भूकंप के अध्ययन को क्या कहते हैं
पृथ्वी के भूपटल में उत्पन्न तनाव का, उसकी सतह पर अचानक मुक्त होने के
कारण पृथ्वी की सतह का हिलना या कांपना, भूकंप कहलाता है। भूकंप प्राकृतिक
आपदाओं में से सबसे विनाशकारी विपदा है जिससे मानवीय जीवन की हानि हो सकती
है। आमतौर पर भूकंप का प्रभाव अत्यंत विस्तृत क्षेत्र में होता है। भूकंप,
व्यक्तियों को घायल करने और उनकी मौत का कारण बनने के साथ ही व्यापक स्तर
पर तबाही का कारण बनता है। इस तबाही के अचानक और तीव्र गति से होने के कारण
जनमानस को इससे बचाव का समय नहीं मिल पाता है।
बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों के दौरान पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर 26
बड़े भूकंप आए, जिससे वैश्विक स्तर पर करीब डेढ़ लाख लोगों की असमय मौत
हुई। यह दुर्भाग्य ही है कि भूकंप का परिणाम अत्यंत व्यापक होने के बावजूद
अभी तक इसके बारे में सही-सही भविष्यवाणी करने में सफलता नहीं मिली है। इसी
कारण से इस आपदा की संभावित प्रतिक्रिया के अनुसार ही कुछ कदम उठाए जाते
हैं।
विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत भूकंप का अध्ययन किया जाता है, भूकंप
विज्ञान (सिस्मोलॉजी) कहलाती है और भूकंप विज्ञान का अध्ययन करने वाले
वैज्ञानिकों को भूकंपविज्ञानी कहते हैं। अंग्रेजी शब्द ‘सिस्मोलॉजी’ में
‘सिस्मो’ उपसर्ग ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ भूकंप है। भूकंपविज्ञानी भूकंप
के परिमाण को आधार मानकर उसकी व्यापकता को मापते हैं। भूकंप के परिमाण को
मापने की अनेक विधियां हैं।
हमारी धरती मुख्य तौर पर चार परतों से बनी हुई है, इनर कोर, आउटर कोर, मैनटल और क्रस्ट। क्रस्ट और ऊपरी मैन्टल को लिथोस्फेयर कहते हैं। ये 50 किलोमीटर की मोटी परत, वर्गों में बंटी हुई है, जिन्हें टैकटोनिक प्लेट्स
कहा जाता है। ये टैकटोनिक प्लेट्स अपनी जगह से हिलती रहती हैं लेकिन जब ये
बहुत ज्यादा हिल जाती हैं, तो भूकंप आ जाता है। ये प्लेट्स क्षैतिज और
ऊर्ध्वाधर, दोनों ही तरह से अपनी जगह से हिल सकती हैं। इसके बाद वे अपनी
जगह तलाशती हैं और ऐसे में एक प्लेट दूसरी के नीचे आ जाती है।
भूकंप को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि “पृथ्वी के
भूपटल में उत्पन्न तनाव के आकस्मिक मुक्त होने से धरती की सतह के हिलने की
घटना भूकंप कहलाती है”। इस तनाव के कारण हल्का सा कंपन उत्पन्न होने पर
पृथ्वी में व्यापक स्तर पर उथल-पुथल विस्तृत क्षेत्र में तबाही का कारण बन
सकती है।
जस बिंदु पर भूकंप उत्पन्न होता है उसे भूकंपी केंद्रबिंदु और उसके ठीक
ऊपर पृथ्वी की सतह पर स्थित बिंदु को अधिकेंद्र अथवा अंतःकेंद्र के नाम से
जाना जाता है। अधिकेंद्र की स्थिति को उस स्थान के अक्षांशों और देशांतरों
के द्वारा व्यक्त किया जाता है।
भूकंप के समय एक हल्का सा झटका महसूस होता है। फिर कुछ अंतराल के बाद एक
लहरदार या झटकेदार कंपन महसूस होता है, जो पहले झटके से अधिक प्रबल होता
है। छोटे भूकंपों के दौरान भूमि कुछ सेकंड तक कांपती है, लेकिन बड़े
भूकंपों में यह अवधि एक मिनट से भी अधिक हो सकती है। सन् 1964 में अलास्का
में आए भूकंप के दौरान धरती लगभग तीन मिनट तक कंपित होती रही थी।
भूकंप के कारण धरती के कांपने की अवधि विभिन्न कारणों जैसे अधिकेंद्र से
दूरी, मिट्टी की स्थिति, इमारतों की ऊंचाई और उनके निर्माण में प्रयुक्त
सामग्री पर निर्भर करती है।
रिक्टर स्केल उपकरण
भूकंप की तीव्रता मापने के लिए रिक्टर स्केल का पैमाना इस्तेमाल किया
जाता है। इसे रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्केल कहा जाता है। भूकंप की तरंगों
को रिक्टर स्केल 1 से 9 तक के आधार पर मापता है। रिक्टर स्केल पैमाने को
सन 1935 में कैलिफॉर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी में कार्यरत वैज्ञानिक
चार्ल्स रिक्टर ने बेनो गुटेनबर्ग के सहयोग से खोजा था।
इस स्केल के अंतर्गत प्रति स्केल भूकंप की तीव्रता 10 गुणा बढ़ जाती है
और भूकंप के दौरान जो ऊर्जा निकलती है वह प्रति स्केल 32 गुणा बढ़ जाती है।
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि 3 रिक्टर स्केल पर भूकंप की जो तीव्रता थी वह 4
स्केल पर 3 रिक्टर स्केल का 10 गुणा बढ़ जाएगी। रिक्टर स्केल पर भूकंप की
भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 8 रिक्टर पैमाने पर आया
भूकंप 60 लाख टन विस्फोटक से निकलने वाली ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है।
भूकंप को मापने के लिए रिक्टर के अलावा मरकेली स्केल का भी इस्तेमाल
किया जाता है। पर इसमें भूकंप को तीव्रता की बजाए ताकत के आधार पर मापते
हैं। इसका प्रचलन कम है क्योंकि इसे रिक्टर के मुकाबले कम वैज्ञानिक माना
जाता है। भूकंप के कारण होने वाले नुकसान के लिए कई कारण जिम्मेदार हो सकते
हैं, जैसे घरों की खराब बनावट, खराब संरचना, भूमि का प्रकार, जनसंख्या की
बसावट आदि।
भूकंप एक सामान्य घटना है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में लगभग प्रत्येक
87 सेकंड में कहीं न कहीं धरती हल्के से कांपती है। इन झटकों को महसूस तो
किया जा सकता है लेकिन ये इतने शक्तिशाली नहीं होते कि इनसे किसी प्रकार की
क्षति हो सके। प्रति वर्ष धरती पर औसतन 800 भूकंप ऐसे आते हैं जिनसे कोई
नुकसान नहीं होता है। इनके अतिरिक्त धरती पर प्रति वर्ष 18 बड़े भूकंप आने
के साथ एक अतितीव्र भूकंप भी आता है।
बिरले ही भूकंप की घटना थोड़े ही समय अंतराल के दौरान भूकंपों के
विभिन्न समूह रूप में हो सकती है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के
न्यू मैड्रिड में सात सप्ताह (16 दिसंबर 1811, 7 फरवरी और 23 फरवरी 1812)
के दौरान भूकंप की तीन तीव्र घटनाएँ घटित हुई थी। इसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया
के टेनेट क्रीक में 22 जनवरी, 1988 को 12 घंटे की अवधि के दौरान भूकंप की
तीन तीव्र घटनाएँ घटित हुई थीं।
किसी बड़े भूकंप से पहले अथवा बाद में विभिन्न तीव्रता के कंपन उत्पन्न
होते हैं। भूकंपविज्ञानियों ने इस परिघटना की व्याख्या करने के लिए
अग्रलिखित तीन शब्दों का उपयोग किया है:
किसी भी भूकंप समूह के सबसे बड़े भूकंप को, जिसका परिमाण सर्वाधिक हो,
मुख्य आघात कहते हैं। मुख्य आघात से पहले के कंपन को पूर्ववर्ती आघात और
मुख्य आघात के बाद आने वाले कंपनों को पश्चवर्ती आघात कहा जाता है।
भूकंप को मुख्यतः दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है :-
रूप से आने वाले भूकंप विवर्तनिक भूकंप भी कहलाते हैं क्योंकि ये पृथ्वी
के विवर्तनिक गुण से संबंधित होते हैं। प्राकृतिक रूप से आने वाले अधिकतर
भूकंप भ्रंश (फाल्ट) के साथ आते हैं। भ्रंश भूपटल में हलचल के कारण उत्पन्न
होने वाली दरार या टूटन है। ये भ्रंश कुछ मिलीमीटर से कई हजार किलोमीटर तक
लंबे हो सकते हैं। भूविज्ञान कालक्रम के दौरान अधिकतर भ्रंश दोहरे
विस्थापनों का निर्माण करते हैं।
यदि भ्रंश लम्बवत होता है तब भ्रंश को सामान्य भ्रंश कहा जाता है जहां
प्रत्येक तरफ की चट्टानें एक-दूसरे से विपरीत गति करती हैं। विलोम भ्रंश
में एक किनारा दूसरे किनारे पर चढ़ जाता है। निम्न कोण का विलोम भ्रंश,
क्षेप (थ्रस्ट) कहलाता है। दोनों किनारों में एक-दूसरे के सापेक्ष गति होने
पर पार्श्वीय भ्रंश या चीर भ्रंश का निर्माण होता है।
विवर्तनिक भूकंप को पुनः दो उपभागों आंतरिक प्लेट भूकंप और अंतर प्लेट
भूकंप में वर्गीकृत किया गया है। जब कोई भूकंप विवर्तनिक प्लेट की सीमा के
साथ होता है तो उसे आंतरिक प्लेट भूकंप कहते हैं। अधिकतर विवर्तनिक भूकंप
प्रायः इसी श्रेणी के होते हैं। अंतर प्लेट भूकंप प्लेट के अंदर और प्लेट
सीमा से दूर आते हैं।
भूकंप, महाद्वीप के स्थायी महाद्वीप क्षेत्र कहलाने वाले पुराने और अधिक स्थायी भाग में भी आते रहते हैं।
ज्वालामुखी के मैग्मा में होने वाली हलचल भी प्राकृतिक रूप से आने वाले
भूकंपों का कारण हो सकती है। इस प्रकार के भूकंप ज्वालामुखी विस्फोट की
अग्रिम चेतावनी देने वाले होते हैं।
मानवीय गतिविधियाँ भी भूकंप को प्रेरित कर सकती हैं। गहरे कुओं से तेल
निकालना, गहरे कुओं में अपशिष्ट पदार्थ या कोई तरल भरना अथवा निकालना, जल
की विशाल मात्रा को रखने वाले विशाल बांधों का निर्माण करना और नाभिकीय
विस्फोट जैसी विनाशकारी घटना के समान गतिविधियाँ मानव प्रेरित भूकंप का
कारण हो सकती हैं।
कृत्रिम जलाशय के कारण आने वाले बड़े भूकंपों में से एक भूकंप सन् 1967
में महाराष्ट्र के कोयना क्षेत्र में आया था। भूकंप का कारण बनी एक और
कुख्यात मानवीय गतिविधि संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलरेडो स्थित राकी
माउटेंन पर डेनवेर क्षेत्र में तरल पदार्थ को गहरे कुओं में प्रवेश कराए
जाने से संबंधित रही है।
विवर्तनिक सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की बाहरी पर्त या भूपटल की बनावट
बड़ी और छोटी कठोर प्लेटों से बनी चौखटी आरी (जिग्सॉ) जैसी होती है। इन
प्लेटों की मोटाई सैकड़ों किलोमीटर तक हो सकती है। संभवतः प्रावार के नीचे
संवहन धाराओं के प्रभाव से ये प्लेटें एक-दूसरे के सापेक्ष गति करती हैं।
पृथ्वी को अनेक भूकंपी प्लेटों में बांटा गया है। इन प्लेटों के अंतर पर,
जहां प्लेटें टकराती या एक-दूसरे से दूर जाती हैं वहां बड़े भूमिखंड पाए
जाते हैं। इन प्लेटों की गति काफी धीमी होती है। अधिकतर तीव्र भूकंप वहीं
आते हैं, जहां ये प्लेटें आपस में मिलती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
प्लेटों के किनारे आपस में एक दूसरे में फंस जाती हैं जिससे यह गति नहीं कर
पाती और इनके मध्य दबाव उत्पन्न होता है। नतीजतन प्लेटें एक-दूसरे को
प्रचंड झटका देकर खिसकती है और धरती प्रचंड रूप से कंपित होती है। इस
प्रक्रिया में विशाल भ्रंशों के कारण पृथ्वी की भूपटल पर्त फट जाती है।
किसी क्षेत्र में एक बार भ्रंशों के उत्पन्न हो जाने पर वह क्षेत्र
कमजोर हो जाता है। भूकंप वस्तुतः पृथ्वी के अंदर संचित तनाव के बाहर निकलने
का माध्यम है, जो सामान्यतया इन भ्रंशों के दायरे में ही सीमित होते हैं।
जब पृथ्वी के अंदर का तनाव मौजूद भ्रंशों से दूर स्थित किसी अन्य स्थान पर
निस्तारित होता है, तब नए भ्रंश उत्पन्न होते हैं।
परिमाण और तीव्रता किसी भूकंप की प्रबलता मापने के दो तरीके हैं। भूकंप
के परिमाण का मापन भूकंप-लेखी में दर्ज भू-तरंगों के आधार पर किया जाता है।
भूकंप-लेखी भूकंप का पता लगाने वाला उपकरण है। किसी भूकंप की प्रबलता
भूकंप-लेखी में दर्ज हुए संकेतों के अधिकतम आयाम एवं भूकंप स्थल से उपकरण
की दूरी के आधार पर निर्धारित की जाती है।
रिक्टर पैमानें पर निर्धारित परिमाण के आधार पर भूकंपों का वर्गीकरण नीचे दिया गया है।
रिक्टर पैमाने पर तीव्रता | प्रभाव |
0 से 1.9 | सिर्फ सीज्मोग्राफ से ही पता चलता है। |
2 से 2.9 | हल्का कंपन। |
3 से 3.9 | कोई ट्रक आपके नजदीक से गुजर जाए, ऐसा अहसास |
4 से 4.9 | खिड़कियां टूट सकती हैं। दीवारों पर टंगी फ्रेम गिर सकती हैं। |
5 से 5.9 | फर्नीचर हिल सकता है। |
6 से 6.9 | इमारतों की नींव दरक सकती है। ऊपरी मंजिलों को नुकसान हो सकता है। |
7 से 7.9 | इमारतें गिर जाती हैं। जमीन के अंदर पाइप फट जाते हैं। |
8 से 8.9 | इमारतों सहित बड़े पुल भी गिर जाते हैं। |
9 और उससे ज्यादा | पूरी तबाही। कोई मैदान में खड़ा हो तो उसे धरती लहराते हुए दिखाई देगी। यदि समुद्र नजदीक हो तो सुनामी आने की पूर्ण सम्भावना। |
पैमाना आरंभ तो एक इकाई से होता है लेकिन इसका कोई अंतिम छोर तय नहीं किया
गया है, वैसे अब तक ज्ञात सर्वाधिक प्रबल भूकंप की तीव्रता 8.8 से 8.9 के
मध्य मापी गई है। चूंकि रिक्टर पैमाने का आधार लघु गणकीय होता है, इसलिए
इसकी प्रत्येक इकाई उसके ठीक पहले वाली इकाई से दस गुनी अधिक होती है।
रिक्टर पैमाना भूकंप के प्रभाव को तो नहीं मापता है, यह पैमाना तो
भूकंप-लेखी द्वारा भूकंप के दौरान मुक्त हुई ऊर्जा के आधार पर भूकंप की
शक्ति का निर्धारण करता है।
अभी तक भारत में आए सर्वाधिक प्रबलता के भूकंप का परिमाण रिक्टर पैमाने
पर 8.7 मापा गया है, यह भूकंप 12 जून, 1897 को शिलांग प्लेट में आया था।
रिक्टर परिमाण का प्रभाव भूकंप के अधिकेंद्र वाले समीपवर्ती क्षेत्रों में
महसूस किया जाता है। भूकंप के सर्वाधिक ज्ञात प्रबल झटके का परिमाण 8.8 से
8.9 के परास (रेंज) तक देखा गया है।
भूकंप की तीव्रता का मापन भूकंप का व्यक्तियों, इमारतों, और भूमि पर
दृष्टिगोचर होने वाले प्रभावों की व्यापकता के आधार पर किया जाता है। किसी
विशिष्ट क्षेत्र में भूकंप की प्रबलता भूकंप द्वारा पृथ्वी में होने वाली
हलचल की प्रबलता के आधार पर मापी जाती है, जिसका निर्धारण जीव-जंतुओं,
मानवों, इमारतों, फर्नीचरों और प्राकृतिक परिवेश में आए बदलावों के आधार पर
किया जाता है। किसी विशिष्ट भूकंप के परिमाण के अद्वितीय होने के विपरीत
भूकंप की तीव्रता उस स्थान से अधिकेंद्र की दूरी, उद्गम केंद्र की गहराई,
स्थानीय भूमि विन्यास और भ्रंश की गति के प्रकार पर निर्भर करती है।
भूकंप किसी भी क्षेत्र में और किसी भी समय आ सकता है। प्रशांत-चक्रीय
भूकंप पट्टी के नाम से प्रसिद्ध अश्वाकार क्षेत्र में विश्व के अधिकतर
भूकंप आते हैं। करीब चालीस हजार किलोमीटर लंबा यह क्षेत्र प्रशांत अग्नि
वलय या अग्नि वलय के नाम से भी जाना जाता है।
वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के ऐसे तीन विशाल क्षेत्रों की पहचान की है, जहां अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक भूकंप आते हैं।
विश्व का पहला भूकंप क्षेत्र प्रशांत-चक्रीय भूकंप पट्टी है। पृथ्वी पर
घटित होने वाली कुल भूकंपी घटनाओं में से 81 प्रतिशत भूकंपी घटनाएँ इसी
क्षेत्र में घटित होती हैं। प्रशांत महासागर के किनारे पर पाई जाने वाली यह
पट्टी चिली से उत्तर की ओर बढ़ कर दक्षिण अमेरिका के समुद्री किनारे से
होते हुए मध्य अमेरिका, मैक्सिको, अमेरिका के पश्चिमी किनारे, जापान के
एल्यूशियन द्वीप समूह, फिलीपीन द्वीप समूह, न्यू गिनी, दक्षिण-पश्चिम
प्रशांत महासागर में स्थित द्वीप समूह और न्यूजीलैंड तक जाती है।
भूकंप के प्रति दूसरी अति संवेदनशील पट्टी में अल्पाइड क्षेत्र शामिल
है। इस क्षेत्र में विश्व के 17 प्रतिशत भूकंप आते हैं। यह पट्टी जावा से
होती हुई सुमात्रा, हिमालय, भूमध्य सागर और अटलांटिक क्षेत्र तक विस्तारित
है। यह विश्व का दूसरा सबसे अधिक भूकंप प्रभावित क्षेत्र है।
तीसरी महत्वपूर्ण भूकंपी पट्टी जलमग्न मध्य-अटलांटिक कटक का अनुसरण करती है।
को पांच विभिन्न भूकंपी क्षेत्रों में बांटा गया है। इन क्षेत्रों को
भूकंप की व्यापकता के घटते स्तर के अनुसार क्षेत्र I से लेकर क्षेत्र V तक
वर्गीकृत किया गया है।
भारतीय उपमहाद्वीप में भूकंप का खतरा हर जगह अलग-अलग है। भारत को भूकंप
के क्षेत्र के आधार पर चार हिस्सों जोन-2, जोन-3, जोन-4 तथा जोन-5 में
बांटा गया है। जोन 2 सबसे कम खतरे वाला जोन है तथा जोन-5 को सर्वाधिक खतनाक
जोन माना जाता है।
उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश
के कुछ हिस्से जोन-5 में ही आते हैं। उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले हिस्सों
से लेकर उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन-4 में आते हैं।
मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-3 में आता है, जबकि दक्षिण
के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरे वाले जोन-2 में आते हैं।
हालांकि राजधानी दिल्ली में ऐसे कई इलाके हैं जो जोन-5 की तरह खतरे वाले
हो सकते हैं। इस प्रकार दक्षिण राज्यों में कई स्थान ऐसे हो सकते हैं जो
जोन-4 या जोन-5 जैसे खतरे वाले हो सकते हैं। दूसरे जोन-5 में भी कुछ इलाके
हो सकते हैं जहां भूकंप का खतरा बहुत कम हो और वे जोन-2 की तरह कम खतरे
वाले हों। भारत में लातूर (महाराष्ट्र), कच्छ (गुजरात) जम्मू-कश्मीर में
बेहद भयानक भूकंप आ चुके है। इसी तरह इंडोनिशिया और फिलीपींस के समुद्र में
आए भयानक भूकंप से उठी सुनामी भारत, श्रीलंका और अफ्रीका तक लाखों लोगों
की जान ले चुकी है।
भूकंप की तीव्रता का अंदाजा उसके केंद्र ( एपीसेंटर) से निकलने वाली
ऊर्जा की तरंगों से लगाया जाता है। सैंकड़ो किलोमीटर तक फैली इस लहर से कंपन
होता है और धरती में दरारें तक पड़ जाती है। अगर भूकंप की गहराई उथली हो तो
इससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा सतह के काफी करीब होती है जिससे भयानक तबाही
होती है। लेकिन जो भूकंप धरती की गहराई में आते हैं उनसे सतह पर ज्यादा
नुकसान नहीं होता। समुद्र में भूकंप आने पर सुनामी उठती है। पिछले दिनों
जापान के नजदीक समुद्र में आए भूकंप से उठी सुनामी ने भयानक तबाही मचाई थी।
भूकंप के दौरान तरंगों के रूप में विशाल मात्रा में मुक्त होने वाली
विकृति ऊर्जा को भूकंपी ऊर्जा कहा जाता है। भूकंपी तरंगें भूमि या उसकी सतह
के साथ संचरित होती हैं। भूकंपी तरंगों को विश्व भर में अनुभव किया जा
सकता है। भूकंपी तरंगों की भौतिकी अति जटिल होती है। यह तरंगें सभी दिशाओं
में संचरण करती हुई प्रत्येक अवरोधों से प्रत्यावर्तित और परिवर्तित होती
है। ये तरंगें, जो पृथ्वी के आधार के साथ सभी दिशाओं में फैलती हैं, पिंड
या काय तरंगें कहलाती हैं। इनके अलावा पृथ्वी सतह के निकट तक सीमित रहने
वाली तरंगों को पृष्ठीय तरंगें कहा जाता है।
पिंड तरंगें दो प्रकार की होती है: पहली प्राथमिक तरंग या पी तरंग और
दूसरी द्वितीयक तरंग या एस तरंग। पृष्ठीय तरंगें दो तरंगों, लव तरंग और
रैले तरंग से मिलकर बनती है। पी तरंगें सर्वाधिक तीव्र होती हैं और ये
तरंगें एस तरंगों, लव तरंगों और रैले तरंगों का अनुसरण करने वाली होती हैं।
पी तरंगों के कारण ही भवनों में सर्वप्रथम कंपन होता है। पी तरंगों के
बाद ही किसी संरचना के पार्श्वीय भाग को स्पंदित करने वाली एस तरंगों के
प्रभाव को अनुभव किया जा सकता है। चूंकि इमारतों को लंबवत कंपनों की तुलना
में अनुप्रस्थ कंपन आसानी से क्षतिग्रस्त करती हैं। अतः पी तरंगें अधिक
विनाशकारी है। रैले तरंगें और लव तरंगें सबसे अंत में आती है। जहां पी और
एस तरंगों के कारण उच्च आवृत्ति के कंपन उत्पन्न होते हैं, वहीं रैले और लव
तरंगों के कारण कम आवृत्ति वाले कंपन उत्पन्न होते हैं। सूक्ष्म और तीव्र
वेग वाली होने के कारण पी एवं एस तरंगें झटकों और धक्कों के लिए जिम्मेदार
होती है। पृष्ठीय तरंगें लंबी और धीमी होती हैं और यह लहरदार (रोलिंग)
प्रभाव उत्पन्न करती हैं। भूकंपी तरंगों की गति विभिन्न प्रकार की चट्टानों
में अलग-अलग होती हैं। जहां पृष्ठीय तरंगें अधिक समय तक बनी रहती हैं वहीं
पिंड तरंगें कुछ ही समय में समाप्त हो जाती हैं।
रिक्टर पैमाने पर आए समान परिमाण के भूकंप के कारण हुई तबाही में अंतर
हो सकता है। इसका कारण यह है कि भूकंप से होने वाली क्षति एक से अधिक
कारकों पर निर्भर होती है। भूकंप के केंद्र-बिंदु की गहराई ऐसा ही एक
महत्वपूर्ण कारक है। यदि भूकंप काफी गहराई में जन्म लेता है तो इससे सतही
नुकसान कम ही होता है। 26 जनवरी, 2001 को गुजरात में आया भूकंप का
केंद्र-बिंदु अपेक्षाकृत कम गहराई अर्थात उथले स्तर पर स्थित था। इस भूकंप
की गहराई 25 किलोमीटर से भी कम होने से इसकी प्रबलता भी कम थी। इसी प्रकार
1999 के मार्च महीनें में गढ़वाल क्षेत्र में आया भूकंप का केंद्र-विंदु भी
कम गहराई पर स्थित था।
सुग्राही भूकंप-लेखी द्वारा प्रतिदिन विश्व के अनेक भागों में आए
भूकंपों को मापा जाता है। सौभाग्य से उनमें से अधिकतर भूकंप कम प्रबलता
वाले होते हैं, जिनसे कोई विशेष नुकसान नहीं होता है।
भूकंप दो अनुप्रस्थ व एक लंबवृत दिशा के साथ भूमि को तीनों दिशाओं में
कंपित कर देता है। भूमि अनियमित रूप से इन तीनों दिशाओं में कंपित होती
रहती है। हालांकि अनुप्रस्थ कंपन अधिक विनाशकारी होता है। भूकंप से होने
वाला आरंभिक नुकसान इमारतों या संरचनाओं के क्षतिग्रस्त होने के रूप में
सामने आता है।
एक भूकंप के दौरान होने वाली हानि मुख्यतः निम्न कारकों पर निर्भर करती हैं।
किसी भूकंप के दौरान मानव निर्मित संचनाओं के गिरने और वस्तुओं एवं कांच
के हवा में उछलने से जान-माल की हानि अधिक होती है। शिथिल या ढीली मिट्टी
में बनने वाली दृढ़ संरचनाओं की अपेक्षा आधारशैल पर बनने वाली लचीली
संरचनाओं में भूकंप से क्षति कम होती है। कुछ क्षेत्रों में भूकंप से
पहाड़ी ढाल से मृदा की परतों के फिसलने से अनेक लोग दब सकते हैं। बड़े
भूकंपों के कारण धरती की सतह पर प्रचंड हलचल होती है। कभी-कभी इनके कारण
समुद्र में विशाल लहरें उत्पन्न होती हैं जो किनारों पर स्थित वस्तुओं को
बहा ले जाती हैं। ये लहरें भूकंप के कारण सामान्य तौर पर होने वाले विनाश
को और बढ़ा देती हैं। अक्सर प्रशांत महासागर में इस प्रकार की लहरें
उत्पन्न होती है। इन विनाशकारी लहरों को सुनामी कहा जाता है।
यह संदेश बड़ा सरल है कि भूकंप पूर्व उचित सुरक्षा उपायों को अपनाकर
इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है, किंतु हर बार यह संदेश भूकंप
के बाद ही भूला दिया जाता है और भूकंप के आने पर यह संदेश फिर से दोहराया
जाता है। भूकंप से होने वाली क्षति को कम करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा
उपायों को अपनाया जाने के साथ ही इमारतों के निर्माण के समय भूकंप संबंधी
सुरक्षा उपायों को अपनाने के लिए उचित कानून बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया
जाना चाहिए।
भारतीय मानक विभाग (ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्स) ने पहली बार सन् 1962
में एवं फिर 1967 में भूकंप प्रतिरोधी भवनों के लिए मानक (कोड) एवं
दिशा-निर्देश निर्धारित किए। बाद में इनमें संशोधन करके इन्हें विस्तारित
और आधुनिक बनाया गया। लेकिन इस संहिता की प्रकृति केवल सुझावात्मक हैं,
इसलिए संतोषजनक ढंग से अनुपालन नहीं किया जाता है (शायद कुछ सरकारी संगठनों
को छोड़कर)। इस विषय में थोड़ा संदेह है कि भविष्य में ऐसे क़ानूनों के
दायरे में शहरी और ग्रामीण नियोजन अधिनियम में संशोधन का मास्टर प्लान के
विकास से संबंधित नियम एवं स्थानीय निकायों के भवन निर्माण संबंधी उपनियमों
में सुरक्षा प्रणालियों का समावेश किया जाएगा।
यदि भूकंप के बाद के राहत कार्य समय से हों और कुशलता बरती जाए तो इस
आपदा में हताहत होने वालों की संख्या में कमी लाई जा सकती है। इसके लिए
क्रेनों जैसे बड़े उपकरण और अवरोधों को दूर करने के लिए ब्लोटार्चों और
ध्वनिक युक्तियों जैसे छोटे उपकरण, दबे लोगों का पता लगाने वाले प्रशिक्षित
कुत्ते, डॉक्टरों, विशेषकर विकलांग विज्ञान के शल्य चिकित्सक और पर्याप्त
चिकित्सा सुविधाओं वाले उपकरण और आकस्मिक स्थिति के लिए रक्त आपूर्ति की
आवश्यकता होती है। इनके अलावा अस्थायी आवास स्थलों, कपड़ों और भोजन के लिए
खाद्य सामग्री की आवश्यकता होती है। आपदा के पश्चात उत्पन्न होने वाली
परिस्थितियों को संभालने के लिए हमें निम्न बातों पर विशेष ध्यान देने की
आवश्यकता होगी:-
हाल के अनुभवों से भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में शौकिया रेडियो या हैम
रेडियों की उपयोगिता सिद्ध हुई है। क्योंकि भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में
सामान्य क्षेत्रों में सामान्य संचार व्यवस्था ठप हो जाती है तब यह युक्ति
आपदाग्रस्त इलाकों में संचार स्थापित करने में काफी कारगार सिद्ध होती है।
हैम रेडियो बेतार संचार प्रणाली पर आधारित होने के कारण आपातकालीन और आपदा
संचार में बहुत उपयोगी साबित होता है। इसलिए हम रेडियो को लोकप्रिय बनाने
के लिए प्रयास करने चाहिए। इसके साथ ही इंटरनेट हमें बिना समय गंवाए विश्व
के विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध सारी आवश्यक सूचनाएं उपलब्ध कराने में
सहायक हो सकता है। इसके अलावा इंटरनेट संचार व्यवस्था में भी उपयोगी है।
अभियंताओं ने भूकंप-रोधी इमारतों के निर्माण के लिए मानक विकसित किए
हैं। यह विचार पूर्णतया भूकंप-सुरक्षित भवनों से संबंधित न होकर भूमि कंपन
से प्रतिरोधी गुण संपन्न भवनों से संबंधित है। ये इमारतें सुविन्यासित,
पार्श्व से मजबूत, पर्याप्त दृढ़ता एवं अच्छी तन्यता क्षमता वाली होती है।
भूकंप-सुरक्षित ऐसी इमारतें बड़े भूकंपों के दौरान भी नहीं गिरती हैं।
भूकंप का पूर्वानुमान करने के लिए चार घटकों की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में निम्नलिखित घटना ओं के कारण भूकंप विज्ञान ने अत्यधिक प्रगति की :-
पहली बार सन् 1971 में न्यूयार्क में आए ब्लू माउंटेन झील के भूकंप की
सही भविष्यवाणी की गई थी। भूकंप के संबंध में सफलतापूर्वक भविष्यवाणी करने
का दूसरा उदाहरण सन् 1975 के हाईचेंग भूकंप से संबंधित है। लेकिन पार्क
फील्ड भूकंप के बारे में की गई भविष्यवाणी गलत साबित हुई थी। अभी तक भूकंप
की परिशुद्ध भविष्यवाणी करने की कोई सफल वैज्ञानिक पद्धति उपलब्ध नहीं है।
कुछ विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जटिल और अविश्वसनीय कारकों के समाहित होने
के कारण समय सीमा, स्थान और परिमाण की शुद्धता के साथ भूकंप की यथार्थ
भविष्यवाणी संभव नहीं है। भूपृष्ठीय प्लेटों की सीमाओं के संकरे क्षेत्र के
सुस्पष्ट स्थानिक वितरण के बावजूद इन क्षेत्रों में बहुत अधिक बसावट है।
हालांकि यदि सभी आवश्यक आंकड़े उपलब्ध हों तब सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग कर
भूकंप के कब और कहां आने की संभावना का अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन इन
विधियों पर आधारित भूकंप पुर्वानुमान अस्पष्ट होता है जिसके अंतर्गत 10
वर्षों के समय परास में, भूकंप के क्षेत्र बिंदु से 200 किलोमीटर तक कहीं
भी भूकंप आ सकता है। अतः यदि इस प्रकार का पूर्वानुमान सही भी साबित हो तब
भी आपदा से निपटने की तैयारी के हिसाब से यह अनुपयोगी होगा।
भूकंप को रोकना न ही संभव है और न ही उसकी यथार्थ भविष्यवाणी करना,
लेकिन ऐसी संरचनाओं का निर्माण तो संभव है जो भूमि की गति का प्रतिरोध करने
के साथ सुरक्षित भी साबित हों। वर्तमान में अभियांत्रिकी क्षेत्र के
अंतर्गत निर्माण कार्यों में भूकंप प्रतिरोधी परिकल्पनाओं का विकास हो रहा
है।
यह महत्वपूर्ण बात ध्यान रखना चाहिए कि भूकंप स्वयं व्यक्तियों को ना तो
घायल करता है और ना ही मार सकता है। भूकंप के दौरान गिरती वस्तुएँ, ढहती
दीवारें और उतरता प्लास्टर किसी व्यक्ति को घायल करने या उसकी मौत के लिए
जिम्मेदार हो सकते हैं। इनके अलावा भूकंप से कुछ अन्य खतरे भी जुड़े होते
हैं। जैसे गिरता मलबा और उसके फैलाव से अवरोध उत्पन्न होने से एवं विद्युत
लाइनों के कारण और जलते स्टोव या गैस से आग लगने से व्यापक क्षति हो सकती
है।
भूकंप के दौरान आपको निम्न बिंदुओं को याद रखना चाहिए।
यदि स्वयंसेवक भूकंप पश्चात के परिदृश्य में राहत कार्य करना चाहे तो इन वस्तुओं को ले जाना याद रखें।
तैयारी के साथ आकस्मिक स्थिति का सामना अधिक कुशलता से किया जा सकता है।
अधिकतर भूकंप बिना चेतावनी के आते हैं इसलिए इस तरह की अप्रत्याशित घटनाओं
में पहले से बनाई गई योजना काफी महत्वपूर्ण साबित होती है।
Bhookamp ke adhyan ko kya kahte Hain?
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