नौ नाथ तथा चौरासी सिद्ध कौन है
प्राचीन काल में तिब्बत हिन्दू धर्म का प्रमुख केंद्र था। इसे वेद-पुराणों में त्रिविष्टप कहा गया है। तिब्बत प्राचीन काल से ही योगियों और सिद्धों का घर माना जाता रहा है तथा अपने पर्वतीय सौंदर्य के लिए भी यह प्रसिद्ध है। संसार में सबसे अधिक ऊंचाई पर बसा हुआ प्रदेश तिब्बत ही है। तिब्बत मध्य एशिया का सबसे ऊंचा प्रमुख पठार है। वर्तमान में यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र है।
तिब्बत का द्रुकपा संप्रदाय और हेमिस मठ
तिब्बत में ही भगवान शिव का निवास स्थान कैलास पर्वत और मानसरोवर स्थित है। इसे धरती का स्वर्ग कहा गया है। महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व में स्वर्गारोहण में स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत हिमालय के उस राज्य को पुकारा जाता था जिसमें नंदनकानन नामक देवराज इंद्र का देश था। इससे सिद्ध होता है कि इंद्र स्वर्ग में नहीं धरती पर ही हिमालय के इलाके में रहते थे। वहीं शिव और अन्य देवता भी रहते थे।
राहुलजी सांस्कृतायन के अनुसार तिब्बत के 84 सिद्धों की परम्परा 'सरहपा' से आरंभ हुई और नरोपा पर पूरी हुई। सरहपा चौरासी सिद्धों में सर्व प्रथम थे। इस प्रकार इसका प्रमाण अन्यत्र भी मिलता है लेकिन तिब्बती मान्यता अनुसार सरहपा से पहले भी पांच सिद्ध हुए हैं। इन सिद्धों को हिन्दू या बौद्ध धर्म का कहना सही नहीं होगा क्योंकि ये तो वाममार्ग के अनुयायी थे और यह मार्ग दोनों ही धर्म में समाया था। बौद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं कि सिद्धों की वज्रयान शाखा में ही चौरासी सिद्धों की परंपरा की शुरुआत हुई, लेकिन आप देखिए की इसी लिस्ट में भारत में मनीमा को मछींद्रनाथ, गोरक्षपा को गोरखनाथ, चोरंगीपा को चोरंगीनाथ और चर्पटीपा को चर्पटनाथ कहा जाता है। यही नाथों की परंपरा के 84 सिद्ध हैं।
यहां प्रस्तुत है तिब्बत के 84 सिद्धों की लिस्ट...
1.लूहिपा, 2.लोल्लप, 3.विरूपा, 4.डोम्भीपा, 5.शबरीपा, 6.सरहपा, 7.कंकालीपा, 8.मीनपा, 9.गोरक्षपा, 10.चोरंगीपा, 11.वीणापा, 12.शांतिपा, 13.तंतिपा, 14.चमरिपा, 15.खंड्पा, 16.नागार्जुन, 17.कराहपा, 18.कर्णरिया, 19.थगनपा, 20.नारोपा, 21.शलिपा, 22.तिलोपा, 23.छत्रपा, 24.भद्रपा, 25.दोखंधिपा, 26.अजोगिपा, 27.कालपा, 28.घोम्भिपा, 29.कंकणपा, 30.कमरिपा, 31.डेंगिपा, 32.भदेपा, 33.तंघेपा, 34.कुकरिपा, 35.कुसूलिपा, 36.धर्मपा, 37.महीपा, 38.अचिंतिपा, 39.भलहपा, 40.नलिनपा, 41.भुसुकपा, 42.इंद्रभूति, 43.मेकोपा, 44.कुड़ालिया, 45.कमरिपा, 46.जालंधरपा, 47.राहुलपा, 48.धर्मरिया, 49.धोकरिया, 50.मेदिनीपा, 51.पंकजपा, 52.घटापा, 53.जोगीपा, 54.चेलुकपा, 55.गुंडरिया, 56.लुचिकपा, 57.निर्गुणपा, 58.जयानंत, 59.चर्पटीपा, 60.चंपकपा, 61.भिखनपा, 62.भलिपा, 63.कुमरिया, 64.जबरिया, 65.मणिभद्रा, 66.मेखला, 67.कनखलपा, 68.कलकलपा, 69.कंतलिया, 70.धहुलिपा, 71.उधलिपा, 72.कपालपा, 73.किलपा, 74.सागरपा, 75.सर्वभक्षपा, 76.नागोबोधिपा, 77.दारिकपा, 78.पुतलिपा, 79.पनहपा, 80.कोकालिपा, 81.अनंगपा, 82.लक्ष्मीकरा, 83.समुदपा और 84.भलिपा।
नवनाथ : आदिनाथ, अचल अचंभानाथ, संतोषनाथ, सत्यानाथ, उदयनाथ, गजबलिनाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येंद्रनाथ और गौरखनाथ।
इन नामों के अंत में पा जो प्रत्यय लगा है, वह संस्कृत 'पाद' शब्द का लघुरूप है। नवनाथ की परंपरा के इन सिद्धों की परंपरा के कारण ही मध्यकाल में हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म के अस्तित्व की रक्षा होती रही। इन सिद्धों के कारण ही अन्य धर्म के संतों की परंपरा भी शुरू हुई। इन सिद्धों के इतिहास को संवरक्षित किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है।
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 40 बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल 14 रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
यह सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है।
इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ।
पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।
श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।
श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं।
श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए।
श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं।
यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है। ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है।
बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे।
इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे।
इस सम्बन्ध में एक दूसरा लेख भी मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैः-
1ओंकार नाथ,
2उदय नाथ,
3सन्तोष नाथ,
4अचल नाथ,
5गजबेली नाथ,
6ज्ञान नाथ,
7चौरंगी नाथ,
8मत्स्येन्द्र नाथ,
9गुरु गोरक्षनाथ।
सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है।
यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है, यथाः-
1 सत्यनाथ,
2 धर्मनाथ,
3 दरियानाथ,
4 आई पन्थी,
5 रास के,
6 वैराग्य के,
7 कपिलानी,
8 गंगानाथी,
9 मन्नाथी,
10 रावल के,
11 पाव पन्थ,ी
12 पागल।
इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में योगी सम्प्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं।
श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं।
काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था।
इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि।
श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।
श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है।
भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं।
यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है " स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित" जैसा कि " सिद्ध सिद्धान्त पद्धति" में लिखा हैः-
"सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।"
अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। पुनश्चः-
" वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।
इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।"
"एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम्
अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥"
उपर्युक्त लेखानुसार इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है।
नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।
योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे 'सिले' कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं अर्थात शिव की उपासना करते है। षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है। जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है।
वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं। इसी हेतु "अवधूत योगी महासभा" का संगठन हुआ है और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है।
प्राचीन काल में स्याल कोट नामक राज्य में शंखभाटी नाम के एक राजा थे। उनके पूर्णमल और रिसालु नाम के पुत्र हुए। यह श्री गोरक्षनाथ के शिष्य बनने के पश्चात क्रमशः चोरंगी नाथ और मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध होकर उग्र भ्रमण शील रहें। "योगश्चित वृत्ति निरोधः" सूत्र की अन्तिमावस्था को प्राप्त किया और इसी का प्रचार एंव प्रसार करते हुए जन कल्याण किया और भारतीय या माननीय संस्कृति को अक्षूण्ण बने रहने का बल प्रदान किया। उर्पयुक्त 12 पंथो में जो "मन्नाथी" पंथ है वह इन्ही का श्री मन्नाथ पंथ है। श्री मन्नाथ ने भ्रमण करते हुए वर्तमान जयपुर राज्यान्तर्गत शेखावाटी प्रान्त के बिसाऊ नगर के समीप आकर अपना आश्रम निर्माण किया। यह ग्राम अब 'टाँई' के नाम से प्रसिद्ध है। श्री मन्नाथ ने यहीं पर अपना शरीर त्याग किया था, यही पर इनका समाधि मन्दिर है और मन्नाथी योगियों का गुरु द्वार हैं। 'टाँई' के आश्रम के अधीन प्राचीन काल से 2000 बीघा जमीन है, अच्छा बड़ा मकान है और इसमे कई समाधियाँ बनी हुई है। इससे ज्ञात होता है कि श्री मन्नाथ के पश्चात् यहाँ पर दीर्घकाल तक अच्छे सन्त रहते रहे है। इस स्थान में बाबा श्री ज्योतिनाथ जी के शिष्य श्री केशरनाथ रहते थे। अब श्री ज्ञाननाथ रहते हैं। इन दिनों इस आश्रम का जीर्णोद्वार भी हुआ हैं। श्री मन्नाथ के परम्परा में आगे चल कर श्री चंचलनाथ अच्छे संत हुए और इन्होने कदाचित सं. 1700 वि. के आस पास झुंझुनु(जयपुर) में अपना आश्रम बनाया यही इनका समाधि मन्दिर हैं।
इससे आगे का इतिहास इस पुस्तक के परिशिष्ट सं. 2 में लिखा गया है। यदि सम्भव हुआ तो श्री गोरक्षनाथ की शिक्षाएँ एकत्र करके प्रकाशित करने की चेष्टा की जायगी।
नाथ लक्षणः-
"नाकरोऽनादि रुपंच'थकारः' स्थापयते सदा"
भुवनत्रय में वैकः श्री गोरक्ष नमोल्तुते।
"शक्ति संगम तंत्र॥
अवधूत लोग अद्वैत वादी योगी होते है जो कि बिना किसी भौतिक साधन के यौगग्नि प्रज्वलित करके कर्म विपाक को भस्म कर निजानन्द में रमण करते है और अपनी सहज शिक्षा के द्वारा जन कलयाण करते रहते है। तभी उपयुक्त नाथ शब्द सार्थक होता है।
इनका सिद्धान्तः-
न ब्रह्म विष्णु रुद्रौ, न सुरपति सुरा,
नैव पृथ्वी न चापौ।
नैवाग्निनर्पि वायुः न च गगन तलं,
नो दिशों नैव कालः।
नो वेदा नैव यज्ञा न च रवि शशिनौ,
नो विधि नैव कल्पाः।
स्व ज्योतिः सत्य मेकं जयति तव पदं,
सच्चिदानन्दमूर्ते,
ऊँ शान्ति ! प्रेम!! आनन्द!!!
नवनाथ
नवनाथ नाथ सम्प्रदाय के सबसे आदि में नौ मूल नाथ हुए हैं । वैसे नवनाथों के सम्बन्ध में काफी मतभेद है, किन्तु वर्तमान नाथ सम्प्रदाय के 18-20 पंथों में प्रसिद्ध नवनाथ क्रमशः इस प्रकार हैं -
1॰ आदिनाथ - ॐ-कार शिव, ज्योति-रुप
2॰ उदयनाथ - पार्वती, पृथ्वी रुप
3॰ सत्यनाथ - ब्रह्मा, जल रुप
4॰ संतोषनाथ - विष्णु, तेज रुप
5॰ अचलनाथ (अचम्भेनाथ) - शेषनाग, पृथ्वी भार-धारी
6॰ कंथडीनाथ - गणपति, आकाश रुप
7॰ चौरंगीनाथ - चन्द्रमा, वनस्पति रुप
8॰ मत्स्येन्द्रनाथ - माया रुप, करुणामय
9॰ गोरक्षनाथ - अयोनिशंकर त्रिनेत्र, अलक्ष्य रुप
चौरासी सिद्ध
जोधपुर, चीन इत्यादि के चौरासी सिद्धों में भिन्नता है । अस्तु, यहाँ यौगिक साहित्य में प्रसिद्ध नवनाथ के अतिरिक्त 84 सिद्ध नाथ इस प्रकार हैं -
1॰ सिद्ध चर्पतनाथ,
2॰ कपिलनाथ,
3॰ गंगानाथ,
4॰ विचारनाथ,
5॰ जालंधरनाथ,
6॰ श्रंगारिपाद,
7॰ लोहिपाद,
8॰ पुण्यपाद,
9॰ कनकाई,
10॰ तुषकाई,
11॰ कृष्णपाद,
12॰ गोविन्द नाथ,
13॰ बालगुंदाई,
14॰ वीरवंकनाथ,
15॰ सारंगनाथ,
16॰ बुद्धनाथ,
17॰ विभाण्डनाथ,
18॰ वनखंडिनाथ,
19॰ मण्डपनाथ,
20॰ भग्नभांडनाथ,
21॰ धूर्मनाथ ।
22॰ गिरिवरनाथ,
23॰ सरस्वतीनाथ,
24॰ प्रभुनाथ,
25॰ पिप्पलनाथ,
26॰ रत्ननाथ,
27॰ संसारनाथ,
28॰ भगवन्त नाथ,
29॰ उपन्तनाथ,
30॰ चन्दननाथ,
31॰ तारानाथ,
32॰ खार्पूनाथ,
33॰ खोचरनाथ,
34॰ छायानाथ,
35॰ शरभनाथ,
36॰ नागार्जुननाथ,
37॰ सिद्ध गोरिया,
38॰ मनोमहेशनाथ,
39॰ श्रवणनाथ,
40॰ बालकनाथ,
41॰ शुद्धनाथ,
42॰ कायानाथ ।
43॰ भावनाथ,
44॰ पाणिनाथ,
45॰ वीरनाथ,
46॰ सवाइनाथ,
47॰ तुक नाथ,
48॰ ब्रह्मनाथ,
49॰ शील नाथ,
50॰ शिव नाथ,
51॰ ज्वालानाथ,
52॰ नागनाथ,
53॰ गम्भीरनाथ,
54॰ सुन्दरनाथ,
55॰ अमृतनाथ,
56॰ चिड़ियानाथ,
57॰ गेलारावल,
58॰ जोगरावल,
59॰ जगमरावल,
60॰ पूर्णमल्लनाथ,
61॰ विमलनाथ,
62॰ मल्लिकानाथ,
63॰ मल्लिनाथ ।
64॰ रामनाथ,
65॰ आम्रनाथ,
66॰ गहिनीनाथ,
67॰ ज्ञाननाथ,
68॰ मुक्तानाथ,
69॰ विरुपाक्षनाथ,
70॰ रेवणनाथ,
71॰ अडबंगनाथ,
72॰ धीरजनाथ,
73॰ घोड़ीचोली,
74॰ पृथ्वीनाथ,
75॰ हंसनाथ,
76॰ गैबीनाथ,
77॰ मंजुनाथ,
78॰ सनकनाथ,
79॰ सनन्दननाथ,
80॰ सनातननाथ,
81॰ सनत्कुमारनाथ,
82॰ नारदनाथ,
83॰ नचिकेता,
84॰ कूर्मनाथ ।
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बारह पंथ
नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं । इन बारह पंथों के कारण नाथ सम्प्रदाय को ‘बारह-पंथी’ योगी भी कहा जाता है । प्रत्येक पंथ का एक-एक विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं । प्रत्येक पंथ एक पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है । नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
1॰ सत्यनाथ पंथ - इनकी संख्या 31 बतलायी गयी है । इसके मूल प्रवर्तक सत्यनाथ (भगवान् ब्रह्माजी) थे । इसीलिये सत्यनाथी पंथ के अनुयाययियों को “ब्रह्मा के योगी” भी कहते हैं । इस पंथ का प्रधान पीठ उड़ीसा प्रदेश का पाताल भुवनेश्वर स्थान है ।
2॰ धर्मनाथ पंथ – इनकी संख्या 25 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक धर्मराज युधिष्ठिर माने जाते हैं । धर्मनाथ पंथ का मुख्य पीठ नेपाल राष्ट्र का दुल्लुदेलक स्थान है । भारत में इसका पीठ कच्छ प्रदेश धिनोधर स्थान पर हैं ।
3॰ राम पंथ - इनकी संख्या 61 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भगवान् श्रीरामचन्द्र माने गये हैं । इनका प्रधान पीठ उत्तर-प्रदेश का गोरखपुर स्थान है ।
4॰ नाटेश्वरी पंथ अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ – इनकी संख्या 43 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक लक्ष्मणजी माने जाते हैं । इस पंथ का मुख्य पीठ पंजाब प्रांत का गोरखटिल्ला (झेलम) स्थान है । इस पंथ का सम्बन्ध दरियानाथ व तुलनाथ पंथ से भी बताया जाता है ।
5॰ कंथड़ पंथ - इनकी संख्या 10 है । कंथड़ पंथ के मूल प्रवर्तक गणेशजी कहे गये हैं । इसका प्रधान पीठ कच्छ प्रदेश का मानफरा स्थान है ।
6॰ कपिलानी पंथ - इनकी संख्या 26 है । इस पंथ को गढ़वाल के राजा अजयपाल ने चलाया । इस पंथ के प्रधान प्रवर्तक कपिल मुनिजी बताये गये हैं । कपिलानी पंथ का प्रधान पीठ बंगाल प्रदेश का गंगासागर स्थान है । कलकत्ते (कोलकाता) के पास दमदम गोरखवंशी भी इनका एक मुख्य पीठ है ।
7॰ वैराग्य पंथ - इनकी संख्या 124 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भर्तृहरिजी हैं । वैराग्य पंथ का प्रधान पीठ राजस्थान प्रदेश के नागौर में राताढुंढा स्थान है ।इस पंथ का सम्बन्ध भोतंगनाथी पंथ से बताया जाता है ।
8॰ माननाथ पंथ - इनकी संख्या 10 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक राजा गोपीचन्द्रजी माने गये हैं । इस समय माननाथ पंथ का पीठ राजस्थान प्रदेश का जोधपुर महा-मन्दिर नामक स्थान बताया गया है ।
9॰ आई पंथ - इनकी संख्या 10 है । इस पंथ की मूल प्रवर्तिका गुरु गोरखनाथ की शिष्या भगवती विमला देवी हैं । आई पंथ का मुख्य पीठ बंगाल प्रदेश के दिनाजपुर जिले में जोगी गुफा या गोरखकुई नामक स्थान हैं । इनका एक पीठ हरिद्वार में भी बताया जाता है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ा चौली से भी समझा जाता है ।
10॰ पागल पंथ – इनकी संख्या 4 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री चौरंगीनाथ थे । जो पूरन भगत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब-हरियाणा का अबोहर स्थान है ।
11॰ ध्वजनाथ पंथ - इनकी संख्या 3 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक हनुमानजी माने जाते हैं । वर्तमान में इसका मुख्य पीठ सम्भवतः अम्बाला में है ।
12॰ गंगानाथ पंथ - इनकी संख्या 6 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री भीष्म पितामह माने जाते हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब में गुरुदासपुर जिले का जखबार स्थान है ।
कालान्तर में नाथ सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े - 1॰ रावल (संख्या-71), 2॰ पंक (पंख), 3॰ वन, 4॰ कंठर पंथी, 5॰ गोपाल पंथ तथा 6॰ हेठ नाथी ।
इस प्रकार कुल बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं । बाद में अनेक पंथ जुड़ते गये, ये सभी बारह-अठारह पंथों की उपशाखायें अथवा उप-पंथ है । कुछ के नाम इस प्रकार हैं - अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी, कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी, निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी, पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 40 बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल 14 रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
यह सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है।
इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ।
पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।
श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।
श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं।
श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए।
श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं।
यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है। ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है।
बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे।
इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे।
इस सम्बन्ध में एक दूसरा लेख भी मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैः-
1ओंकार नाथ,
2उदय नाथ,
3सन्तोष नाथ,
4अचल नाथ,
5गजबेली नाथ,
6ज्ञान नाथ,
7चौरंगी नाथ,
8मत्स्येन्द्र नाथ,
9गुरु गोरक्षनाथ।
सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है।
यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है, यथाः-
1 सत्यनाथ,
2 धर्मनाथ,
3 दरियानाथ,
4 आई पन्थी,
5 रास के,
6 वैराग्य के,
7 कपिलानी,
8 गंगानाथी,
9 मन्नाथी,
10 रावल के,
11 पाव पन्थ,ी
12 पागल।
इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में योगी सम्प्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं।
श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं।
काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था।
इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि।
श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।
श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है।
भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं।
यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है " स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित" जैसा कि " सिद्ध सिद्धान्त पद्धति" में लिखा हैः-
"सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।"
अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। पुनश्चः-
" वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।
इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।"
"एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम्
अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥"
उपर्युक्त लेखानुसार इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है।
नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।
योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे 'सिले' कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं अर्थात शिव की उपासना करते है। षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है। जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है।
वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं। इसी हेतु "अवधूत योगी महासभा" का संगठन हुआ है और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है।
प्राचीन काल में स्याल कोट नामक राज्य में शंखभाटी नाम के एक राजा थे। उनके पूर्णमल और रिसालु नाम के पुत्र हुए। यह श्री गोरक्षनाथ के शिष्य बनने के पश्चात क्रमशः चोरंगी नाथ और मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध होकर उग्र भ्रमण शील रहें। "योगश्चित वृत्ति निरोधः" सूत्र की अन्तिमावस्था को प्राप्त किया और इसी का प्रचार एंव प्रसार करते हुए जन कल्याण किया और भारतीय या माननीय संस्कृति को अक्षूण्ण बने रहने का बल प्रदान किया। उर्पयुक्त 12 पंथो में जो "मन्नाथी" पंथ है वह इन्ही का श्री मन्नाथ पंथ है। श्री मन्नाथ ने भ्रमण करते हुए वर्तमान जयपुर राज्यान्तर्गत शेखावाटी प्रान्त के बिसाऊ नगर के समीप आकर अपना आश्रम निर्माण किया। यह ग्राम अब 'टाँई' के नाम से प्रसिद्ध है। श्री मन्नाथ ने यहीं पर अपना शरीर त्याग किया था, यही पर इनका समाधि मन्दिर है और मन्नाथी योगियों का गुरु द्वार हैं। 'टाँई' के आश्रम के अधीन प्राचीन काल से 2000 बीघा जमीन है, अच्छा बड़ा मकान है और इसमे कई समाधियाँ बनी हुई है। इससे ज्ञात होता है कि श्री मन्नाथ के पश्चात् यहाँ पर दीर्घकाल तक अच्छे सन्त रहते रहे है। इस स्थान में बाबा श्री ज्योतिनाथ जी के शिष्य श्री केशरनाथ रहते थे। अब श्री ज्ञाननाथ रहते हैं। इन दिनों इस आश्रम का जीर्णोद्वार भी हुआ हैं। श्री मन्नाथ के परम्परा में आगे चल कर श्री चंचलनाथ अच्छे संत हुए और इन्होने कदाचित सं. 1700 वि. के आस पास झुंझुनु(जयपुर) में अपना आश्रम बनाया यही इनका समाधि मन्दिर हैं।
इससे आगे का इतिहास इस पुस्तक के परिशिष्ट सं. 2 में लिखा गया है। यदि सम्भव हुआ तो श्री गोरक्षनाथ की शिक्षाएँ एकत्र करके प्रकाशित करने की चेष्टा की जायगी।
नाथ लक्षणः-
"नाकरोऽनादि रुपंच'थकारः' स्थापयते सदा"
भुवनत्रय में वैकः श्री गोरक्ष नमोल्तुते।
"शक्ति संगम तंत्र॥
अवधूत लोग अद्वैत वादी योगी होते है जो कि बिना किसी भौतिक साधन के यौगग्नि प्रज्वलित करके कर्म विपाक को भस्म कर निजानन्द में रमण करते है और अपनी सहज शिक्षा के द्वारा जन कलयाण करते रहते है। तभी उपयुक्त नाथ शब्द सार्थक होता है।
इनका सिद्धान्तः-
न ब्रह्म विष्णु रुद्रौ, न सुरपति सुरा,
नैव पृथ्वी न चापौ।
नैवाग्निनर्पि वायुः न च गगन तलं,
नो दिशों नैव कालः।
नो वेदा नैव यज्ञा न च रवि शशिनौ,
नो विधि नैव कल्पाः।
स्व ज्योतिः सत्य मेकं जयति तव पदं,
सच्चिदानन्दमूर्ते,
ऊँ शान्ति ! प्रेम!! आनन्द!!!
नवनाथ
नवनाथ नाथ सम्प्रदाय के सबसे आदि में नौ मूल नाथ हुए हैं । वैसे नवनाथों के सम्बन्ध में काफी मतभेद है, किन्तु वर्तमान नाथ सम्प्रदाय के 18-20 पंथों में प्रसिद्ध नवनाथ क्रमशः इस प्रकार हैं -
1॰ आदिनाथ - ॐ-कार शिव, ज्योति-रुप
2॰ उदयनाथ - पार्वती, पृथ्वी रुप
3॰ सत्यनाथ - ब्रह्मा, जल रुप
4॰ संतोषनाथ - विष्णु, तेज रुप
5॰ अचलनाथ (अचम्भेनाथ) - शेषनाग, पृथ्वी भार-धारी
6॰ कंथडीनाथ - गणपति, आकाश रुप
7॰ चौरंगीनाथ - चन्द्रमा, वनस्पति रुप
8॰ मत्स्येन्द्रनाथ - माया रुप, करुणामय
9॰ गोरक्षनाथ - अयोनिशंकर त्रिनेत्र, अलक्ष्य रुप
चौरासी सिद्ध
जोधपुर, चीन इत्यादि के चौरासी सिद्धों में भिन्नता है । अस्तु, यहाँ यौगिक साहित्य में प्रसिद्ध नवनाथ के अतिरिक्त 84 सिद्ध नाथ इस प्रकार हैं -
1॰ सिद्ध चर्पतनाथ,
2॰ कपिलनाथ,
3॰ गंगानाथ,
4॰ विचारनाथ,
5॰ जालंधरनाथ,
6॰ श्रंगारिपाद,
7॰ लोहिपाद,
8॰ पुण्यपाद,
9॰ कनकाई,
10॰ तुषकाई,
11॰ कृष्णपाद,
12॰ गोविन्द नाथ,
13॰ बालगुंदाई,
14॰ वीरवंकनाथ,
15॰ सारंगनाथ,
16॰ बुद्धनाथ,
17॰ विभाण्डनाथ,
18॰ वनखंडिनाथ,
19॰ मण्डपनाथ,
20॰ भग्नभांडनाथ,
21॰ धूर्मनाथ ।
22॰ गिरिवरनाथ,
23॰ सरस्वतीनाथ,
24॰ प्रभुनाथ,
25॰ पिप्पलनाथ,
26॰ रत्ननाथ,
27॰ संसारनाथ,
28॰ भगवन्त नाथ,
29॰ उपन्तनाथ,
30॰ चन्दननाथ,
31॰ तारानाथ,
32॰ खार्पूनाथ,
33॰ खोचरनाथ,
34॰ छायानाथ,
35॰ शरभनाथ,
36॰ नागार्जुननाथ,
37॰ सिद्ध गोरिया,
38॰ मनोमहेशनाथ,
39॰ श्रवणनाथ,
40॰ बालकनाथ,
41॰ शुद्धनाथ,
42॰ कायानाथ ।
43॰ भावनाथ,
44॰ पाणिनाथ,
45॰ वीरनाथ,
46॰ सवाइनाथ,
47॰ तुक नाथ,
48॰ ब्रह्मनाथ,
49॰ शील नाथ,
50॰ शिव नाथ,
51॰ ज्वालानाथ,
52॰ नागनाथ,
53॰ गम्भीरनाथ,
54॰ सुन्दरनाथ,
55॰ अमृतनाथ,
56॰ चिड़ियानाथ,
57॰ गेलारावल,
58॰ जोगरावल,
59॰ जगमरावल,
60॰ पूर्णमल्लनाथ,
61॰ विमलनाथ,
62॰ मल्लिकानाथ,
63॰ मल्लिनाथ ।
64॰ रामनाथ,
65॰ आम्रनाथ,
66॰ गहिनीनाथ,
67॰ ज्ञाननाथ,
68॰ मुक्तानाथ,
69॰ विरुपाक्षनाथ,
70॰ रेवणनाथ,
71॰ अडबंगनाथ,
72॰ धीरजनाथ,
73॰ घोड़ीचोली,
74॰ पृथ्वीनाथ,
75॰ हंसनाथ,
76॰ गैबीनाथ,
77॰ मंजुनाथ,
78॰ सनकनाथ,
79॰ सनन्दननाथ,
80॰ सनातननाथ,
81॰ सनत्कुमारनाथ,
82॰ नारदनाथ,
83॰ नचिकेता,
84॰ कूर्मनाथ ।
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बारह पंथ
नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं । इन बारह पंथों के कारण नाथ सम्प्रदाय को ‘बारह-पंथी’ योगी भी कहा जाता है । प्रत्येक पंथ का एक-एक विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं । प्रत्येक पंथ एक पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है । नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
1॰ सत्यनाथ पंथ - इनकी संख्या 31 बतलायी गयी है । इसके मूल प्रवर्तक सत्यनाथ (भगवान् ब्रह्माजी) थे । इसीलिये सत्यनाथी पंथ के अनुयाययियों को “ब्रह्मा के योगी” भी कहते हैं । इस पंथ का प्रधान पीठ उड़ीसा प्रदेश का पाताल भुवनेश्वर स्थान है ।
2॰ धर्मनाथ पंथ – इनकी संख्या 25 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक धर्मराज युधिष्ठिर माने जाते हैं । धर्मनाथ पंथ का मुख्य पीठ नेपाल राष्ट्र का दुल्लुदेलक स्थान है । भारत में इसका पीठ कच्छ प्रदेश धिनोधर स्थान पर हैं ।
3॰ राम पंथ - इनकी संख्या 61 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भगवान् श्रीरामचन्द्र माने गये हैं । इनका प्रधान पीठ उत्तर-प्रदेश का गोरखपुर स्थान है ।
4॰ नाटेश्वरी पंथ अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ – इनकी संख्या 43 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक लक्ष्मणजी माने जाते हैं । इस पंथ का मुख्य पीठ पंजाब प्रांत का गोरखटिल्ला (झेलम) स्थान है । इस पंथ का सम्बन्ध दरियानाथ व तुलनाथ पंथ से भी बताया जाता है ।
5॰ कंथड़ पंथ - इनकी संख्या 10 है । कंथड़ पंथ के मूल प्रवर्तक गणेशजी कहे गये हैं । इसका प्रधान पीठ कच्छ प्रदेश का मानफरा स्थान है ।
6॰ कपिलानी पंथ - इनकी संख्या 26 है । इस पंथ को गढ़वाल के राजा अजयपाल ने चलाया । इस पंथ के प्रधान प्रवर्तक कपिल मुनिजी बताये गये हैं । कपिलानी पंथ का प्रधान पीठ बंगाल प्रदेश का गंगासागर स्थान है । कलकत्ते (कोलकाता) के पास दमदम गोरखवंशी भी इनका एक मुख्य पीठ है ।
7॰ वैराग्य पंथ - इनकी संख्या 124 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भर्तृहरिजी हैं । वैराग्य पंथ का प्रधान पीठ राजस्थान प्रदेश के नागौर में राताढुंढा स्थान है ।इस पंथ का सम्बन्ध भोतंगनाथी पंथ से बताया जाता है ।
8॰ माननाथ पंथ - इनकी संख्या 10 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक राजा गोपीचन्द्रजी माने गये हैं । इस समय माननाथ पंथ का पीठ राजस्थान प्रदेश का जोधपुर महा-मन्दिर नामक स्थान बताया गया है ।
9॰ आई पंथ - इनकी संख्या 10 है । इस पंथ की मूल प्रवर्तिका गुरु गोरखनाथ की शिष्या भगवती विमला देवी हैं । आई पंथ का मुख्य पीठ बंगाल प्रदेश के दिनाजपुर जिले में जोगी गुफा या गोरखकुई नामक स्थान हैं । इनका एक पीठ हरिद्वार में भी बताया जाता है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ा चौली से भी समझा जाता है ।
10॰ पागल पंथ – इनकी संख्या 4 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री चौरंगीनाथ थे । जो पूरन भगत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब-हरियाणा का अबोहर स्थान है ।
11॰ ध्वजनाथ पंथ - इनकी संख्या 3 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक हनुमानजी माने जाते हैं । वर्तमान में इसका मुख्य पीठ सम्भवतः अम्बाला में है ।
12॰ गंगानाथ पंथ - इनकी संख्या 6 है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री भीष्म पितामह माने जाते हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब में गुरुदासपुर जिले का जखबार स्थान है ।
कालान्तर में नाथ सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े - 1॰ रावल (संख्या-71), 2॰ पंक (पंख), 3॰ वन, 4॰ कंठर पंथी, 5॰ गोपाल पंथ तथा 6॰ हेठ नाथी ।
इस प्रकार कुल बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं । बाद में अनेक पंथ जुड़ते गये, ये सभी बारह-अठारह पंथों की उपशाखायें अथवा उप-पंथ है । कुछ के नाम इस प्रकार हैं - अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी, कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी, निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी, पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि
कबीर किरण: नौ नाथ व चौरासी सिद्ध कैसे उत्पन्न हुए। . आपने अमरनाथ की कथा तो सुनी ही होगी जहां शिव शंकर ने पार्वती जी को मंत्र दिया था। उस समय शिवजी द्वारा बताया वह मंत्र एक तोते ने भी सुन लिया था। जब शिवजी को पता लगा तो उस तोते को मारने के लिए उसके पीछे दौडे। तब वह तोते वाली आत्मा अपना तोते वाला शरीर छोडकर व्यास जी की पत्नी के पेट में चला गया। समय आने पर शरीर धारण किया। जब वह 12 वर्ष तक भी गर्भ से बाहर नहीं आया तब ब्रह्मा, विष्णु महेश ने उससे कहा कि अगर ये ही रीत चली पडी तो माताए बहुत दुखी हो जाएगी, सुखदेव जी बाहर आ जाइए। तब सुखदेव जी ने कहा कि आपने अपनी त्रिगुणमयी माया का जाल फैलाया हुआ है।
अभी तो मुझे अपने सभी पुराने जन्म कर्म याद है, बाहर आते ही मैं सब भूल जाऊंगा। मैं एक शर्त पर बाहर आऊंगा, अगर आप कुछ समय के लिए त्रिगुण प्रभाव को रोक दें तो ही मैं आऊंगा। तब तीनो देवो ने कहा कि हम केवल इतनी देर ही इस प्रभाव को रोक सकते हैं जितनी देर तक राई(सरसों का बीज) भैंस के सींग पर ठहर सकता है अर्थात एक सेकेंड से भी बहुत कम समय तक। सुखदेव जी ने कहा आप इतने ही समय तक रोक दीजै। तीनों देवों ने जब माया का प्रभाव रोका उस समय 94 बच्चे पैदा हुए। उन सबको अपने पुराने जन्म याद थे और उन्हें ये बात याद रह गयी कि भक्ति करने के लिए ही मनुष्य जीवन मिलता है। उन 94 बच्चों में से 84 तो सिद्ध हो गए व 9 नाथ हुए, और एक सुखदेव ऋषि हुए।
कबीर किरण: नौ नाथ व चौरासी सिद्ध कैसे उत्पन्न हुए। . आपने अमरनाथ की कथा तो सुनी ही होगी जहां शिव शंकर ने पार्वती जी को मंत्र दिया था। उस समय शिवजी द्वारा बताया वह मंत्र एक तोते ने भी सुन लिया था। जब शिवजी को पता लगा तो उस तोते को मारने के लिए उसके पीछे दौडे। तब वह तोते वाली आत्मा अपना तोते वाला शरीर छोडकर व्यास जी की पत्नी के पेट में चला गया। समय आने पर शरीर धारण किया। जब वह 12 वर्ष तक भी गर्भ से बाहर नहीं आया तब ब्रह्मा, विष्णु महेश ने उससे कहा कि अगर ये ही रीत चली पडी तो माताए बहुत दुखी हो जाएगी, सुखदेव जी बाहर आ जाइए। तब सुखदेव जी ने कहा कि आपने अपनी त्रिगुणमयी माया का जाल फैलाया हुआ है।
अभी तो मुझे अपने सभी पुराने जन्म कर्म याद है, बाहर आते ही मैं सब भूल जाऊंगा। मैं एक शर्त पर बाहर आऊंगा, अगर आप कुछ समय के लिए त्रिगुण प्रभाव को रोक दें तो ही मैं आऊंगा। तब तीनो देवो ने कहा कि हम केवल इतनी देर ही इस प्रभाव को रोक सकते हैं जितनी देर तक राई(सरसों का बीज) भैंस के सींग पर ठहर सकता है अर्थात एक सेकेंड से भी बहुत कम समय तक। सुखदेव जी ने कहा आप इतने ही समय तक रोक दीजै। तीनों देवों ने जब माया का प्रभाव रोका उस समय 94 बच्चे पैदा हुए। उन सबको अपने पुराने जन्म याद थे और उन्हें ये बात याद रह गयी कि भक्ति करने के लिए ही मनुष्य जीवन मिलता है। उन 94 बच्चों में से 84 तो सिद्ध हो गए व 9 नाथ हुए, और एक सुखदेव ऋषि हुए।
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