आशापुरा माता का मंदिर
चौहान वंश की कुलदेवी
आशापुरा माता जी नाडोल
नाडोल शहर (जिला पाली,राजस्थान) का नगर रक्षक
लक्ष्मण हमेशा की तरह उस रात भी अपनी नियमित
गश्त पर था। नगर की परिक्रमा करते करते लक्ष्मण
प्यास बुझाने हेतु नगर के बाहर समीप ही बहने वाली
भारमली नदी के तट पर जा पहुंचा। पानी पीने के बाद
नदी किनारे बसी चरवाहों की बस्ती पर जैसे लक्ष्मण ने
अपनी सतर्क नजर डाली, तब एक झोंपड़ी पर हीरों के
चमकते प्रकाश ने आकर्षित किया। वह तुरंत झोंपड़ी
के पास पहुंचा और वहां रह रहे चरवाहे को बुला
प्रकाशित हीरों का राज पूछा। चरवाह भी प्रकाश देख
अचंभित हुआ और झोंपड़ी पर रखा वस्त्र उतारा।
वस्त्र में हीरे चिपके देख चरवाह के आश्चर्य की सीमा
नहीं रही, उसे समझ ही नहीं आया कि जिस वस्त्र को
उसने झोपड़ी पर डाला था, उस पर तो जौ के दाने चिपके
थे।
लक्ष्मण द्वारा पूछने पर चरवाहे ने बताया कि वह
पहाड़ी की कन्दरा में रहने वाली एक वृद्ध महिला की
गाय चराता है। आज उस महिला ने गाय चराने की
मजदूरी के रूप में उसे कुछ जौ दिए थे। जिसे वह बनिये
को दे आया, कुछ इसके चिपक गए, जो हीरे बन गये।
लक्ष्मण उसे लेकर बनिए के पास गया और बनिए हीरे
बरामद वापस ग्वाले को दे दिये। लक्ष्मण इस
चमत्कार से विस्मृत था अतः उसने ग्वाले से कहा-
अभी तो तुम जाओ, लेकिन कल सुबह ही मुझे उस
कन्दरा का रास्ता बताना जहाँ वृद्ध महिला रहती है।
दुसरे दिन लक्ष्मण जैसे ही ग्वाले को लेकर कन्दरा में
गया, कन्दरा के आगे समतल भूमि पर उनकी और पीठ
किये वृद्ध महिला गाय का दूध निकाल रही थी। उसने
बिना देखे लक्ष्मण को पुकारा- “लक्ष्मण, राव
लक्ष्मण आ गये बेटा, आओ।”
आवाज सुनते ही लक्ष्मण आश्चर्यचकित हो गया
और उसका शरीर एक अद्भुत प्रकाश से नहा उठा। उसे
तुरंत आभास हो गया कि यह वृद्ध महिला कोई और
नहीं, उसकी कुलदेवी माँ शाकम्भरी ही है। और
लक्ष्मण सीधा माँ के चरणों में गिरने लगा, तभी
आवाज आई- मेरे लिए क्या लाये हो बेटा? बोलो मेरे
लिए क्या लाये हो?
लक्ष्मण को माँ का मर्मभरा उलाहना समझते देर नहीं
लगी और उसने तुरंत साथ आये ग्वाला का सिर काट
माँ के चरणों में अर्पित कर दिया।
लक्ष्मण द्वारा प्रस्तुत इस अनोखे उपहार से माँ ने
खुश होकर लक्ष्मण से वर मांगने को कहा। लक्ष्मण ने
माँ से कहा- माँ आपने मुझे राव संबोधित किया है, अतः
मुझे राव (शासक) बना दो ताकि मैं दुष्टों को दंड देकर
प्रजा का पालन करूँ, मेरी जब इच्छा हो आपके दर्शन
कर सकूं और इस ग्वाले को पुनर्जीवित कर देने की कृपा
करें। वृद्ध महिला “तथास्तु” कह कर अंतर्ध्यान हो
गई। जिस दिन यह घटना घटी वह वि.स. 1000, माघ
सुदी 2 का दिन था। इसके बाद लक्ष्मण नाडोल शहर
की सुरक्षा में तन्मयता से लगा रहा।
उस जमाने में नाडोल एक संपन्न शहर था। अतः मेदों
की लूटपाट से त्रस्त था। लक्ष्मण के आने के बाद
मेदों को तकड़ी चुनौती मिलने लगी। नगरवासी अपने
आपको सुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन मेदों ने
संगठित होकर लक्ष्मण पर हमला किया। भयंकर युद्ध
हुआ। मेद भाग गए, लक्ष्मण ने उनका पहाड़ों में पीछा
किया और मेदों को सबक सिखाने के साथ ही खुद
घायल होकर अर्धविक्षिप्त हो गया। मूर्छा टूटने पर
लक्ष्मण ने माँ को याद किया। माँ को याद करते ही
लक्ष्मण का शरीर तरोताजा हो गया, सामने माँ खड़ी
थी बोली- बेटा ! निराश मत हो, शीघ्र ही मालव देश से
असंख्य घोड़ेे तेरे पास आयेंगे। तुम उन पर
केसरमिश्रित जल छिड़क देना। घोड़ों का प्राकृतिक रंग
बदल जायेगा। उनसे अजेय सेना तैयार करो और अपना
राज्य स्थापित करो।
अगले दिन माँ का कहा हुआ सच हुआ। असंख्य घोड़े
आये। लक्ष्मण ने केसर मिश्रित जल छिड़का, घोड़ों
का रंग बदल गया। लक्ष्मण ने उन घोड़ों की बदौलत
सेना संगठित की। इतिहासकार डा. दशरथ शर्मा इन
घोड़ों की संख्या 12000 हजार बताते है तो मुंहता
नैंणसी ने इन घोड़ों की संख्या 13000 लिखी है। अपनी
नई सेना के बल पर लक्ष्मण ने लुटरे मेदों का सफाया
किया। जिससे नाडोल की जनता प्रसन्न हुई और उसका
अभिनंदन करते हुए नाडोल के अयोग्य शासक
सामंतसिंह चावड़ा को सिंहासन से उतार लक्ष्मण को
सिंहासन पर आरूढ कर पुरस्कृत किया।
इस प्रकार लक्ष्मण माँ शाकम्भरी के आशीर्वाद और
अपने पुरुषार्थ के बल पर नाडोल का शासक बना। मेदों
के साथ घायल अवस्था में लक्ष्मण ने जहाँ पानी पिया
और माँ के दुबारा दर्शन किये जहाँ माँ शाकम्भरी ने
उसकी सम्पूर्ण आशाएं पूर्ण की वहां राव लक्ष्मण ने
अपनी कुलदेवी माँ शाकम्भरी को “आशापुरा माँ” के नाम
से अभिहित कर मंदिर की स्थापना की तथा उस कच्ची
बावड़ी जिसका पानी पिया था को पक्का बनवाया। यह
बावड़ी आज भी अपने निर्माता वीरवर राव लक्ष्मण
की याद को जीवंत बनाये हुए है। आज भी नाडोल में
आशापुरा माँ का मंदिर लक्ष्मण के चौहान वंश के साथ
कई जातियों व वंशों के कुलदेवी के मंदिर के रूप में
ख्याति प्राप्त कर उस घटना की याद दिलाता है।
आशापुरा माँ को कई लोग आज आशापूर्णा माँ भी कहते
है और अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है।
लक्ष्मण शाकम्भर (वर्तमान नमक के लिए प्रसिद्ध
सांभर, राजस्थान) के चौहान राजा वाक्प्तिराज का
छोटा पुत्र था। पिता की मृत्यु के बाद लक्ष्मण के बड़े
भाई को सांभर की गद्दी और लक्ष्मण को छोटी सी
जागीर मिली थी। पर पराक्रमी, पुरुषार्थ पर भरोसा
रखने वाले लक्ष्मण की लालसा एक छोटी सी जागीर
कैसे पूरी कर सकती थी? अतः लक्ष्मण ने पुरुषार्थ के
बल पर राज्य स्थापित करने की लालसा मन में ले
जागीर का त्याग कर सांभर छोड़ दिया। उस वक्त
लक्ष्मण अपनी पत्नी व एक सेवक के साथ सांभर छोड़
पुष्कर पहुंचा और पुष्कर में स्नान आदि कर पाली की
और चल दिया। उबड़ खाबड़ पहाड़ियों को पार करते हुए
थकावट व रात्री के चलते लक्ष्मण नाडोल के पास
नीलकंठ महादेव के मंदिर परिसर को सुरक्षित समझ
आराम करने के लिए रुका। थकावट के कारण तीनों वहीं
गहरी नींद में सो गये। सुबह मंदिर के पुजारी ने उन्हें
सोये देखा। पुजारी सोते हुए लक्ष्मण के चेहरे के तेज
से समझ गया कि यह किसी राजपरिवार का सदस्य है।
अतः पुजारी ने लक्ष्मण के मुख पर पुष्पवर्षा कर उसे
उठाया। परिचय व उधर आने प्रयोजन जानकार पुजारी
ने लक्ष्मण से आग्रह किया कि वो नाडोल शहर की
सुरक्षा व्यवस्था संभाले। पुजारी ने नगर के महामात्य
संधिविग्रहक से मिलकर लक्ष्मण को नाडोल नगर का
मुख्य नगर रक्षक नियुक्त करवा दिया। जहाँ
लक्ष्मण ने अपनी वीरता, कर्तव्यपरायणता, शौर्य के
बल पर गठीले शरीर, गजब की फुर्ती वाले मेद जाति के
लुटेरों से नाडोल नगर की सुरक्षा की। और जनता का
दिल जीता। उस काल नाडोल नगर उस क्षेत्र का मुख्य
व्यापारिक नगर था। व्यापार के चलते नगर की
संपन्नता लुटेरों व चोरों के आकर्षण का मुख्य केंद्र
थी। पंचतीर्थी होने के कारण जैन श्रेष्ठियों ने नाडोल
नगर को धन-धान्य से पाट डाला था। हालाँकि नगर
सुरक्षा के लिहाज से एक मजबूत प्राचीर से घिरा था,
पर सामंतसिंह चावड़ा जो गुजरातियों का सामंत था।
अयोग्य और विलासी शासक था। अतः जनता में उसके
प्रति रोष था, जो लक्ष्मण के लिए वरदान स्वरूप काम
आया।
चौहान वंश की कुलदेवी शुरू से ही शाकम्भरी माता रही
है, हालाँकि कब से है का कोई ब्यौरा नहीं मिलता।
लेकिन चौहान राजवंश की स्थापना से ही शाकम्भरी को
कुलदेवी के रूप में पूजा जाता रहा है। चौहान वंश का
राज्य शाकम्भर (सांभर) में स्थापित हुआ तब से ही
चौहानों ने माँ आद्ध्यशक्ति को शाकम्भरी के रूप में
शक्तिरूपा की पूजा अर्चना शुरू कर दी थी।
माँ आशापुरा मंदिर तथा नाडोल राजवंश पुस्तक के
लेखक डॉ. विन्ध्यराज चौहान के अनुसार- ज्ञात
इतिहास के सन्दर्भ में सम्पूर्ण भारतवर्ष में नगर
(ठी.उनियारा) जनपद से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी की
मूर्ति सवार्धिक प्राचीन है। 1945 में अंग्रेज
पुरातत्वशास्त्री कार्लाइल ने नगर के टीलों का
सर्वेक्षण किया। 1949 में श्रीकृष्णदेव के निर्देशन
में खनन किया गया तो महिषासुरमर्दिनी के कई फलक
भी प्राप्त हुए जो आमेर संग्रहालय में सुरक्षित है।
नाडोल में भी राव लक्ष्मण ने माँ की शाकम्भरी माता
के रूप में ही आराधना की थी, लेकिन माँ के आशीर्वाद
स्वरूप उसकी सभी आशाएं पूर्ण होने पर लक्ष्मण ने
माता को आशापुरा (आशा पूरी करने वाली) संबोधित
किया। जिसकी वजह से माता शाकम्भरी एक और नाम
“आशापुरा” के नाम से विख्यात हुई और कालांतर में
चौहान वंश के लोग माता शाकम्भरी को आशापुरा माता
के नाम से कुलदेवी मानने लगे।
भारतवर्ष के जैन धर्म के सुदृढ. स्तम्भ तथा
उद्योगजगत के मेरुदंड भण्डारी जो मूलतः चौहान
राजवंश की ही शाखा है, भी माँ आशापुरा को कुलदेवी के
रूप में मानते है। गुजरात के जड.ेचा भी माँ आशापुरा की
कुलदेवी के रूप में ही पूजा अर्चना करते है।
माँ आशपुरा के दर्शन लाभ हेतु अजमेर-अहमदाबाद रेल
मार्ग पर स्थित रानी रेल स्टेशन पर उतरकर बस व
टैक्सी के माध्यम से नाडोल जाया जा सकता है। मंदिर
में पशुबलि निषेध है।
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