य है।20 यह राजस्थान का एक सीमावर्ती भाग है जिसकी पूर्वी दक्षिणी एवं दक्षिणी पश्चिमी सीमा मध्य प्रदेश से संलग्न हैं तथा उत्तरी एवं उत्तरी पश्चिमी सीमाएँ क्रमशः सवाईमाधोपुर, टोंक, भीलवाड़ा एवं चित्तौड़गढ़ जिलों से मिलती हैं।21 हाड़ौती के अन्तर्गत कोटा, बूँदी, झालावाड़ तथा बारां जिले आते हैं। इसका क्षेत्रफल 24,185 वर्ग किलोमीटर है।

हाड़ौती क्षेत्र के उत्तर में आडावला पर्वत की शृंखला से पृथक ढूँढाण (धुन्धुवाट) प्रदेश है, पूर्व में ग्वालियर (गोपाद्रि) के जंगल हैं। इस क्षेत्र के दक्षिण में मालवा प्रदेश है, जिसे आडवाल की अन्य शृंखला हाडौती से पृथक करती है जिसका नाम मुकन्दरा है। पश्चिम की ओर मेवाड़ की वीर भूमि है। चारों ओर से पर्वतों और घने जंगलों से घिरी हाड़ौती भूमि को चम्बल, काली सिन्ध, पार्वती आदि बड़ी व अनेक छोटी-छोटी नदियाँ सींचती हैं। इन नदियों के किनारे गहरे खड्डे और बीहड़ जंगल हैं। जिन्होंने इस क्षेत्र के निवासियों को अत्यन्त साहसी एवं कर्मकुशल बना दिया है। इसलिये इस क्षेत्र के सभी लोग कृषि जीवी बन गये हैं। यद्यपि हाड़ौती क्षेत्र का एक तिहाई से अधिक भाग जंगलों से ढका हुआ है। भूमि पर्वतावेष्टित होने से पहाड़ी है। पर्वत शृंखलाएँ बीच में मैदानी भागों में घुस आई हैं। फिर भी कृषि के लिये मैदानी भागों में पर्याप्त उर्वरा भूमि है। उर्वरता की दृष्टि से हाड़ौती के मैदानी भाग राजस्थान में प्रथम स्थान रखते हैं और उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना की भूमि से होड़ लेते हैं।22

दक्षिणी-पूर्वी हाड़ौती पठार


राजस्थान के 9.6 प्रतिशत भू-भाग को घेरे हुए यह पठार चम्बल नदी के सहारे पूर्वी भाग में विस्तृत है। अरावली का उत्तर-पूर्वी, पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग इस क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। यह मेवाड़ मैदान के दक्षिण-पूर्व में व उत्तर-पश्चिम में अरावली के महान सीमा भ्रंश द्वारा सीमांकित है। इस क्षेत्र की पश्चिमी सीमा उदयपुर के उत्तर में अरावली का स्पर्श करती है तथा हाड़ौती प्रदेश (अर्थात बूँदी, कोटा एवं झालावाड़ राज्य) के पूर्व में चम्बल का पूर्वी किनारा तथा मेवाड़ की दक्षिणी-पूर्वी समतल भूमि भी इस क्षेत्र में आते हैं। चम्बल, बनास, माही एवं उनकी सहायक नदियों द्वारा यह सम्पूर्ण प्रदेश उर्वर एवं समृद्ध है। इसके अतिरिक्त अन्तरराज्यीय व्यापारिक मार्गों के जो दिल्ली, गुजरात और मालवा को जोड़ते हैं, इसी प्रदेश से होकर जाने के कारण यहाँ के निवासियों का सम्पर्क अन्य राज्यों से निरन्तर बना रहा है और राजस्थान की सीमा के पार तब तक फैला हुआ है, जब तक बुन्देलखण्ड के पूर्ण विकसित कंगार दिखाई नहीं देते। हाड़ौती पठार के अन्तर्गत ऊपरमाल का पठार और मेवाड़ का पठार जिसमें राजनीतिक दृष्टि से झालावाड़ से बूँदी और कोटा, चित्तौड़गढ़ भीलवाड़ा और बांसवाड़ा के कुछ भाग सम्मिलित हैं। यह पठारीय भाग आगे चलकर मालवा के पठार में मिल जाते हैं। इस क्षेत्र का अधिकांश भाग चम्बल नदी तथा इसकी सहायक नदियों जैसे कालीसिंध परवन और पार्वती के द्वारा सिंचित है। अतः कृषि के सनदर्भ में यह राजस्थान का महत्त्वपूर्ण भाग है। इसका ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। यह पठार निम्न दो इकाईयों में विभाजित है -

(अ) विन्ध्य कगार भूमि :- यह कगार भूमि क्षेत्र बड़े-बड़े बलुआ पत्थरों से निर्मित है जो स्लेटी पत्थरों के द्वारा पृथक दिखाई देती है। कंगारों का मुख बनास और चम्बल के बीच दक्षिण व दक्षिणी पूर्वी दिशा की ओर है तथा बुन्देलखण्ड में पूर्व की तरफ फैले हुए हैं। उत्तर-पश्चिम में चम्बल के बायें किनारे पर तीव्र ढाल वाले कगार दिखलाई देते हैं। तत्पश्चात एक कंगार खण्ड स्थित है जो धौलपुर और करौली के क्षेत्रों पर फैला है। इस क्षेत्र की कंगार भूमियों की ऊँचाई 350 मीटर से 550 मीटर के बीच है। इसमें रेतीली चट्टानें तथा पत्थर हैं। इन चट्टानों के विशाल रूप चम्बल नदी के बायें किनारे देखे जा सकते हैं।23

(ब) ढक्कन का लावा पठार :- मध्य प्रदेश के विन्ध्य पठार के पश्चिमी भाग तीन सकेन्द्रिय कगारों के रूप में विस्तृत हैं। यह तीन सकेन्द्रीय कगार, तीन प्रमुख बलवा पत्थरों की परित्यक्त शिलाओं के बीच-बीच में स्लेटी पत्थर भी मिलते हैं। दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान की यह भौतिक इकाई ‘‘ऊपरमाल” के नाम से जानी जाती है। यह विस्तृत एवं पथरीली भूमि है जिसमें कोटा, बूँदी पठारी भाग भी सम्मलित है। विन्ध्य कंगारों के आधार तल क्षेत्रों तक ढक्कन ट्रेप लावा के जमाव दिखाई देते हैं। चम्बल और इसकी सहायक नदियाँ जैसे काली सिन्ध और पार्वती ने कोटा में एक त्रिकोणीय कापीय बेसिन का निर्माण किया है जिसकी औसत ऊँचाई 210 मीटर से 215 मीटर के बीच है। बूँदी व मुकन्दवाड़ा की पहाड़ियाँ इसी पठारीय भाग में है। नदियों द्वारा इस पठारीय भाग को काफी काट-छांट कर परिवर्तित किया है। इसी पठारी भाग से बिजौलिया, माताजी का नाला, बुद्धपुरा बेरीसाल बूँदी आदि स्थानों से मकान की छत में काम आने वाली पट्टियाँ, कातलें आदि बहुतायत से निकाले जाते हैं। इस क्षेत्र में गन्ना, चावल, कपास, अफीम, जौ, गेहूँ, चना आदि की खेती भी कापीय एवं काली मिट्टी के क्षेत्रों में की जाती है। इस भाग में पथरीली भूमि तथा पर्वत हैं। पर्वत इस प्रकार के हैं कि उनके बीच कार, मोटर, बैलगाड़ी आदि चलाना भी कठिन है। इसी पठार में कहीं-कहीं पर काली मिट्टी भी मिलती है।24

पहाड़


इस राज्य के बीचों-बीच आड़ावला पहाड़ है जो उत्तर पूर्व में माधोपुर की पहाड़ियों से मिला हुआ है। लाखेरी के पास से यह दोहरी श्रेणी में चलकर राज्य के दक्षिण-पश्चिम में मेवाड़ की पहाड़ियों से जा मिला है। इस प्रकार आड़ावला पहाड़ से इस राज्य के लगभग दो बराबर भाग हो गये हैं। उत्तर का भाग पहाड़ी है, जिसमें एक ही फसल होती है, दक्षिण का भाग समतल है, जो बहुत ही उपजाऊ तथा दो फसली है। बूँदी राज्य में आड़ावला पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी सथूर के पहाड़ की है, जो समुद्र की सतह से 1795 फीट ऊँची है। यह बूँदी नगर के 10 मील पश्चिम की ओर स्थित है। बूँदी नगर के किनारे पर तारागढ़ नामक पहाड़ी 1426 फीट ऊँची है, अजीतगढ़ में तलवास की पहाड़ी 1662 फीट, गेनोली में 1569 फीट और हिण्डोली में 1138 फीट ऊँची पहाड़ियाँ हैं।

नाला


पहाड़ से होकर निकलने वाले तंग रास्तों को यहाँ नाला कहते हैं, ऐसे नालें इस राज्य में पाँच हैं।25

1. एक राजधानी बूँदी में बांदू की नाल के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें होकर कोटा देवली एवं नसीराबाद की छावनी को सड़क गयी है।

2. दूसरा जैतवास नामक गाँव के पास है, जिसमें होकर टोंक का मार्ग है।

3. तीसरा रामगढ़ और खटकड़ के पास है, जहाँ मेज नदी पहाड़ को काटती हुई उत्तर से दक्षिण की ओर जाती है।

4. चौथा राज्य की सीमा पर लाखेरी घाटा है, जो उत्तर पूर्व में लाखेरी कस्बे के पास है।

5. पाँचवा खिणिया का घाटा है, जो उदयपुर राज्य को जाता है।

मुकन्दरा घाटी व दर्रा


मुकुन्दरा घाटी तथा डाग की पहाड़ियों तथा दक्षिणी झालावाड़ तथा कोटा का क्षेत्र मालवा के पठारी क्षेत्र से जुड़ा हुआ भाग है एवं सांस्कृतिक दृष्टि से उल्लेखनीय है। झालरापाटन और पचपहार की समतल भूमि, अकलेरा और मनोहर थाना की घाटियाँ जिसे जलवायु की दृष्टि से उर्वर तथा सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध सिद्ध करते हैं। मालवा के पठारी क्षेत्र का निकटवर्ती होने से मालवी संस्कृति का प्रभाव भी यहाँ की कला पर दृष्टिगत होता है। इस क्षेत्र की आहू, काली सिन्ध, परवन नदियाँ चम्बल की सहायक नदियाँ हैं, जो मध्य प्रदेश में आर्विभूत होकर मालवा के पठार को सिंचित करते हुए झालावाड़ में प्रवेश करती है।

कोटा राज्य का मुख्य पर्वत दर्रा या मुकन्दरा है। यह 1400 से 1600 फीट तक ऊँचा है और कोटा के दक्षिण भाग में उत्तर पश्चिम से दक्षिण पूर्व को फैला हुआ है। इसकी लम्बाई लगभग 90 मील है। इसकी प्राकृतिक रचना विचित्र है। यह दो समान्तर पर्वत श्रेणियों के रूप में है, जिनका मध्य भाग कहीं-कहीं तीन मील चौड़ा है। इन दोनों श्रेणियों के बीच में सघन और सुन्दर वन हैं और कहीं-कहीं कृषि योग्य भूमि है। पर्वतमालाएँ छोटे-छोटे वृक्षों और झाड़ियों से ढकी रहती हैं। उत्तर की ओर इन्द्रगढ़ में कुछ पहाड़ियाँ हैं, जिनकी ऊँचाई 1500 फीट से अधिक है, परन्तु सबसे ऊँची पहाड़ी इस राज्य के पूर्व में शाहाबाद के इलाके में है, जो मामूनी की पहाड़ी कहलाती है और 1800 फीट ऊँची है। बारहपाटी नामक पहाड़ सांगोद, कुन्जेड़ और खानपुर की निजामतों के बीच में स्थित है। रामगढ़ का पर्वत किशनगंज निजामत में कूल नदी के तट पर है और इसकी रचना बड़ी सुन्दर है। हार की भाँति गोलाकार श्रेणी कितने ही वर्गमील सुन्दर जंगल को घेरे हुए है, जिसमें प्रवेश करने के लिये केवल एक छोटा सा मार्ग है।

जलवायु


हाड़ौती क्षेत्र के बूँदी-कोटा में उपआर्द्र एवं बारां में आर्द्र प्रकृति की जलवायु पाई जाती है। ग्रीष्म ऋतु में औसत तापमान 320 से 380 सेल्सियस व शीत ऋतु में औसत तापमान 140 से 170 सेल्सियस होता है। इस क्षेत्र की वर्षा का वार्षिक औसत 60 से 80 सेमी है। कुछ वर्षा शीत ऋतु में पश्चिम से आने वाले चक्रवातों से भी होती है अन्यथा अधिकांश वर्षा मानसून काल में ही होती है। कभी-कभी मावठ भी होती है। जंगली भाग जलवायु की दृष्टि से इतना हेय है कि पानी और उपजाऊ भूमि होते हुए भी वहाँ बहुत कम लोग बसते हैं। सन 1900 ई. में 42 इंच के लगभग वर्षा हुई थी। यहाँ घनी सवाना और मानसूनी वनस्पति मिलती है यह क्षेत्र बीहड़ों और जंगलों तथा विंध्याचल पठार का भाग समेटे हुए हैं जहाँ चम्बल, बनास आदि नदियों का अपवाह क्षेत्र आता है।26

नदियाँ


इस राज्य की मुख्य नदियाँ चम्बल, कालीसिंध, आउ, नेवज, परवन, पार्वती, अंडेरी और कूनो हैं। ये सब नदियाँ मालवे की उपत्क्या से निकलकर कोटा राज्य के दक्षिणी भाग से निकलने वाली अनेक छोटी-छोटी सहायक नदियों के जल का संग्रह करती हुई अन्त में सभी चम्बल का रूप धारण करके कोटा राज्य को छोड़ देती हैं। चम्बल नदी का प्राचीन नाम चर्मण्यवती है। चम्बल नदी विंध्याचल पहाड़ के उत्तरी पार्श्व से निकलकर मध्य भारत व उदयपुर राज्यों में होती हुई दक्षिण में बूँदी राज्य व कोटा राज्य की सीमा बनाती हुई बहती है। कोटा नगर के नीचे ये खूब गहरी व चौड़ी है। काली सिंध मध्य प्रदेश के मालवा पठार से कोटा राज्य में दक्षिण से प्रवेश करती है और लगभग 35 मील तक कोटा राज्य को ग्वालियर, इंदौर, झालावाड़ राज्य से अलग करती हुई बहती है। आहू नदी से मिलकर यह दर्रे पहाड़ को काटती हुई ठीक उतर दिशा में बहकर पिपलदा गाँव के पास चम्बल से मिलती है। पार्वती चम्बल की सहायक नदी है लगभग 48 मील तक यह कोटा राज्य को ग्वालियर राज्य से और टोंक राज्य को छबड़ा परगने से अलग करती है और फिर लगभग 40 मील तक कोटा राज्य में बहती है। अटरु के पास इसमें अण्डेरी नदी मिलती है। वहाँ पर इस पर बाँध बाँधा गया है और उसमें से नहर निकाली गई है जिससे लगभग 40 गाँवों की भूमि को सींचा जाता है। परवण नदी अजनार एवं घोड़ा पछाड़ नदी के संगम से बनी है। परवण व उजाड़ दोनों नदियाँ काली सिंध में मिलती हैं। कूनो शाहबाद इलाके की एक छोटी सी नदी है।27 काली सिन्ध, परवण, उजाड, छापी एवं आहू नदियाँ बारह मासी है।

बूँदी राज्य में चम्बल की बड़ी सहायक नदी मेज है जो मेवाड़ के पूर्वी भाग के 1700 फीट ऊँचे पहाड़ों से निकलकर श्यामपुरा होती हुई नेगट के पास बूँदी राज्य में प्रवेश करती है। यह बूँदी की उत्तरी तहसीलों हिण्डोली, गोठड़ा, गंडोली में बहती हुई आडावला पहाड़ को खटकड़ के पास काटकर दक्षिण में लाखेरी होती हुई कोटा बूँदी की सीमा पर पाली के पास चम्बल नदी में मिलती है। यह बूँदी राज्य में 29 मील बहती है। मेज की बड़ी सहायक नदियाँ सूकड़ी या मांगली और बेजिन है। सूकड़ी नदी दक्षिणी पश्चिम की पहाड़ियों में होकर मेवाड़ की ओर से आती है और घोड़ापछाड़ तथा तालेड़ा नदियों के पानी को लेकर भैंसखेड़ा के पास मेज नदी में मिल जाती है। ताई नदी से मिलकर यह कूरल नदी कहलाने लगती है। मांगली की सहायक नदी तालेड़ा जो बिजोलिया की झील से निकलकर तालेड़ा तहसील में बहती हुई संगवदा में मांगली नदी से मिल जाती है। बेजिन नदी पश्चिम की ओर मेवाड़ के इटोडा के पहाड़ों से आकर कुछ दूर तहसील हिण्डोली में बहकर जयपुर राज्य में सीमा बनाती हुई तहसील मोठड़ा में होकर सादेड़ा के संगम पर बड़गाँव के पास मेज नदी में मिल जाती है। इसके अलावा बनास नदी तहसील नैनवां में तीन मील के लगभग बहती है।28

मिट्टी


राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी भागों झालावाड़, बूँदी, बारां, कोटा जिलों में मध्यम काली मिट्टी पाई जाती है। इस मिट्टी का रंग गहरे भूरे रंग का मटियाल की तरह होता है। सामान्यतया इन मिट्टियों में फॉस्फेट, नाइट्रोजन व जैविक पदार्थों की कमी मिलती है लेकिन कैल्शियम व पोटाश की मात्रा इनमें पर्याप्त है। यह मिट्टियाँ कृषि प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप व्यवहार करती हैं और व्यापारिक फसलों की अच्छी उपज के लिये उपयुक्त हैं। इसके अलावा कच्छारी मिट्टी नदी-नालों के किनारों तथा उनके प्रवाह क्षेत्र में पाई जाती है। इस मिट्टी में चूना, फास्फोरिक अम्ल और ह्यूमस की कमी पाई जाती है। यह गठन में मटियार से रेतीली दोमट होती है। यह मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है इसमें नाइट्रोजन व लवण पर्याप्त मात्रा में होते हैं। कच्छारी मिट्टी चम्बल एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा जमा की गई है जिसमें मध्य एवं उत्तरी कोटा जिला प्रमुख है इसके अलावा अपरदन से बनी परिवर्तित मृदा लैटराइट है जो लाल एवं भूरे रंग की है। लाल मिट्टी बूँदी की पहाड़ियों तथा हिण्डोली क्षेत्र व मुकन्दवाड़ा की पहाड़ियों पर दिखायी देती है। पर्वतीय ढालों पर मिट्टी की कटान में वृद्धि कर देते हैं। निरन्तर वनों के कटते जाने से भी यह समस्या और अधिक होती जा रही है। इस क्षेत्र में चावल, ज्वार, गन्ना, गेहूँ, जौ, सरसों, चना, मिर्च, अरहर आदि की कृषि होती है।

वनों की स्थिति


हाड़ौती क्षेत्र के चारों जिलों की नदियाँ अपने दोनों किनारों पर विशाल आकार के कोहड़ा, गुलर, जामुन, सिरस, चुरेल, कलम के पेड़ों तथा करोंदे और जाल तथा मकोये की घनी झाड़ियों से आच्छादित रही हैं। इससे न केवल शीतल छाया बल्कि इनकी जड़ों द्वारा पानी रोक लिये जाने से कम वर्षा के काल में भी नदियों में वर्ष पर्यन्त जल प्रवाह बना रहता है और कुओं का जलस्तर भी कम नहीं होता था। इस प्रदेश में कभी भी जल की कमी महसूस नहीं की गई। यहाँ के जंगलों में धव, धोकड़ा, खैर, सालर, बहेड़ा, गुर्जन, खिरनी, खार, तेन्दू तथा खेजड़ा आदि वनस्पतियाँ अधिक पायी जाती हैं। यहाँ से इमारती लकड़ी, चारकोल, जलाऊ लकड़ी, घास, पत्तियाँ, शहद, गोद, कत्था, बीड़ी बनाने के लिये तेंदू के पत्ते और खिलौने बनाने के लिये खिरनी की लकड़ी प्राप्त होती है। धोकड़ा की पत्तियाँ चमड़ा रंगने के काम आती हैं। लकड़ी महूआ, शहद, गोद, मोम आदि जंगल की पैदावार द्वारा यहाँ के निवासी अपना जीवन निर्वाह करते थे। इसके अलावा लोग पशुपालन भी बहुतायत में करते थे। इस क्षेत्र का 25 प्रतिशत से भी अधिक भू-भाग वनाच्छादित था तथा वनों की सघनता सामान्यतः 0.7 से 0.8 तक थी। ग्रामीण क्षेत्रों में यह 0.3 से 0.5 तक थी।

झालावाड़ कोटा तथा बूँदी के शासक शिकार के प्रयोजन से दिलो-जान से अपने वनों की रक्षा करते थे। यद्यपि वन प्रबंधन की विधि वैज्ञानिक आधार पर नहीं थी और प्रशिक्षित वनकर्मी भी नहीं थे। फिर भी कोई व्यक्ति ईंधन के लिये सूखी लकड़ी प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य किसी भी रूप में वृक्षों की कटाई करने की सोच भी नहीं सकता था।29

इस भाग में शुष्क सागवान के वन 75 से 110 से.मी. वर्षा वाले भागों में पाये गये हैं। इन वनों को मानसूनी या चौड़ी पत्ती वाले वन भी कहते हैं। इन वनों के नीचे स्थान-स्थान पर मोटी बेलें व घास भी पाई जाती हैं। पानी की पर्याप्त मात्रा के कारण वृक्षों की ऊँचाई 10 से 21 मीटर तक की होती है। ग्रीष्मकाल में इनकी अधिकांश पत्तियाँ गिर जाती हैं। अतः यह मानसूनी वनों की श्रेणी में आते हैं।30 मुकन्दरा एवं डांग की पहाड़ियाँ चौड़े जंगलों से घिरी हैं जिनमें चीता और पेन्थर जानवर पाये जाते हैं। मैदान संगठित पेड़ों और लकड़ियों से भरे हैं। यह क्षेत्र नीची पहाड़ियों और सतही मैदानों से घिरा हुआ है। इन पहाड़ियों का विस्तार विंध्यांचल तक है।

इन वनों में जंगली सूअर, काला भालू, कृष्ण मृग, चिंकारा, बेकड़ा, नीलगाय, सांभर, खरगोश, गीदड़, लकड़बग्घा आदि पशु पाये जाते हैं। सोरसन गाँव में गोडावन तथा चम्बल में घड़ियाल भी बड़ी संख्या में उपलब्ध है। कौआ, गौरेया, कबूतर, मैना, बुलबुल, मोर, रॉबिन, जंगली मुर्गा, जंगली बत्तख आदि पक्षी पाये जाते हैं। यहाँ की नदियों, झीलों, तालाबों में रोहू आदि मछलियाँ पायी जाती हैं।

उपज


हाडौती क्षेत्र पहाड़ी और नदी-नालों के कारण एवं वर्षा अच्छी एवं उपजाऊ मिट्टी के फलस्वरूप यह प्रदेश मूलतः एक कृषि प्रदेश है। जहाँ रबी एवं खरीफ दोनों फसलों का उत्पादन समान रूप से होता है। इस क्षेत्र के दक्षिणी भाग में काली चिकनी मिट्टी होने के कारण रबी में गेहूँ, जौ, अलसी एवं चना तथा खरीफ में ज्वार, तिल, मक्का, मूँगफली, गन्ना, कपास एवं तम्बाकू आदि फसलें होती हैं।

सिंचाई


हाड़ौती राजस्थान का अधिक वर्षावाला प्रदेश है और यहाँ वर्षपर्यन्त बहने वाली नदी चम्बल है जिसका सिंचाई के लिये समूचित प्रयोग किया गया है। इस क्षेत्र में सिंचाई हेतु प्रचलित सभी साधनों का उपयोग किया गया है। कोटा एवं बूँदी में नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र अधिक है तथा कुओं से भी पर्याप्त सिंचाई होती है, किन्तु झालावाड़ में कुओं द्वारा ही अधिक सिंचाई होती है।

खानें


कोटा, झालावाड़ में बालुकाष्म के विविध प्रकार के पाषाण बहुलता से प्राप्त होते हैं। इनमें से मुख्य खानें झालरापाटन के पास बक्षपुरा, बगदार, भवरसी में, झालावाड़ के दक्षिण पश्चिम में गिन्डोर, गाँवरी और गुढ़ा में झालावाड़ के पश्चिम में जाजपुर, बलगढ़ और झिरनिया में, झालावाड़ के उत्तर में कोटरा, बिलोनिया और खोखन्डा में, छोटी कलामण्डी में रालेटी और कपसिया कुआँ में, बड़ी कलमाण्डी में नाहर सिंधी, सालोटिया और सिवार में है। झालरापाटन के पास की खानों का बालुकाष्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ 30 फीट लम्बे स्तम्भों के लिये पत्थर तथा 12 x 14 फीट की शिलाएँ जो फर्श आदि के लिये उपयोगी है, निकलती हैं। इसके विपरीत मुकन्दरा क्षेत्र के अन्तर्गत गंगधार, डाग, पचपहार और पिरावा में पत्थर की खानें तो नहीं परन्तु कालिमा लिये हुए लाल रंग की ज्वालामुखी चट्टानें हैं। यह पत्थर यहाँ के मंदिरों के निर्माण में प्रयुक्त हुआ है तथा इन पहाड़ियों में कौलवी, बिनायका और हथिया गौड़ में बौद्ध गुफाओं के निर्माण में सहायक सिद्ध हुआ है। ये मंदिर अधिक स्थायी एवं कला के कठिन प्रहारों को सहन करने में अधिक सक्षम सिद्ध हुए हैं।

झील एवं तालाब


बूँदी के उत्तर में मीणा शासक जैता द्वारा चौदहवीं शताब्दी में बनवाया गया जैतसागर तालाब है जो पहाड़ी से सटा हुआ है। राजा भोज के समय का फूलसागर तालाब, महाराव राजा उम्मेद सिंह का नोलखा तालाब, महाराव दुर्जनशाल के समय में कोटा का छत्रविलास तालाब का निर्माण किया। इसके मध्य जगमन्दिर महल का निर्माण किया गया। इसके अलावा झालावाड़ का खड़िया तालाब, काकाजी का कुआँ, चन्द्रावतजी की बावड़ी, मंगलपुरा की बावड़ी, खाड़ी बावड़ी, कृष्ण सागर आदि जलस्रोत हैं। बूँदी की रानीजी की बावड़ी, भावल्दी बावड़ी, गुल्ला बावड़ी नाहरदुस की बावड़ी नागर सागर कुण्ड, कोटा का भीतरिया कुण्ड, दाँत माता कुण्ड, कपिलधारा एवं गागरोन का जलदुर्ग आदि का निर्माण शासकों ने अपनी जनता की सेवा एवं पुण्यार्थ हेतु करवाया था।

दुगारी में कनक सागर झील लगभग चार वर्ग मील है। हिंडोली में रामसागर तालाब पर बांध है इसकी पक्की पाल महाराव रघुवीर सिंह ने बंधवायी थी। नैनवा का नवलसागर तालाब नवल सिंह सोलंकी द्वारा 1403 ई. में बनवाया गया था। बूँदी से चार मील पर फूलसागर है जहाँ बूँदी नरेशों के गर्मियों में निवास करने के लिये महल बने हैं इसी के दक्षिण में जोधसागर है। बूँदी नगर के दक्षिण में नवलसागर है इससे सम्पूर्ण नगर को पेयजल की आपूर्ति होती थी।

इस भौगोलिक समृद्धि के परिणामस्वरूप ही हाड़ौती क्षेत्र में भास्कर्य कला के सर्वोत्तम एवं अवशेष प्राप्त होते हैं। कन्सुआ, बाडोली, अटरू, रामगढ़, झालरापाटन तथा झालावाड में मूर्तिकला के सर्वोत्तम उदाहरण प्राप्त होते हैं। इस क्षेत्र में सांस्कृतिक परम्पराओं का मिश्रण तथा मूर्तिकला में अन्य क्षेत्रीय विशेषताआें की उपस्थिति इसी अन्तरराज्यीय सम्पर्क का परिणाम प्रतीत होती है। क्षेत्र की सम्पन्नता एवं समृद्धि के कारण यहाँ के निवासियों का जीवन सुलभ एवं सुखद रहा तथा उन्हें जीविकोपार्जन से अतिरिक्त पर्याप्त समय एवं सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं। इसी कारण उनकी सामर्थ्य एवं शक्ति का प्रयोग धार्मिक गतिविधियाँ, मंदिर निर्माण आदि के क्षेत्र में अधिक हुआ। उनके धार्मिक विश्वास एवं आस्थाएँ चम्बल के किनारे बाडोली मंदिर समूह तथा चन्द्रभागा के तट पर चन्द्रावती के मंदिर समूहों के रूप में देखी जा सकती है। इसके अतिरिक्त अटरू, विलास, मुकन्दरा, बिजोलिया आदि स्थानों पर भी मंदिरों का निर्माण हुआ। कठिन पटिट्ताश्म युक्त पाषाणों की सुलभता के कारण ये मंदिर अधिक स्थायी एवं काल के कठिन प्रहारों को सहन करने में अधिक सक्षम सिद्ध हुए हैं।

हाड़ौती का इतिहास परिदृश्य
बूँदी


बूँदी जिले में स्थित अरावली पर्वतमाला की तलहटी में तथा चम्बल नदी घाटी में आदिम सभ्यता के चिन्ह पाये गये हैं। लघु पाषाण उपकरणों की उपस्थिति इस क्षेत्र में मानव जीवन की हलचलों का प्रमाण देती है। महाभारत के अनुसार इस क्षेत्र में मत्स्य जाति निवास करती थी। मत्स्य आगे चलकर मीणा कहलाने लगे। वैदिक काल के राजा सुदास ने दस राजाओं के युद्ध में मत्स्य राजा को भी परास्त किया था। मत्स्यों की मुख्य राजधानी बैराठ थी। मौर्यकाल में मत्स्यों की राजनैतिक पहचान बनी हुई थी। बाद में इस क्षेत्र पर समुद्रगुप्त ने अधिकार कर लिया।

बूँदी का उत्तरी पूर्वी क्षेत्र सूरसेन राज्य में आता था जो अलवर, भरतपुर, करौली तथा धौलपुर तक फैला हुआ था, इसकी राजधानी मथुरा थी। हैहयवंशी राजा सहस्रार्जुन इस देश का राजा था। हैहयवंशी यादवों की ही एक शाखा थी। परशुरामजी ने सहस्रार्जुन को मारकर सूरसेन वंश के राजकुमार को पुनः इस देश का राजा बनाया। मौर्यकाल में यह क्षेत्र मगध के अधीन रहा, किन्तु शक राजाओं के काल में यहाँ पुनः स्वतन्त्र राज्य की स्थापना हुई। ईसा से 75 वर्ष पहले यह क्षेत्र शकों के अधीन आ गया था तथा लगभग 250 वर्षों तक उन्हीं के पास रहा।31 बूँदी राजपूताना में चौहान राजवंश मुख्य और सबसे पुराना राज्य है। चौहान वंश का मूल पुरुष चाहमान माना जाता है। इसी शासक के नाम से चौहान इसके वंशज कहलाने लगे। चौहान चव्हाण का अपभ्रंश है। चाहमान अतिशक्तिशाली शासक था और उसके छोटे भाई धनंजय के नेतृत्व में चाहमान ने समस्त भारत पर अधिकार किया और अंतिम समय में चाहमान धार्मिक केन्द्रों की यात्रा करता हुआ पुष्कर में मृत्यु को प्राप्त हुआ।32 हर्षनाथ के शिलालेख में कहा गया है कि चह्वाण वंशजों के प्रारम्भिक शासक अहिछत्र में राज्य करते थे। मन्दिर के इस शिलालेख में राजा गूवक से दुर्लभराज तक आठ राजाओं की वंशावलियों का उल्लेख है।33 इस वंश के शासक गुवक का राज्यकाल 868 ई. के लगभग रहा, इस वंश के शासक चन्दनराज के समय चौहानों और तंवरों के बीच भयंकर संघर्ष हुआ। उसने तवरावति पर हमला कर तवरवंशी राजा रूद्रेण को मार डाला। चन्दनराज का पुत्र उत्तराधिकारी वाक्यपतिराज था, इसने अपने साम्राज्य को विंध्याचल पर्वत तक फैलाया।34 पृथ्वीराज विजय में दी हुई वंशावली के अनुसार वाक्यपतिराज के तीन पुत्र सिंहराज, लक्ष्मण व वत्सराज थे। वाक्यपति की मृत्यु के बाद सिंहराज सांभर का शासक हुआ। प्रबन्ध कोश से ज्ञात होता है कि उसने अजमेर के पास मुसलमान सेनापति हाजीऊदीन को हराया। सिंहराज के पुत्र विग्रहराज व उसके बाद दुर्लभराज वि.स. 1057 तक सांभर में निष्कंटक राज्य करते रहे। वाक्यपतिराज के दूसरे पुत्र लक्ष्मणराज ने मारवाड़ में नाडोल में अपना अलग राज्य स्थापित किया। नाडोल में चौहानों की इस शाखा ने लगभग 200 वर्षों तक राज्य किया। 1200 ईस्वी के लगभग जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने नाडोल पर आक्रमण किया तो वहाँ के चौहान शासक भीनमाल चले गये।35 भीनमाल की चौहान शाखा में माणिकराय द्वितीय प्रसिद्ध शासक हुआ। माणिकराय ने बम्बावदा पर अधिकार करके उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके समय में मेवाड़ के दक्षिण पूर्वी भाग पर चौहानों का राज्य स्थापित हो गया। इसके बाद संभारण, जैतराव, आनंगराव और विजयपाल शासक हुऐ।36 माणिकराय की छठी पीढ़ी में विजयपालदेव का पुत्र हरराज या हाड़ाराव बड़ा प्रसिद्ध नरेश हुआ। हरराज को भाटों ने अपनी बहियों में हाड़ा कहकर सम्बोधित किया है। इसी हाड़ा के नाम पर इसके वंशज हाड़ा कहलाने लगे। हरराज व राव हाड़ा के पीछे कुछ पीढ़ी तक हाड़ा राजपूत बम्बावदे में राज्य करते रहे। इस वंश के बंगदेव का पुत्र कुंवर देवसिंह बड़ा वीर और साहसी शासक हुआ। उसके समय में राज्य पूर्व में भैसरोड़गढ़, पश्चिम में बम्बावदा और मेनाल तक फैल गया। उसने हाड़ा राज्य का विस्तार किया और बूँदी नगर को अपनी राजधानी बनाया।

बारहवीं शताब्दी के मध्य में राजपूतों ने मीणाओं के क्षेत्र पर जबर्दस्त आक्रमण करने आरम्भ कर दिये। इस कारण मीणाओं को अपना मूल स्थान छोड़कर मालवा की तरफ भागना पड़ा। 1143 ई. में मीणाओं की बहुत बड़ी संख्या मालवा के पठार में पहुँची तथा बांदो घाटी में जाकर जम गई जहाँ से परमार विस्थापित हो चुके थे। लगभग एक शताब्दी तक मीणा वहाँ जमे रहे। इनके दक्षिण में भील, उत्तर में कछवाहे, पूर्व में खींची तथा बम्बावदा क्षेत्र में चौहानों का राज्य थे। इन मीणाओं की अपने पड़ोसी राजपूतों से अक्सर लड़ाई होती थी। तेरहवीं शताब्दी में बांदो घाटी में मीणाओं का मुखिया जैता बड़ा शक्तिशाली राजा हुआ।37

अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिये उसने अपने पुत्रों का विवाह राजपूत कन्याओं से करने का निश्चय किया। उनके सम्बन्ध कभी राजपूतों में हो जाया करते थे क्योंकि जो कोई भूमि का स्वामी होता था वही क्षत्रिय कहलाने लगता था। इसलिये उसने अपने कामदार जसराज चौहान के सामने उसकी पुत्रियों का विवाह अपने पुत्रों के साथ करने का प्रस्ताव रखा, किन्तु इन मीणाओं के रीति रिवाज जसराज को पसंद नहीं थे। उसने इस प्रस्ताव को टालना चाहा। अतः उसने अपनी सहायता के लिये बम्बावदा के हाड़ावंशीय राजकुमार देवी सिंह से याचना की। तब दोनों ने मिलकर एक षड़यन्त्र रचा। जसराज ने जैता मीणा को उक्त विवाह की स्वीकृति देकर षड़यन्त्र के अनुरूप बूँदी से 4 कोस दूर उमरथणा नामक ग्राम में विवाह स्थल निश्चित किया। उक्त आयोजन में देवी सिंह भी निमंत्रित थे। सारे बारातियों को राजकुमार देवी सिंह तथा उसके सैनिकों ने मार डाला। 1241 ई. के दिन बूँदी को राव देवी सिंह ने अपने अधिकार में कर लिया।38 देवी सिंह तक बम्बावदा के हाड़ों की स्थिति साधारण ही थी। तदन्तर देवसिंह ने गौड़ सरदार गजमल से खटपुर, मनोहरदास से पाटन, गोड़ों से गेडोली और लाखेरी और उसके बाद जसकरण से कखर के परगने दबा कर बूँदी राज्य को विस्तृत किया, यह क्षेत्र हाड़ौती कहलाया। अपने पिता के प्रति शक्ति प्रकट करने के लिये देवी सिंह ने अमरथूण से पूर्व की ओर गंगेश्वरी देवी का मन्दिर बनवाया जहाँ पर बावड़ी का निर्माण करवाया। देवीसिंह के पिता गंगदेव का निधन होने पर उसने वंशक्रमानुगत राज्य भी बूँदी में मिला लिया। इस प्रकार अपने बाहुबल से विस्तृत राज्य स्थापित करके तथा अनेक प्रबल शत्रुओं की पराजय से अपनी कुल कीर्ति बढ़ाकर वैषाख शुक्ला 9 सम्वत 1400 को अपने ज्येष्ठ पुत्र समरसिंह का अभिषेक कर बूँदी से पाँच कोस दूर उमरथुणा गाँव में मृत्यु पर्यन्त रहा।39

उपरोक्त वर्णन में तिथिक्रम एवं तथ्यों के उल्लेख में परिकल्पना का सहारा लिया गया है। एक तो राव देवा के बूँदी पर अधिकार का वर्ष वि.सं. 1298 (1241 ई.) आंका गया है। इसका तथ्यगत खण्डन करते हुए श्री जे.एस. गहलोत लिखते हैं कि कविवर सूर्यमल्ल मिश्रण ने ‘वंश भास्कर’ में देवा का मीणाओं को मार कर बूँदी पर अधिकार विसं. 1298 में करना लिखा है परन्तु यह प्रमाणित ज्ञात नहीं होता है क्योंकि देवा के प्रपितामह विजयपाल वि.सं. 1343 से 1354 (1286-1297ई.) का शिलालेख बूँदी शहर के पास केदारनाथ महादेव मन्दिर से मिल चुका है। यदि हम इनके मध्य के प्रत्येक राजा का कार्यकाल 20 वर्ष मानें तो देवा का समय वि.सं. 1394 (1337 ई.) के लगभग निकलता है।

कर्नल टॉड ने ‘एनाल्स एण्ड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में भी देवा का विक्रम सम्वत 1398(1341ई) में बूँदी पर अधिकार होना लिखा है। अतः यही समय ठीक जान पड़ता है।

‘गज नव बारह शब्द गत, सक विक्रम सम्बन्ध।
दिन नवमी आषाढ़ बदी, मीणा तोड़ि मदन्ध।।
मारि सकल इमि पाई मधु, राखि सनातन राह।
धकि लीघी बूँदी घरा, देवे कँवर दुबाह’।। वंश भास्कर ।।


समर सिंह (1343-1346 ई.)


राव देवी सिंह का पुत्र समर सिंह 1343 ई. में गद्दी पर बैठा। इसने कैथून, सीसवली, बड़ौद, रैलावन, रामगढ़, मऊ और सागौर आदि स्थानों के गोड़, पंवार तथा मेड़ आदि राजपूतों को हटा कर उनको अपना सामन्त बनाया40 तथा अपने पैतृक राज्य को सुदृढ़ किया। इस समय हाड़ों का राज्य चम्बल नदी के बाँये किनारे तक फैल चुका था, परन्तु चम्बल के दाहिने किनारे पर कोटा से लगभग पाँच मील दक्षिण-पश्चिम में अकेलगढ़ भीलों की राजधानी थी। अकेलगढ़ दक्षिण-पूर्व में मुकुन्दरा पर्वत की श्रेणियों के साथ-साथ भील लोग मनोहर थाने तक फैले हुऐ थे। भीलों का प्रसिद्ध सरदार कोटया था जिसके नाम पर कोटा नगर बसा था। अकेलगढ़ के पास कोटया भील का समर सिंह से भारी युद्ध हुआ जिसमें भीलों के 900 व हाड़ों के 300 सिपाही मारे गये। कोटया रण से भागकर अपने प्राणों की रक्षा करने के लिये कहीं छिप गया।41 इस प्रकार विजय होकर बूँदी पहुँचने के पश्चात समर सिंह ने अपने तृतीय पुत्र जैतसी का विवाह कैथून के तँवर सरदार की पुत्री से कर दिया। जब जैतसी अपने ससुराल में ठहरा हुआ था तो अकेलगढ़ के भीलों का उच्छेद करके उसने अपने लिये एक छोटा सा राज्य स्थापित करने की योजना की। अपने ससुर की अनुमति से और पिता की सहायता से उसने भीलों के साथ युद्ध करके उनका नाश किया। कोटया भील लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध में जैत सिंह के पक्ष में सैलार खाँ नामक पठान भीलों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार अकेलगढ़ के भीलों को मारकर जैत सिंह ने कोटा नगर पर अधिकार कर लिया। सैलार खाँ की स्मृति में सैलारगाजी का दरवाजा बनवाया गया। समर सिंह के चार पुत्र नरपाल, हरपाल, जैत सिंह और डुंगर सिंह थे। ज्येष्ठ पुत्र नरपाल बूँदी का स्वामी हुआ। हरपाल को जंजावर की जागीर मिली। जैतसिंह के पास कोटा परगना रहा व बूँदी के राजकुमार की जागीर में रहने लगा। जैतसिंह अपने को कोटा राज्य का अधिपति मानते हुए भी बूँदी राज्य के अधीन रहे।

हाड़ा राव नरपालजी (1349-1370 ई.)


समर सिंह की मृत्यु के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र नरपालजी बूँदी के सिंहासन पर बैठे और जैत सिंह कोटा में राज्य करता रहा42 और अपने बड़े भाई की सेवा करता रहा। जब नरपालजी ने टोडा के सोलंकी सरदार रोपाल के साथ युद्ध किया तो जैतसिंह उसमें लड़ता हुआ मारा गया। अपने पिता की भाँति नरपालजी ने चम्बल के दाहिने तट पर अपना राज्य बढ़ाया। उसने पहले पलायथे के महेशदान खींची पर चढ़ाई की। प्रथम बार नरपालजी हार गये, परन्तु दूसरी बार की चढ़ाई में महेशदान ने रणक्षेत्र से भागकर अपने प्राणों की रक्षा की और नरपालजी ने उसके भाई पहाड़ सिंह को मारकर पलायथे के किले पर अपना अधिकार जमाया। इस युद्ध में नरपालजी के पुत्र हल्लू ने बड़ी वीरता दिखाई। 1428 ई. के शृंगी स्थान से मिले शिलालेख से ज्ञात होता है कि मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह ने इनको हराया था तब से बूँदी राज्य मेवाड़ का मातहत हो गया।

हाड़ा राव हामाजी (राव हम्मीर) (1388-1403 ई.)


1388 ई. में राव हामाजी अथवा हम्मीर सिंह बूँदी के सिहांसन पर आरूढ़ हुए। मेवाड़ की गद्दी पर इस समय महाराणा लाखा का अधिकार था जो साम्राज्यवादी लालसा से युक्त थे।43 बूँदी का प्रदेश अल्लाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर अधिकार से पूर्व मेवाड़ के अधीन था। खिलजी आक्रमण से राणा की शक्ति निर्बल हो जाने के कारण उनके अधिकृत प्रदेश स्वतन्त्र हो गये। बूँदी भी उनमें से एक था। अब महाराणा लाखा ने बूँदी नरेश को पुनः अपनी अधीनता स्वीकार करने का आदेश दिया। हम्मीर ने अपने को मेवाड़ का सामन्त मानने से इन्कार कर दिया और कहा कि बूँदी को हाड़ाओं ने मीणाआें से अपनी शक्ति के बल पर प्राप्त किया है। दीर्घकालीन पत्र व्यवहार के उपरान्त राव हम्मीर ने महाराणा से अग्रांकित शर्तों पर सन्धि करना स्वीकार कर लिया।

1. दशहरा और होली के उत्सव पर बूँदी के राव अपनी सेना के साथ चितौड़ में उपस्थित हुआ करेंगे।

2. बूँदी के प्रत्येक नये राजा का राज्याभिषेक करने का अधिकार महाराणा को ही होगा।

3. उपरोक्त बन्धनों के अतिरिक्त बूँदी नरेश पर मेवाड़ के किसी अन्य सामन्त की भाँति कोई बन्धन नहीं होगा।

उपरोक्त शर्तों से महाराणा सनतुष्ट नहीं हो सका। बूँदी को अधीन बनाने तथा राव देवा के उत्तराधिकारियों को हाड़ौती के पठार से निष्कासित कर देने के उद्देश्य से उसने एक अभियान किया। बूँदी के निकट निमोरिया नामक ग्राम में राव हमीर ने 500 हाड़ा सैनिकों के साथ महाराणा का सफल प्रतिरोध किया। सिसोदिया सैनिकों व कुछ वरिष्ठ सामन्तों को खोकर राणा लाखा युद्ध क्षेत्र से भाग निकला और उसने चित्तौड़ पहुँच कर यह प्रतिज्ञा की कि ‘‘जब तक मैं बूँदी पर अधिकार नहीं कर लूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण न करूँगा।’’ राणा की इस प्रतिज्ञा को सामन्तों की राय में इतने अल्पकाल में पूरा करना असम्भव था क्योंकि चित्तौड़ से 60 मील दूर सशक्त हाड़ा राव को परास्त करने में जितना समय लग जाता उतने समय तक अन्न जल त्यागे हुऐ महाराणा का जीवन संदिग्ध ही था। समस्या का यह उपाय खोजा गया कि बूँदी के दुर्ग का एक कृत्रिम नमूना मेवाड़ में ही निर्मित किया जाए तथा उस पर अधिकार करके महाराणा की प्राण रक्षा की जाये, किन्तु इस योजना की क्रियान्विति का मेवाड़ की सेना में सेवारत एक हाड़ा सरदार कुम्भा ने इसे हाड़ाओं के सम्मान का प्रश्न मानकर इस कृत्रिम आक्रमण का सशस्त्र विरोध किया। ‘‘हाड़ा राव हम्मीर ने महाराणा की पुरमाण्डल की ओर बढ़ती सेना को रोककर मध्यस्तता की तथा अपने पिता नापाजी के समय मेवाड़ से छिना गया प्रदेश मेवाड़ को पुनः सौंपकर अपनी एक पौत्री का विवाह महाराणा के पुत्र खेतल से कर दिया।”44

हाड़ा राव वीरसिंह (1403-1413 ई.)


यह राव हम्मीर का ज्येष्ठ पुत्र था। बूँदी के तारागढ़ दुर्ग के निर्माता बरसिंह के भाई तथा खटकड़ के लालसिंह ने पिता हम्मीर की इच्छानुसार अपनी पुत्री का विवाह मेवाड़ के महाराजा कुमार खेतल से गेण्डोली में किया। इस आयोजन में महाराणा के एक चारण बारू ने लालसिंह द्वारा अपमानित किए जाने पर आत्महत्या ली। इसका बदला लेने के लिये महाराणा ने खेतल को अपने ससुर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इस युद्ध में बरसिंह ने लालसिंह का साथ दिया। मेवाड़ की पराजय हुई और खेतल खेत रहे।45

हाड़ा राव बेरीशाल (1413-1459 ई.)


32 वर्ष की आयु में बेरीशाल बूँदी की राजगद्दी पर बैठे। यह एक निर्बल और अयोग्य शासक थे। मेवाड़ के वृतान्तकार कवि श्यामलदास ने वीर विनोद में इस शत्रुता का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि महाराणा लाखा के पिता क्षेत्रसिंह का प्राणान्त बूँदी के आक्रमण के प्रयास में हो गया था। प्रतिहिंसा स्वरूप महाराणा लाखा ने हाड़ा राव को आक्रमण की धमकी दी। इस पर हाड़ा राव ने उनसे क्षमायाचना की तथा अपने परिवार की 12 कन्याओं की विवाह मेवाड़ के राजकुमार एवं सरदारों के साथ सम्पन्न कर दिया।

इसके राज्यकाल की उल्लेखनीय घटना मॉडू (मालवा) के बादशाह महमूद खिलजी ने तीन बार कोटा बूँदी पर चढ़ाई की। पहली 1449 ई. में, दूसरी बार 1453 ई. और तीसरी 1459 ई. में। आखिरी चढ़ाई में सुल्तान ने अपने छोटे बेटे फिदाई खाँ को वहाँ का मालिक बनाया। इसी संघर्ष में बेरीलाल मारे गये।

बेरीलाल के आठ पुत्र अखैराज, चुंड़ा, उदयसिंह, भॉडा, (बन्दो) भापादेव, लोहट, कर्मचन्द और श्यामजी (केषवदेव) थे। पहले तीन राजकुमारों ने लड़ाई में अपने पिता का साथ नहीं दिया। इसलिये पिता ने भांडा (भाणदेव) को अपना उत्तराधिकारी बनाया। बेरीलाल के दो पुत्र लड़ाई में मुसलमानों द्वारा पकड़े गये उनका नाम मुसलमानों ने समरकन्दी व उमरकन्दी रखा।46

हाड़ा राव भांडाजी (1459-1503 ई.)


इनका नाम भरमल, भांडा और बन्दो भी मिलता है। यह बूँदी के इतिहास के एक प्रसिद्ध शासक हुए। इसने अपने भाइयों की सहायता से बूँदी के खोए प्रदेश को पुनः प्राप्त कर लिया तथा बाद में इसने माण्डू (मालवा) तक लूट-खसोट करना आरम्भ कर दिया। इस पर माण्डु के सुल्तान ने हाड़ो को दबाने के लिये समरकन्दी व उमरकन्दी को मय फौज के बूँदी भेजा। इन्होंने राव भाण्डाजी को वहाँ से निकाल दिया। इनका बूँदी पर लगभग 11 वर्ष तक अधिकार रहा। समरकन्दी ने बूँदी लेकर भाण्डाजी को कुछ गाँव जागीर में दे दिए।47 राव भाण्डाजी हाड़ा बड़ा उदार व धार्मिक नरेश था। इसने तीन वर्ष तक का संचय किया हुआ कुल अनाज सन 1492 ई. के घोर दुर्भिक्ष में सबको बाँट दिया।48 भाण्डाजी की मृत्यु मातुण्डा ग्राम में हुई। मातुण्डा में उनकी छत्री अभी भी स्थित है।

राव नारायणदास (1503-1527 ई.)


पिता राव भांडाजी की मृत्यु के समय राव नारायणदास इतना शक्तिशाली नहीं था कि समरकन्दी का विरोध कर सके, परन्तु उसने धीरे-धीरे पठार देश के हाड़ो को इकट्ठा कर नारायणदास ने बूँदी को अपने धर्म भ्रष्ट चाचाओं से वापिस लेने का निश्चय किया। आरम्भ में इन्होंने अपने चाचाओं से मेलजोल बढाकर कुछ जागीरें प्राप्त की। एक दिन उसने मौका पाकर उनको मार डाला। समरकन्दी का पुत्र दाउद भी मारा गया। हाडों ने नारायणदास का साथ दिया और इस तरह बूँदी पर पुनः हाडों का राज्य स्थापित हो गया। इस विजय के उपलक्ष्य में एक स्तम्भ का निर्माण राव नारायण ने बूँदी में करवाया था।49 राव नारायणदास बड़ा वीर और साहसी शासक था। यह चित्तौड़ के महाराणा रायमल के समकालीन थे। जब मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर उसे घेर लिया तब राव नारायणदास अपनी सेना लेकर महाराणा रायमल की सहायता के लिये चित्तौड़ पहुँचे और यवनों को मार भगाया। इस युद्ध में नारायणदास के कई घाव लगे और उसके कई हाड़ा सैनिक युद्ध में काम आये। इस सेवा के उपलक्ष्य में महाराणा रायमल ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह नारायणदास से कर दिया। राणा सांगा से भी इनके सम्बन्ध बहुत मधुर थे। ये दो बार राणा सांगा से मिलने गये एवं कन्वाह (खानवाँ) के युद्ध 1527 ई. में महाराणा सांगा की अधीनता में बाबर के विरुद्ध युद्ध में 24 शामिल हुए।50 महाराणा संग्रामसिंह के साथ हाड़ा राव नारायणदास के अनुज नरबद की पुत्री का विवाह किया गया था। इस कारण से भी हाड़ा राव ने प्रत्येक अवसर पर महाराणा का साथ दिया। 1527 ई. के लगभग यह अपने भाई नरबद हाड़ा के साथ जागीरदार खटकड़ों के हाथ से शिकार में धोखे से मारे गये। इनके तीन पुत्र सूरजमल, रायमल और कल्याणदास थे। इनके छोटे भाई नर्बद की पुत्री कर्मवती महाराणा सांगा को ब्याही थी। इसी कर्मवती (पदमावती) ने चित्तौड़ के घेरे में वीरता पूर्वक भाग लिया था।

राव सूरजमल हाड़ा (1527-1531 ई.)


यह अपने पिता नारायणदास के समान ही वीर तथा उदार नरेश थे। इनके समय में मेवाड़ तथा बूँदी में वैवाहिक सम्बन्ध और प्रगाढ़ हो गये थे। सूरजमल की बहिन सूजाबाई की शादी महाराणा रतनसिंह के साथ हुई थी और महाराणा रतनसिंह ने भी अपनी बहिन का विवाह राव सूरजमल से किया था। महाराणा सांगा की मृत्यु के उपरान्त ज्येष्ठ पुत्र रतनसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे और छोटा पुत्र विक्रमादित्य तथा उदयसिंह अपनी माता महाराणी हाड़ी कर्मवती के साथ अपनी जागीर के रणथम्भौर के किले में रहते थे। उस समय बूँदी के राव उनके अभिभावक थे। महाराणा रतनसिंह व राव सूरजमल में अधिक समय तक मेल नहीं रहा। हाड़ा व सिसोदिया एक दूसरे के रक्तपिपासु बन गये। 1531 ई. में विक्रमादित्य के मेवाड़ पर अधिकार करने की महत्त्वाकांक्षा को हाड़ा राव का समर्थन मिलने से महाराणा क्रोधित हो गये। महाराणा रतनसिंह ने सूरजमल हाड़ा को नाणता के पास गोर्ख तीर्थ पहाड़ी शिकारगाह में शिकार खेलने को बुलवाया। कोठारिया का राव पूर्णमल पूरबिया (चौहान) महाराणा के साथ था। 1531 ई. में राव सूरजमल व महाराणा रतनसिंह दोनों एक दूसरे के हाथों मारे गये। पूर्णमल पूरबिया भी मारा गया। पाटण गाँव में महाराणा रतन सिंह का दाह संस्कार हुआ और महाराणी पंवारजी उनके साथ सती हुई। नाणता में इन दोनों वीरों की छतरियाँ अब तक मौजूद है और इसी घाटी के उपर सूजाबाई की छत्री भी बनी हुई है। राव सूरजमल ने केवल चार वर्ष राज्य किया।51

हाड़ा राव सूरताण (1531-1554 ई.)


यह 1531 ई. में आठ वर्ष की आयु में राज्य के मालिक हुए। इनका विवाह महाराणा उदयसिंह के पुत्र शक्तिसिंह की पुत्री से सम्पन्न हुआ था। इसके समय में महाराणा उदयसिंह ने पठानों से अजमेर छिनकर राव सूरताण हाड़ा को दे दिया। यह अत्याचारी शासक थे जिससे प्रजा बहुत दुःखी रहती थी।52 इनके समय में 1546 ई. में कोटा केसरखाँ व डोकरखाँ नामक दो पठान सैनिकों के हाथ में चला गया एवं बड़ोद और सीसवली के परगने भी रायमल खींची ने अपने कब्जे में कर लिये। राव सुरताण चुपचाप यह देखते रहे। बूँदी और कोटा की ऐसी दुर्व्यवस्था देखकर मालवा के सुल्तान ने भी बूँदी पर आक्रमण कर दिया। यह नगर पहले भी दो बार मालवा के सुल्तानों द्वारा लूटा जा चुका था। हाड़ा लोग अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये लड़ने को भी तैयार हो गये, परन्तु राव सुरताण भयभीत होकर भाग गया। अतः उदयपुर के महाराणा की सलाह पर हाड़ा सरदारों ने इसे 1554 ई. में राजगद्दी से उतार दिया। इसके कोई पुत्र नहीं था।53 सरदारों ने मिलकर भाणदेव के प्रपोत्र अर्जुन को गद्दी पर बैठाया और मुसलमानों का सामना कर बूँदी को बचाया। राव सुरताण ने भागकर महाराणा के सरदार रायमल खींची के यहाँ शरण ली।54 बाद में उसे एक गाँव चम्बल नदी पर जीवन निर्वाह के लिये दे दिया गया। जिसका नाम सुरताणपुर पड़ा। राजच्युत राव सुरताण के वंशधर सुरतानोत हाड़े कहलाते हैं। राव अर्जुन महाराणा विक्रमादित्य की सेवा में ही रहने लगे। जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की तब बूँदी की पाँच हजार सेना का अधिपति होकर हाड़ा अर्जुन चित्तौड़ आये। महाराणा ने उसको चित्तौड़ी बुर्ज का संरक्षक बनाया। मुसलमानों ने सुरंग बनाकर तथा बारूद से भरकर चित्तौड़ी बुर्ज को उड़ा दिया जिसमें अर्जुन हाड़ा व उसके साथी मारे गये। इनके बाद अर्जुन का पुत्र सुर्जन बूँदी की राजगद्दी पर बैठा।

राव सुर्जन हाड़ा (1554-85 ई.)


यह हाड़ा अर्जुन का बड़ा पुत्र था और राव सुरताण के राज्यच्युत होने पर 1554 ई. में बूँदी की गद्दी पर बैठा। इसके समय से पूर्व बूँदी के राव किसी न किसी प्रकार से मेवाड़ के मातहत रहते थे। इसने बूँदी के छीने गये परगनों को जीतने के लिये एक बड़ी सेना इकट्ठी की। इस सेना में उसके दस जागीरदार भाई तथा कई अन्य राजपूत थे। सेना इकट्ठी कर इसने केसरखाँ और डोकरखाँ पठानों को हराकर कोटा को वापिस जीता और अपने पुत्र भोज को सुपुर्द कर दिया जहाँ वह स्वतंत्र शासक की भाँति राज्य करने लगा। मऊ के खींची रायमल को सुर्जन राव ने हराकर उसे कोटा के उत्तर के बड़ोद व सीसवाली परगने वापस लिये। रणथम्भौर से कोटा तक और रामगढ़ से बूँदी तक उसका निष्कंटक राज्य था। बूँदी के एक सरदार सामन्त ने बोदला के चौहानों की सहायता से रणथम्भौर का दुर्ग पठानों से जीतकर बूँदी के अधिकार में ले लिया।55 तभी से रणथम्भौर का दुर्ग भी उसके अधिकार में था। बोदला के चौहान शासक ने रणथम्भौर का किला 1559 ई. में इस शर्त पर दिया था कि वह मेवाड़ के सामन्त के रूप में कार्य करेगा। अकबर की आँखों में चित्तौड़ व रणथम्भौर के किले खटक रहे थे। अतः 1568 ई. में चित्तौड़ विजय करने के बाद अकबर ने रणथम्भौर की विजय हेतु सेनाएँ भेजी। हाड़ा सहज ही अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाले नहीं थे। अतः स्वयं बादशाह अकबर ने रणथम्भौर का घेरा 1569 ई. में डाल दिया।56 लगभग डेढ़ माह तक घेरा पड़ा रहा लेकिन राव सुर्जन ने आत्म समर्पण नहीं किया। तब भारमल कच्छावाहा ने अकबर से कहा कि रणथम्भौर को जीतना चित्तौड़ जैसा सरल कार्य नहीं है। अब यहाँ राव सुर्जन की चाही हुई शर्ते मंजूर करके नीतिपूर्वक दुर्ग पर अधिकार करना चाहिए।57

अकबर ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मानसिंह ने राव सुर्जन से 21 मार्च 1569 ई. को मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार करते समय बादशाह अकबर से कुछ शर्तें तय करायी थी जो इस प्रकार थी -

1. बूँदी के राजाओं से महल में डोला (बेगम बनाने के वास्ते) भेजने को नहीं कहा जायेगा।
2. बूँदी के राजाओं को अपनी स्त्रियाँ को मीना बाजार (नीरोज) में भेजने को नहीं कहा जायेगा।
3. बूँदी के राजाओं को अटक पार जाने को नहीं कहा जाएगा।
4. बूँदी के राजाआें को शस्त्र पहने दीवाने आम व दिवाने खास में आने की आज्ञा रहेगी।
5. बूँदी के राजाआें को दिल्ली राजधानी में लाल दरवाजे तक नक्कारा बजाते हुए आने की आज्ञा रहेगी।
6. बूँदी के राजाओं के घोड़ों के शाही दाग न लगाये जायेगें।
7. बूँदी के राजा कभी किसी हिन्दू सेनापति के बीच नहीं रखे जायेंगे।
8. बूँदी राज्य में जजिया कर नहीं लगाया जावेगा।
9. उनके मन्दिर इत्यादि पुण्य स्थानों का आदर किया जाएगा।
10. बूँदी हाड़ों की राजधानी रहेगी बादशाह उन्हें राजधानी बदलने के लिये लाचार नहीं करेगा।58

सूर्यमल्ल मिश्रण ने ‘वंश भास्कर’ में प्रथम 7 शर्तों का उल्लेख किया है, लेकिन कर्नल टॉड ने 10 शर्तों का उल्लेख किया है।

डॉ. जगदीश सिंह गहलोत ने आमेर (जयपुर) के राजा भारमल कच्छावाहा के समझाने से राव सुर्जन द्वारा 21 मार्च 1569 ई. को मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार करना बताया है। जबकि ‘वंश भास्कर’ में सन्धि करवाने में जयपुर के राजा मान सिंह का उल्लेख है।

इन हाड़ों ने बाद में मुगलों का साथ देकर उनके राज्य विस्तार में योगदान दिया। रणथम्भौर सौंपने के बाद बादशाह ने उसे एक हजारी जात और मनरूट तथा गढ़कंटगा की जागीर ईनाम में दी। वहाँ पर उसने वहाँ के आदिम निवासी गोड़ों का दमन किया और उनकी राजधानी बारीगढ़ पर मुगल अधिकार स्थापित किया। इस पर बादशाह सुर्जन पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसे रावराजा की उपाधि दी तथा पाँच हजार का मनसब दिया। बादशाह ने उसे बूँदी के निकट के 26 परगने तथा बनारस के निकट 26 परगने दिये। वह अपने जागीर के परगनों में ही रहने लगा तथा वहाँ बनारस को अपना निवास स्थान बना लिया। जहाँ पर उसके अनुरोध से ही चन्द्रशेखर कवि ने ‘‘सुर्जन चरित” नामक संस्कृत काव्य की रचना प्रारम्भ की, परन्तु उसकी समाप्ति से पूर्व ही सुर्जन का स्वर्गवास 1585 ई. में हो गया और यह ग्रन्थ उनके पुत्र भोज के समय में समाप्त हुआ। इसमें चौहान वंश की वंशावली श्री चहुवान के वंशधर वासुदेव से लेकर राव सुर्जन तक दी है।

राव सुर्जन के तीन पुत्र दूदा, भोज, और रायमल थे। रायमल को जागीर में पलायथा मिला था जो इस समय कोटा राज्य में था। राव सुर्जन के काशी में रहने के कारण बूँदी का राज्य उसका पुत्र दूदा संभालता था। 1576 ई. में दूदा और भोज में बूँदी के शासन प्रबन्ध को लेकर अनबन हो गई। दूदा अकबर से सम्बन्ध रखने के विरुद्ध था इस कारण सुर्जन ने भोज देव को बूँदी का राज्य देना चाहा। इस पर बादशाह ने विद्रोह को दबाने के लिये दो बार सेना भेजी और राजकुमार भोज को 1577 ई. में बूँदी राज्य दे दिया।

राव भोज (1585-1607 ई.)


यह राव सुर्जन के दूसरे पुत्र व बांसवाड़ा के रावल जगमाल उदयसिंह के दोहिते थे। यह बहुत समय तक मानसिंह के अधीन शाही युद्धों में रहे। 1600 ई. में इन्होंने सूरत और अहमदनगर का किला विजय किया था। अहमदनगर के युद्ध में प्रसिद्ध वीरांगना अहमदनगर की बेगम चाँदबीबी मय अपनी 700 वीर स्त्रियों के साथ देश की स्वतन्त्रता के लिये लड़ते-लड़ते काम आई थी। अहमदनगर के युद्ध में भोज की वीरता पर प्रसन्न होकर बादशाह ने भोज के नाम पर वहाँ के किलों की बुर्ज का नाम भोज बुर्ज रखा था।59 बादशाह अकबर के दरबार में राव भोज का मनसब एक हजारी था। जब बादशाह अकबर का देहान्त 15 अक्टूबर 1605 ई. को हो गया तब राव भोज भी आगरा से बूँदी लौट आये। तख्त पर बैठने के बाद जहाँगीर ने आमेर के राजा मानसिंह की पोती और जगतसिंह की पुत्री जो राव भोज की दोहिती थी, से विवाह करना चाहा, परन्तु भोज ने इसका विरोध किया जिससे बादशाह नाराज हो गया और उसने राव भोज को काबुल से लौटने पर सजा देने का निश्चय किया परन्तु इसी वर्ष में भोज का देहान्त बूँदी में हो गया। राव भोज ने 22 वर्ष तक राज किया। उसके चार पुत्र राजकुमार रतनसिंह, हृदयनारायण, केशवदास और मनोहरदास थे।

राव रतनसिंह हाड़ा (1607-1631 ई.)


राव रतन सिंह 1607 ई. में बूँदी के सिंहासन पर बैठे। अपने पिता भोज की तरह ये भी सम्राट जहाँगीर के कृपा पात्र रहे। 1613 ई. में इनको शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के साथ मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के विरुद्ध लड़ने भेजा गया था। बाद में 1613 ई. में यह शाही फौज के साथ दक्खन भी गया। जहाँगीर के विरुद्ध खुर्रम ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया तब रावरतन सिंह को 1623 ई. में शहजादे परवेज और महावत खाँ के साथ शाहजादे खुर्रम का सामना करने के लिये दक्षिण में भेजा। वहाँ से परवेज व महावत खाँ पूर्व को गये तब रतनसिंह को बुरहानपुर जिले का सूबेदार बनाया60 उस समय खुर्रम ने बुरहानपुर का किला लेना चाहा, परन्तु राव रतन हाड़ा ने खुर्रम की सेना का तीन बार मुकाबला कर हटा दिया और खुर्रम को गिरफ्तार कर लिया, परन्तु बाद में रतनसिंह को खुर्रम पर दया आ गई और उसे अपनी कैद से भगा दिया। इस पर जहाँगीर बिगड़ गया और उसने बूँदी पर चढ़ाई करने के लिये सेना भेजी। रतनसिंह की सेनाओं ने जहाँगीर की सेनाओं को परास्त करके भगा दिया। इस बीच 1628 ई. में खुर्रम मुगल साम्राज्य का बादशाह बन गया, उसने रतनसिंह को पुनः मान सम्मान प्रदान किया। 1624 ई. में जिस समय रतनसिंह खुर्रम का विद्रोह दबाने गया था तब कोटा का राजा हृदयनारायण जो रतनसिंह का भाई था युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गया। इस पर जहाँगीर ने उसकी जागीर जप्त कर रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को दे दी तथा कोटा को 1631 ई. में बूँदी राज्य से अलग करके स्वतन्त्र राज्य बना दिया।61

राव रतन की दक्षिण की सेवाओं से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने 1625 ई. में उनका मनसब पाँच हजारी जात व पाँच हजार सवार का कर दिया और रावराय (रावराजा) की उपाधि दी।62 जो मुगल साम्राज्य का स्तम्भ माना जाता था। उसने शाही सेना की सहायता से मऊ के खींची चौहानों को हराया और उनके गढ़ गागरुया, मऊ, चाचरण आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में उनका भाई केशवदास अपने सौ साथियों सहित मारा गया। दरियाव खाँ नामक प्रसिद्ध लुटेरे को जो मेवाड़ व उसके आस-पास लूट खसोट करता था इसने पकड़कर सम्राट के पास पहुँचाया। बादशाह ने उस पर प्रसन्न होकर, नौबत नक्कारे का शाही निशान, राजकीय उत्सवों के लिये पीला झण्डा और डेरे के लिये लाल झण्डा लगाने की इजाजत दी। राव रतन का देहान्त 1631 ई. को बालाघाट (म.प्र.) के पड़ाव में हुआ जहाँ उसने बुरहानपुर में अपने नाम पर रतनपुर नामक कस्बा बसाया था।63 इसके तीन राजकुमार थे, पहले गोपीनाथ जिनकी 25 वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गयी। दूसरा माधोसिंह जिसको हृदयनारायण को कोटा की गद्दी से हटाये जाने के बाद राव रतन ने कोटा का राज्य दे दिया था। हरिसिंह को राज्य में पीपलदा की जागीर मिली।64

राव शत्रुसाल हाड़ा (1631-1658 ई.)


राव शत्रुसाल हाड़ा रावरतन के पोते और गोपीनाथ के पुत्र थे। राव शत्रुसाल 25 वर्ष की आयु में बूँदी के राजसिंहासन पर बैठे और ये बादशाह शाहजहाँ के बड़े कृपा पात्र थे। जब यह राजसिहांसन पर बैठे तब बादशाह ने इन्हें राव का खिताब, तीन हजारी जात, दो हजार सवार का मनसब और बूँदी व खटकड़ आदि परगने जागीर में देकर खानेजमा के साथ दक्षिण में भेजा, जहाँ इन्होंने 1632 ई. में दौलताबाद का किला जीतने में बड़ी बहादुरी दिखाई। इसके अलावा इसने शाहजहाँ, दाराशिकोह, मुरादबख्श, औरंगजेब के साथ मिलकर कई युद्धों में भाग लिया। फरवरी 1658 ई. से ही मुगल सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों क्रमशः दारा शुजा, औरंगजेब एवं मुराद में उत्तराधिकार को पाने की लालसा में होड़ प्रारम्भ हो गई। 29 मई 1658 ई. को सामूगढ़ के रणक्षेत्र में दाराशिकोह की सेना के हरावल में हाड़ा, सिसोदिया व गोड़ सैनिकों का नेतृत्व शत्रुसाल को प्रदान किया गया।65 जब सेना के बीच में शहजादा दाराशिकोह जो हाथी पर सवार था एकाएक गायब हो गया। सेना तितर बितर होने लगी। यह देखकर राव शत्रुसाल ने वीरता के साथ लड़ाई की। शत्रुसाल ने स्वयं औरंगजेब व मुराद पर भी आक्रमण किया अचानक उनके ललाट में एक गोली लगी जिससे वह रणक्षेत्र में ही 29 मई 1658 ई. को वीरगति का प्राप्त हुऐ। इस युद्ध में हाड़ा राव के साथ उनके अनुज मुहकम सिंह, पुत्र भारत सिंह तथा भतीजे उदय सिंह भी मारे गये। इनकी स्मृति में धौलपुर के समीप ही चबुतरे बनवाये गये जो रण के चबुतरे के नाम से आज भी विख्यात है।66 शत्रुसाल के चार पुत्र भाव सिंह, भीम सिंह, भगवत सिंह और भारत सिंह थे। इसने बूँदी में छत्र महल व पाटण में केशवराय का मन्दिर बनवाया था।

राव भावसिंह हाड़ा (1658-1681 ई.)


राव शत्रुसाल के ज्येष्ठ पुत्र राव भावसिंह हाड़ा का जन्म 28 फरवरी 1624 ई. में हुआ था। बादशाह औरंगजेब इसके पिता से सामूगढ़ के युद्ध में शत्रुसाल द्वारा दाराशिकोह का पक्ष लेने के कारण नाराज थे लेकिन इसका भाई भगवन्तसिंह हाड़ा जो पहले से ही दिल्ली में शाही सेवा करता था व औरंगजेब के साथ दक्षिण में था। बादशाह ने भगवन्त सिंह को राव का खिताब व बूँदी का कुछ भाग मउ, बारां आदि परगना देकर बूँदी को अलग राज्य बना दिया,67 लेकिन उसके कुछ समय बाद ही उसका देहान्त हो गया, तब औरंगजेब ने भावसिंह को नेक नियति की प्रतिज्ञा करवाकर भावसिंह को उसे आगरा बुलाया और उसे तीन हजारी जात व दो हजार सवार के मनसब डंडा, झण्डा राज की पदवी देकर सम्मानित किया।68 औरंगजेब के समय यह शाही तोपखाने का अफसर भी रहा और दक्षिण में छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध युद्ध भी लड़ा। यह औरंगाबाद (दक्षिण) का फौजदार नियुक्त होकर बहुत समय तक वहाँ रहा। वहाँ उसने कई इमारतें बनवाई और अपनी वीरता, दान और उदार भावों के लिये बहुत प्रसिद्धी प्राप्त की व औरंगाबाद के पास अपने नाम पर भावपुरा नामक गाँव बसाया था। इसी गाँव में सन 1681 ई. में इनका स्वर्गवास हो गया। इनके एक मात्र पुत्र पृथ्वीसिंह की बचपन में ही मृत्यु हो गयी थी।

इसलिये अपने छोटे भाई किशनसिंह को गोद लिया, बाद में औरंगजेब के इशारे पर कट्टर धार्मिक विचारों के कारण 1677 ई. में उज्जैन में किशनसिंह को मृत्यु के घाट उतार दिया। इसके बाद किशनसिंह के पुत्र अनिरुद्ध सिंह के हाथ शासन आया।

राव अनिरुद्ध हाड़ा (1681-1695 ई.)


राव अनिरुद्ध हाड़ा 15 वर्ष की आयु में बूँदी की राजगद्दी पर बैठे, उस समय बादशाह औरंगजेब ने इनके लिये खिलअत व हाथी टीके में भेजे। राव ने औरंगजेब के साथ रहकर बीजापुर का किला विजय किया। हाड़ा दुर्जनसिंह बूँदी राज्य की एक कोटरियात बलबन का जागीरदार तथा अनिरुद्ध सिंह का राजवंशज था और यह मराठों से मिल गया था इसने बूँदी के राज्य पर कब्जा कर लिया। जब इसकी सूचना बादशाह तक पहुँची तो दुर्जनसिंह हाड़ा को बूँदी से निकाल देने के लिये बड़ी फौज के साथ हाथी, घोड़े देकर राव अनिरुद्ध की सहायता के लिये बूँदी के लिये रवाना किया और अनिरुद्ध सिंह के शाही सेना के साथ बूँदी पहुँचते ही दुर्जनसिंह किला छोड़कर भाग गया और वापिस बूँदी पर राव का अधिकार हो गया। बाद में बादशाह ने अनिरुद्ध को काबुल की तरफ मुगल साम्राज्य की उत्तरी सीमा का झगड़ा तय करने को शहजादा मुअज्जम और आमेर के राजा बिशनसिंह के साथ काबुल भेज दिया, जहाँ 1695 ई. में इनका देहान्त हो गया69 इनके बड़े पुत्र बुद्धसिंह बूँदी की गद्दी पर बैठे। इसके पुत्र बुद्धसिंह, जोधसिंह, अमरसिंह और विजयसिंह थे।

राव राजा बुद्धसिंह (1695-1739 ई.)


1707 ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब के उत्तराधिकार की प्राप्ति हेतु उसके पुत्रों- मुअज्जम, आज्जम एवं कामबख्श में जाजव नामक स्थान पर संघर्ष छिड़ गया।70 इस युद्ध में बूँदी नरेश बुद्धसिंह ने मुअज्जम का तथा कोटा के महाराव रामसिंह ने औरंगजेब के दूसरे पुत्र आज्जम का पक्ष लिया।

18 जून 1707 ई. को जाजव के रणक्षेत्र में आज्जम और कोटा महाराव दोनों मारे गये और मुअज्जम व बूँदी नरेश विजयी रहे। इससे प्रसन्न होकर मुअज्जम जो बहादुरशाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा ने बुद्धसिंह को ‘‘महाराव राणा” का खिताब तथा कुछ परगने जागीर में दिये।71 उस समय बुद्धसिंह ने कोटा को भी हथियाना चाहा परन्तु कोटा के सरदारों के विरोध के कारण कोटा पर अधिकार नहीं कर सका।

इस पर बहादुरशाह ने रामसिंह के पुत्र भीमसिंह को कोटा का राज्य सौंप दिया। बहादुरशाह ने बूँदी नरेश को जयसिंह और अजीतसिंह के खिलाफ अभियान पर जाने का आदेश दिया किन्तु बुद्धसिंह के वहाँ नहीं जाने पर बादशाह ने बूँदी राज्य जब्त करके कोटा नरेश को दे दिया। उस समय तक दिल्ली की राजगद्दी पर फरुखशियर आसीन हो गया, तब मौका पाकर कोटा के महाराव भीमसिंह ने फरुखशियर से फरमान प्राप्त कर बूँदी पर कब्जा कर लिया। फरुखशियर ने बूँदी का नाम फर्रूखाबाद रख दिया। बाद में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के कहने पर फरुखशियर ने बूँदी बुद्धसिंह को लौटा दिया।72 1718 ई. में सैयद बन्धुओं ने फरुखशियर को बर्खास्त कर दिया। सैयद बन्धुओं से बुद्धसिंह जी के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे, बादशाह फरुखशियर 1719 ई. में मारा गया।

फरुखशियर के बाद सवाई जयसिंह और बुद्धसिंह का शाही दरबार में प्रभाव घट गया तब भीमसिंह ने शाही सेना की सहायता से 17 नवम्बर 1719 को बूँदी पर चढ़ाई कर दी, घमासान युद्ध हुआ और बूँदी पर कोटा का अधिकार हो गया। कोटा की ओर से वहाँ फौजदार भगवानदास धाभाई नियुक्त किया गया। 1720 ई. में कोटा नरेश भीमसिंह की मृत्यु हो गयी तब धाभाई भगवानदास ने बूँदी पुनः बुद्धसिंह को सौंप दिया। बूँदी राव बुद्धसिंह के मानसिक विकार से ग्रस्त होने की चर्चाएँ सुनकर जयपुर के कच्छवाहा नरेश सवाई जयसिंह ने 1730 ई. में बूँदी पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की योजना बना ली। तदनुरूप ही उन्होंने राव बुद्धसिंह के पुत्र भवानीसिंह, जो सवाई जयसिंह की बहन का पुत्र था एवं जिसके जन्म की वैधता पर शंका थी, का वध कर दिया। तद्नतर उन्होंने आक्रमण करके महाराव बुद्धसिंह को बूँदी से निर्वासित कर दिया तथा कखर के जागीरदार सालिमसिंह के पुत्र दलेलसिंह को बूँदी का शासक नियुक्त किया।73 बुद्धसिंह को बूँदी से भाग जाना पड़ा। बाद में राव बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी ने मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर को पूना से छः हजार रुपये देकर सहायतार्थ बुलवाया, उसने बूँदी पर आक्रमण कर दलेलसिंह के पिता सालिमसिंह को गिरफ्तार कर लिया व कच्छवाही रानी को राज्य सौंप कर राव बुद्धसिंह का शासन घोषित कर दिया, रानी ने होल्कर को राखी बाँध भाई बना लिया था74 किन्तु होल्कर के लौटते ही पुनः बूँदी को जयपुर की सेना ने जीतकर दलेलसिंह को दिया और मराठों को रुपये देकर सालिमसिंह को मराठों से छुड़वा लिया। मराठों के राजस्थान में आने की यह प्रथम घटना थी। राव बुद्धसिंह के जीवन के अन्तिम दस वर्ष ससुराल बेंगु में ही बीते और 26 अप्रैल 1739 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

महाराव उम्मेदसिंह (1743-1771 ई.)


राव बुद्धसिंह की मृत्यु के उपरान्त सवाई जयसिंह के निर्देश पर बुद्धसिंह के पुत्रों उम्मेदसिंह व दीपसिंह को बेंगु से उनके नाना ने निष्कासित कर दिया। अतः वे 1739 ई. से कोटा महाराव दुर्जनशालसिंह की शरण में मधुकरगढ़ में रहने लगे। 21 सितम्बर 1743 ई. को सवाई जयसिंह का स्वर्गवास होने के बाद सुअवसर देखकर उम्मेदसिंह ने बूँदी का राज्य वापिस लेने की ठानी। कोटा के महाराव दुर्जनशाल, गुजरात के सूबेदार फखरूदीन को एक लाख रुपये देकर तथा शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह से सैनिक सहायता से 1744 ई. में उम्मेदसिंह का बूँदी पर कब्जा हो गया। दलेलसिंह नेनवा भाग गया। उम्मेदसिंह को बूँदी का काफी हिस्सा कोटा नरेश को युद्ध खर्च की एवज में देना पड़ा।75 कोटा नरेश ने पलायथा के अपजी रूपसिंह को बूँदी राज्य में अपना प्रतिनिधि व अन्ता के महाराज अजीतसिंह को किलेदार बनाकर तारागढ़ उसके सुपुर्द किया।76

सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरसिंह ने दलेलसिंह को बूँदी वापिस दिलाने के लिये पचास लाख रुपये के बदले मराठों से सहायता माँगी जिसमें पेशवा बाजीराव, जियाजी सिन्धिया व रामचन्द्र पण्डित की सेनाओं ने मिलकर बूँदी पर कब्जा कर लिया और कोटा को घेर लिया और मराठा सेनाओं ने बूँदी जीतकर महाराव कोटा से एक सन्धि 1745 ई. में की। जिसके अनुसार बूँदी पर दलेलसिंह का अधिकार हुआ तथा केशवरायपाटन व कापरेन के परगने मराठों को प्राप्त हुए।77

पेशवा बाजीराव जयपुर नरेश ईश्वरसिंह की बेरुखी से रुष्ठ था। उम्मेदसिंह ने मल्हारराव होल्कर व गंगाधर तात्या की मराठा सेना व कोटा की सेना से 1748 ई. को बगरू के युद्ध में ईश्वरसिंह को पराजित कर बूँदी को उम्मेदसिंह ने अधिकार में ले लिया। मराठों ने अपनी सहायता के बदले बूँदी में केशवरायपाटन के परगने का राजस्व एवं राजनैतिक अधिकार दोनों की पुष्टि प्राप्त कर ली। महाराजा ईश्वरसिंह के बाद माधोसिंह जयपुर की राजगद्दी पर बैठे। माधोसिंह का बर्ताव बूँदी के साथ अच्छा रहा। उम्मेदसिंह ने 1771 ई. में संन्यास ले लिया। राज्य का भार युवराज की पदवी के सहित अजीतसिंह को सौंप दिया। इसी दौरान संन्यासी के जीवन में उन्हें सूचना मिली कि उसके लड़के अजीतसिंह का 1773 ई. में देहान्त हो गया है। तब उम्मेदसिंह ने विष्णुसिंह के युवा होने तक अभिभावक का काम किया। उसके बाद पुनः संन्यास लेकर काशी चला गया। 1804 ई. में 75 वर्ष की आयु में उम्मेदसिंह का स्वर्गवास हो गया।

महाराजा राव विष्णु सिंह (1773-1821 ई.)


महाराजा राव विष्णु सिंह 1773 ई. को जब राजगद्दी पर बैठे उस समय वह केवल चार मास के थे। उनके दादा उम्मेदसिंह ने धाय भाई सुख राम को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त कर राज्य की देखभाल का काम सम्भाला। 1810 ई. में महाराव विष्णु सिंह के चचेरे भाई बलवन्त सिंह ने उपद्रव कर नैनवा किले पर अपना अधिकार कर लिया। इस पर महाराव ने उसका दमन किया। 1804 ई. में अंग्रेजों की सेना को जसवन्त राव होल्कर से लड़ने कोटा राज्य में भेजा गया लेकिन मुकन्दरे के घाटे में उसे हार खाकर लौटना पड़ा। इस हारी हुई अंग्रेज सेना को बूँदी राज्य ने सहायता दी थी, इससे होल्कर बूँदी का कट्टर शत्रु हो गया और 1804 ई. से 1810 ई. तक होल्कर व सिन्धिया की मराठी सेनाओं ने तथा पिण्डारियों की लगातार लूट-खसोटों ने बूँदी को तबाह कर दिया। मराठों तथा पिण्डारियों ने बूँदी से खिराज वसूल किया। विष्णुसिंह नाम मात्र का राजा रह गया। तब बूँदी नरेश महाराव विष्णु सिंह ने मराठों से पीछा छुड़ाने के लिये 10 फरवरी 1818 ई. को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से एक सन्धि कर बूँदी महाराव ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली और बूँदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजों पर चला गया। इस सन्धि के अनुसार :-

1. बूँदी अंग्रेज सरकार के संरक्षण में आ गया जो खिराज होल्कर का दिया जाता था वह अंग्रेज सरकार द्वारा माफ कर दिया गया।
2. बूँदी के जो परगने होल्कर ने 50 वर्ष पहले दबा लिये थे बूँदी को वापिस दिलवा दिये गये।
3. सिन्धिया ने बूँदी के परगने जो दबा लिये थे वो भी बूँदी को वापिस लौटाए गये।
4. महाराव राजा ने अंग्रेज सरकार को 80 हजार रुपये खिराज में देना स्वीकार किया परन्तु बाद में यह रकम घटाकर 40 हजार रुपये कर दी।
5. अंग्रेज सरकार एवं बूँदी के महाराजा तथा उनके उत्तराधिकारियों के मध्य सदैव मैत्री तथा पारस्परिक हितों की समानता होगी।
6. बूँदी महाराव अंग्रेज सरकार की मांग पर अपनी सामर्थ्यनुसार सैनिक सेवा प्रस्तुत करेंगे।

महाराव राजा राम सिंह (1821 -1889 ई.)


महाराव विष्णुसिंह की मृत्यु के उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह 1821 ई. को बूँदी के सिंहासन पर बैठे। इसके सात दिन पश्चात ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पॉलीटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड ने बूँदी आकर राजा राम सिंह को सिरोपाव भेंट किया तथा उन्हें बूँदी नरेश के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान किये।78 महाराव रामसिंह का अल्पव्यस्क होने के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्रशासन के लिये एक कॉउन्सिल का गठन किया। रामसिंह ने केशवरायपाटन का परगना प्राप्ति हेतु हस्तान्तरण सन्धि अंग्रेज सरकार के साथ 26 नवम्बर 1847 ई. में की। जिसके फलस्वरूप केशवरायपाटन का प्रशासन बूँदी नरेश के अधीन हो गया, इसके बदले कम्पनी की छः शर्तों की पालना महाराव को करनी पड़ी।

जिसकी शर्तें निम्नलिखित है :-


1. बूँदी महाराव केशवरायपाटन के 2/3 भाग के वर्तमान स्वामी ग्वालियर नरेश, जावद एवं नीमच को कम्पनी की मुद्रा में 80 हजार रुपये दो समान किश्तों जनवरी व जुलाई महीने में देना स्वीकारते हैं, बदले में इस भाग का प्रशासन उन्हें प्राप्त होगा।

2. बूँदी महाराव इस प्रदेश के पेन्शन पाने वाले कर्मचारियों को 3430 रुपये, सात आने नौ पैसे कोटा हाली के सिक्कों में देंगे।

3. बूँदी महाराव इस परगने में कर मुक्त भूमि, जो 7503 बीघा 15 बिस्वा थी, के पट्टे व उनको दी गई छूटे उनके स्वामियों को बहाल करेगें।

4. अंग्रेजों ने ग्वालियर नरेश को सन्धि में इस परगने की जो सम्प्रभुता दी थी उसे ग्वालियर नरेश के पास ही निरन्तर बनाये रखने का वचन दिया था। वही वचन बूँदी महाराव ग्वालियर नरेश को बूँदी राव ने प्रदान की।

5. यदि बूँदी महाराव उपरोक्त शर्तों की पालना में असफल रहते हैं तो अंग्रेज सरकार व ग्वालियर नरेश उनके इस परगने की पुनः माँग तो नहीं करेंगे किन्तु बूँदी द्वारा अधिकृत 1/3 परगने के राजस्व में से बकाया सहित कर वसूल कर सकेंगे।

6. केशवरायपाटन जिले के 2/3 हिस्सों के बन्दोबस्त में बूँदी महाराव अधिक हस्तक्षेप नहीं करेंगे जब तक वे उपरोक्त शर्तों का पूर्णतया पालन नहीं करते।

मई 1857 ई. में बूँदी नरेश ने अंग्रेजों की खूब सहायता की। बूँदी महाराव को आदेश दिया कि बूँदी राज्य के समस्त मार्गों, घाटों व नाकों पर कड़ी निगरानी की जाए जिससे क्रान्तिकारी बूँदी में प्रविष्ट न हो सके। महाराव ने तत्काल आदेश का पालन किया और बूँदी की सेना को नीमच छावनी में भी बुलाया गया, जहाँ इनकी निष्ठापूर्वक सेवाओं पर बूँदी महाराव को प्रशस्ति पत्र दिये गये। ‘वंश भास्कर’ नामक उत्तम पद्यात्मक कृति के रचियता कवि सूर्यमल्ल चारण राव रामसिंह के आश्रित थे। 1857 ई. की क्रान्ति के समय राज कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने क्रान्ति का आह्वान किया, जबकि राजा अंग्रेजों की मदद कर रहा था। मिश्रण ने पिपलिया के ठाकुर फूलसिंह व नीमली के ठाकुर बख्तावरसिंह को क्रान्ति का समर्थन देने पर मार्मिक पत्र लिखे। 1 जनवरी 1877 ई. को लार्ड लिंटन ने दिल्ली में दरबार किया। इस अवसर पर महाराव भी वहाँ गये। महारानी विक्टोरिया की ओर से इन्हें सितारे हिन्द, पहली श्रेणी का तमगा व महारानी के सलाहकार की उपाधि मिली। 1886 ई. में महाराव राजा ने पुराने सिक्के की जगह अपने नाम का नया सिक्का चलाया। इस सिक्के में एक तरफ अंग्रेजी भाषा में महारानी विक्टोरिया 1886 ई. व दूसरी तरफ बूँदी का भक्त राम सिंह 1942 अंकित था। यह रामशाही रुपये के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके समय में दरबार में संस्कृत के धुरन्धर विद्वान गंगादास की देखरेख में एक भौगोलिक यन्त्र व दूसरा खगोल यन्त्र राज बनवाया गया। 28 मार्च 1889 में 68 वर्ष राज करने के उपरान्त इनका देहान्त हुआ।

महाराजा राव रघुवीर सिंह (1889-1927 ई. )


महाराव राम सिंह की मृत्यु उपरान्त 12 अप्रैल 1889 ई. को 20 वर्ष की आयु में रघुवीरसिंह बूँदी की राजगद्दी पर बैठे। 1890 ई. में अंग्रेज सरकार ने इन्हें राजा के पूर्ण अधिकार सौंप दिये। ब्रिटिश शासन के साथ इनके अच्छे सम्बन्ध रहे और अंग्रेज सरकार ने इन्हें कई उपाधियाँ देकर सम्मानित भी किया। ये 1911 ई. के दिल्ली दरबार में शामिल हुए व राजराजे महारानी मेरी को बूँदी राजधानी में निमन्त्रण देकर उसका बड़ा आदर सत्कार किया।79 1914 ई. से 1919 ई. के मध्य प्रथम विश्व युद्ध में बूँदी राज्य ने अंग्रेजों को अपनी सामर्थ्य से अधिक सहायता प्रदान की। बूँदी के 100 सैनिकों को मोर्चा पर भेजा गया, जिनमें 35 मारे गये अथवा लापता हो गये। युद्ध में मृत सैनिकों की विधवाओं को अंग्रेज सरकार ने पेंशन देने की घोषणा की।80 बूँदी महाराव ने अंग्रेजों के युद्ध कोष में 19 लाख रुपये 5 समान किश्तों में देने की घोषणा की व अंग्रेज सेना द्वारा कोटा से देवली जाते हुए बूँदी में पड़ाव करने पर महाराव ने उसे खाद्य सामग्री प्रदान की। महाराव रघुवीर सिंह ने 1924 में ब्रिटिश सरकार से एक सन्धि कर केशवरायपाटन परगने के 2/3 भाग की सम्प्रभुता प्राप्त कर ली।

महाराव राजा ईश्वर सिंह (1927-1945 ई.)


महाराव रघुवीरसिंह के दत्तक पुत्र ईश्वर सिंह का राज्याभिषेक 26 जुलाई 1927 ई. के दिन हुआ। महाराव ईश्वरसिंह को अंग्रेज सरकार की ओर से जी.सी.आई.ई की उपाधि मई 1937 ई. में मिली। 1939 ई. में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने पर महाराव ने ब्रिटिश सरकार का सामर्थ्य के अनुसार सहयोग दिया। राजकीय कर्मचारियों को वार सर्विस81 में सम्मिलित होने की स्वीकृति दी गई। युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों को शौर्य प्रदर्शन के कारण पदक भी प्रदान किये गये। बूँदी में नेशनल वार फ्रन्ट नामक संस्था गठित की गई। बूँदी महाराव की विशेष उल्लेखनीय सेवा अपने दतक पुत्र बहादुर सिंह को युद्ध में भेजने की थी जो 1942 ई. में सेना में भर्ती हुए थे। उन्हें इसी वर्ष मई में आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल बंगलुरु में भेजा गया। वहाँ इन्हें 19 नवम्बर 1942 ई. को प्रोबिनहार्स इन्डियन आर्म्ड कोटस में कमीशन प्रदान किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध में ये बर्मा मोर्चे पर नियुक्त किये गये। इनको मेकटीला में वीरता का प्रर्दशन करने पर 1945 ई में ‘‘मिल्ट्री क्रोस‘‘ नामक पदक जो ब्रिटिश सरकार ने इनके शौर्य प्रर्दशन पर प्रसन्न होकर दिया। महाराव ईश्वर सिंह की मृत्यु 23 अप्रैल 1945 ई. में हुई।

महाराव राजा बहादुर सिंह (1945 -1948 ई.)


महाराव ईश्वर सिंह के दत्तक पुत्र बहादुर सिंह को ब्रिटिश सरकार ने ऑनरेरी पर्सनल ए.डी.सी तथा भारतीय सेना में ऑनर मेजर नियुक्त किया। इस उपलक्ष्य में बूँदी राज्य में 28 व 29 जनवरी 1946 ई. को उत्सव मनाये गये। इनको चेम्बर ऑफ प्रिन्सेज की स्टेन्डिग कमेटी का सदस्य चुना गया। इनके समय में उच्च पदों पर आसीन अंग्रेज अधिकारियों ने महाराव बहादुर सिंह का आतिथ्य स्वीकार किया और बूँदी की यात्राएँ की।

1944 ई. में हरिमोहन माथुर की अध्यक्षता में बूँदी लोक परिषद की स्थापना हुई। महाराव बहादुर सिंह ने 1946 ई. में राज्य में विधान परिषद तथा लोकप्रिय मन्त्रिमण्डल की स्थापना की घोषणा की तथा बूँदी लोक परिषद को इसमें भाग लेने के लिये आमन्त्रित किया। किन्तु लोकपरिषद ने महाराव का आमन्त्रण अस्वीकार कर दिया। 15 अगस्त 1947 ई. को देश स्वतंत्र हो गया तथा भारत में रह गई रियासतों के एकीकरण का कार्य आरम्भ हुआ। 3 मार्च 1948 को कोटा, डूंगरपुर, और झालावाड़ के शासकों ने रियासती विभाग के समक्ष प्रस्ताव रखा कि बाँसवाड़ा, बूँदी, डूंगरपुर, किशनगढ, कोटा, प्रतापगढ, शाहपुरा, टोंक, लावा और कुशलगढ़ को मिलाकर संयुक्त राजस्थान का निर्माण किया जाए। प्रस्तावित संघ के क्षेत्र के बीच में मेवाड़ राज्य भी था जो भारत सरकार की नीति के अनुसार स्वतंत्र भारत में अपना अलग अस्तित्व बनाये रख सकता था। इसलिये मेवाड़ के महाराणा भोपाल सिंह ने नये संघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया। महाराणा के मना कर देने के बाद दक्षिणी पूर्वी रियासतों को मिलाकर 25 मार्च 1948 के वी.एस गाडगिल द्वारा सयुंक्त राजस्थान का विधिवत उदघाटन किया गया। कोटा नरेश को राजप्रमुख, बूँदी नरेश को वरिष्ठ उप राज प्रमुख और डूंगरपुर नरेश को कनिष्ठ उपराज प्रमुख बनाया गया। गोकुल लाल असावा को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस संघ का क्षेत्रफल 17000 वर्ग मील, जनसंख्या 24 लाख तथा कुल राजस्व लगभग 2 करोड़ का था। मेवाड़ महाराणा ने मेवाड़ रियासत की आंतरिक परिस्थितियों से घबराकर, इस संघ में सम्मिलित होने के लिये भारत सरकार से अनुरोध किया। इस पर भारत सरकार ने युनाईटेड स्टेट्स ऑफ राजस्थान नामक नये संघ के निर्माण का निर्णय लिया। मेवाड़ महाराणा भोपाल सिंह को इस संघ का आजीवन राजप्रमुख बनाना स्वीकार कर लिया। कोटा के महाराव भीम सिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख, बूँदी व डूंगरपुर के राजाओं को कनिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रमुख नेता श्री माणिक्य लाल वर्मा को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। राजस्थान निर्माण के अगले चरण में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर तथा जैसलमेर राज्यों को भी यूनाइटेड स्टेटस ऑफ राजस्थान में सम्मलित करने का निर्णय किया गया। इसके साथ ही राजस्थान का एकीकरण का कार्य अजमेर, मेरवाड़ा व सिरोही के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरा हो गया। 1 नवम्बर 1956 को इन्हें भी राजस्थान में मिला लिया गया और इस तरह राजस्थान सभी रियासतों को मिलाकर वर्तमान राजस्थान का स्वरूप दे दिया गया।82

कोटा का इतिहास


कोटा क्षेत्र में आदिमयुगीन बस्तियों का प्रसार चम्बल अथवा चर्मण्यवती नदी के किनारे हुआ। कोटा जिले में स्थित पहाड़ियों में बनी प्राकृतिक गुफाओं में आदिमयुगीन मानव के कुछ शेलाश्रय खोजे गये हैं। पौराणिक काल में ययाति के बड़े पुत्र यदु को 39 चर्मण्यवती, वेत्रावती (बेतवा) तथा सुक्तिमती (केन) नदियों से सिंचित होने वाले क्षेत्र दिये गये थे। जबकि ययाति के अन्य पुत्र द्रुहू को यमुना के पश्चिम का तथा चर्मण्यवती के उतर का क्षेत्र दिया गया था। कोटा जिले के निकट ही टोंक जिले के कारकोट नगर से मालव शासकों के 150 ई.पू. से 100 ई.पू. के सिक्के बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। जिससे ज्ञात होता है कि मालवों का उस समय बहुत बड़े क्षेत्र पर अधिकार था तथा वर्तमान कोटा जिले का क्षेत्र भी मालवा गणराज्य के अधीन था।

कोटा जिले के बड़वा गाँव से तीन फर्लांग पूर्व में थामतोरण स्थान से मौखरी कालीन यूप प्राप्त हुये हैं। यहाँ कुल चार यूप हैं। ये चारों यूप एक चतुष्कोण के चारों कोणों पर स्थित है। प्रत्येक यूप 16 फीट लम्बा है और प्रत्येक यूप पर कुषाणकालीन ब्राह्मी लिपि में प्राकृत मिश्रित संस्कृत भाषा का लेख उत्कीर्ण है जिससे ज्ञात होता है कि विक्रम संवत 295 (238 ई.) में मौखरी वंश के महासभापति राजा बल के चार पुत्रों ने त्रिराज यज्ञ करके यह लेख स्थापित किये थे। इन यूपों से सिद्ध होता है कि इस क्षेत्र में शक क्षत्रपों के काल में वैदिक धर्म की उन्नति हुई। बड़वा मोखरीवंशी राजा बल की राजधानी थी। मौखरी वंश ने वर्तमान हाड़ौती प्रान्त पर तीसरी सदी के अन्त तक राज्य किया। गुप्त साम्राज्य के उदित होने पर मोखरी राज्य एवं मालवा गणराज्य गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गया। कोटा जिले के चारचौमा शिवमन्दिर से गुप्तकालीन लिपि एवं संस्कृत भाषा वाले लेख मिले हैं। इसमें गुप्तकालीन प्रतिमाएँ आज भी देखी जा सकती हैं।

इलाहाबाद की हरिषेण द्वारा लिखित ‘‘समुद्रगुप्त प्रशस्ति’’ से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने अच्युत नागसेन को उखाड़ फेंका था। इस अच्युत नागसेन का राज्य कोटा और उसके आस-पास के क्षेत्र पर होना अनुमानित किया जाता है। शेरगढ़ के बरखेड़ी दरवाजे की सीढ़ियों की नीचे की ताक में देवदत नामक बोद्ध धर्मावलम्बी नागवंशी राजा का विक्रम संवत 870 (813 ई.) का शिलालेख प्राप्त हुआ है। यह संस्कृत भाषा व सुन्दर लिपि में है।

गुप्तों के पतन के बाद पुनः नागवंशी राजाओं ने इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम किया। 790 ई. का सामन्त में देवदत्त का एक अभिलेख कोटा के शेरगढ़ से प्राप्त हुआ है। इस लेख में उसके तीन पूर्वजों के नाम दिये गये हैं जिनके नाम के अन्त में ‘‘नाग’’ शब्द लिखा हुआ है। झालावाड़ से 690 ई. का राजा दुर्गनाथ का एक अभिलेख मिला है, जो मौर्यवंशी राजा था। अतः इस बात की संभावनाएँ काफी पुष्ट होती हैं कि सातवीं-आठवीं शताब्दी में इस क्षेत्र में मौर्यवंशी व नागवंशी शासक मिलकर शासन करते थे। इनके दो पाषण लेख कोषवर्धन में नागवंशी राजा का लेख और कनसुआ में शिवगण मौर्य के शिलालेख मिले हैं। नाग मौर्यों के अधीन थे। मौर्यां के क्षीण हो जाने पर यह क्षेत्र धार के परमार राजाओं के अधीन चला गया। शेरगढ़ के लक्ष्मीनारायण मन्दिर से विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के दो शिलालेख मिले हैं। इनमें से एक में धार के परमार राजाओं की वाक्यपति देव से लेकर महाराज उदयादित्य देव तक की वंशावली दी गई है। परमार राजा नरवर्मन देव का राज्य प्राचीन बूँदी राज्य तक विस्तृत था। परमार राज्य के विश्रृंखलित हो जाने पर भीलों एवं मीणों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला। उनके छोटे-छोटे अनेक कबीले राज्य के रूप में संगठित होकर बान्दो घाटी (बूँदी) तथा ढूंढाड़ (जयपुर) में स्थापित हो गये। अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में बान्दो घाटी में जेता मीणा के अधीन 300 घरों की बस्ती थी। जैता मीणा बहुत शक्तिशाली था और वह अपने पुत्रों का विवाह राजपूत कन्याओं से करना चाहता था। उसने चौहान राजपूत जसराज गोलवाल से जब अपनी दो पुत्रियों का विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो विरोध स्वरूप जसराज ने बम्बावदा के हाड़ावंशीय राजकुमार देवीसिंह की सहायता प्राप्त कर षड़यन्त्र पूर्वक जैता मीणा को खत्म किया और बूँदी पर अपना अधिकार कर लिया। देवा हाड़ा शाकम्भरी के चौहान वाक्पति राजा के पुत्र राव लक्ष्मण का वंशज था। लगभग बाहरवीं शताब्दी में लक्ष्मण का वंशज आल्हण हुआ। आल्हण के वंशज हरराज को भाटों ने अपनी बहियों में हाड़ा कहकर सम्बोधित किया है। इसी हाड़ा के नाम पर उसके वंशज हाड़ा कहलाने लगे और इस प्रकार चौहानों की हाड़ा शाखा का आरम्भ हुआ। कोटा के राजा चहुवान जात के हाड़ा गौत्र में बूँदी की शाख कहलाते हैं। राव सुर्जनहाड़ा की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र भोज बूँदी का राजा तथा सुर्जन का द्वितीय पुत्र हृदयनारायण कोटा का शासक बना। हृदयनारायण ने पूरे 15 वर्ष तक कोटा पर शासन किया। अकबर ने शाही फरमान जारी करके हृदयनारायण को कोटा का शासक स्वीकार किया। सन 1607 में बूँदी के शासक भोज की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र रावरतन बूँदी की गद्दी पर बैठा।

मुगल शासक जहाँगीर व खुर्रम की सेना के मध्य 1624 ई. में इलाहाबाद के पास झांसी नामक स्थान पर हुए युद्ध में रावरतन का भाई हृदयनारायण युद्ध से डरकर भाग गया तो बादशाह ने रावरतन को कोटा का राज्य स्थाई रूप से सुर्पुद कर दिया तथा इस बात की प्रतीक्षा करने लगा कि जब भी सुअवसर उपस्थित हो रावरतन जहाँगीर से अपने बेटे माधोसिंह के नाम कोटा राज्य का फरमान जारी करवा सके।83 रावरतन ने 1625 ई. में कोटा का शासक अपने पुत्र माधोसिंह को सौंप दिया। 15 वर्ष की उम्र में ही माधोसिंह अपने पिता रावरतन के साथ रहकर मुगलों के अधीन कई लड़ाइयों में भाग लिया।

बुरहानपुर से हारकर खुर्रम दक्षिण की ओर भागा, परन्तु फिर वह बुरहानपुर में कैद कर लिया गया।84 रावरतन और महावत खाँ दोनों बुरहानपुर के शासन नियुक्त हुए। जब महावत खाँ शाही दरबार में बुला लिया गया, तो बुरहानपुर केवल राव रतन के अधिकार में रह गया। खुर्रम की देखरेख के लिये राव रतन ने अपने छोटे पुत्र हरिसिंह को नियुक्त किया परन्तु उसने शहजादे खुर्रम के साथ दुर्व्यवहार किया। इस पर खुर्रम ने रावरतन से हरिसिंह की शिकायत की। तब रावरतन ने दूसरे राजकुमार माधोसिंह को खुर्रम की निगरानी के लिये नियुक्त किया। इस दौरान माधोसिंह ने खुर्रम से अच्छी मित्रता गांठ ली। माधोसिंह के पिता रावरतन ने बुरहानपुर से खुर्रम को भगाने में हर सम्भव सहायता की थी। जहाँगीर कश्मीर से लौटते समय बीमार हुआ और लाहौर से कुछ मील उत्तर की ओर 1627 ई. में उसका देहान्त हो गया। खुर्रम ने तत्काल उत्तर की ओर प्रयाण किया और अपने ससुर आसफजहाँ की सहायता से शाही तख्त पर बैठ गया, तब उसने माधोसिंह को कोटा की जागीर प्रदान की तथा खजूरी, अरण्खेड़ा, कैथून, आवाँ, कनवास, मधुकरगढ़, दीगोल व रहल के सात परगने भी प्रदान किये।85 1631 ई. में राव रतन का देहान्त हो गया। इस अवसर पर शाहजहाँ ने माधोसिंह को सम्मान सूचक पौषाक खिलअत प्रदान की और मनसब व सवारों में पाँच-पाँच हजार की वृद्धि की। इस प्रकार माधोसिंह अब 2500 के मनसबदार और 2000 सवारों के अफसर बन गये।86

माधोसिंह के अभिषेक के समय उनका राज्य छोटा सा था। पूर्व में पलायथा तथा मांगरोल तक उत्तर में बड़ौद और पश्चिम में चम्बल नदी के बाँये किनारे पर नान्ता सीमा तक एवं दक्षिण में मुकन्दरा की पर्वत श्रेणी तथा शेरगढ़ तक इसकी सीमा फैली हुई थी।

कोटा नरेश माधोसिंह ने मुगलों की बड़ी सेवा की। खानेजहाँ लोदी के विद्रोह को दबाने का काम माधोसिंह पर छोड़ा गया। माधोसिंह ने केन नदी के किनारे खानेजहाँ लोदी तथा उसके दो पुत्रों के सिर काट दिये और शाहजहाँ को लाकर भेंट किये। शाहजहाँ ने माधोसिंह को तीन हजारी मनसबदार बनाया87 तथा रामगढ़, रहलावण, कोटड़ा, सुल्तानपुर, बड़वा, मांगरोल, खैराबाद, सुकेत, चेचट, मण्डाना, रणपुर, नीमोदा, सोरसन, पलायथ, कोयला, आटोण तथा सोरखण्ड सहित कुल 17 परगने प्रदान किये। माधोसिंह ने अपनी बेटी का विवाह आमेर (जयपुर) नरेश जयसिंह के साथ किया। मुगल शासक के साथ 1635 ई. में वीरसिंह बुन्देला के पुत्र जुझारसिंह ने विद्रोह किया तो उसे दबाने के लिये भी माधोसिंह को भेजा गया। गोड़ों की राजधानी चान्दा की सीमा पर दोनों पक्षों में लड़ाई हुई। अन्त में जुझारसिंह को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। युद्ध से थके हुये जुझारसिंह को गोड़ों ने पकड़ लिया तथा उसका व उसके पुत्र विक्रम सिंह का सिर काटकर मुगलों को भेंट किया। काधार, कांगड़ा, बल्ख बदखंशा की लड़ाइयों में भी माधोसिंह ने अच्छी कीर्ति अर्जित की। बल्ख व बदखंशा को शाहजहाँ अपने पैतृक राज्य का अंश मानता था क्योंकि पूर्व में यहाँ पर बाबर का राज्य रहा था इसलिये बल्ख पर आधिपत्य स्थापित करने के लिये राजपूत राजाओं के नाम शाही सेना के साथ कुच करने के फरमान जारी हुए। माधोसिंह उस समय लाहौर में थे। उनके नाम भी लाहौर से बल्ख रवाना होने का फरमान जारी हुआ।88 बूँदी के राव राजा शत्रुसाल, राजा विठलदास गौड़ व माधोसिंह ने सेना का नेतृत्व किया। नजर मोहम्मद युद्ध से भाग गया व उनके रिश्तेदारों को शाही सेना ने गिरफ्तार कर काबुल भेज दिया। किले पर शाही सेना का अधिकार हो गया। माधोसिंह बल्ख में ही डटे रहे। 7 अप्रैल 1647 ई. को बादशाह ने औरंगजेब को बल्ख व बदख्शा के लिये रवाना किया। उसी समय नजरमोहम्मद ने तुरान के राजा अब्दुल अजीज की सहायता से बल्ख पर भयंकर आक्रमण कर दिया। माधोसिंह ने हिम्मत व बहादुरी के साथ अल्पसंख्यक राजपूत सैनिकों की सहायता से दुर्ग की सफलता पूर्वक रक्षा की। 25 मई 1647 ई. को औरंगजेब बख्श पहुँचा। बादशाह ने औरंगजेब के साथ माधोसिंह के वास्ते चाँदी के आभूषणों अलंकृत एक घोड़ा जिसका नाम ‘‘बाद रफ्तार‘‘ (पवनवेग) भेजा था। औरंगजेब ने माधोसिंह जी को यह घोड़ा देकर सम्मानित किया।89

1648 ई. में जब माधोसिंह जी बल्ख और बदखशाँ के युद्ध से वापिस कोटा लौटे तब तक विदेशी और पहाड़ी जलवायु ने उनके स्वास्थ्य को नष्ट कर डाला था। अतः कोटा वापिस आने पर वे अधिक समय तक जीवित नहीं रह सके और 1648 ई. में ही उनका देहान्त हो गया। मृत्यु के समय माधोसिंह तीन हजार के मनसबदार व तीन हजार सवारों के हाकिम थे।

माधोसिंह के शासन काल में कोटा में बड़ा महल, राजमहल के आगे का होद, बौलसरी की डयौढ़ी, नक्कारखाने का दरवाजा, राजधानी का किला, कैथुनीपोल, पाटनपोल तथा किशोरपुरा दरवाजे का निर्माण हुआ। कोटा से बाहर कोस की दूरी पर माधोसिंह ने मधुकरगढ़ नामक कस्बा बसाया जिसकी प्राचीर के रूप में पहाड़ियों का प्रयोग किया गया। इनमें से किसी भी भवन पर मुगल कला का कोई भी प्रभाव नहीं है।

राव मुकन्दसिंह (1648-1658 ई.)


माधोसिंह के देहान्त के पश्चात मुकन्दसिंह कोटा की राजगद्दी पर बैठे। तब मुकन्दसिंह को मुगल सम्राट शाहजहाँ ने खिल्लत दी और वे दो हजार के मनसबदार और डेढ़ हजार सवारों के अफसर बनाये गये। फिर पाँच सौ सवार का इजाफा हुआ।

मुकन्दसिंह, औरंगजेब के साथ दो बार कन्धार की लड़ाई में शामिल हुए। वहाँ से लौटने पर मुकुन्दसिंह को अस्ल इजाफा कर तीन हजार मनसब व दो हजार सवार का हाकिम बनाया गया।90 1657 ई. में जब शाहजहाँ बीमार पड़ा तो उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र दारा को अमीर और उमरावों के सामने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और भली-भाँति राज्य करने का उपदेश दिया। शाहजहाँ की मृत्यु सननिकट जानकर उसके चारों पुत्रों में मुगल साम्राज्य के अधिकार को लेकर लड़ाई छिड़ गई।91 मुगल राजकुमार औरंगजेब व मुराद की संयुक्त सेना ने दारासिंह से राज्य हड़पने के लिये उज्जैन के निकट धर्मत नामक स्थान पर डेरा डाला। औरंगजेब व मुराद के इरादों को देखकर दारा ने शाही सेना रवाना करने का आयोजन किया। कासिम खाँ और जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह के नेतृत्व में शाही सेना कूच के लिय सुसज्जित हो चुकी थी। इसमें मुकुन्दसिंह ने पाँच हजार सवारों के साथ हिस्सा लिया। उन्हीं के साथ उनके चारों भाई मोहनसिंह, जुझारसिंह, कन्हीराम तथा किशोर सिंह भी दारा की सहायता के लिये धर्मत पहुँचे। 15 अप्रैल 1658 ई. में युद्ध शुरू हुआ। मुकुन्दसिंह को सेना के अग्र भाग में नियुक्त किया गया। औरंगजेब की तोपों के गोलों की बरसात के बीच मार्ग बनाकर मुकुन्दसिंह और उसके चारों भाई, छः हिन्दू सरदार तथा पाँच सौ वीर सैनिक औरंगजेब की सेना में घुस गये। मुकुन्दसिंह, मोहनसिंह, कानसिंह और जुझारसिंह92 चारों बहादुरी से मुकाबला करते हुऐ मारे गये और किशोर सिंह 42 जख्म खाकर जिन्दा बचे।93 जसवन्तसिंह आहत होकर जोधपुर चले गये और औरंगजेब ने विजय होकर इस स्थान का नाम फतेहाबाद रखा। मुकुन्दसिंह ने अपने शासन काल में राज्य की दक्षिण सीमा के पहाड़ी घाट में किलेबँदी की और दर्रे की घाटी में दरवाजा बनवाया। सैनिक दृष्टि से यह किला बड़े महत्त्व का है। यह मालवा व हाड़ौती को विभक्त करता है और दो सेनाओं में मुठभेड़ होने के लिये खास स्थान है। 1615 ई. में जब कोटा को स्थापित हुए लगभग 30 वर्ष ही हुए थे तो साम्राज्य के प्रधान मार्ग पर इस प्रकार अधिकार करना राजनैतिक दृष्टि से असाधारण काम था। उस समय हिन्दू नरेशों को किला बनवाने की इजाजत नहीं दी जाती थी। अतः नवस्थापित राज्य की सीमा पर और शक्तिशाली सम्राट शाहजहाँ के शासनकाल में मुकन्दसिंह का किला बनवाना जाहिर करता है कि मुगल दरबार में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। मुकुन्दसिंह के नाम पर इस किले का और पास ही बसाये गये गाँव का नाम मुकन्दरा रखा गया। तब से पहाड़ की श्रेणियों का नाम भी मुकन्दरा हो गया। शहर आबाद करके उसका नाम मुकुन्दरा रखा।94

राव जगतसिंह (1658-1683 ई.)


जगतसिंह जी 1658 ई. में मुकुन्दसिंह के धर्मत युद्ध में वीरगति प्राप्त करने के बाद राजगद्दी पर बैठे। ठाकुर लक्ष्मणदान ने लिखा है कि राज्याभिषेक के समय जगतसिंह की अवस्था 14 वर्ष की थी। धर्मत के मैदान में 500 से अधिक शूरवीर मारे गये थे एवं राज्य की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। मऊ मैदान का परगना शाहजहाँ ने बूँदी नरेश शत्रुसाल को पहले ही दे दिया था। मऊ के परगने की लौटाफिरी के कारण बूँदी और कोटा में माधोसिंह के जमाने में ही वैमनस्य हो गया था। ऐसी विकट स्थिति में राज्य व परिवार को सम्भालना जगतसिंह के लिये वास्तव में उत्तरदायी पूर्ण कार्य था।95 सामूगढ़ में विजय प्राप्त करने के बाद औरंगजेब ने आगरे के किले में अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर लिया। औरंगजेब ने अब शाही चिह्न धारण कर साम्राज्य को अपने हाथ में ले लिया और 21 जुलाई 1658 ई. को विधिपूर्वक दिल्ली के तख्त पर बैठा।

तख्त पर बेठते ही उसने जसवन्त सिंह, जगतसिंह और भाऊसिंह (बूँदी) को दिल्ली बुलाया। सतलज के तट पर जगतसिंह और अन्य हिन्दू राजा औरंगजेब से मिले। अन्य नरेशों के साथ जगतसिंह का भी सम्मान किया गया और उनको आश्वासन दिलाया कि उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं होगा। जगतसिंह को दो हजार का मनसब और खिल्लत दिया गया।96 इस समय जगतसिंह को कोटा की गद्दी पर बैठे हुए केवल तीन महीने हुऐ थे। जगतसिंह ने उस समय कोटा से अपने काका किशोर सिंह को भी बुला लिया, जिसके धर्मत के युद्ध के घाव अभी भरे भी नहीं थे। दिल्ली से औरंगजेब ने पूर्व दिशा में कूच करते समय जसवन्तसिंह, जगतसिंह और भाऊसिंह को साथ में ले लिया। 3 जनवरी 1659 को शुजा के विरुद्ध खानवा में युद्ध की तैयारियाँ की जाने लगी। 15 वर्षीय जगतसिंह को सेना के अग्र भाग में नियुक्त किया। उनके साथ में किशोर सिंह थे। जसवन्तसिंह ने औरंगजेब के विरोध को तब तक नहीं भुलाया था इसलिये वह ऐनवक्त पर औरंगजेब का साथ छोड़कर शुजा से जा मिले। जब शुजा की सेना ने आक्रमण किया, तो जगतसिंह व किशोर सिंह ने अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए वीरता से लड़ाई की व औरंगजेब बहुत सी लूट के साथ विजय होकर वापिस आया।97 दक्षिण में औरंगजेब ने मराठों का दमन करने के लिये खाँजहाँ बहादुर को एक बड़ी शाही सेना का अफसर बनाकर भेजा। उसकी मदद के लिये जगतसिंह भी उसके साथ गये। औरंगाबाद के पास मराठों पर कई आक्रमण किये। बहुत अर्से तक यह चढ़ाईयां जारी रही, परन्तु विजय दोनों में से किसी को नहीं मिली। एक रात हैदराबाद के सेनानायक मुहम्मद इब्राहिम खाँ ने आक्रमण कर दिया। अचानक हमले से शाही सेना में हड़बड़ मच गयी। खाँजहाँ बहादुर लड़ने को तैयार हुआ और सेना को सामना करने के लिये व्यवस्थित किया। उससे पहले मुहम्मद इब्राहिम खाँ ने कितने ही शाही सैनिकों को और अफसरों को मार डाला, परन्तु जगतसिंह जी ने वीरता से मुहम्मद इब्राहिम का सामना किया और विजय दिलवायी। जगतसिंह और किशोर सिंह दोनों औरंगजेब की तरफ से दक्षिण में मराठों, बीजापुर तथा गोलकुण्डा के सुल्तानों के विरुद्ध लड़ने के लिये नियुक्त किये गये थे। हैदराबाद की लड़ाई में 1683 ई. में जगतसिंह शेख मिन्हाज के विरुद्ध घोर युद्ध करते हुए धाराशायी हुए तब किशोर सिंह बीजापुर की लड़ाई में व्यस्त थे। जब जगतसिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुऐ। उस समय उनके कोई औलाद नहीं थी तब रियासती लोगों ने कोयला के कान्हसिंह के बेटे प्रेमसिंह को गद्दी पर बैठा दिया, लेकिन चाल-चलन खराब होने के कारण 13 महीने बाद ही गद्दी से उतार दिया। माधवसिंह के पाँचवें बेटे किशोर सिंह का कार्तिक शुक्ला द्वितीया 1684 ई. में राजतिलक कर दिया गया और प्रेमसिंह को वापिस कोयला भेज दिया गया।

राव किशोर सिंह (1684-1695 ई.)


किशोर सिंह को अपने पिता से चौबीस गाँव सहित सांगोद की जागीर मिली थी। शाहजहाँ के समय में वे चार सौ के मनसबदार थे और बल्ख व बदख्शां के युद्ध में अपने पिता राव माधोसिंह के साथ थे। धर्मत के युद्ध में औरंगजेब के विरुद्ध लड़ते हुऐ जख्मी हुए, परन्तु इस समय तक इनको एक हजार का मनसब मिल चुका था व औरंगजेब के विश्वासपात्र बन चुके थे। उनकी वीरता और प्रेमसिंह की अयोग्यता को देखकर औरंगजेब ने खिल्लत और फरमान देकर किशोर सिंह को दक्षिण से अपने पिता की गद्दी पर बैठने के लिये कोटा रवाना किया।98 इस समय औरंगजेब बड़े जोर के साथ दक्षिण के युद्ध में लगा हुआ था अतः किशोर सिंह को कोटा में रहने का अवकाश नहीं मिल सका। राज्याभिषेक का उत्सव समाप्त होते ही वे पुनः युद्ध में सम्मिलित होने दक्षिण चले गये। किशोर सिंह के इस समय चार पुत्र बिशनसिंह, रामसिंह, अर्जुनसिंह, हरनाथसिंह थे। दक्षिण जाते समय किशोर सिंह अपने साथ कुंवर बिशनसिंह जी को ले जाना चाहते थे परन्तु इन्होंने अपनी माता के कहने से साथ जाने के लिये इन्कार कर दिया। उनके इन्कार करने से क्रोधित होकर किशोर सिंह ने उसको उत्तराधिकार से वंचित कर दिया और दूसरे कुंवर रामसिंह को ज्येष्ठ पुत्र मानकर अपने साथ ले गये। बिशनसिंह को अधिकार की दृष्टि से कनिष्ठ पुत्र बनाकर अणते की जागीर दे दी।99 1684 ई. उनका अधिकांश समय दक्षिण में युद्ध स्थल में ही बीता। इन्होंने बीजापुर, इब्राहिमगढ़, हैदराबाद में औरंगजेब को विजय दिलायी व मराठों के विरुद्ध रायगढ़, बसनतगढ़ विजय में भी शामिल थे।

कोटा की तवारीख में लिखा है कि सिनसिनी के जाटों की बगावत मिटाने के लिये आलमगीर बादशाह ने अपने पोते बेदारबख्श के साथ राव किशोर सिंह को भेजा। इनके साथ गये घाटी के रावत तेजसिंह, राजगढ़ के आपजी, गोवर्धनसिंह, पाना हेड़ा के ठाकुर सुजानसिंह सोलंकी व तारज के ठाकुर राजसिंह मारे गये। ये जख्मी हालत में कोटा आये और कुछ अर्से बाद औरंगजेब ने इनको दक्षिण में बुलाया। किशोर सिंह बीमारी से लाचार थे, उन्होंने अपने बेटे विष्णुसिंह व हरनाथसिंह को दक्षिण में भेजना चाहा, परन्तु उन्होंने बहाना बनाकर जाने से इन्कार कर दिया। तब रामसिंह पिता के हुक्म के मुताबिक खुशी से रवाना होकर बादशाह के पास पहुँचे। कुछ दिनों बाद किशोर सिंह भी बीमारी से फुर्सत पाकर बादशाही खिदमत में हाजिर हुए और 1695 ई. में अर्काट के हमले में बड़ी बहादुरी के साथ लड़ते हुए मारे गये। इनके बेटे रामसिंह जो जख्मी होकर जिंदा बचे व उनके बाद कोटा की गद्दी पर बैठे। राजा बनने से पूर्व किशोर सिंह एक हजार के मनसबदार थे। बीजापुर की विजय के बाद शोलापुर के कैम्प में किशोर सिंह को एक हाथी, पाँच घोड़े और बहुत से जवाहरात भेंट किये गये थे व कवाई परगना दिया गया था। जाटों से युद्ध करते हुए बूँदी के राव राजा अनिरुद्धसिंह रणक्षेत्र से भाग निकले थे परन्तु किशोर सिंह वीरता पूर्वक लड़ते रहे थे। इसलिये केशोरायपाटन का परगना बूँदी से छीनकर मुगल शासक द्वारा किशोर सिंह को दिया गया था। मृत्यु के समय किशोर सिंह चार हजार जात के मनसबदार और तीन हजार सवारों के हाकिम थे।

राव रामसिंह (1695-1707 ई.)


राव रामसिंह को राज्यभिषेक के समय युद्ध का काफी अनुभव हो चुका था। गद्दी पर बैठने के समय रामसिंह को औरंगजेब ने तीन हजार का मनसबदार और तीन हजार सवारों का अफसर बना दिया था।

रामसिंह की प्रसिद्धी उनके तोपखाने के कारण थी, इसलिये रामसिंह ‘भड़बूज्या’ कहलाने लगे थे। जब रामसिंह दक्षिण में औरंगजेब के साथ थे। उनके भाई बिशनसिंह ने कोटा के तख्त पर अधिकार कर लिया। अतः रामसिंह शाही सेना लेकर कोटा आये। आवां में बिशनसिंह और रामसिंह में लड़ाई हुई। बिशनसिंह पराजित हुए। बिशनसिंह के पृथ्वीसिंह नामक एक पुत्र थे, जिनको रामसिंह ने कोटा बुलाया और उनको अन्ते की जागीर प्रदान की।100 दक्षिण में मराठा शासक राजाराम के दुर्ग ‘‘जिंजी‘‘ को पाने के लिये जब जुल्फिकार खाँ को सफलता हाथ नहीं लगी तब जनवरी 1698 ई. में रामसिंह अपने वीर हाड़ा सैनिकों के साथ लकड़ी का पुल पालकर दुर्भेद्य द्वार में प्रवेश किया और दुर्ग पर विजय प्राप्त की।101

1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों मुअज्जम और आजम में सत्ता प्राप्ति को लेकर संघर्ष होने लगा। बूँदी नरेश बुद्धसिंह हाड़ा ने मुअज्जम का और कोटा नरेश रामसिंह ने आजम का पक्ष लिया। धौलपुर के पास जाजव के मैदान में दोनों शहजादों की सेनाओं में युद्ध हुआ। 20 जून 1707 को रामसिंह इस युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए व मुअज्जम की विजय हुई। युद्ध की समाप्ति पर उनके शव का नुराबाद में विधिपूर्वक अन्त्योष्टि संस्कार किया गया।102 औरंगजेब ने रामसिंह की वीरता से प्रसन्न होकर नक्कार व ढाई हजारी मनसब प्रदान किया। रामसिंह के समय में रामपुरा बाजार, दरवाजा और कोट बनवाया गया। इन्होंने रावठे के तालाब का निर्माण करवाया और रामनिवास बाग लगवाया, किशोर सागर का काम भी रामसिंह के समय तक जारी रहा था।

महाराव भीमसिंह (1707 -1720 ई.)


राव रामसिंह की मृत्यु होने के बाद उनका पुत्र भीमसिंह कोटा का राजा हुआ, उस समय मुगल साम्राज्य में मुअज्जम बहादुरशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। बूँदी नरेश बुद्धसिंह ने बहादुरशाह को प्रभाव में लेकर 54 परगने बूँदी राज्य में शामिल करने की आज्ञा प्राप्त कर ली। इस बात को लेकर बूँदी व कोटा के मध्य पाटण के पास मुकाबला हुआ। बूँदी की फौज को भीमसिंह ने परास्त किया। फरुखशियर के समय में भीमसिंह ने 1713 ई. में बूँदी पर चढ़ाई की और अपना अधिकार जमा लिया103, परन्तु कखर का सालमसिंह उनका सामना करने को तैयार हो गया व बूँदी के राज्य को लूटने लगा, तब भीमसिंह ने धाभाई भगवानदास को एक सेना के साथ उसको रोकने के लिये भेजा। दोनों सेनाओं का धनावदें में भारी युद्ध हुआ, जिससे सालमसिंह के वंशज और कई मेवाती मारे गये। धाभाई भगवानदास के भी कई घाव लगे अन्त में विजय भीमसिंह की हुई। जयपुर के सवाई जयसिंह ने बुद्धसिंह को बूँदी वापिस दिलाने का प्रयत्न किया और फर्रुखशियर से निवेदन किया। फर्रुखशियर ने जयसिंह की बात मानकर नवाब दिलावर खाँ को शाही सेना के साथ बूँदी पर बादशाह का अधिकार स्थापित करने के लिये रवाना किया गया और उसके साथ सवाई जयसिंह के कामदार को भी भेजा गया।

दिलावर ने बूँदी पर आसानी से अधिकार कर लिया और उसको विधिपूर्वक खालसे करके (मुगल साम्राज्य में मिलाकर) फिर तत्काल बुद्धसिंह को दे दिया। इस प्रकार भीमसिंह ने बूँदी का जीता हुआ प्रदेश 1715 ई. में वापिस कर दिया। बारां व महू के परगनों को जो कोटा के अधिकार में थे, वापिस नहीं किये, परन्तु फर्रुखशियर के दबाव के कारण ये इलाके भी भीमसिंह को बूँदी वापिस करने पड़े। बुद्धसिंह को बादशाह की सहायता से बूँदी वापिस मिल तो गया था, परन्तु वे उसको सम्भालकर रख नहीं पाये थे। भीमसिंह ने बूँदी पर पुनः चढ़ाई की। 1719 ई. में बूँदी में अपना शासन स्थापित किया।

महाराव भीमसिंह की शाही दरबार में व राजपूताने की सब बड़ी रियासतों में बड़ी प्रतिष्ठा थी। फर्रुखशियर ने उनको पाँच हजार का मनसब और पाँच हजार सवारों का सवार बनाकर महाराव की पदवी से विभूषित किया था। महाराव भीमसिंह का देहावसान 20 जून 1720 ई. को हो गया था। उस समय उनके चार पुत्र अर्जुनसिंह, श्यामसिंह, दुर्जनसिंह और किशनसिंह में से सबसे बड़े अर्जुनसिंह राजगद्दी पर बैठे परन्तु मुगल साम्राज्य में सैयद बन्धुओं की पराजय व 1720 ई. में मुहम्मदशाह के बढ़ते प्रभाव के कारण कोटा के शासक का महत्त्व कम हो गया था। इस समय धाभाई भगवानदास उनके प्रतिनिधि के हैसियत से बूँदी पर शासन कर रहा था। उसने परिस्थितियों को देखकर बूँदी का इलाका बुद्धसिंह को वापिस दे दिया और बूँदी के सब परगनों से कोटा के थाने उठवा लिये।104 यह खबर सुनकर सालमसिंह झिलाय से कूच करके बूँदी आ पहुँचा और बुद्धसिंह का मन्त्री बनकर राजकार्य करने लगा। महाराव अर्जुनसिंह ने सिर्फ तीन वर्ष राज्य किया। कार्तिक शुक्ला सप्तमी सम्वत 1780 (1723 ई.) में उनका देहान्त हो गया। इनके कोई औलाद नहीं होने के कारण उनके भाई दुर्जनसाल कोटा गद्दी पर बैठा।

महाराव दुर्जनसाल (1723-1756 ई.)


राजपूतों के परम्परा के अनुकूल भीमसिंह जी के द्वितीय पुत्र श्यामसिंह को गद्दी मिलनी चाहिये थी।

परन्तु दुर्जनसाल को सरदारों ने अपना स्वामी स्वीकार किया। इससे नाराज होकर श्यामसिंह ने जयपुर के सवाई जयसिंह का आश्रय लिया और कोटा का राज्य दिलवाने की उनसे प्रार्थना की। सवाई जयसिंह की सैनिक सहायता से उदयपुरया के मैदान में दोनों सेनाओं में मुठभेड़ हुई, श्यामसिंह घायल हुए और रणक्षेत्र में ही उनके प्राण छूट गये।105 दुर्जनसाल का राज्यकाल अधिकतर बूँदी के झगड़े में व्यतीत हुआ। उन्होंने बूँदी को बुद्धसिंह को और फिर उम्मेदसिंह को दिलाने में निरन्तर प्रयत्न किया। उसके कुछ समय बाद ही जयसिंह ने बूँदी पर चढ़ाई कर दी। बुद्धसिंह लड़ाई किये बिना ही बूँदी से भाग निकले और जयसिंह ने बूँदी पर अधिकार करके राजा सालमसिंह के लड़के दलेलसिंह को अपनी अधीनता में बूँदी का राजा नियत किया।

जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह का इन्तकाल हुआ, तब बूँदी के रावराजा उम्मेदसिंह जो अपने ननिहाल बेंगू में रहते थे, दुर्जनसिंह के पास सहायता के लिये आये और उनकी सहायता प्राप्त कर बूँदी पर फिर से कब्जा कर लिया। सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरसिंह ने दलेलसिंह को बूँदी वापिस दिलाने के लिये मराठों से सहायता लेकर बूँदी पर कब्जा कर लिया व कोटा को घेर लिया। मराठा सेनाओं ने कोटा नरेश दुर्जनसाल से 1745 ई. में एक सन्धि सम्पन्न की जिसके अनुसार बूँदी पर दलेलसिंह का अधिकार हुआ व केशवरायपाटन व कापरेन के परगने मराठों को प्राप्त हुए। दुर्जनसाल का विवाह उदयपुर की राजकुमारी ब्रजकुँवर बाई से हुआ था। यह महाराणा संग्रामसिंह की द्वितीय पुत्री थी जिनका देहान्त हो जाने के कारण उसका कन्यादान उसके भाई महाराणा जगतसिंह ने किया था।106 01 अगस्त 1756 ई. को महाराव दुर्जनसाल का देहान्त हो गया। दुर्जनसाल के कोई पुत्र नहीं था। अतः उनके निकटतम सम्बन्धी अजीत सिंह को कोटा का शासक मुकर्रर किया, इन्होंने थोड़े दिन ही राज्य किया और 1758 ई. में देहान्त हो गया। अजीतसिंह के दो पुत्र शत्रुसाल और गुमानसिंह जी थे जिनमें बड़े पुत्र शत्रुसाल सिंह राज्य के शासक बने।

महाराव शत्रुसाल (1758-1764 ई.)


महाराव शत्रुसाल के समय जयपुर के माधवसिंह से हुई भारी लड़ाई का हाल कोटा की तवारीख में इस तरह लिखा गया कि ‘‘रणथम्भौर किला जब बादशाही मुगलों ने जयपुर के महाराजा माधवसिंह को सौंप दिया, तो बादशाही मुगल के समय इन्द्रगढ़, खातोली, गैता, बलबन, करवाड़, पीपलदा, आंतरौदा, निमौला के जागीरदार हाड़ा रणथम्भौर किले के फौजदार को पेशकशी और नौकरी देते थे। जब रणथम्भौर का किला जयपुर के हाथ आया तो महाराजा माधोसिंह ने इन सरदारों से पूर्ववत कर लेना चाहा, इस पर हाड़ा तैयार नहीं हुए, सब मिलकर महाराव शत्रुसाल के पास आये।107 महाराव शत्रुसाल ने जागीरदारों से कोटा की मातहती का इकरार लिखवा लिया। यह सुनकर महाराजा माधवसिंह ने एक बड़ी भारी फौज कोटा को बर्बाद करने के लिये भेज दी। कोटा से अठारह कोस पर भटवाड़ा गाँव के पास मुकाबला हुआ, दोनों पक्षों के सैकड़ों आदमी मारे गये। आखिरकार जयपुर की फौज भाग निकली, विजय कोटा को मिली। शत्रुसाल ने केवल छः वर्ष के लगभग राज्य किया। भटवाड़े के मैदान में सेना का संचालन तथा नेतृत्व उनके फौजदार झाला जालिम सिंह के सुपुर्द था जिनसे कोटा राज्य के इतिहास में एक विशेष परिर्वतन का सूत्रपात हुआ।

महाराव गुमानसिंह (1764-1770 ई.)


महाराव शत्रुसाल के कोई पुत्र नहीं था अतः उनके देहान्त के पश्चात उनके छोटे भाई गुमानसिंह जी राजगद्दी पर बैठे। उनका फौजदार जालिम सिंह भी उस समय नवयुवक था व भटवाड़े की रणभूमि में अपने पराक्रम व नीति नैपुण्य का परिचय दे चुका था। जालिम सिंह की बहिन का विवाह गुमानसिंह के साथ हुआ था, इस कारण से भी वह राज्य में सर्वेसर्वा था। उसकी शक्ति को इस प्रकार उत्तरोतर बढ़ती देख हाड़ा जागीदार बहुत क्षुब्ध थे। कई जागीरदारों की जागीरें उसने कम कर दी थी और महत्त्वपूर्ण जागीरदारों को निकाल कर उनकी जागीरें खालसे कर ली थी। इसलिये सब जागीदारों ने संगठित होकर कोटा नरेश से जालिम सिंह की शिकायत की, उधर जालिम सिंह भी अपने आपको सभी प्रकार से कर्ता-धर्ता समझकर महाराव गुमानसिंह की आज्ञाओं का यथोचित पालन नहीं करता था। इसलिये गुमानसिंह ने जालिम सिंह को फौजदार के पद से हटाकर राज्य से विदा कर दिया और ठाकुर भोपतसिंह भॉकरोत को नया फौजदार नियुक्त किया। भोपतसिंह इस पद पर थोड़े दिन ही रह पाया। एक तरफ मराठों की बढ़ती हुई माँगें तथा दूसरी ओर जयपुर के आक्रमण का निवारण करने में यह यथोचित निपुणता नहीं दिखा सका। अतः इटावे के जागीदार स्वरूपसिंह को यह पद दिया गया। यह भी उस समय की विषम स्थिति को नहीं संभाल सके और महाराव गुमानसिंह को पुनः जालिम सिंह को बुलाने पर विचार करना पड़ा।

कोटा की नौकरी छोड़कर झाला जालिम सिंह ने महाराणा उदयपुर के यहाँ नौकरी कर ली। इस समय महाराणा बड़ी विपत्ति में थे। समस्त जागीरदार महाराणा के घोर विरोधी बन चुके थे। जागीरदारों ने कुम्भलगढ़ में राणा रतन सिंह को महाराणा घोषित कर दिया था। महाराणा ने जालिम सिंह को चीताखेड़े की जागीर और राजराणा की उपाधि दी परन्तु उज्जैन की हार से उदयपुर की स्थिति डावाडोल थी और विजयी माधवराव सिन्धिया की सेनाएँ मेवाड़ राज्य को चारों ओर से खूंद रही थी। उधर गुमानसिंह ने जालिम सिंह को वापिस कोटा लौटने का प्रस्ताव रखा, तो उसने तत्काल स्वीकार कर लिया।108 जालिम सिंह को दोबारा फौजदार बने हुऐ थोड़ा ही अर्सा हुआ था कि महाराव गुमानसिंह बीमार हो गये। उस समय महाराज कुमार उम्मेद सिंह केवल दस वर्ष के थे। मराठा के आक्रमण का रात दिन भय रहता था। ऐसी स्थिति में गुमानसिंह ने अपने लड़के उम्मेदसिंह को जालिम सिंह के सुपुर्द कर 1770 ई. में इस दुनिया से कूच कर गये।

महाराव उम्मेदसिंह (1770-1819 ई.)


महाराव उम्मेदसिंह के गद्दी पर बैठते समय अल्पवयस्क होने के कारण जालिम सिंह ही महाराव का संरक्षक व सर्वेसर्वा था। जब उसने शासन सूत्र अपने हाथ में लिया तो मालगुजारी खजाना और जकात आदि का प्रबन्ध महाराज स्वरूपसिंह के अधीन था। जालिम सिंह सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को स्वयं अपने हाथ में केन्द्रीभूत करना चाहता था। स्वरूपसिंह राज परिवार के नजदीकी भाई थे इसलिये जालिम सिंह ने उनका अन्त करने के लिये एक षड़यन्त्र रचा और राजमाता को स्वरूपसिंह के विरुद्ध भड़काया और छल से धाभाई जसकरण को लोभ देकर स्वरूपसिंह का वध करवा दिया।109 उसके बाद महाराज उम्मेदसिंह के समक्ष धाभाई जसकरण के विरुद्ध हत्या का आरोप लगाकर कोटा छुड़वा दिया। धाभाई जसकरण को विवश होकर कोटा छोड़ना पड़ा और जयपुर राज्य में दुःख और दरिद्रता के साथ अपना जीवन काटना पड़ा।

1790 ई. में कैलवाड़ा और शाहबाद का किला महाराव उम्मेदसिंह और जालिम सिंह ने जीतकर अपनी रियासत में मिला लिया। इसी तरह गंगरार वगैरह परगने लेकर जालिम सिंह ने रियासत को ताकतवर किया और मराठा से मेल मिलाप रखकर मुल्क में शान्ति बनाये रखी। जालिम सिंह ने मराठों व अंग्रेजी अफसरों से भी मेल मिलाप रखकर राज्य में शान्ति बनाये रखी।110 1803 ई. में हिंगलाज के पास जसवन्तराय होल्कर का अंग्रेज कर्नल मान्सन से विरोध बढ़ा तो मान्सन की मदद के लिये कोटा से कोयला व फलायता के जागीरदारों को भेजा गया। होल्कर ने एक हजार सैनिकों के साथ कोटा की सेना को घेर लिया तब कर्नल मान्सन को जालिम सिंह ने सुरक्षित रूप से मुकुन्दरा की घाटी में पहुँचाया। मान्सन के पलायन से होल्कर को असंतोष हो गया, उसने कोटा से बदला लेने की ठानी और कूच करता हुआ कोटा में घुस गया। होल्कर के साथ सन्धि की बातचीत प्रारम्भ हुई और यह तय हुआ कि कोटा राज्य ने कम्पनी को सहायता देकर होल्कर को जो क्षति पहुँचायी है उसके दण्डस्वरूप कोटा दस लाख रुपये जुर्माना देगा परन्तु जालिम सिंह ने उसको स्वीकार नहीं किया,।111 फिर होल्कर तीन लाख रुपये लेकर कोटा से रवाना हो गया और शेष सात लाख रुपये माँगना उसने कभी नहीं छोड़ा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की उभरती हुई ताकत को देखकर जालिम सिंह ने मराठों से निपटने का मानस बना लिया। जब कभी मेवाड़, जयपुर अथवा मारवाड़ नरेशों ने मराठों से लड़ाई की तो जालिम सिंह ने अपनी सेना मराठों के विरुद्ध भेजी। जब मराठों ने मेवाड़ घेर लिया तो जालिम सिंह स्वयं फौज लेकर गया और मराठों को मार भगाया। जब मेवाड़ के महाराणा ने जालिम सिंह के परममित्र इंगले के भाई भालेराव को कैद कर लिया तो जालिम सिंह ने उसे छुड़ाने के लिये मेवाड़ आया और उसने महाराणा पर आक्रमण कर दिया और महाराणा को परास्त कर भालेराव को मुक्त करा लिया और फौज खर्च की एवज में जहाजपुर का किला और परगना छीन लिया।112 उसने मेवाड़ के ईटोंदा, शक्करगढ़, कोटड़ी और हस्तड़ा के परगने महाराणा से पट्टे में प्राप्त किये और महाराणा को इकहत्तर लाख रुपये कर्जा ब्याज पर दिया। 1814 ई. में कर्नल टॉड ने यह परगने जालिम सिंह के मातहत अधिकारी बिशनसिंह शक्तावत से पुनः प्राप्त कर मेवाड़ में मिलाये। धीरे-धीरे जालिम सिंह के प्रति स्थानीय राजपूत सरदारों का विरोध बढ़ने लगा, तो उसने उनका अधिकाधिक दमन करना शुरू कर दिया। अपनी सत्ता के बल से उसने हाड़ा सरदारों की शक्ति को तो क्षीण कर दिया लेकिन उनके असंतोष को वह नहीं मिटा सका। उनके द्वारा जालिम सिंह के प्राण लेने के अनेक षड़यन्त्र किये गये पर सब विफल रहे। 1817 ई. में जालिम सिंह ने कम्पनी की बढ़ती शक्ति को देखकर महाराव उम्मेदसिंह के साथ एक सन्धि भी की। 18 नवम्बर 1819 ई. में महाराव उम्मेदसिंह का इन्तकाल हो गया।

महाराव किशोर सिंह (1819-1827 ई.)


जालिम सिंह ने नवम्बर 1819 ई. में महाराव किशोर सिंह का पट्टाभिषेक किया और पश्चिमी राजपूताना के पॉलिटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड को इसकी सूचना भिजवायी। राज्याभिषेक के बाद किशोर सिंह और जालिम सिंह के आपस में मतभेद बढ़ने लगे। किशोर सिंह को जालिम सिंह के दबाव में रहना पसनद नहीं था। जालिम सिंह के एक बेटे गोवर्धनदास ने भी महाराव को अपने पिता के विरुद्ध भड़काया जो जालिम सिंह के दूसरे बेटे माधव सिंह के खिलाफ था। महाराव किशोर सिंह ने अन्त में निश्चय कर लिया कि जालिम सिंह के हाथ से शासन की बागडोर छीनकर अपने हाथ में ली जावे। तब महाराव ने पॉलिटिकल एजेन्ट के मार्फत गवर्नल जनरल को खरीता भेजा113 कि 1817 ई. की सन्धि अनुसार स्वर्गीय नरेश के उत्तराधिकारी कोटा राज्य के अनियन्त्रित शासक रहने चाहिए। इसलिये कम्पनी जालिम सिंह की सहायता नहीं करे। मार्च 1818 ई. में जालिम सिंह और कम्पनी में जालिम सिंह को सहायता दी जाने की, जो गुप्त सन्धि हुई उसकी जानकारी महाराव को भी नहीं थी। कम्पनी ने जालिम सिंह का पक्ष लिया क्योंकि पिण्डारियों व भागे हुए सरदारों को पकड़वाने में जालिम सिंह ने कम्पनी को बड़ी सहायता की थी। कर्नल मान्सन को मदद देकर व राजपूताने में सर्वप्रथम कम्पनी के साथ संधि करके दूसरे राज्यों के साथ सन्धि का उसने रास्ता खोल दिया था। इसलिये खरीते के उत्तर में कम्पनी ने लिखा कि ‘‘महाराव नाममात्र का शासक है। जालिम सिंह के साथ जो कम्पनी की सन्धि हुई उसके खिलाफ महाराव की दलीले नहीं सुनी जा सकती।” कोटा राज्य का वास्तविक शासक जालिम सिंह है न कि महाराव। महाराव की स्थिति सताराके राजा या मुगल सम्राट से ज्यादा अच्छी नहीं थी। ये बातें कोटा नरेश को स्वीकार नहीं थी इसलिये जालिम सिंह से लड़ाई करने के लिये सेना के साथ किशोर सिंह रंगबाड़ी तक आ पहुँचे। तब कम्पनी के पॉलिटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड ने रंगबाड़ी पहुँचकर कोटा नरेश को विश्वास दिलाया कि उनकी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान में कोई कमी नहीं आयेगी। साथ में यह भी कहा कि कम्पनी ने जो शासन शक्ति जालिम सिंह को दी हैं। उसमें भी किसी प्रकार की कमी नहीं आयेगी।114 पॉलिटिकल एजेन्ट ने कम्पनी की ओर से महाराव किशोर सिंह और जालिम सिंह को खिलअते देकर सम्मानित किया।115 और गोवर्धनदास को कोटा से बाहर कर दिल्ली और झाबुआ भेज दिया। अब जालिम सिंह और किशोर सिंह आमने-सामने हो गये। किशोर सिंह ने देखा कि आत्मरक्षा करना असम्भव है, तो वह मध्य रात्रि को गुप्त रास्ते से बूँदी पहुँच गये। जहाँ बूँदी नरेश राव राजा विष्णुसिंह ने किशोर सिंह का स्वागत किया और सम्मानपूर्वक अपने पास ठहराया और सहायता का आश्वासन दिया। कम्पनी के एजेन्ट और जालिम सिंह ने अब बूँदी नरेश के नाम खरीते भेजे कि महाराव किशोर सिंह का बूँदी में रहना वांछनीय नहीं है, तब किशोर सिंह भरतपुर होते हुए दिल्ली पहुँचे जहाँ पर कम्पनी के कर्नल टॉड ने बहुत समझाया, परन्तु किशोर सिंह ने निश्चय कर लिया कि जालिम सिंह से शासन सूत्र छीनने के लिये एक बार पुनः प्रयत्न किया जावे। इस उद्देश्य से वह कोटा की ओर रवाना हो गये। गोवर्धनदास के प्रयत्न से रेजिडेन्सी का खजांची और मीरमुंशी कोटा नरेश के पक्ष में हो गये। मार्ग में किशोर सिंह यह घोषित करते हुए आये कि कम्पनी सरकार से उनका कोई विरोध नहीं है और कम्पनी की आज्ञा से वह अपना राज्य प्राप्त करने के लिये कोटा जा रहे हैं।

कम्पनी का खजांची साथ होने से लोग भी उनके साथ सहानुभूति करने लगे। महाराव किशोर सिंह 1821 ई. के वर्षाकाल में कोटा की सीमा में पहुँचे, हाड़ा राजपूत और जागीरदार सब जालिम सिंह के शासन से असन्तुष्ट थे। वे लोग उसके शासन को राजनीतिक अतिक्रमण समझते थे और सब किशोर सिंह को गद्दी पर बैठाने के पक्षधर थे। इसलिये सब हाड़ा सरदार महाराव के पक्ष में लड़ने के लिये उनके झण्डे के नीचे एकत्र होने लगे। उधर जालिम सिंह ने कम्पनी से सैनिक सहायता प्राप्त कर ली। मांगरोल के पास दोनों सेनाएँ आमने-सामने आ गयी। लड़ाई आरम्भ होने से पहले पॉलिटिकलएजेन्ट और एक अंग्रेज अफसर दरबार को समझाने के लिये उनके डेरे पर गये, परन्तु महाराव किशोर सिंह ने इस बात को नहीं माना और पुनः 1818 ई. में कर्नल टॉड को भेजी गयी शर्तों को दोहराया, जिसमें जालिम सिंह के फौजदार बने रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी। माधोसिंह को जागीर देकर कोटा से दूर रखने, ब्रिटिश सरकार को या अन्य रियासतों को पत्र दरबार की सम्मति से भेजे जाने, सेना दरबार के अधिकार में रहने की बात कही गयी थी। उपरोक्त शर्तों को मानने के लिये पोलिटिकल एजेन्ट तैयार नहीं हुआ। कम्पनी सरकार अपनी गुप्त सन्धि के अनुकूल जालिम सिंह को वास्तविक और महाराव को नामधारी शासन बनाने पर तुली हुई थी। अन्त में 1 अक्टूबर 1821 ई. में लड़ाई शुरू हो गयी।116 युद्ध में महाराव किशोर सिंह की हार हुई। महाराव किशोर सिंह पार्वती नदी को पार करके बड़ौद पहुँचे। यहाँ पर उन्होंने अपने वीर हाड़ा भाइयों से विदा ली और स्वयं नाथद्वार की ओर रवाना हुये। वहाँ उनसे मिलने के लिये उदयपुर नरेश महाराव भीमसिंह आये। महाराणा भीमसिंह की कोटा राजपरिवार से रिश्तेदारियाँ थीं। महाराणा भीमसिंह ने कम्पनी सरकार और महाराव किशोर सिंह में समझौता कराने के लिये मध्यस्थ की हैसियत से पत्र व्यवहार किया। 1822 ई. को नाथद्वारा में महाराव किशोर सिंह और कुंवर माधोसिंह और कम्पनी के प्रतिनिधि कर्नल टॉड के बीच एक सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुकूल निम्नलिखित शर्तें तय हुई-

कुँवर माधोसिंह झाला कोटा का फौजदार रहेगा और राज्य शासन उसके हाथ में रहेगा। पुण्य ईनाम, त्योहार और सैनिक जुलूसों का प्रबन्ध कोटा नरेश के सुपुर्द होगा। छत्र, चवर आदि राजचिह्न किले में रहेंगे, वहीं नक्कारखाना रहेगा। सवारी में राज्य का सम्पूर्ण लवाजमा दरबार के साथ रहेगा। इनाम जो वितरण किया जावेगा वह कोटा नरेश की तरफ से होगा। नगर के भीतर के व बाहर के सब राजमहलों पर कोटा नरेश का अधिकार होगा और उनकी रक्षा तथा मरम्मत के लिये पर्याप्त रुपये दिये जावेंगे। महाराजा पृथ्वीसिंह के पुत्र रामसिंह के निर्वाह के लिये उचित प्रबन्ध होगा और विष्णुसिंह जिन पर दरबार का विश्वास नहीं है वह अणता में रहेंगे। महाराव किशोर सिंह के व्यक्तिगत और अन्तपुर के खर्च के लिये उतना रुपया निश्चित किया जावेगा, जितना महाराणा उदयपुर खर्च करते हैं।117

जब महाराव किशोर सिंह 1821 ईस्वी में कोटा पहुँचे तो पॉलिटिकल एजेन्ट और जालिम सिंह ने उनका स्वागत किया और पुनः कोटा राज्य का शासन पूर्ववत होने लगा। महाराव किशोर सिंह के वापिस आने के बाद जालिम सिंह भी अधिक अर्से तक जीवित नहीं रहे और 1823 ई. में जालिम सिंह का देहान्त हो गया और उनका बेटा माधवसिंह रियासत का काम करता रहा। महाराव किशोर सिंह भी अधिक दिन तक राजसुख नहीं भोग सके। आषाढ़ शुक्ला अष्टमी 1827 ई. के दिन उनका देहान्त हो गया।

महाराव रामसिंह (1827-1865 ई.)


जब महाराव किशोर सिंह की मृत्यु हो गयी तो गद्दी पर बैठने का हक उनके दूसरे भाई अणता के जागीरदार महाराज विष्णुसिंह का था लेकिन महाराव किशोर सिंह, जालिम सिंह की अदावत के कारण कोटा से निकले तो विष्णुसिंह जालिम सिंह झाला के साथ रहा और तीसरा भाई पृथ्वीसिंह महाराज के साथ रहकर मांगरोल की लड़ाई में मारा गया था। इससे किशोर सिंह ने उसके बेटे रामसिंह को वलीअहद बनाया। 1827 ई. को रामसिंह का राज्याभिषेक हो गया। गुप्त सन्धि के अनुकूल शासन शक्ति झाला माधोसिंह के हाथ में ही रही।118 सन 1831 ई. में महाराव रामसिंह, झाला माधोसिंह तथा कोटरियात के सरदारों के साथ अजमेर में लार्ड बेंटिक की मुलाकात को गये जहाँ पर झाला माधोसिंह को चँवर प्रदान किये गये। गवर्नर जनरल से कोटा नरेश की यह प्रथम भेंट थी। ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद गवर्नल जनरल ने राजपूताने का यह पहला दौरा किया था। माधोसिंह झाला का 1833 ई. में देहान्त हो गया तो उसका बेटा मदनसिंह झाला ने स्वतः ही फौजदार बनकर अपने स्वर्गीय पिता की शक्ति और सम्पत्ति ग्रहण कर ली। मदनसिंह स्वभाव से ही उदण्ड, असहनशील, स्वतन्त्र प्रवृत्ति वाला था, इसलिये वह रामसिंह की आज्ञाओं की अवहेलना करने लगा। उसने स्वयं ही सब राजसी चिह्न धारण कर लिया। तोपों की सलामी लेना शुरू कर दिया। सब आज्ञा पत्रों पर उसका नाम नरेश की भाँति लिखा जाने लगा। इस कारण से मदनसिंह से महाराव का विरोध बढ़ने लगा। आखिरकार 1838 ई. में मि. लेडलो जो कोटा में कम्पनी का पॉलिटिकल एजेन्ट था, ने गवर्नर जनरल से विचार-विमर्श कर बारह लाख रुपये सालाना आमदनी के सत्रह परगने चेचट, सुकेत, आवर, डग, गंगराड़, झालरापाटन, रीछबा, बकानी, दहलनपुर, कोटड़ा, भालता, सरड़ा, रटलाई, मनोहरथाना, फूलबड़ौद, चाचोरनी, गुंजारी, छींपा, बड़ौद और शाहबाद मदनसिंह को देकर एक पृथक राज्य झालावाड़ स्थापित कर दिया। कोटा में एक फौज कम्पनी की ‘‘कोटा कन्टिजेन्ट” के नाम से महाराव के खर्च पर रखी गयी। इस प्रकार राज्य के टुकड़े हो जाने से रामसिंह का स्वतन्त्र शासन हो गया और निर्विघ्न राज्य करने लगे, परन्तु उनको घोर साम्पतिक संकट का सामना करना पड़ा। राज्य की आमदनी एकदम घट गयी। जो इलाके मदनसिंह को दिये गये थे, उनके अधिकांश राज्य कर्मचारी तो झालावाड़ के मातहत बन गये, परन्तु जो लोग कोटा आ गये, उनकी परवरिश का प्रश्न महाराव रामसिंह को हल करना पड़ा। ऐसे जागीरदारों को महाराव रामसिंह ने अपने राज्य में जागीर दी।

1857 ई. में अंग्रेजी राज्य से असन्तुष्ट छोटे-छोटे जागीरदारों तथा सैनिकों ने विद्रोह कर दिया तब कोटा कन्टिजेन्सी में भी विद्रोह हो गया। महाराव की सेना ने विद्रोह को दबाना चाहा परन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। बागियों ने मेजर बर्टन का बंगला घेर कर मेजर बर्टन व उसके दो पुत्रों की हत्या कर दी और महाराव रामसिंह के दुर्ग पर भी अधिकार करने की कोशिश की। सैकड़ों राजपूत सैनिक पूरे राज्य से चम्बल नदी से नावों में बैठकर किले में आये। करौली व अंग्रेज सेना भी कोटा पहुँची और बागियों को मार भगाया। कोटा नगर पर जनरल रॉबर्ट्स का अधिकार हो गया। इस विद्रोह के दब जाने के बाद रामसिंह जी ने कोटा की सेना, प्रशासन और राज्य का पुनर्गठन किया, शासन में अनेक सुधार व परिर्वतनों को पार करते हुए आधुनिक शासन शैली का सूत्रपात करके 1865 ई. में उन्होंने अपना, शरीर त्याग दिया। इससे आगे का इतिहास अंग्रेजों के संरक्षण में कोटा राज्य के महाराव शत्रुसाल एवं महाराव उम्मेदसिंह के शान्तिपूर्वक शासन करने का इतिहास है। 1947 ई. में देश स्वतन्त्र हो गया। 30 मार्च 1949 को सरदार पटेल ने वृहत राजस्थान का विधिवत उद्घाटन किया, तब कोटा जिला अस्तित्व में आया।

झालावाड़ का इतिहास


झालावाड़ प्राचीन मालवा प्रदेश का हिस्सा है। ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व मालव जाति उत्तर-पश्चिमी भारत में रहा करती थी। जब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया तो पश्चिमी भारत के छोटे-छोटे जनपदों को अपना मूल स्थान छोड़कर दक्षिण पूर्व की ओर जाना पड़ा। मालवा जाति भी अपना पुराना स्थान छोड़कर उस क्षेत्र में आ गई जिसे बाद में मालवा के नाम से जाना गया। वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ और वेद व्यास रचित महाभारत में भी मालव जाति का उल्लेख आया है। ‘विष्णु पुराण’ के अनुसार मालव का मूल निवास स्थान पूर्वी विंध्याचल की परियात्रा पहाड़ियों में था।

छठी शताब्दी में रचित ‘वृहतसंहिता’ में जिस भू भाग के लिये मालवा प्रदेश कहा गया है वह आज के मालवा का भू भाग नहीं है। वह अवन्तिका व उज्जैयनी के लिये प्रयुक्त हुआ है। सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया। उसने मालवा तथा उज्जैन को अलग-अलग क्षेत्रों में वर्णित किया है। उसने मालवा को उज्जैन के पश्चिम में बताया है। संभवत उस समय मालवा क्षेत्र गुजरात की सीमा में था। मालवों की एक शाखा ने नगर नामक क्षेत्र पर अपना अधिकार किया जो वर्तमान कोटा नगर से 72 किमी उत्तर में थी। यहाँ से मालवों के सिक्के बड़ी संख्या में मिले हैं, ये सिक्के ईसा की चौथी शताब्दी तक के हैं। पौराणिक सनदर्भों के अनुसार मालव जाति ने अपने मुखिया के नेतृत्व में एक अल्प तन्त्र प्रकार की सरकार बना रखी थी, यूनानी लेखकों के अनुसार मालवों ने रावी नदी के दोनों किनारों पर अपना निवास बनाया। पाणिनी के शिष्य अपिसाली ने “क्षुद्रक मालवा’’ संयुक्त जनपद का उल्लेख किया है। डॉ. स्मिथ ने ‘‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’’ में दर्शाया है कि कुरुक्षेत्र युद्ध में मालवों ने कौरवों की तरफ से लड़ाई लड़ी थी। बाद के काल खण्ड में मालव राजपूताना, अवन्ति तथा माही नदी घाटी के आस-पास पाये जाते थे। सिकन्दर को भारत आक्रमण के समय क्षुद्रकों तथा मालवों से यु़द्ध करना पड़ा था। ये दोनों ही जातियाँ युद्धजीवी थी। सिकन्दर को भारत में पैर रखते ही मल्लोई जाति से प्रथम साक्षात्कार करना पड़ा था। मल्लोई की मित्रता सिवोई गणराज्य से थी। उस समय मालवों के नगर चेनाब और उनकी राजधानी पंजाब में रावी नदी के तट पर थी। मल्लोई की राजधानी के एक युद्ध में सिकन्दर बुरी तरह घायल हो गया और मृत्यु के काफी नजदीक पहुँच गया। उस समय मालवों की सेना में एक लाखयोद्धा थे।119 मालव शिवि तथा अन्य जनपदों ने सिकन्दर के पास अपने राजदूत भेज। मालवों के राजदूत ने सिकन्दर से कहा कि ‘‘वह दूसरों से ज्यादा स्वतन्त्रता व स्वायत्तता चाहते हैं और मालव जाति उसी दिन से स्वतन्त्र हैं, जिस दिन से भगवान ने उनका निर्माण किया’’। सिकन्दर के लौट जाने के बाद मालव भटिण्डा होते हुए कर्कोट नगर की तरफ बढ़े। स्वतन्त्रता बनाये रखने के आश्वासन पर मालव अपने निवास पंजाब को छोड़कर मालवा व राजपूताना में चले गये।

कर्कोटनगर (टोंक) से प्राप्त ब्राह्मी लिपि के जो सिक्के मिले हैं जिन पर ‘मालवा नाम जय ‘मालवा जय’ और ‘मालवा गणस्य’ लिखा हुआ है। ईसा से 57 वर्ष पूर्व मालवों को एक युद्ध में बड़ी भारी विजय मिली। इसी विजय की स्मृति में ये सिक्के ढाले गये तथा अलग से एक संवत स्थापित किया गया, जिसे विक्रम संवत कहा गया। इससे 800 वर्ष पहले से मालव संवत चला करता था। मालवों में प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य हुए जिन्होंने मालवा के साथ उज्जैन में भी शासन किया। सन 119 ई. में शकों के राजा नहपान ने मालवों को परास्त कर दिया। बाद में गौतमीपुत्र सातकर्णी के हाथों नहपान मारा गया। अतः मालव पुनः स्वतन्त्र हो गये। कुछ ही समय बाद रुद्रमन प्रथम ने पुरा मारवाड़ गुजरात, मालवा, सिन्ध और कठियावाड़ जीत लिया। रुद्रमन की मृत्यु के बाद 225 ई. सन के आस-पास मालवों ने अपनी स्वतन्त्रता को एक बार फिर से प्राप्त किया। मालवों के नेता श्री सोम ने स्वतन्त्रता की घोषणा का सूचक षष्ठी यज्ञ किया। तीसरी शती में मालवों ने और प्रगति की तथा मेवाड़ का सारा क्षेत्र मालवों के अधीन आ गया परन्तु चौथी शताब्दी के आते-आते मालव राज्य को शासन समुद्र गुप्त की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी, किन्तु इससे उनकी स्वतन्त्रता नष्ट नहीं हुई। दूसरी सदी से सातवीं शताब्दी के बीच के काल खण्ड में उत्तरी भारत में क्षत्रिय, गुप्त तथा हर्षवर्धन ने अपनी सर्वोच्च सत्ता कायम की। मालव लोग इन बड़ी सत्ताओं के अधीन रहकर किसी न किसी तरह अपना आस्तित्व तथा स्वन्त्रता बनाये रखने में सफल रहे।

गंगधार से विक्रम संवत 480 (423ई.) में नरवर्मन के पुत्र विश्वर्मन के समय का एक शिलालेख मिला है जिसमें कहा गया है कि नरवर्मन के मन्त्री मयूराक्षक ने यहाँ एक मन्दिर बनवाया। उसी ने गारगृट नामक नगर बसाया जो अब गंगधार कहा जाता है। वि.सं. 795 (738 ई.) का एक शिलालेख कोटा नगर से 4 किलोमीटर दूर स्थित एक शिवमन्दिर से प्राप्त हुआ है। इसमें यह कहा गया है कि यह पूरा क्षेत्र मौर्य राजा धवल के अधीन था। उसने यह क्षेत्र अपने मित्र शिवगण को प्रदान किया। 689 ई. के चन्द्रावती अभिलेख के अनुसार यह क्षेत्र दुर्गण के अधीन था और इस क्षेत्र में वोपक ने एक मन्दिर बनवाया। वि.सं. 770 (713 ई.) का एक लेख चित्तौड़ स्थित मानसरोवर तालाब के किनारे मिला है उसमें कहा गया है कि इसके आस-पास का सारा क्षेत्र मौर्य राजा ‘मान’ के अधीन था। आठवीं शताब्दी के बाद मौर्य राजा उज्जैन के अधीन हो गये और वे उनके अधीन रहकर छोटे-छोटे राज्यों के जागीरदार बने रहे। इन मौर्य राजाओं ने बौद्ध धर्म को खूब बढावा दिया। कोलवी, विनायगा, हाथी गौड़ तथा गुनाई में मिली पाँच दर्जन से भी अधिक बौद्ध गुफाएँ इस बात का पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करती हैं कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म को प्रश्रय मिला और उसका कुछ विस्तार भी हुआ। उज्जैन के हिन्दू राजाओं ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया जिनके कारण बौद्ध यहाँ से पलायन कर गये तथा जनता पुनः वैष्णव बन गई। आठवीं शताब्दी और उसके बाद के अनेक शिव मन्दिर चन्द्रावती में प्राप्त हुए हैं। कुछ बौद्धों को हिन्दू धर्म में लेकर क्षत्रियों का दर्जा दिया गया जो आगे चलकर राजपूतों में विलीन हो गये। दसवीं शताब्दी के आस-पास इस क्षेत्र में राजपूतों का उत्कर्ष हुआ और झालावाड़ क्षेत्र परमारों के अधीन चला गया। झालरापाटन से प्राप्त विक्रम सम्वत 1199 (1142 ई.) के शिलालेख में परमार राजा नरवर्मनदेव, यशोवर्मदेव तथा आठ मन्त्रियों के नाम दिये गये हैं। 1235 ई. में अल्तमश ने उज्जैन जीत लिया तब से झालावाड़ भी मुसलमानों के अधीन चला गया और 1401 ई. तक दिल्ली के अधीन रहा। 1401 ई. से 1531 ई. तक दिलावर खाँ दिल्ली का स्वतंत्र शासक बन गया और झालावाड़ दिल्ली के हाथों से निकल गया। इसके बाद यह गुजरात, मालवा तथा माण्डू के अधीन रहे। माण्डू के सुल्तान मुहम्मद खिलजी तथा बाज बहादुर भी इसके शासक रहे। 1562 ई. में कोटा के राव सुर्जन हाडा ने केसर खाँ तथा डोकर खाँ को परास्त करके इस क्षेत्र को कोटा राज्य में शामिल कर लिया।

मुगल इतिहासकार अबुल फजल के अनुसार मुगलशासन काल में झालावाड़ मालवा सूबे के अन्तर्गत ही रहा। 1420 ई. में माण्डू के सुल्तान ने राघवदेव झाला को मालवा के सुल्तान होसंग की तरफ से गुजरात के सुल्तान अहमदशाह से मोर्चा लेने के उपलक्ष्य में झालावाड़ का परगना जागीर में दिया। गंगधार के बाहर दलसागर तालाब के किनारे पर एक 1658 ई. का शिलालेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि राघवदेव के वंशज नरहरदास को जहाँगीर ने अनेक परगने प्रदान किये और नरहरदास ने गंगधार को अपनी राजधानी बनाया। नरहरदास का वंशज दयालदास धर्मत की लड़ाई में 105 राजपूतों सहित मारा गया। दयालदास का स्मारक 1699 ई. में प्रतापसिंह ने बनवाया, जो आज भी सुरक्षित है। झालावाड़ का डग कस्बा पूर्व में राठौड़ राजकुमार जसवंतसिंह के अधिकार में था। उसके पुत्र मानसिंह ने काफी कीर्ति अर्जित की। मानसिंह के पुत्र कल्याणसिंह ने 1611 ई. में कल्याण सागर तालाब बनवाया। 1665 ई. में मुगल गर्वनर होंशदार खाँ ने डग जीत लिया उसके पुत्र हिदायत खाँ ने 1685 ई. में डग का नाम बदल कर हिदायत नगर रख दिया। 1715 ई. में यह क्षेत्र मल्हार राव पवार के अधीन चला गया। 1728 ई. में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने यह क्षेत्र अपने अधिकार क्षेत्र में लेकर मिश्रीमल को यहाँ का हाकिम नियुक्त किया। 1736 ई. में यह क्षेत्र पुनः पवारों के हाथ में चला गया तथा पवार आनन्द राव यहाँ का राजा बना। उसके मन्त्री अवघूत राव ने केशवराय का मन्दिर बनवाया। 1801 ई. में यह पूरा क्षेत्र माधवराव उम्मेदसिंह के अधीन आ गया। उस समय कोटा की वास्तविक सत्ता जालिम सिंह के पास थी। जालिम सिंह ने अनेक पड़ोसी राज्यों से परगने पट्टें पर प्राप्त किये और आय व प्रतिष्ठा बढ़ाई। उसने कई पुराने नगरों की दशा सुधारी तथा नये नगर स्थापित किये। झालरापाटन शहर की सुन्दरता का सारा श्रेय जालिम सिंह को जाता है। यह नगर उस समय भारत के सुन्दरतम नगरों में गिना जाता था। 1791 ई. में उसने झालावाड़ नगर बसाया। 1824 ई. में जालिम सिंह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र माधोसिंह उसका उत्तराधिकारी बना। इसी बीच कोटा महाराव उम्मेद सिंह की भी 1821 ई. में मृत्यु हो गई। उम्मेदसिंह की मृत्यु के बाद रामसिंह कोटा के राजा बने। 1834 ई. में कोटा नरेश रामसिंह व जालिम सिंह के पौत्र मदनसिंह के बीच झगड़ा हुआ। अंग्रजों ने कोटा नरेश से बातचीत करके कोटा राज्य में से जालिम सिंह के शासनाधिकार वाले क्षेत्रों को निकाल कर एक स्वतंत्र राज्य झालावाड़ की स्थापना कर दी। इस नये राज्य में 17 परगने थे, जिनकी वार्षिक आय 12 लाख रुपये थी। मदनसिंह को इस राज्य का प्रथम शासक नियुक्त किया गया। 8 अप्रैल 1838 को झालावाड़ नरेश मदनसिंह तथा अंग्रेज सरकार के बीच एक सन्धि हुई जिसके अनुसार मदनसिंह की राजराणा की उपाधि स्वीकार की गई। उसका दर्जा राजपूताना के दूसरे राजाओं के समान माना गया। उसके वंशजों को ही झालावाड़ राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी माना गया। इस सबके बदले में मदनसिंह ने अंग्रेजों को अपना राज्य का संरक्षक माना तथा उनसे बिना पूछे किसी राज्यों से शत्रुता अथवा मित्रता न करने का वचन दिया। झालावाड़ राज्य द्वारा अंग्रेजों को सालाना 80 हजार रुपये कर तथा आवश्यकता पड़ने पर सैन्य सहायता भी देने का वचन दिया गया। 1845 ई. में मदनसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पृथ्वीसिंह झालावाड़ की गद्दी पर बैठा।

1857 ई. के विद्रोह में पृथ्वी सिंह ने अंग्रेजों की मदद की तथा उनके शरणागत अंग्रेजों की जान बचाई। जिसके पुरस्कार स्वरूप 1862 ई. में पृथ्वीसिंह को उत्तराधिकारी गोद लेने का अधिकार दिया गया। पृथ्वीसिंह के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसने अपना उत्तराधिकारी गोद लेना चाहा। इस पर कोटा नरेश ने आपत्ति उठाई कि मदनसिंह के वंशजों में से किसी के भी पुत्र नहीं होने पर झालावाड़ राज्य पुनः कोटा को लौटाया जाना चाहिए, किन्तु अंग्रेजों ने कोटा नरेश को यह कह कर शान्त कर दिया कि झालावाड़ का राजा राजस्थान के दूसरे राजाओं के समान ही संप्रभुता रखता है। अतः कोटा राज्य का झालावाड़ राज्य पर कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार 1873 ई. में पृथ्वीसिंह ने काठियावाड़ के बड़वान से बखतसिंह नामक बालक को गोद लिया जो उसी परिवार से था जिस परिवार से पृथ्वीसिंह के पूर्वज काठिवाड़ से चलकर राजस्थान आये थे। 29 अगस्त 1875 को महाराज राणा पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गई। राणा पृथ्वीसिंह की रानी के गर्भवती होने के कारण उत्तराधिकार कुछ समय के लिये अनिश्चित रहा, परन्तु जून 1876 तक रानी के कोई बालक पैदा नहीं होने पर 24 जून 1876 को बख्तसिंह जालिम सिंह (द्वितीय) के नाम से झालावाड़ राज्य का राजा बना। अंग्रेजों ने भी उसे झालावाड़ राज्य का राजा स्वीकार कर लिया। 1881 ई. में अंग्रेजों ने झालावाड़ राज्य से नमक की सन्धि की। इसके अनुसार झालावाड़ राज्य न तो स्वयं नमक बना सकता था और न किसी अन्य राज्य से नमक मंगा सकता था। पूरे राज्य में केवल ब्रिटिश कम्पनियों का ही नमक प्रयोग में लाया जा सकता था। इसके बदले में अंग्रेज सरकार झालावाड़ के राजा को 7000 रुपये तथा प्रत्येक जागीरदार को 250 रुपये महिना चुकाने लगी। नवम्बर 1883 ई. में बख्तसिंह के वयस्क होने पर 21 फरवरी 1884 ई. को राज्य के सारे अधिकार उसे सौंप दिये परन्तु यह शर्त रखी गई की कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय करने से पहले महाराजा के लिये पॉलिटिक्ल एजेंट की सहमति प्राप्त करना तथा कोई भी प्रशासनिक बदलाव लाने के लिये पूरी तरह एजेंट पर निर्भर रहना आवश्यक था। जालिम सिंह ने उस समय तो ये बातें स्वीकार कर ली, परन्तु अंग्रेजी एजेन्ट द्वारा राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करना उसे पसंद नहीं आया और शीघ्र ही उसका अंग्रेजों से झगड़ा हो गया। तब सितम्बर 1887 से उसके नाबालिक रहते समय की गई व्यवस्था पुनः लागू कर दी जिसके तहत पॉलिटिक्ल एजेन्ट एक काउंसिल के माध्यम से सरकारी कामकाज चलाता था। यह व्यवस्था 1892 ई. तक चालू रही। जालिम सिंह ने अंग्रेजों से पुनः वायदा किया कि वह अंग्रेजों की इच्छानुसार ही शासन करेगा। इस पर अंग्रेजों ने 1894 ई. में राज्य के सारे अधिकार उसे सौंप दिये परन्तु स्वाभिमानी जालिम सिंह अधिक समय तक अंग्रेजों को खुश नहीं रख सका। अन्त में 22 मार्च 1896 को जालिम सिंह को राजा के पद से हटा दिया।

अंग्रेजों ने 1838 की सन्धि को पुनर्स्थापित किया जिसके तहत जालिम सिंह प्रथम के वंशज राजा की सन्तान को ही झालावाड़ का उत्तराधिकारी माना गया था। अतः इस सन्धि की आड़ में शाहाबाद, खानपुर, अकलेरा तथा मनोहरथाना आदि सारे क्षेत्रों को मिलाकर एक नया राज्य बनाया गया तथा जालिम सिंह प्रथम की सेवाओं का आदर करने का बहाना लेकर उसके परिवार के भरण-पोषण के लिये फतहपुर के ठाकुर छत्रशाल के पुत्र कुंवर भवानीसिंह को इस नये राज्य का राजा बनाया गया। इस प्रकार जनवरी 1899 को परगनों का स्थानान्तरण हो गया तथा झालावाड़ का नवीन किन्तु खण्डित राज्य अस्तित्व में आया। 6 फरवरी 1899 को भवानीसिंह नये झालावाड़ राज्य का राजा बना तथा उसे राज चलाने की पूरी शक्तियाँ दी गई। भवानीसिंह को अपना उत्तराधिकारी गोद लेने के अधिकार भी दिये गये तथा राज्य द्वारा 30 हजार रुपया वार्षिक शुल्क ब्रिटिश सरकार को दिया जाना निश्चित हुआ। इस राज्य में देशी सिक्कों का प्रचलन बन्द कर दिया गया तथा सिक्के एवं कानून अंग्रेजों द्वारा बनाये गये ही चल सकते थे। नमक नीति वही पुरानी वाली रखी गयी किन्तु इसके बदले राज राणा के 7000 रुपया के स्थान पर 2500 रुपया वार्षिक ही देना तय हुआ। अक्टूबर 1900 में झालावाड़ राज्य में ब्रिटिश पोस्टल पद्धति लागू की गई। भवानी सिंह ने राज्य के आधुनिकीकरण में कई कार्य करवाये।

झालावाड़ में उसने नगरपालिका की स्थापना की। कई स्कूल चालू कर निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की। महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये उसने राजकोष से महिलाओं को साड़ियाँ देना प्रारम्भ किया। 1904 में दरबार ने नागदा-मथुरा रेल के निर्माण और कार्य के लिये बिना शुल्क भूमि हेतु सहमति दी। राज्य के पिछड़े लोगों के कल्याण के लिये कई काम करवाये। उसने कोटा राज्य को लौटाये गये परगने प्राप्त करने के सारे प्रयास किये किन्तु वह असफल रहा और 1929 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुआ। भवानीसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजेन्द्र सिंह झालावाड़ राज्य का महाराज राणा बना। वह एक पढ़ा लिखा युवक व कवि था। हरिजनों के कल्याण के लिये उसने बहुत काम किया। उसके शासन काल में पुलिस व सेना की व्यवस्था में परिवर्तन किया गया। हाइकोर्ट का निर्माण करवाया गया तथा झालावाड़ और झालरापाटन में बिजली लगवायी गई। सड़कों व सिंचाई व्यवस्था में सुधार किया गया। छोटी कालीसिन्ध नदी पर गंगधार के पास पुल बनवाया गया। सितम्बर 1943 में राजेन्द्र सिंह की मृत्यु हो गयी तथा उसका पुत्र हरिशचन्द्र झालावाड़ की गद्दी पर बैठा। उसके शासन काल में लोकप्रिय सरकार का गठन हुआ। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कोटा, बूँदी, टोंक, शाहपुरा, डूंगरपूर, बासवाडा, प्रतापगढ, किशनगढ़ तथा कुशलगढ़ नामक 10 रियासतों ने मिलकर एक संघ बनाने की घोषणा की। इस संघ का राजप्रमुख कोटा नरेश को तथा प्रधानमंत्री गोकुलनाथ असावा को बनाया गया। 25 मार्च 1948 को केन्द्रीय मन्त्री एनवी गाडगिल ने इस संघ का उद्घाटन किया। बाद में इस संघ का विलय राजस्थान में हो गया। केन्द्र सरकार ने इस नये प्रान्त में जिलों के निर्माण के लिये एक कमेटी गठित की। इस कमेटी ने कोटा नामक संभाग का निर्माण करके उसमें कोटा, बांरा, सिरौंज, झालावाड़, बूँदी तथा टोंक नामक जिले उसके अधीन रखे। झालावाड़ जिले में गंगधार, डग, पचपहाड़, झालरापाटन, असनावर, बाकानी, अकलेरा, मनोहरथाना, पिड़ावा तथा झालावाड़ तहसीलों को रखा गया। अक्टूबर 1949 ई. में इस जिले में बांरा परगने की खानपुर तहसील को भी शामिल किया गया। 1956 ई. में मध्य भारत की सुनेल नामक तहसील को भी झालावाड़ जिले में स्थानान्तरित कर दिया गया। वर्तमान झालावाड़ जिला आजादी के पहले के झालावाड़ राज्य से 6 गुना बड़ा है किन्तु 1938 ई. के झालावाड़ राज्य से अब भी छोटा है।

बारां का इतिहास


रियासती काल में बारां, कोटा राज्य में एक निजामत था। वर्तमान बारां जिले का सम्पूर्ण भाग कोटा राज्य के अन्तर्गत ही आता था। जब 1947 ई. में देश आजाद हुआ तब 25 मार्च 1948 को कोटा, बूँदी, झालावाड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, किशनगढ़, टोंक और शाहपुरा रियासतों को मिलाकर राजस्थान संघ का निर्माण किया गया। 1949 ई. में जिलों का निर्माण किया गया जब कोटा, टोंक तथा झालावाड़ राज्य के कुछ हिस्सों को मिलाकर कोटा जिले का निर्माण किया गया। उस समय बारां गाँव अटक तहसील में आता था। 1961 ई. में बारां को अटक तहसील से बारां तहसील में स्थानान्तरित किया गया तथा कोटा, बारां, छबड़ा तथा चेचट (खैराबाद) नामक चार उपखण्ड गठित किये गये। इन चारों उपखण्डों में उस समय 17 तहसीलें-इटावा, पीपलदा, बड़ोद, मांगरोल, डिगोद, अन्ता, बारां, किशनगंज, शाहबाद, लाडपुरा, चेचट, रामगंज मण्डी, कनवास, सांगोद, अटरू, छीपा बड़ोद तथा छबड़ा नामक 17 तहसीलें गठित की गई। 1975 ई. में जिले के राजस्व प्रशासन का पुनर्गठन किया गया और लाडपुरा, बारां, रामगंज मण्डी और छबड़ा नामक चार उपखण्ड बनाये गये। इन उपखण्डों में पीपलदा, डिगोद, लाडपुरा, मांगरोल, बारां, किशनगंज, शाहाबाद, रामगंजमण्डी, सांगोद, अटरू, छीपा बड़ोद तथा छबड़ा नामक 12 तहसीलें गठित की गई। 1991 ई. में जिले का पुनः पुनर्गठन किया गया तथा इसे कोटा और बारां नामक दो जिलों में विभक्त कर दिया गया। 10 अप्रैल 1991 से बारां नामक जिला अस्तित्व में आया।

इस जिले में कोटा राज्य की बारां, किशनगंज, शाहाबाद, मांगरोल तथा आन्ता नामक निजामतें शामिल की गई। इस नये जिले में बारां, अटरू, किशनगढ़, शाहबाद तथा छबड़ा में उपखण्ड मुख्यालय और बारां, मांगरोल, शाहबाद, किशनगंज, छबड़ा, अटरू, अन्ता तथा छीपा बड़ोद नामक 8 तहसीलें गठित की गईं।120

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72. जगदीश सिंह गहलोत- उपरोक्त, पृ.सं. 79
73. पीताम्बरदत्त शर्मा-बूँदी राज्य के ऐतिहासिक स्थल, पृ.सं.25, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 2008
74. पंडित गंगा सहाय - उपरोक्त, पृ.सं. 89
75. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 7, पृ.सं. 3371
76. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त, पृ.सं. 84
77. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ.सं. 27
78. पं. गंगासहाय-वंश प्रकाश, पृ.सं. 116
79. एचिसन- ट्रीट्रीज, जिल्द-3, पृ.सं. 219 उद्रत जगदीश सिंह गहलोत, उपरोक्त पृ.स.-103
80. पीताम्बर दत्त शर्मा- उपरोक्त, पृ.स 30,
81. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त पृ.सं. 106
82. डॉ. मोहनलाल गुप्ता-कोटा सम्भाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन, पृ.सं. 9 राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 2009
83. पं. जगतनारायण - उपरोक्त, भाग 1, पृ.सं. 59
84. रामकरण आसोपा, उपरोक्त, भाग 5, पृ.सं. 2499
85. खर्जूरी, अरण्डखेटक, केथोनी रुपये आवा कनवास मधुकरगढ़, दिग्धोद रहलमिलि अष्टक यह ग्रामक सहआस।। वंश भास्कर।। 2543
86. माधोसिंह पिसरे रावरतन रा ब इजाफा पान्सदी जात व पान्सद सवार व मन्सब दो हजार व पान्सदी हजार व पान्सदी सवार बरनावाख्ता परगना कोटा व पलायता रा दर जागीर ओ मुकर्रर गर्दानीदन्द-बादशाहनामा। अब्दुल हमीद लाहौरी- बादशाहनामा, पहली जिल्द पृ.सं. 401
87. पं. जगतनारायण - उपरोक्त, भाग 1, पृ.सं. 66
88. अब्दुल हमीद-बादशाहनामा, जिल्द 2, पृ.सं. 423, उद्रत कोटा राज्य का इतिहास, भाग 1, पृ.सं. 71
89. अब्दुल हमीद-बादशाहनामा, जिल्द 2, पृ.सं. 641
90. कविवर श्यामदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1410
91. पं. जगतनारायण - उपरोक्त,भाग-1, पृ.सं. 93
92. मोहम्मद सालेह काम्बोह-अमर ए सालेह, जिल्द 3, पृ.स. 286, 287, उद्रत प. जगतनारायण, भाग 1, पृ.स. 97
93. कविवर श्यामदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1410
94. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग-1, पृ.स. 92
95. उपरोक्त, भाग-1, पृ.सं. 100-101
96. रामकरण आसोपा, भाग 5, पृ.स. 2338, वीर विनोद, भाग 3, पृ.सं. 1411
97. मिर्जा निज़ाम मुहम्मद - काज़मी-आलमगीरनामा, पृ.सं. 263, उद्रत प. जगतनारायण, भाग 1,पृ.स. 103
98. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 5, पृ.स. 2889, वीर विनोद भाग 3, पृ.सं. 1411
99. कर्नल जेम्स टॉड-उपरोक्त, भाग-2, जिल्द-4, पृ.सं. 866
100. मुंशी मूलचन्द-तवारीख राज्य कोटा हिस्सा अव्वल, भाग-1, पृ.स.122, उद्रत पं. जगतनारायण - कोटा राज्य का इतिहास, भाग 1, पृ.सं. 129
101. पं. जगतनारायण, उपरोक्त, पृ.स. 132
102. ईरविन-लेटर मुगल्स, जिल्द 1, पृ.सं. 34 प. जगतनारायण, भाग 1, पृ.स. 138
103. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 6, पृ.सं. 3040-43
104. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द-3, पृ.स. 555
105. श्यामरू दुर्जनसल्ल के, भो भूहित घमसान, अग्रज भ्याम ही मारी कै, भो नृप दुज्जनसाल।। वंश भास्कर।। 3094
106. डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा- उपरोक्त, भाग 3, पृ.स. 933
107. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग-2, पृ.स. 48
108. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.सं. 883
109. रामकरण आसोपा- उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 3817
110. कविवर श्यामलदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1420
111. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग 2, जिल्द 4, पृ.सं. 911-12
112. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 3912
113. पं. जगत नारायण- उपरोक्त, भाग-2, पृ.सं. 112
114. कर्नल जेम्स टॉड उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.स. 935-936
115. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 4024
116. कविवर श्यामलदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1424
117. कर्नल जेम्स टॉड-उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.स. 947
118. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग 2, पृ.सं. 127
119. डॉ. बी.एन.घौघियाल-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजेटियर झालावाड़, पृ.स. 21, 22, गवर्नमेन्टसेन्ट्रल प्रेस जयपुर 1964
120. डॉ. बी.एन. घौघियाल- राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजैटियर, बांरा, पृ.स. 42-46, गवर्नमेन्टसैन्ट्रल प्रेस, जयपुर, 1997

राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में जल विरासत - 12वीं सदी से 18वीं सदी तक


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