सरसों का बोटैनिकल नाम
सरसों (ब्रैसीकेसी) कुल का , एकवर्षीय शाक जातीय पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम ब्रेसिका कम्प्रेसटिस है। पौधे की ऊँचाई 1 से 3 फुट होती है। इसके में शाखा-प्रशाखा होते हैं। प्रत्येक पर्व सन्धियों पर एक सामान्य लगी रहती है। पत्तियाँ सरल, एकान्त आपाती, बीणकार होती हैं जिनके किनारे अनियमित, शीर्ष नुकीले, शिराविन्यास जालिकावत होते हैं। इसमें के सम्पूर्ण लगते हैं जो तने और शाखाओं के ऊपरी भाग में स्थित होते हैं। फूलों में ओवरी सुपीरियर, लम्बी, चपटी और छोटी वर्तिकावाली होती है। फलियाँ पकने पर फट जाती हैं और जमीन पर गिर जाते हैं। प्रत्येक फली में 8-10 बीज होते हैं। उपजाति के आधार पर बीज काले अथवा पीले रंग के होते हैं। इसकी उपज के लिए उपयुक्त है। सामान्यतः यह में बोई जाती है और में इसकी कटाई होती है। में इसकी खेती , , , और में अधिक होती है।
सरसों के बीज से निकाला जाता है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थ बनाने और शरीर में लगाने में किया जाता है। इसका तेल , तथा ग्लिसराल बनाने के काम आता है। तेल निकाले जाने के बाद प्राप्त मवेशियों को खिलाने के काम आती है। खली का उपयोग के रूप में भी होता है। इसका सूखा डंठल जलावन के काम में आता है। इसके हरे पत्ते से सब्जी भी बनाई जाती है। इसके बीजों का उपयोग के रूप में भी होता है। यह
की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसका तेल सभी चर्म रोगों से रक्षा
करता है। सरसों रस और विपाक में चरपरा, स्निग्ध, कड़वा, तीखा, गर्म, कफ तथा
वातनाशक, रक्तपित्त और अग्निवर्द्धक, खुजली, कोढ़, पेट के कृमि आदि नाशक
है और अनेक घरेलू नुस्खों में काम आता है। जर्मनी में सरसों के तेल का उपयोग के रूप में भी किया जाता है।
भारत में के बाद सरसों दूसरी सबसे महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है जो मुख्यतया , , , , , , एवं
में उगायी जाती है। सरसों की खेती कृषकों के लिए बहुत लोकप्रिय होती जा
रही है क्योंकि इससे कम सिंचाई व लागत से अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ
प्राप्त हो रहा है। इसकी खेती मिश्रित फसल के रूप में या दो फसलीय चक्र में
आसानी से की जा सकती है। सरसों की कम उत्पादकता के मुख्य कारण उपयुक्त
किस्मों का चयन असंतुलित उर्वरक प्रयोग एवं पादप रोग व कीटों की पर्याप्त
रोकथाम न करना, आदि हैं। अनुसंधनों से पता चला है कि उन्नतशील सस्य विधियाँ
अपना कर सरसों से 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा
सकती है। फसल की कम उत्पादकता से किसानों की आर्थिक स्थिति काफी हद तक
प्रभावित होती है। इस परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि इस फसल की खेती
उन्नतशील सस्य विधियाँ अपनाकर की जाये।
सरसों
की अच्छी उपज के लिए समतल एवं अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट से दोमट
मिट्टी उपयुक्त रहती है, लेकिन यह लवणीय एवं क्षारीयता से मुक्त हो। से उपयुक्त किस्मों का चुनाव करके भी इसकी खेती की जा सकती है। जहाँ की मृदा क्षारीय से वहां प्रति तीसरे वर्ष 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम की आवश्यकता मृदा
के अनुसार भिन्न हो सकती है। जिप्सम को मई-जून में जमीन में मिला देना
चाहिए। सरसों की खेती बारानी एवं सिंचित दोनों ही दशाओं में की जाती है।
सिंचित क्षेत्रों में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद
तीन-चार जुताईयां तबेदार हल से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में
पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न बनें। बुआई से पूर्व अगर भूमि में
नमी की कमी हो तो खेत में पलेवा करने के बाद बुआई करें। फसल बुआई से पूर्व
खेत खरपतवारों से रहित होना चाहिए। बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक बरसात के
बाद तवेदार हल से जुताई करनी चाहिए जिससे नमी का संरक्षण हो सके। प्रत्येक
जुताई के बाद पाटा लगाना चाहिए जिससे कि मृदा में नमी बने रहे। अंतिम
जुताई के समय 1.5 प्रतिशत क्यूनॉलफॉस 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर
से मृदा में मिला दें, ताकि भूमिगत कीड़ों से फसल की सुरक्षा हो सके।
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