आरक्षण की परिभाषा
आरक्षण क्या है? पहले इसके बारे में जानना अति-आवश्यक है तभी हम इसकी मूल धारणा को जान पाएंगे। अलग अलग लोगो में अलग अलग मत है कोई कहता है होना चाहिए कोई कहता नहीं होना चाहिए। कोई कहता है यह संविधान की मूल अवधारणा के खिलाफ है। कोई कहता है जो बाबा साहेब लिख कर गए आरक्षण के बारे में उसके खिलाफ है।
सबसे मूल बात जो है आरक्षण उसके बारे में लोग बात तो करना चाहते है लेकिन क्या वे इसके व्यापक स्तर को बहस का मुद्दा बनाना चाहते है शायद नहीं, क्योंकि किसी से भी बहस कर ले उनके आरक्षण का मुख्य मुद्दा हमेशा जातिगत आरक्षण के साथ चिपकी हुई नज़र आती है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसीलिए है क्योंकि वे आरक्षण की मूल अवधारणा जो बाबा साहेब ने संविधान में रखी थी उससे भली भाँति अवगत ही नहीं है और जब उसी का पालन आज तक नहीं हो पाया जिसकी वजह से आप और हम इस बहस को एक मुद्दे के तौर पर अपने मन मुताबिक उछालते रहते है। सबसे पहले आप आरक्षण के बारे में समझे इतना विरोध होने के वावजूद बाबा साहेब ने यह प्रावधान संविधान में रखा, ऐसा कैसे हो गया जहाँ संविधान को बनाने के करता धर्ता आज की तारीख में मनुवादी कहलाने वाले लोग थे फिर भी इस बात की सार्वभौमिकता कैसे स्थापित हो गयी की संविधान में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए। कुछ ना कुछ तो रही होगी सत्यता इन बातो में तभी इस शब्द का प्रयोग हुआ संविधान में। कोई इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है, लेकिन आरक्षण होना चाहिए या नहीं यह एक अलग मुद्दा है लेकिन आमलोगो की राय हमेशा से जातिगत आरक्षण के आस पास सिमट कर रह जाती है।
1932 में जब गोलमेज सम्मलेन में इस बात पर सहमति बनी की आरक्षण होना चाहिए तो आखिर इसका आधार क्या होना चाहिए तो वहाँ पर यह तय हुआ की समाज में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से लोग समाज के मुख्य धारा से वंचित रह गए है उनकी सूची तैयार की जाय और उस सूची के आधार पर समाज में इन लोगो के लिए कुछ प्रावधान रखा जाय ताकि इनको समाज की मुख्य धारा में शामिल किया जा सके और बाद में इसी को आधार बनाकर बाद में संविधान में प्रावधान रखा गया और इस सूची को संविधान में नाम दिया गया अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जनजाति बाद में इसी सूची में एक नया सूची शामिल किया गया जिसको नाम दिया गया अत्यंत पिछड़ा वर्ग। आरक्षण पेट भरने का साधन नहीं, इसका जो मूल अर्थ है वह है प्रतिनिधित्व। आरक्षण के द्वारा ऐसे समाज को प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया गया जो शुरू से समाज के अंदर दबे कुचले रहे है। इस प्रतिनिधित्वता को नाम दिया गया राजनितिक आरक्षण जो शुरुआत में संविधान में शामिल किया गया था पहले 10 सालो के लिए था। लेकिन जो सामाजिक आरक्षण उसकी अवधारणा इसके विपरीत है उसकी मूल अवधारणा यह थी की जबतक समाज के उपेक्षित लोग समाज के बांकी लोगो के बराबर खड़े नहीं हो जाते है तबतक यह लागु रहेगा क्योंकि सामाजिक आरक्षण का मूल मंत्र यही था की समाज के हरेक वर्ग के लोगो की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर एक नहीं हो जाते है तब तक जारी रहेगी। और आज़ादी के 67 सालो बाद भी समाज का एक बड़ा तबका अपनी मुलभुत सुविधाओ के लिए तरस रहा है तो उसके सामाजिक न्याय की बात करना बेमानी होगी।
aarakshan sai tatparya
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