जीप पर सवार इल्लियाँ समरी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रख्यात अंग्रेजी कवि और समालोचक मैथ्यू आर्नाल्ड ने कविता को जीवन की आलोचना कहा है, लेकिन आज संभवतः व्यंग्य ही साहित्य की एकमात्र विधा है जो जीवन से सीधा साक्षात्कार कराती है।
व्यंग्यकार सतत् जागरूक रहकर अपने परिवेश पर, जीवन और समाज की हर छोटी-सी-छोटी घटना पर तटस्थ भाव से दृष्टिपात करता है और उसके आभ्यंतरिक स्वरूप का निर्मम अनावरण करता है। इसीलिए व्यंग्यकार का धर्म अन्य विधाओं में लिखने वालों की अपेक्षा कठिन माना गया है, क्योंकि अपनी रचना प्रक्रिया में उसे बाह्य विषयों के प्रति ही नहीं, स्वयं अपने प्रति भी निर्मम होना पड़ता है। हिन्दी के सुपरिचित व्यंग्यकार शरद जोशी का यह संग्रह इस धर्म का पूरी मुस्तैदी से निर्वाह करता है। धर्म, राजनीति, सामाजिक जीवन, व्यक्तिगत आचरण - कुछ भी यहाँ लेखक की पैनी नज़र से बच नहीं पाया है और उनकी विसंगतियों का ऐसा मार्मिक उद्घाटन हुआ है कि पढ़ने वाला चकित होकर सोचने लगता है - अच्छा, इस मामूली सी दिखने वाली बात की असलियत यह है वास्तव में प्रस्तुत निबंध-संग्रह की एक-एक रचना शरद जोशी की व्यंग्य-दृष्टि का सबलतम प्रमाण है।
शरद जोशी
जन्म 21 मई, 1931 उज्जैन (म.प्र.)। पिता सरकारी सेवा में थे। उनके तबादले के साथ मध्य प्रदेश के कई छोटे-बड़े स्कूलों में पढ़ाई। पत्रकारिता, रेडियों की नौकरी की, सरकारी दफ्तर में कुछ सालों फँसे रहने के बाद स्वतंत्र लेखन। लिखना, लिखना। शौक रहे आवारागर्दी, नाटक। कुछ दिनों तक फिल्मों में भी कलम घिसते रहे।
प्रकाशित प्रमुख पुस्तकें हैं- परिक्रमा, किसी बहाने, जीप पर सवार झल्लियाँ, रहा किनारे बैठ, दो व्यंग्य नाटक। एक पुस्तक का अंग्रेजी से अनुवाद।
जन्म 1961। ग्वालियर के युवा मूर्तिशिल्पी अनिल अब प्रायः संगमरमर में काम करते हैं। शुरु में इनके काम में लोक और आदिवासी कला-रूपों की एक छाप रही। अब इनके मूर्तिशिल्पों में घास, काई, कछुआ, सीपी, शंख, पक्षी, पतिंगा आदि से मिलते-जुलते रूपाकार उभरते हैं। पत्थर की भित्तियों को अनिल एक संवेदनशील तराश में चमकने देते हैं। रूपाकारों की अलस, शांत, मंथर गति हमें प्रकृति के किसी मर्म से जोड़ देती है। जैसे बीज प्रस्फुटित होता है वैसे ही इनके रूपाकार धीरे-धीरे खुलते हुए लगते हैं।
इन्हें ‘रजा पुरस्कार’, राष्ट्रीय पुरस्कार’ समेत कई सम्मान मिल चुके हैं। बम्बई, दिल्ली, बंगलूर, भोपाल आदि शहरों में इनकी प्रादर्शनियाँ आयोजित हुई हैं। अनिल ने ग्वालियर के ललित कला महाविद्यालय से 1985 में मूर्तिशिल्प में डिप्लोमा प्राप्त किया था। अब ग्वालियर की ‘मध्यप्रदेश कला वीथिका’ में क्यूरेटर हैं।
‘रूपंकर’, भोपाल राष्टीय आधुनिक कला संग्रहालय, दिल्ली ललित कला अकादमी, दिल्ली के संग्रहों में इनका काम है। देश-विदेश के कई निजी संग्रहों में भी इनकी कृतियाँ हैं।
एक शंख बिन कुतुबनुमा
जिसे कहते हैं दिव्य, वे ऐसे ही लग रहे थे। किसी त्वचा मुलायम करनेवाले साबुन से सद्यः नहाए हुए। उन्नत ललाट और उस पर अपेक्षाकृत अधिक उन्नत टीका, लाल और हल्के पीले से मिला ईंटवाला शेड। यह रंग कहीं बुर्शट का होता तो आधुनिक होता। टीके का था तो पुराना, मगर क्या कहने बाल लम्बें और बिखरे हुए, स्वच्छ बानियान और श्वेत धोतिया (मेरे खयाल से प्रचीन काल में जरूर धोती को धोतिया कहते होंगे), चरणों में खड़-खड़ निनाद करनेवाले खड़ाऊँ। किसी गहरे प्रोग्राम की सम्भावना में डूबी आँखें, हाथ से एक नग उपयोगी शंख। सब कुछ चारू, मारू और विशिष्ट।
उस समय सूर्य चौराहे के ऊपर था। लंच की भारतीय परम्परा के अनुसार डटकर भोजन करने के उपरान्त मैं पान खाने की संस्कृति का मारा चौराहे पर गया हुआ था। वहीं मैंने उस तेजोमय व्यक्तित्व के दर्शन किए।
‘बाबू उत्तर कहाँ है, किस ओर है ?’
मुझे अपने प्रति यह बाबू सम्बोधन अच्छा नहीं लगा। आज मैं सरकारी नौकरी में बना रहता, तो प्रमोशन पाकर छोटा-मोटा अफसर हो गया होता और एक छोटे-से दायरे में साहब कहलाता। खैर, मैंने माइंड नहीं किया। जिस तरह दार्शनिक उलझाव में फँसा हुए व्यक्ति जीवन के चौराहे पर खड़ा हो एक गम्भीर प्रश्न मन में लिए व्याकुल स्वरों में पुकारे कि उत्तर कहां है, कुछ उसी तरह। मैंने मन में समझ लिया कि किसी छावावादी आलोचक की कोई पुस्तक इस व्यक्ति के लि मुफीद होगी। अपने स्वरों में एक किस्म की जैनेन्द्री गम्भीरता लाकर मैंने पूछा-‘कैसा उत्तर भाई, तुम्हारा प्रश्न क्या है ?
अपने दिव्य नेत्रों से उन्होंने मेरी ओर यों देखा, जैसे वे किसी परम मूर्ख की ओर देख रहे हों और बोले, ‘मैं उत्तर दिशा को पूछ रहा हूँ, बाबू।’
यह सुन मेरा तत्काल भारतीयकरण हो गया। दार्शनिक ऊँचाई से गिरकर एकदम सड़क-छाप स्थिति।
‘आपकों कहाँ जाना है ?’ मैंने सीधे सवाल किया। शहरों में यही होता है। अगर कोई व्यक्ति दूसरे से पूछे कि पाँच नम्बर बस कहाँ जाती है, तो जवाब में सुनने को मिलता है कि आपकों कहाँ जाना है ? राह कोई नहीं बताता, सब लक्ष्य पूछते हैं, जो उनका नहीं हैं।
‘उत्तर दिशा किस तरफ है बाबू, आप पढ़े-लिखे हैं, इतना तो बता सकते हैं....?
मुझे अच्छा नहीं लगा। हर बात के लिए शिक्षा-प्रणाली को दोषी मानना ठीक नहीं। पढ़े-लिखे लोगों को उत्तर मालूम होता, तो अब तक देश के सभी प्रश्न सुलझ जाते। जहाँ तक मेरी स्थिति है, सही उत्तर मैंने परीक्षा भवन में नहीं दिया, तो यह चौराहा है। मैं क्यों देता ? और क्या देता ?
‘क्या आपकों उत्तर दिशा कि ओर जाना है ?’ स्वर में मधुरता ला मैंने जिज्ञासा की।
‘मुझे उत्तर दिशा की ओर मुँह कर यह शंख फूँकना है।’ उसने कहा, ‘आप बता दें, तो मैं फूँक दूँ।’
मैंने कमर पर हाथ रख सारा चौराहा घूमकर देखा, मगर उत्तर दिशा कहीं नजर नहीं नजर नहीं आई। दायीं ओर एक लांड्री थी, बायीं ओर पानवाला और उसके पास एक साइकिलवाला। सामने एक पनचक्की थी। एकाएक मुझे स्कूल में पढ़ी एक बात याद आई कि यदि हम पूर्व की ओर मुँह करके खड़ें रहें, तो हमारे दायँ हाथ की ओर दक्षिण तथा बाएँ हाथ की ओर खड़ें रहें, तो हमारे दाएँ हाथ की ओर दक्षिण तथा बाएँ हाथ की ओर उत्तर होगा। वामपंथ और दक्षिणपंथ के मतभेद यहीं से शुरू होते हैं।
‘देखिए, यदि आप मुझे पूर्व दिशा बता दें, तो मैं आपकों उत्तर दिशा बता सकता हूँ।’ मैंने प्रस्ताव किया।
‘सूर्योदय जिधर से होता है, वही पूर्व दिशा है।’
‘जी हाँ।’
‘किधर से होता है। सूर्योदय ?’ पूछने लगे।
‘मुझे नहीं पता। मैं देर से सोकर उठता हूँ।’
उन्होंने अपने दिव्य नेत्रों से मेरी ओर देखा जैसे वे किसी परम आलसी की ओर देख रहे हों और बोले, ‘आप सोते रहते हैं, सारा देश सोता रहता है और कलिकाल सिर पर छा गया है। चारों ओर पाप फैल रहा है, धर्म का नाश हो रहा है।’
‘हरे-हरे ’ मैंने सहमतिसूचक ध्वनि की।
‘उत्तर दिशा पापात्माओं का केन्द्र है, दिल्ली राजधानी अधर्मियों का अड्डा बन गई है।’’
‘नहीं, ऐसा तो नहीं, स्थानीय चुनावों में तो धार्मिक लोग जाते हैं’’ मैने कहा।
मैं पार्लमेंट की बात कर रहा हूँ बाबू, संसद भवन और शासन की।’
‘आप वहाँ जाकर कुछ अनशन-वनशन करेंगे ?’ मैंने पूछा।
‘नहीं, मैं यह दिव्य शक्ति-सम्पन्न शंख उत्तर की ओर फूँकूँगा। इसका स्वर दिगन्त तक गूँज उठेगा और उत्तर दिशा की पापात्माएँ इसका स्वर सुनकर नष्ट हो जाएँगी।
‘शंख क्या एकदम बिगुल हुआ। आप इसे माइक के सामने फूँकेगें।’ मैंने जिज्ञासा की।
‘बाबू समय आ गया है।’ उन्होंने सिर के ठीक उपर चमकते हुए सूर्य की ओर देखा और कहा, ‘मुझे ठीक मध्याह्नन में शंख फूँकना है।
आप जल्दी बताइये उत्तर दिशा किधर है ?’
‘आप चारों ओर घूमकर सभी दिशाओं में इसे फूँक दीजिए, पाप तो सर्वत्र फैला हुआ है।’
‘नहीं, केवल उत्तर दिशा में। गुरुजी की यही आज्ञा है। उत्तर में सत्ता का केन्द्र है। पहले उसे अधिकार में लेना होगा। फिर वहीं से सर्वत्र पुण्य फैलेगा। बताइए, शीघ्र बताइए। मेरी सात दिनों की मन्त्र साधना इस छोटी-सी सूचना के अभाव में नष्ट हुई जाती है।’
दोपहर का समय, कोई जानकार व्यक्ति वहाँ से गुजर भी नहीं रहा था। पानवाले, लांड्रीवाले, पनचक्कीवाले से पूछना व्यर्थ। तभी मैंने देखा-दो लड़के कन्धों पर बस्ता रखे चले जा रहे हैं। मैंने उन्हें रोका और बच्चों के कार्यक्रम के कंपीअवाली मधुरता से पूछा, ‘अच्छा बच्चों, जरा यह तो बताओ कि यदि हमें कभी यह पता लगाना हो कि उत्तर दिशा कहाँ है, तो क्या करेंगे ?’
वे आश्चर्यपूर्ण मिचमिची आँखों से कुछ देर मेरी ओर देखते रहे। फिर उनमें से एक जो अपेक्षाकृत तेज था, उसने कहा, ‘ध्रुवतारा उत्तर दिशा में चमकता है। यदि हम उस ओर देखते हुए सीधे खड़े रहें, तो हमारे सामने उत्तर, पीठ पीछे दक्षिण, दाहिनी ओर.....
‘शाबाश बच्चों, मगर जैसे दिन का समय हो और किसी को यह जानना हो कि उत्तर दिशा कहाँ है, तो उसे क्या करना होगा ?’ मैंने रोककर फिर पूछा।
‘इसके लिए हमें कुतुबनुमा देखना चाहिए, जिसकी सुई सदैव उत्तर दिशा बतलाती है।’
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