पूना पैक्ट pdf
पूना पैक्ट अथवा पूना समझौता महात्मा गांधी एंव डॉ भीमराव अम्बेडकर के मध्य पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल 26 सितम्बर, 1932 को हुआ था और अंग्रेज सरकार ने इस समझौते को सांप्रदायिक अधिनिर्णय(कॉम्युनल एवार्ड) में संशोधन के रूप में अनुमति प्रदान की।
समझौते में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को त्याग दिया गया लेकिन दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% कर दीं गयीं।
गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श के फल स्वरूप कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई। जिसके तहत बाबा साहेब द्वारा उठाई गयी राजनैतिक प्रतिनिधित्व की माँग को मानते हुए दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार मिला। एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुनेंगे तथा दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनेंगे। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था। दूसरे शब्दों में उम्मीदवार भी दलित वर्ग का तथा मतदाता भी केवल दलित वर्ग के ही।
दलित प्रतिनिधि को चुनने में गैर दलित वर्ग अर्थात सामान्य वर्ग का कोई दखल ना रहा। परन्तु दूसरो ओर दलित वर्ग अपनी दूसरी वोट के माध्यम से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने से अपनी भूमिका निभा सकता था। गाँधी इस समय पूना की यरवदा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही पहले तो उन्होंने प्रधानमत्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने का प्रयास किया, परंतु जब उन्होंने देखा के यह निर्णय बदला नहीं जा रहा, तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी।
डॉ. अंबेडकर ने बयान जारी किया कि यदि गांधी “भारत की स्वतंत्रता के लिए मरण व्रत रखते, तो वह न्यायोचित थे। परंतु यह एक पीड़ादायक आश्चर्य है कि गांधी ने केवल अछूत लोगो को ही अपने विरोध के लिए चुना है, जबकि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी (पृथक निर्वाचन के) अधिकार के बारे में गाँधी ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आगे कहा की महात्मा गांधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं। भारत में ऐसे अनेकों महात्मा आए और अनेको चले गए, जिनका लक्ष्य छुआछूत को समाप्त करना था, परंतु अछूत, अछूत ही रहे। उन्होंने कहा कि गाँधी के प्राण बचाने के लिए वे अछूतों के हितों की बलि नहीं दे सकते। गांधी के प्राणों पर भारी संकट आन पड़ा। पूरा हिंदू समाज डा. अंबेडकर का दुश्मन हुए जा रहा था। एक ओर डॉ. अंबेडकर से समझौते की वार्ताएं हो रहीं थी, तो दूसरी ओर डॉ. अंबेडकर को धमकियां दी जा रही थीं। अखबार गाँधी की मृत्यु पर देश में दंगो की भविष्यवाणियां कर रहे थे। एक और अकेले डा. आंबेडकर और अनपढ़, अचेतन और असंगठित दलित समाज, तो दूसरी ओर सारा सवर्ण हिंदू समाज। कस्तूरबा गांधी व उनके पुत्र देवदास बाबासाहब के पास जाए और प्रार्थना की कि गांधी के प्राण बचा ले। डा. अंबेडकर की हालत उस दीपक की भाँति थी, जो तूफान के सामने अकेला जूझ रहा था कि उसे जलते ही रहना है और उसे उपेक्षित वर्गो को प्रकाश प्रदान कर, उन्हें मंजिल तक पहुंचाना है।
24 सितम्बर 1932 को साय पांच बजे यरवदा जेल पूना में गाँधी और डा. अंबेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ। इस समझौते में डॉ. अंबेडकर को कम्युनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथा संयुक्त निर्वाचन (जैसा कि आजकल है) पद्धति को स्वीकार करना पडा, परन्तु साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया। पूना पैक्ट आरक्षण का जनक बना। इस समझौते (पूना पैक्ट) पर हस्ताक्षर करके बाबा साहब ने गांधी को जीवनदान दिया।
संविधान के निर्माता भारत के अंदर करोड़ों एससी एसटी ओबीसी की आवाज उठाने वाले दलित शोषित वंचित ओ के नायक डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर ने गांधीजी को जीवनदान नहीं दिया बल्कि उनके द्वारा उनके ही समाज की दलित बस्तियों को जलाने का घिनौना काम गांधी द्वारा किया गया जिससे डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी हताश हुए और उन्हें पूना पैक्ट समझौता करना पड़ा समाज के खातिर क्योंकि जिस समाज की लड़ाई डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर जी लड़ रहे थे यदि वह समाज ही नहीं रहेगा तो बाबा साहब अधिकारों को लेकर क्या करते हैं।।
Motivation quotes
मेरे विचार से गाँधी जी हिंदू विखराव से डरे हुए होने के कारण एक अच्छे कानून को स्वीकार नहीं कर पायें|शायद उन्हें अन्य धर्म के लोगों के सामने हिंदू समाज को कमजोर होते हुए देखा और उन्हें यह भी लगा कि दलितों की समस्या हमारी अपनी समस्या है जिसे हम खुद हल कर लेंगे, लेकिन उनकी यह सोच गलत थी क्योंकि मजबूत दलित से ही हिंदू मजबूत हो सकता था या है और यह भी सच्चाई है कि राजनीतिक मजबूती ही समाज को या वर्ग विशेष को मजबूत कर सकता हैं|अर्थात् हमें किसी का भाग्य विधाता नहीं बनना चाहिए और यहाँ पर गाँधी जी गलत थे उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था, लेकिन कोई भी व्यक्ति गलत या सही हो सकता हैं क्योंकि उसे उस समय गलत होने का अहसास नहीं होता है और जो दूसरे का भाग्य विधाता बन बैठता है उसे अहंकार हो जाता है और वह किसी दूसरे की नहीं सुनता है शायद दूसरे के प्रण की परीक्षा हो जो कोई अदृश्य शक्ति ले रही हो|
इस सब के बावजूद गाँधी जी के रास्ते सही थे उनके विरोध के तरीके मेरे विचार से एकदम सही कहे जा सकते हैं|
Nimnlikhit m se Kaun sa kathan puna pact 1932 ke sandarbh m sahi nahi hai(a) sarkari naukriyo m dalito ko partinidhitv (b) prantiy vidhanmandalo m dalit varg k lie sthano ka arakshan (c) kendriy vidhanmandalo m dalit varg k lie sthano ka arakshan (d) sanyukt nirvachak Mandal padhti ki svikriti
Dono me se kon shi kha ja sakta hai pure tarike se
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