राजस्थान के प्रागैतिहासिक कालीन जीवन पर प्रकाश डालिए
(ऐतिहासिक स्रोत तथा भारतीय सभ्यता के विकास में राजस्थान का योगदान - कालीबंगा व आहड़ का सांस्कृतिक राजस्थान का योगदान - कालीबंगा वा आहड़ का सांस्कृतिक महत्व)
मानव सभ्यता का इतिहास वस्तुत: मानव के विकास का इतिहास है। इस दिशा में जो महत्वपूर्ण खोज हुई हैं, उनके अनुसार ऐसा अनुमान किया जाता है कि लगभग अस्सी करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीवन के चिह्म प्रकट होने लगे थे। मनुष्य अपने प्रारम्भिक जीवन में पशुवत् था। इस पशुवत् जीवन से ऊपर उठने के लिए उसने हजारों वर्ष लिए। मनुष्य के हजारों वर्ष के इस विकास का लिपिबद्ध और क्रमागत प्रमाणिक इतिहास प्राप्त नहीं हैं। इसलिए इस युग के इतिहासकारों ने प्रागैतिहासिक युग की संज्ञा दी है।
प्रागैतिहासिक युग के मानव ने अपने जीवन-यापन व जीवन रक्षा हेतु जिन पदार्थों से बने हथियार व औज़ारों व अन्य उपरकरणों का प्रयोग किया था और विश्व व भारत के विभिन्न भागों में अवशेष के रुप में अथवा उत्खन्न के फलस्वरुप उपलब्ध हुए हैं। उनके आधार पर प्रागैतिहासिक काल को चार क्रमिक सोपानों में विभक्त किया जाता है :
(क) आदिम पाषाणकाल
(ख) पूर्व पाषाणकाल
(ग) उत्तर पाषाणकाल
(घ) धातुकाल धातुकाल पुन: तीन भागों में बाटें गये है :
(घ.१) ताम्र युग
(घ.२) कांस्य युग
(घ.३) लौह युग
Top
राजस्थान के प्रागैतिहासिक काल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं
प्रागैतिहासिक राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोत एवं विशेषताएँ
राजस्थान में प्रस्तर युग के स्रोत एवं विशेषताएँ :
राजस्थान में प्रस्तर युगीन मानव के निवास का पता उन उपलब्ध प्रस्तर हथियारों व औज़ारों से लगता है जो वर्तमान में बांसवाड़ा, डूँगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़, जयपुर आदि जिलों में बनाल गम्भीरी, बेडच, बाधन तथा चम्बल नदियों की घाटियों व तटवर्ती स्थानों से उपलब्ध हुए हैं। ये हथियार व औज़ार जिनका प्रयोग प्रस्तर युगीन मानव करते थे वे कटुता या अत्यन्त भध्दे, भौण्डे व अनगढ़ थे। इस प्रकार के अवशेषों से प्राप्ति स्थलों में निम्नांकित उल्लेखनीय हैं -
(क)
गम्भीरी नदी के तट पर चितौड़गढ़ जिले में नगरी, खीट, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अयनार, ऊणचा, देवजडी, हीसेजी सा खेड़ा, बूले खेड़ा आदि स्थान
(ख)
चम्बल, और बामनीनदी के तट पर भैंसरड़िगड़ व नगधार स्थान
(ग)
बनास नदी के तट पर भीलवड़ा जिलें में हमीरगढ़, स्वरुपगंज, मंडदिया, बीगोद, जहाजपुर, खुटियास। देवली, मंगरपि, दुरिया, गोगाखेड़ा, पुर, पटला, संद, कुगरिया, गिलूड आदि स्थान
(घ)
लूणी नदी के तट पर जोधपुर में
(च)
गुहिया और बाँडी नदी की घाटी में सिंगारी व पाली स्थान, मारवाड़ में पीचरु, भाँडेल, धनवासनी, सजिता, धनेरी, भेटान्दा, दुन्दास, गोलियो, पीपाड़, खीमसर, उम्मेद-नगर आदि स्थान
(छ)
बनास नदी के तट पर तैंरु जिले में भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुरा, लियालपुरा, पच्चर, तरावट, गोगासला, भरनी, आदि स्थान
(ज)
गागारोन (जिला झालाबाड़), गोविन्दगढ़ (अजमेर ज़िले में सागरमती नदी तट पर), कोकानी (कोटा ज़िले में परवन नदी तट पर), आदि अन्य स्थान।
विशेषताएँ - भारतीय पुरातत्व का सर्वेक्षण (१९५८-६०) के आधार पर सत्यप्रकाश व दशरथ शर्मा ने उपर्युक्त स्रोतों के आधार पर राजस्थान में प्रस्तरयुगीन मानव की सभ्यता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि प्रस्तर युगीन मानव का राजस्थान में आहार शिकार किए हुए बनैले जानवरों का मांस आदि प्रकृति द्वारा उपजाए क़ंद, मूल, फल आदि थे। इस काल का मनुष्य अपने मृतकों को जानवरों पक्षियों और मछलियों के लिए मैदान या पानी में फेंक दिया करता था।
Top
राजस्थान में प्रागैतिहासिक प्रस्तर-धातु युग
स्तोत्र
गोपीनाथ शर्मा ने राजस्थान में प्रस्तर धातु युग के प्रमुख स्रोत उखन्न से उपलब्ध दो केन्द्रों - कालीबंगा तथा आहड़ का उल्लेख करते हुए अपना मत व्यक्त किया है कि -अब तक जो हमने राजस्थान के बारे में जानने का मार्ग ढूँढ़ा वह तमपूर्ण था। आगे चल कर मानव इन स्तरों से आगे बढ़ा और राजस्थानी सभ्यता की गोधूली की आभा स्पष्ट दिखाई देने लगी। ॠग्वेद काल से शायद सदियों पूर्व आहड़ (उदयपुर के निकट) तथा हृषद्वती और सरस्वती (गंगानगर के निकट) नदियों के काँठे (किनारे) जीवन लहरें मारता हुआ दिखाई देने लगा। इन काँठों पर मानव-संस्कृति सक्रिय थी और कुछ अंश में हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की सभ्यता के समकक्ष तथा समकालीन सी थी। आज से पाँच छ: हज़ार वर्ष पूर्व इन नदी घाटियों में बसकर मानव पशु पालने, भाण्डे बनाने, खिलौने तैयार करने, मकान-निर्माण करने आदि कलाओं को जान गया था। इस सुंदर अतीत को समझने के लिए कालीबंगा व आधारपुर (आहड़) में उपलब्ध सामग्री का अध्ययन करना होगा।
Top
कालीबंगा का सांस्कृतिक महत्व व राजस्थान का मानव सभ्यता के विकास में योगदान
सरस्वती तट पर कालीबंगा - राजस्थान के गंगानगर ज़िले में स्थित कालीबंगा स्थान पर उखन्न द्वारा (१९६१ ई. के मध्य किए गए) २६ फ़िट ऊँची पश्चिमी थेड़ी (टीले) से प्राप्त अवशेषों से विदित होता है कि लगभग ४५०० वर्ष पूर्व यहाँ सरस्वती नदी के किनारे हड़प्पा कालीन सभ्यता फल-फूल रही थी। कालीबंगा गंगानगर ज़िले में सूरतगढ़ के निकट स्थित है। यह स्थान प्राचीन काल की नदी सरस्वती (जो कालांतर में सूख कर लुप्त हो गई थी) के तट पर स्थित था। यह नदी अब घग्घर नदी के रुप में है। सतलज उत्तरी राजस्थान में समाहित होती थी। सूरतगढ़ के निकट नहर-भादरा क्षेत्र में सरस्वती व हृषद्वती का संगम स्थल था। स्वंय सिंधु नदी अपनी विशालता के कारण वर्षा ॠतु में समुद्र जैसा रुप धारण कर लेती थी जो उसके नामकरण से स्पष्ट है। हमारे देश भारत में र्तृधर सभ्यता का मूलत: उद्भव विकास एवं प्रसार सप्तसिन्धव प्रदेश में हुआ तथा सरस्वती उपत्यका का उसमें विशिष्ट योगदान है। सरस्वती उपत्यका (घाटी) सरस्वती एवं हृषद्वती के मध्य स्थित ब्रह्मवर्त का पवित्र प्रदेश था जो मनु के अनुसार देवनिर्मित था। धनधान्य से परिपूर्ण इस क्षेत्र में वैदिक ॠचाओं का उद्बोधन भी हुआ। सरस्वती (वर्तमान में घग्घर) नदियों में उत्तम थी तथा गिरि से समुद्र में प्रवेश करती थी। ॠग्वेद (सप्तम मण्डल, २/९५) में कहा गया है-एकाचतत् सरस्वती नदी नाम शुचिर्यतौ। गिरभ्य: आसमुद्रात।। सतलज उत्तरी राजस्थान में सरस्वती में समाहित होती थी।
सी.एप. ओल्डन ( C.F. OLDEN ) ने ऐतिहासिक और भौगोलिक तथ्यों के आधार पर बताया कि घग्घर हकरा नदी के घाट पर ॠग्वेद में बहने वाली नदी सरस्वती हृषद्वती थी। तब सतलज व यमुना नदियाँ अपने वर्तमान पाटों में प्रवाहित न होकर घग्घर व हसरा के पाटों में बहती थीं।
महाभारत काल तक सरस्वती लुप्त हो चुकी थी और १३वीं शती तक सतलज, व्यास में मिल गई थी। पानी की मात्र कम होने से सरस्वती रेतीले भाग में सूख गई थी। ओल्डन महोदय के अनुसार सतलज और यमुना के बीच कई छोटी-बड़ी नदियाँ निकलती हैं। इनमें चौतंग, मारकंडा, सरस्वती आदि थी। ये नदियाँ आज भी वर्षा ॠतु में प्रवाहित होती हैं। राजस्थान के निकट ये नदियाँ निकल कर एक बड़ी नदी घग्घर का रुप ले लेती हैं। आग चलकर यह नदी पाकिस्तान में हकरा, वाहिद, नारा नामों से जानी जाती है। ये नदियाँ आज सूखी हुई हैं - किन्तु इनका मार्ग राजस्थान से लेकर करांची और पूर्व कच्छ की खाड़ी तक देखा जा सकता है।
वाकणकर महाशय के अनुसार सरस्वती नदी के तट पर २०० से अधिक नगर बसे थे, जो हड़प्पाकालीन हैं। इस कारण इसे सिंधुघाटी की सभ्यता के स्थान पर सरस्वती नदी की सभ्यता कहना चाहिए। मूलत: घग्घर-हकरा ही प्राचीन सरस्वती नदी थी जो सतलज और यमुना के संयुक्त गुजरात तरु बहती थी जिसका पाट (चौड़ाई) ब्रह्मपुत्र नदी से बढ़कर ८ कि.मी. था। वाकणकर के अनुसार सरस्वती नदी २ लाख ५० हजार वर्ष पूर्व नागौर, लूनासर, आसियाँ, डीडवाना होते हुए लूणी से मिलती थी जहाँ से वह पूर्व में कच्छ का रण नानूरण जल सरोवर होकर लोथल के निकट संभात की काढ़ी में गिरती थी, किंतु ४०,००० वर्ष पूर्व पहले भूचाल आया जिसके कारण सरस्वती नदी मार्ग परिवर्तन कर घग्घर नदी के मार्ग से होते हुए हनुमानगढ़ और सूरतगढ़ के बहावलपुर क्षेत्र में सिंधु नदी के समानान्तर बहती हुई कच्छ के मैदान में समुद्र से मिल जाती थी। महाभारत काल में कौरव-पाण्डव युद्ध इसी के तट पर लड़ा गया। इसी काल में सरस्वती के विलुप्त होने पर यमुना गंगा में मिलने लगी।
Top
कालीबंगा से प्राप्त प्रागैतिहासिक हड़प्पा (सिंधु घाटी) सभ्यता के स्रोत के रुप में अवशेष
१९२२ ई. में राखलदास बैनजी एवं दयाराम साहनी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा (अब पाकिस्तान में लरकाना जिले में स्थित) के उत्पन्न द्वारा हड़प्पा या सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मिले थे जिनसे ४५०० वर्ष पूर्व की प्राचीन सभ्यता का पता चला था। बाद में इस सभ्यता के लगभग १०० केन्द्रों का पता चला जिनमें राजस्थान का कालीबंगा क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के बाद हड़प्पा संस्कृति का कालीबंगा तीसरा बड़ा नगर सिद्ध हुआ है। जिसके एक टीले के उत्खनन द्वारा निम्नांकित अवशेष स्रोत के रुप में मिले हैं जिनकी विशेषताएँ भारतीय सभ्यता के विकास में उनका योगदान स्पष्ट करती हैं -
Top
(क) ताँबे के औज़ार व मूर्तियाँ
कालीबंगा में उत्खन्न से प्राप्त अवशेषों में ताँबे (धातु) से निर्मित औज़ार, हथियार व मूर्तियाँ मिली हैं, जो यह प्रकट करती है कि मानव प्रस्तर युग से ताम्रयुग में प्रवेश कर चुका था।
Top
(ख) अंकित मुहरें
कालीबंगा से सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता की मिट्टी पर बनी मुहरें मिली हैं, जिन पर वृषभ व अन्य पशुओं के चित्र व र्तृधव लिपि में अंकित लेख है जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। वह लिपि दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी।
Top
(ग) ताँबे या मिट्टी की बनी मूर्तियाँ, पशु-पक्षी व मानव कृतियाँ
मिली हैं जो मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के समान हैं। पशुओं में बैल, बंदर व पक्षियों की मूर्तियाँ मिली हैं जो पशु-पालन, व कृषि में बैल का उपयोग किया जाना प्रकट करता है।
Top
(घ) तोल के बाट
पत्थर से बने तोलने के बाट का उपयोग करना मानव सीख गया था।
Top
(च) बर्तन
मिट्टी के विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े बर्तन भी प्राप्त हुए हैं जिन पर चित्रांकन भी किया हुआ है। यह प्रकट करता है कि बर्तन बनाने हेतु चारु का प्रयोग होने लगा था तथा चित्रांकन से कलात्मक प्रवृत्ति व्यक्त करता है।
Top
(छ) आभूषण
अनेक प्रकार के स्री व पुरुषों द्वारा प्रयुक्त होने वाले काँच, सीप, शंख, घोंघों आदि से निर्मित आभूषण भी मिलें हैं जैसे कंगन, चूड़ियाँ आदि।
Top
(ज) नगर नियोजन
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा में भी सूर्य से तपी हुई ईटों से बने मकान, दरवाज़े, चौड़ी सड़कें, कुएँ, नालियाँ आदि पूर्व योजना के अनुसार निर्मित हैं जो तत्कालीन मानव की नगर-नियोजन, सफ़ाई-व्यवस्था, पेयजल व्यवस्था आदि पर प्रकाश डालते हैं।
Top
(झ) कृषि-कार्य संबंधी अवशेष
कालीबंगा से प्राप्त हल से अंकित रेखाएँ भी प्राप्त हुई हैं जो यह सिद्ध करती हैं कि यहाँ का मानव कृषि कार्य भी करता था। इसकी पुष्टि बैल व अन्य पालतू पशुओं की मूर्तियों से भी होती हैं। बैल व बारहसिंघ की अस्थियों भी प्राप्त हुई हैं। बैलगाड़ी के खिलौने भी मिले हैं।
Top
(ट) खिलौने
धातु व मिट्टी के खिलौने भी मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति यहाँ से प्राप्त हुए हैं जो बच्चों के मनोरंजन के प्रति आकर्षण प्रकट करते हैं।
Top
(ठ) धर्म संबंधी अवशेष
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा से मातृदेवी की मूर्ति नहीं मिली है। इसके स्थान पर आयाताकार वर्तुलाकार व अंडाकार अग्निवेदियाँ तथा बैल, बारसिंघे की हड्डियाँ यह प्रकट करती है कि यहाँ का मानव यज्ञ में पशु-बलि भी देता था।
Top
(ड) दुर्ग (किला)
सिंधु घाटी सभ्यता के अन्य केन्द्रो से भिन्न कालीबंगा में एक विशाल दुर्ग के अवशेष भी मिले हैं जो यहाँ के मानव द्वारा अपनाए गए सुरक्षात्मक उपायों का प्रमाण है।
उपर्युक्त अवशेषों के स्रोतों के रुप में कालीबंगा व सिंधु-घाटी सभ्यता में अपना विशिष्ट स्थान है। कुछ पुरातत्वेत्ता तो सरस्वती तट पर बसे होने के कारण कालीबंगा सभ्यता को सरस्वती घाटी सभ्यता कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं क्योंकि यहाँ का मानव प्रागैतिहासिक काल में हड़प्पा सभ्यता से भी कई दृष्टि से उन्नत था। खेती करने का ज्ञान होना, दुर्ग बना कर सुरक्षा करना, यज्ञ करना आदि इसी उन्नत दशा के सूचक हैं। वस्तुत: कालीबंगा का प्रागैतिहासिक सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में यथेष्ट योगदान रहा है।
Top
आहड़ का सांस्कृतिक महत्व
आहड़कालीन संस्कृति की स्थिति
राजस्थान में प्राचीन मेवाड़ क्षेत्र का पुरातत्व की दृष्टि से अलग ही महत्व है। इस क्षेत्र की नदियों के तटों पर पाषाण कालीन (प्रस्तर युग) संस्कृतियों के अवशेष के अतिरिक्त अनेक स्थानों पर आहड़कालीन संस्कृतियों के अवशेष भी पाए गए हैं जिनकी पृथक विशेषता है। प्राचीन मेवाड़ में आहड़ (उदयपुर) के समान सभ्यता का विकास मुख्यत: बनास और उसकी सहायक नदियों आहड़, बाग, पिण्ड, बेड़च, गम्भीरी, कोठारी, मानसी, खारी व अन्य छोटी नदियों के किनारे हुआ है इसलिए पुरातत्ववेत्ता इस सभ्यता को बनास घाटी की सभ्यता के नाम से भी पुकारते हैं।
आहड़ को प्राचीन काल में ताम्रवती (ताँबावती) नगरी के नाम से भी पुकारा जाता रहा है। इसका कारण यहाँ हुए ताम्र उपकरणों का विकास ही है। अन्य स्थानों पर भी जहाँ ताँबा पाया गया है। इस संस्कृति के अवशेष मिल हैं। जिन स्थानों पर इस सभ्यता के अवशेष मिले हैं वे धूल कोट के रुप में थे जिन्होंने लम्बे समय तक सभ्यता के अवशेषों को अपने गर्भ में सुरक्षित सँजोए रहता है।
पुरातत्ववेत्ता हंसमुख धीरजलाल सांकलिया महोदय के अनुसार तीन ओर से अरावली पर्वतमालाओं से राजस्थान का यह भाग बनास और उसकी सहायक नदियों तथा नालों के जल से पूरित वन-सम्पदा एवं खनिज सम्पदा से भरपूर, उत्तम वर्षा व संतुलित जलवायु से युक्त होने के कारण प्राचीनकाल से ही प्रागैतिहासिक मानव का आवास-स्थल रहा है। उत्खन्न कार्य आहड़ में योजनाबद्ध रुप से १९५२-१९५६ के मध्य राजस्थान के राजकीय संग्रहालय एवं पुरातत्व विभाग के तत्कालीन अधीरक्षक रत्नचंद अग्रवाल द्वारा करवाया गया था।
Top
आहड़ सभ्यता के केन्द्र व काल
प्रारम्भ में इस स्थान पर पाए गए अवशेषों से आधार पर कार्बन - १४ को आधार मानते हुए इस सभ्यता का काल ईसा से पूर्व १२०० से १८०० वर्ष माना गया। १९५६ के बाद भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने बनास तथा उसकी सहायक नदियों के किनारे सर्वेक्षण कार्य प्रारम्भ किया जिसके फलस्वरुप उदयपुर, चितौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर तथा अन्य ज़िलों में भी लगभग ४० से अधिक स्थानों पर आहड़ के समकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए।
१९६० में बी.बी. लाल ने उदयपुर के दक्षिणोत्तर में ७२ कि.मी. दूर बनास के किनारे गिलूंड में आहड़ समकालीन संस्कृति के अवशेषों को खोज निकाला। बनास धारी में आहड़कालीन संस्कृति के अवशेषों के एक के बाद एक निरन्तर मिलते रहने से प्रेरित होकर १९६८ में सांगलिया महोदय के नेतृत्व में विशाल पैमाने पर सामूहिक खोज का आयोजन किया गया। इस खोज हल में राजस्थान पुरातत्व विभाग के तत्कालीन निरक्षक एस.पी. श्रीवास्तव, आॅस्ट्रेलिया के मेलबोर्न विश्वविद्यालय के विलियम कुलीसेन, काजी, निक्सन तथा राजस्थान पुरातत्व विभाग के चक्रवर्ती विजयकुमार और सम्मिलित थे। इस दल ने अपने शोध-सर्वेक्षण से सिद्ध किया कि आहड़ कालीन संस्कृति के अवशेष राजस्थान के उदयपुर, चितौड़गढ़, भीलवाड़ा, अजमेर, टौंक और जयपुर ज़िले में तो उपलब्ध है ही, साथ ही इसी के आधार पर राजस्थान के पुरातत्व विभाग के कोटपूतली, नीम का थाना व गणेश्वर में उत्खनन कार्य कराया जहाँ O.C.P.B.R.P . और N.B.P. चित्रित लाल व काले मटभाण्डों, सफ़ेद माँडने व चित्रित ग्रेवियर प्राप्त हुए हैं। १९७९ चितौड़गढ़ राजकीय संग्रहालय के परीक्षक कन्हैयालाल मीणा ने पुन: बनास व उसकी सहायक नदियों के किनारे पर आहड़कालीन संस्कृति का शोध-सर्वेक्षण किया जिससे इन शोध-केन्द्रों की संख्या लगभग ६० हो गई है। मीणा को सर्वेक्षण में चित्तौड़गढ़ के पिण्ड ग्राम में ताँबे की प्राचीन कुल्हाड़ी मिली। भीलवाड़ा में भी सर्वेक्षण किया गया। इन केन्द्रों से विभिन्न प्रकार के अनेक अवशेष उपलब्ध हुए है।
Top
स्रोत-सामग्री अवशेषों के आधार पर आहड़-संस्कृति की विशेषताएँ
उत्खनन स्थल
आहड़, उदयपुर के निकट वह कस्बा है जहाँ पर लगभग ४,००० वर्ष पूर्व प्रस्तर युगीन-मानव के रहने के तथ्य मिले हैं। आहड़ के दो टीलों की डॉ. सांकलिया (पूना विश्वविद्यालय) तथा राजस्थान सरकार द्वारा खुदाई की गई थी। आहड़ का एक अन्य नाम ताम्रवती (ताँबानगरी) भी था जो यहाँ ताँबे के औज़ारों के बनने का केन्द्र प्रमाणित होता है। १०वीं - ११वीं शताब्दी में इसे आधारपुर या आधारदुर्ग के नाम से जाना जाता था जिसे स्थानीय भाषा में धूलकोट कहा जाता था। ये धूलकोट प्राचीन नगरी के अवशेषों को अपने गर्भ में छिपाए हुए थे। बड़ा धूलकोट १५०० फ़िट लम्बा और ४५ फ़िट ऊँचा है जिससे खाइयाँ खोद कर कई अवशेष प्राप्त हुए हैं तथा बस्तियों के कई स्तर मिलें हैं।
Top
बस्तियों के स्तर
पहले स्तर में कुछ मिट्टी की दीवारें मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े तथा पत्थर के ढेर प्राप्त हुए हैं। दूसरे स्तर की बस्ती से जो प्रथम स्तर पर ही बसी है, कुछ कूट कर तैयार की गई है दीवारें और मिट्टी के बर्तन के टुकड़े मिले हैं। तीसरी बस्ती में कुछ चित्रित बर्तन और उनका घरों में प्रयोग होना प्रमाणित होता है। चौथी बस्ती के स्तर में एक बर्तन से दो ताँबे की कुल्हाड़ियाँ मिली हैं। इस प्रकार इन स्तरों पर उत्तरोत्तर चार और बस्तियों के स्तर मिले हैं। जिनमें मकान बनाने की पद्धति, बर्तन बनाने की विधि आदि में परिवर्तन दिखाई देता है। ये सभी स्तर एक-दूसरे स्तर पर बनते और बिगड़ते गए जो हमें आहड़ की ऐतिहासिकता समझने में बड़े सहायक हैं। ये समूची बस्तियाँ आहड़-नदी की सभ्यता कही जाती हैं।
Top
विभिन्न बस्तियों के अवशेष
आहड़ की खुदाई में कई घरों की स्थिति का पता चला है। सबसे प्रथम बस्ती नदी के ऊपरी भाग की भूमि पर बसी थी जिस पर उत्तरोत्तर बस्तियाँ बनती चली गई। यहाँ के के मुलायम काले पत्थरों से मकान बनाए गए थे। नदी के तट सेलाई गई मिट्टी से मकानों को बनाया जाता था। यहाँ बड़े कमरों की लम्बाई - चौड़ाई ३३ न् २० फ़िट तक चौड़ी होती थी। इनकी छतें बाँसे से ढकी जाती थीं। मकानों के फ़र्श को काली मिट्टी के साथ नदी का बालू को मिलाकर बनाया जाता था। कुछ मकानों में २ या ३ चूहे और एक मकान में तो ६ चूहों की संख्या भी देखी गई। इससे पता चलता है कि आहड़ में बड़े भाण्डें भी गड़े हुए मिले हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में गोरी या कोठे कहा जाता है। इस संख्या से प्राचीन आहड़ की समृद्धि भी प्रमाणित होती है।
आहड़ के द्वितीय काल की खुदाई में ताँबे की मूद्राएँ और तीन मुहरें प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ मुद्राएँ अस्पष्ट हैं किंतु एक मुद्रा में त्रिशूल खुदा हुआ है और दूसरी में खड़ा हुआ अपोलो है जिसके हाथों में तीर तथा तरकस हैं। इस मुद्रा के किनारे यूनानी भाषा में कुछ लिखा हुआ है जिससे इसका काल दूसरी सदी ईसा पूर्व आँका जाता है। कई मकानों की रक्षार्थ स्फटिक पत्थरों के बड़े टुकड़े काम में लाए जाते थे और उन्हीं से पत्थर के औज़ार बनाए जाते थे। यहाँ की सभ्यता के प्रथम चरण से सम्बन्धित प्रस्तर के छीलने, छेद करने तथा काटने के औज़ार पाए कुछ ऐसे औज़ार चतुष्कोण, गोल व बेडौल आकृति के मिले हैं जो आकार में छोटे हैं किन्तु जिनके एक या दो किनारे बड़े तेज दिखाई देते हैं।
Top
औज़ार वा आभूषण
चारों ओर उभरे तथा पैने किनारों के उपकरण भी यहाँ मिले हैं जो चमड़े या हड्डी छीलने के प्रयोग में लाए जाते होगें। इसके अतिरिक्त यहाँ से प्राप्त अवशेषों में पत्थरों के गोले शिलाएँ, गदाएँ, ओखलियाँ आदि भी मिले हैं। मूल्यवान पत्थरों जैसे गोमेद, स्फटिक आदि से आहड़ निवासी गोल मणियाँ बनाते थे। ऐसी मणियों के साथ काँच, पक्की-मिट्टी, सीप और हड्डी के गोलाकार छेद वाले अंडे भी लाए जाते थे। इनको सुरक्षित करने हेतु मिट्टी के बर्तनों या टोकरियों का प्रयोग किया जाता था। इनका आभूषण बनाने में उपयोग किया जाता था तथा ताबीज़ की तरह लटकाने के लिए किया जाता था। इनके ऊपर सजावट का काम भी किया जाता था। आधार में ये गोल, चपटे, चतुष्कोण व षट्कोण होते थे। ये अवशेष आहड़ सभ्यता के दूसरे चरण की ज्ञात होती है।
Top
मूर्तियाँ व पूजा-सामग्री
अन्य अवशेषों में चमड़े के टुकड़े, मिट्टी के पूजा-पात्र। चूड़ियाँ तथा खिलौने हैं। पूजा-पात्रों के किनारे ऊँचे व नीचे होने से ज्ञात होता है कि इनमें दीपक रखने की व्यवस्था की जाती थी। खिलौनों में बैल, हाथी, चक्र आदि प्रमुख है। ये अवशेष आहड़-सभ्यता से समृद्ध काल १८००ई. से पू. से १२०० ई.पू. से संबद्ध है। इस युग का मानव कच्ची मिट्टी के ढलवाँ छतों वाले मकान बना कर रहता था तथा वह मांसाहारी था किंतु आगे चलकर वह गेहूँ का आहार करने लगा था। इस काल में लौह धातु का प्रयोग किया जाने लगा था।
Top
कृषि व बर्तन बनाने की कला
आहड़ सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे। यहाँ से मिलने वाले बड़े-बड़े भाण्डे तथा अन्न पीसने के पत्थर प्रमाणित करते हैं कि ये लोग अन्न उत्पादन करते थे और उसको पका कर खाते थे। एक बड़ कमरे में जो बड़ी-बड़ी भट्टियाँ मिली हैं वह सामूहिक भोज की पुष्टि करती हैं। इस भाग में वर्षा अधिक होने और नदी पास में होने से सिंचाई की सुविधा यह सिद्ध करती है कि वहाँ भोजन सामग्री प्रभूत मात्रा में प्राप्त रही होगी। आहड़ के निवासियों को बर्तन बनाने की कला आती थी। यहाँ से मिट्टी की कटोरियाँ, रकबियाँ, तश्तरियाँ, प्याले, मटके, कलश आदि बड़ी संख्या में मिलें हैं। साधारणतया इन बर्तनों को चाक से बनाते थे जिन पर चित्रांकन उभरी हुई मिट्टी की रेखा से किया जाता था और उसे ग्लेज करके चमकीला बना दिया जाता था। बैठक वाली तश्तरियाँ और पूजा में काम आने वाली धूपदानियाँ ईरानियन शैली की बनती थी जिनमें हमें आहड़ियों का संबंध ईरानी गतिविधि से होने की सम्भावना प्रकट होती है।
Top
मृतक का संस्कार
मृतक संस्कार के संबंध में आहड़ के उत्खन्न के ऊपरी स्तर से पता चलता है कि पहली व दूसरी शताब्दी में मृतक को गाड़ा जाता था। मृतक के अस्थि पंजरों से ज्ञात होता है कि उसे आभूषणों सहित दफ़नाया जाता था। उसका सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण में रखे जाते थे।
उपर्युक्त अवशेष रुपी स्रोतों से प्रागैतिहासिक काल की सभ्यता एवं संस्कृति की भाँति आहड़ संस्कृति भी प्रागैतिहासिक कालीन सांस्कृतिक विकास की महत्वपूर्ण कड़ियाँ सिद्ध होती हैं जिनसे अनेक नवीन जानकारियाँ मिलती हैं।
puram kise khate hai
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।