हाकवि भर्तृहरि की कविताएं जितनी प्रसिद्ध हैं, उनका व्यक्तित्व उतना ही अज्ञात है, जनश्रुति के आधार पर वे महाराजा विक्रमादित्य के बड़े भ्राता थे। चीनी यात्री इत्सिंग ने भर्तृहरि नाम के लेखक की मृत्यु 654 ई0 में लिखी है, उन्होने यह भी लिखा है कि भर्तृहरि सन्यास जीवन के आनन्द तथा गृहस्थ जीवन के प्रमोद की रस्सियों से बने झूले में सात बार झूलते रहे। पाश्चात्य अन्वेषक भी इत्सिंग के कथन व जनश्रुति के आधार पर ही भर्तृहरि को, महाराजा विक्रमादित्य के बड़े भ्राता, राजा भर्तृहरि को ही मानते हैं।
श्रृंगार शतकम् में कवि ने श्रृंगार का चटकीला चित्रण किया है, इस शतक में कवि ने स्त्रियों के हाव-भाव, प्रकार, उनका आकृषण व उनके शारीरिक सौष्ठव के बारे में विस्तार से चर्चा की है, वैसे तो उनके अनेक श्लोकों से मैं सहमत नहीं हूँ, और उनके बहुत सेे श्लोक अश्लीलता की श्रेणी में आ जाते हैं, फिर भी ’काम-कामिनी‘ के संबंध में उनका ज्ञान अभूतपूर्व है। जिसे मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूंँ-
शतक के मंगलाचरण में ही कामदेव को नमस्कार करते हुये भर्तृहरि लिखते है-’’जिसने विष्णु और शिव को मृग के समान नयनों वाली कामिनियों के गृहकार्य करने के लिये सतत् दास बना रखा है, जिसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ है ऐसे चरित्रों से विचित्र प्रतीत होने वाले उस भगवान पुष्पायुध (कामदेव) को नमस्कार है।‘‘ ।। 1।।
वे बताते हैं कि स्त्री किस प्रकार मनुष्य के संसार बन्धन का कारण है-’’मन्द मुस्कराहट से, अन्तकरण के विकाररूप भाव से, लज्जा से, आकस्मिक भय से, तिरछी दृष्टि द्वारा देखने से, बातचीत से, ईर्ष्या के कारण कलह से, लीला विलास से-इस प्रकार सम्पूर्ण भावों से स्त्रियां पुरूषों के संसार-बंधन(?) का कारण हैं।‘‘।2।
स्त्रियों के अनेक आयुध (हथियार) भर्तृहरि ने बताये हैं-’’भौंहों के उतार-चढ़ाव आदि की चतुराई, अर्द्ध-उन्मीलित नेत्रों द्वारा कटाक्ष, अत्यधिक स्निग्ध एवं मधुर वाणी, लज्जापूर्ण सुकोमल हास, विलास द्वारा मन्द-मन्द गमन और स्थित होना-ये भाव स्त्रियों के आभूषण भी हैं और आयुध (हथियार) भी हैं।‘‘।। 3।।
भर्तृहरि कहते हैं संसार में निम्न वस्तुओ की उत्पत्ति का कारण स्त्रियां ही हैं-’’इस संसार में नव-यौवनावस्था के समय रसिकों को दर्शनीय वस्तुओं में उत्तम क्या है? मृगनयनी का प्रेम से प्रसन्न मुख। सूंघने योग्य वस्तुओं में क्या उत्तम है? उसके मुख का सुगन्धित पवन। श्रवण योग्य वस्तुओं में उत्तम क्या है? स्त्रियों के मधुर वचन। स्वादिष्ट वस्तुओं में उत्तम क्या है? स्त्रियों के पल्लव के समान अधर का मधुर रस। स्पर्श योग्य वस्तुओं में उत्तम क्या है? उसका कुसुम-सुकुमार कोमल शरीर। ध्यान करने योग्य उत्तम वस्तु क्या है? सदा विलासिनियों का यौवन विलास।‘‘।। 7।।
भर्तृहरि कहते है कि नारी को ’अबला‘ कहना मूर्खता होगी-’’जो कविवर नारी को हमेशा अबला (बलहीन) कहते हैं, वे निश्चिय ही अल्प बुद्धि वाले हैं। जिन कामनियों ने अपने अत्यंत चंचल नेत्र के कटाक्षों द्वारा महान सामर्थ्यशाली इन्द्र आदि को भी जीत लिया है, उन्हें अबला कैसे कहा जा सकता हैै।‘‘।। 10।।
भर्तृहरि कहते है कि स्त्रियां ’वैराग्य‘ के साधनों से पूर्ण होने के बाद भी मनुष्य को ’अनुरागी‘ ही बनाती हैं-’’हे सुन्दरी! तुम्हारे केश संयमी-सुगन्धित तेलों द्वारा संवारे हुये अथवा यम-नियम आदि में संलग्न होने के कारण संयमशील हैं। तुम्हारे नेत्र श्रुति-कान के अंतिम छोर तक पहुंचे हुये होने के कारण अत्यंत विशाल हैं अथवा वेद विचार में पारंगत हैं, वेद के मर्मज्ञ हैं। तुम्हारा अंतरमुख स्वभावतः शुद्ध द्विज-ब्राह्मण या दांतों के समूह से सुशोभित है। तुम्हारे दोनों स्तन रूपी घट जीवन-मुक्तों अथवा मोतियों (मोतियों की माला) के सतत् निवास स्थान हैं। हे! कृशांगि! इस प्रकार वैराग्य के साधनों में पूर्ण अथवा प्रसन्न, तुम्हारा शरीर हम लोगों को ’विरागी‘ नहीं बनाता, अपितु ’अनुरागी‘ ही बनाता हैै।’‘।। 12।।
भर्तृहरि ने ग्रहों के अनुसार स्त्रियों की व्याख्या करके अपने 'ज्योतिषीय ज्ञान' का परिचय दिया है-’’स्तन भार के कारण देवगुरू बृहस्पति के समान, कान्तिमान होने के कारण सूर्य के समान, चन्द्रमुखी होने के कारण चन्द्रमा के समान, और मन्द-मन्द चलने वाली अथवा शनैश्चर-स्वरूप चरणों से शोभित होने के कारण सुन्दरियां ग्रह स्वरूप ही हुआ करती है।‘‘।।16।। पाठकजनों!! भर्तृहरि जी के इस श्लोक में मैंने अपनी ओर से कुछ जोड़ने की धृष्टता की है, जिसे भर्तृहरि जी ने छोड़ दिया है-’’लम्बे शरीर, तेजस्वी नेत्रों, व रक्तवर्णीय मुख वाली स्त्रियां मंगल स्वरूप, सांवले रंग, लेकिन तीखी भावभंगिमा वाली व तीव्र मेधा वाली स्त्रियां बु़द्ध स्वरूप, गौर वर्ण व तीखे नाक-नक्श वाली, अत्यन्त रूपवती स्त्रियां, जो दृष्टि मात्र से पुरूषों का मन हर लेती हैं, ऐसी स्त्रियों को शुक्र-स्वरूप-सुन्दरी कहा जा सकता है।‘‘
’श्लेषालंकार’ का सुन्दर प्रयोग भर्तृहरि ने इस श्लोक में किया है-’’हे आर्याे! ईर्ष्या-द्वेष या पक्षापात को त्याग, कर्तव्यकर्म का विचार कर मर्यादा का ध्यान रखते हुये उत्तर दो कि तुम पर्वतों के नितम्ब अर्थात कटि प्रदेशों (गुहा, कन्दरा आदि) का आश्रय लेना चाहते हो या फिर कामवेग से मुस्काती विलासिनियों के कटिप्रदेश का सेवन करना चाहते हो।‘‘।। 18।।
भर्तृहरि इस श्लोक में समझाते है कि स्त्रियां ’रत्नस्वरूपा‘ ही होती हें-’’मुख चन्द्रकान्ति के समान, केश इन्द्रनीलमणि के तुल्य और हाथ पदमराग मणि के समान होने के कारण स्त्रियां रत्न-स्वरूपा ही हैं।‘‘।।20।।
भाग्यशाली मनुष्य ही स्त्री सुख प्राप्त करते हैं ऐसा भर्तृहरि का मानना है-’’कुछ भाग्यशाली पुरूष ही, पुरूषायित सुरत के समय हृदय पर आरूढ़ होने वाली, सुरत-वेग से बिखरे हुये केश वाली, लज्जा के कारण मीलित (बन्द) नेत्रवाली तथापि उत्सुकता वश अर्धखुली आंखों वाली, मैथुन-श्रम से उत्पन्न स्वेद-बिन्दुओं से आर्द्र गण्डस्थलों (कपोलों) वाली वधुओं के अधर मधु का पान करते हैं।‘‘।। 26।।
भर्तृहरि कहते हैं कि कामातुर मनुष्य अपना मान सम्मान सब कुछ खो देता है-’’मनुष्य का गौरव, विद्वता, कुलीनता और विवेक, सद्विचार आदि तभी तक बने रहते हैं जब तक अंगों में कामाग्नि प्रज्वलित नहीं होती। कामपीडि़त व्यक्ति अपना मान-सम्मान सब कुछ खो देेेता है।‘‘।। 61।।भर्तृहरि का निम्न श्लोक प्रसिद्ध उक्ति ’’कामातुराणां न भयं न लज्जा‘‘ को सिद्ध करती प्रतीत होती है।
भर्तृहरि ने संसार रूपी नदी को पार कर पाने में स्त्री को बाधा(?) बताया है-’’ऐ संसार! तुम्हारा अन्तिम छोर बहुत दूर नहीं है, समीप ही है। यदि मध्य में अशक्य महानदियों की भांति मदिरा से पूर्ण नयन वाली ये सुन्दरियां न होती तो तुझे तर जाना कठिन न होता।‘‘ ।। 68।।
भर्तृहरि कहते हैं पता नहीं स्त्रियों को ’प्रिया‘ क्यों कहते हैं-’’जो स्मरण करने पर संताप(?) को बढ़ाती हैं, दिखाई पड़ने पर काम को बढ़ाती है और उन्मत्त बना देती हैं तथा स्पर्श करने पर मोहित कर लेती है-ऐसी स्त्रियों को लोग पता नहीं ’प्रिया‘ क्यों कहते हैं।’’।। 73।।
स्त्रियों की मानसिक ऊहापोह का विलक्षण वर्णन भर्तृहरि एक मनौवैज्ञानिक की भांति करते हुये कहते हैं-’’स्त्रियां वार्तालाप तो किसी से करती है, हावभाव के साथ देखती किसी और को हैं, और हृदय में किसी अन्य से ही मिलने के विषय में सोचती हैं। ऐसी स्थिति में यह पता ही नहीं चलता कि इनमें स्त्रियों का सबसे प्रिय कौन है? अथवा स्त्रियां बात किसी से करती हैं देखती किसी को हैं, हृदय में किसी और का चिन्तन करती हैं फिर स्त्रियों का प्रिय कोैन है अर्थात कोई नहीं है‘‘।।81।।
भर्तृहरि अपने ’मन‘ से कहते हैं-"हे मन रूपी यात्री ! कुच रूप पर्वतों के कारण दुर्गम, कामिनी के शरीर रूपी वन की ओर मत जा क्योंकि वहां कामदेव रूपी लुटेरा रहता है।"।।84।।
भर्तृहरि कहते हैं कि जिस पुरूष के मन में स्त्री का देखकर विकार उत्पन्न नहीं होता, वे धन्य हैं-’’सुन्दर, चंचल एवं विशाल नेत्रों वाली, यौवन के गर्व से अत्यंत पुष्ट स्तनों वाली, क्षीण, उदर के ऊपर मध्यभाग में त्रिवली लता से शोभायमान विलासिनियों की आकृति को देखकर भी जिसके मन में विकार उत्पन नहीं होते, वे ही पुरूष धन्य हैं।‘‘।।92।।
इस श्लोक में भर्तृहरि ने स्त्रीयों के संबंध में अति ही कर दी है-’’संशयों का भंवर......... पाश (बन्धन) वह स्त्री रूपी यन्त्र किसने निर्मित किया है?‘‘।।76।। पाठकजनों!! महाराज भर्तृहरि स्त्री द्वारा ठगे गये थे फलस्वरूप उन्होने स्त्री जाति के लिये चुन-चुन कर कटु, कठोर व अयुक्त शब्दों का प्रयोग किया है। किसी एक स्त्री के दोषों को सारी स्त्री-जाति पर लादना अनुचित है।
महाराज भर्तृहरि लिखते हैं कि संसार में कामदेव ने सभी का गर्व चूर कर दिया है-’’इस संसार में मतवाले गजराज के गण्डस्थों को विदीर्ण करने वाले शूर-वीर विद्यमान हैं। क्रोध में भरे हुुये अत्यंत प्रचण्ड सिंह का वध करने में चतुर और समर्थ वीर भी संसार में बहुत हैं परन्तु मैं बलवान के समक्ष दृढ़तापूर्वक कहता हूंँ कि कामदेव के गर्व को खण्डित करने वाला संसार में कोई बिरला ही मनुष्य होगा।‘‘ ।।58।। (महावीर हनुमान, भीष्म पितामह आदि ऐसे बिरले मनुष्य थे)
भर्तृहरि लिखते हैं कि कामदेव श्वान (कुत्ते) को भी पागल कर देते हैं-’’खाना न मिलने के कारण दुर्बल, काना, लगड़ा, कटे कान वाला, बिना पूंछ वाला, घायल और हजारों कृमियों से व्याप्त शरीर वाला, भूख का मारा हुआ, बुढ़ापे के कारण शिथिल, मिटटी के घड़े का मुंह जिसके गले में फंसा हुआ है-ऐसा कुत्ता भी मैथुनार्थ कुतियों के पीछे-पीछे दौड़ता है। अहो! कामदेव सब प्रकार से नष्ट उस कुत्ते को और भी मार रहा है।‘‘।। 63।।
भर्तृहरि अपने शतक के 98 वें श्लोक में स्वयं स्वीकार करते हैं-’’अब तक मुझे कामदेव रूपी तिमिर रोग से उत्पन्न अज्ञान था तब तक मुझे यह संसार नारीमय दिखाई देता था। परन्तु जब हमने विवेक रूपी अंजन अपनी आंखों में लगाया तब हमारी दृष्टि सम हो गई और तीनों लोक हमें, ब्रह्ममय दिखाई देने लगे हैं।‘‘।।98।।
इसके अतिरिक्त भर्तृहरि ने अपने शतक में वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त व शिशिर ऋतु में स्त्री व स्त्री प्रसंग का अत्यधिक श्रंगारिक (कामुक) वर्णन किया है, जिसका वर्णन यहां करना उचित नहीं होगा। पाठकजनों!! मैंने श्रृंगार शतक में से कुछ श्लोक आपके सम्मुख प्रस्तुत किये हैं, आप इनसे कहां तक सहमत हैं, ये तो आपके कमेण्टस से ही पता चलेगा। उपरोक्त श्लोंको को पढ़कर यदि हम भर्तृहरि के श्रृंगार शतक को काम और कामिनी का विश्वकोष कहें, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।