भारत ने 2022 तक अक्षय ऊर्जा स्रोतों से 1.75 लाख मेगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य रखा है, जिसमें एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा से 60 हजार मेगावाट सौर ऊर्जा से, 60 हजार मेगावाट पवन ऊर्जा से, 10 मेगावाट जैव ऊर्जा से और 5 मेगावाट लघु पनबिजली ऊर्जा से बनाना शामिल है। हालाँकि अपतटीय पवन ऊर्जा की उम्मीदों को देखते हुए यह लक्ष्य बढ़ाया जा सकता है। भारत ने इस संबंध में अपना लक्ष्य पेरिस में प्रस्तावित विश्व पर्यावरण संधि के लिये ‘यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ (यूएनएफसीसीसी) के सामने रखा। इसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों व दुष्प्रभावों से निपटने की विस्तृत जानकारियों व उपायों का उल्लेख है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन में भारत का राष्ट्रीय लक्षित स्वैच्छिक योगदान (आईएनडीसी) तैयार किया गया। पेरिस में 30 नवंबर से 11 दिसंबर तक होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिये सभी देशों को अपना-अपना आईएनडीसी देना जरूरी था। लिहाजा अगले डेढ़ दशक में उत्सर्जन को करीब एक-तिहाई घटाने का वायदा पूरा हो सकता है। पर इस दौरान अजीवाश्मीय ईंधन से 40 प्रतिशत विद्युत उत्पादन करने का लक्ष्य व्यावहारिक नहीं लगता। खासकर तब, जब स्वच्छ ऊर्जा पर अतिशत जोर देने और इसके लिये समुचित संसाधन होने के बावजूद अमेरिका में 2030 तक गैर जीवाश्म ईंधन से विद्युत उत्पादन कुल उत्पादन के तीस फीसदी से अधिक नहीं हो पाएगा।
पवन ऊर्जा : एक परिप्रेक्ष्य
भारत में राष्ट्रीय अपतटीय पवन ऊर्जा नीति को मंजूरी दी गई है। यह नीति सफल हो गई तो देश के ऊर्जा बाजार का नक्शा बदल सकती है। इससे पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर भारत का कद भी दुनिया में लंबा होगा। फिलहाल पवन ऊर्जा के क्षेत्र में विश्व के प्रमुख देशों में अमेरिका, जर्मनी, स्पेन, चीन के बाद भारत का पाँचवाँ स्थान है। 45 हजार मेगावाट तक के उत्पादन की संभावना वाले इस क्षेत्र में फिलहाल देश में 1210 मेगावाट का उत्पादन होता है। खैर, देखा जाए तो देश के लगभग 13 राज्यों के 190 से अधिक स्थानों में पवन ऊर्जा के उत्पादन की प्रबल संभावना विद्यमान हैं।
भारत में पिछले 40 साल में जनता की अरबों डॉलर गाढ़ी कमाई इनमें लगा दी गई लेकिन देश की बिजली आपूर्ति में नाभिकीय ऊर्जा अब तक मात्र 2.5 प्रतिशत योगदान दे पाई है जो कि हाल में शुरू हुए पवन ऊर्जा उद्योग के 5 प्रतिशत उत्पादन का सिर्फ आधा है जबकि भारत मे गैर पारंपरिक ऊर्जा की अपार संभावनाएँ हैं, क्योंकि हमारे पास 7600 किलोमीटर लंबा समुद्रतट है। गुजरात में ही इससे 1.06 लाख मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता है। तमिलनाडु में 60 हजार मेगावाट बिजली इस परियोजना से बनाई जा सकती है। ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों को बढ़ावा देने में जुटी केंद्र सरकार ने देश में समुद्री तट के इलाकों में पवन ऊर्जा के लिये विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने का फैसला किया है।
पवन ऊर्जा का प्रचलन दिनों दिन बढ़ रहा है और आज स्थिति यह है कि भारत पवन ऊर्जा उत्पादन में विश्व में 5वां स्थान रखता है। दिसंबर 2013 तक भारत में नवीनीकृत ऊर्जा विकल्पों की स्थापित क्षमता कुल 29,989 मेगावाट के आसपास है। इनमें पवन ऊर्जा 20149.50 सौर ऊर्जा 2180, लघु जल विद्युत ऊर्जा 3783.15, बायोमास ऊर्जा 1284.60, बगैस कोजेनेरेशन 2512.88, अपशिष्ट ऊर्जा से 99.08 मेगावाट की स्थापित क्षमता है। ये आँकड़े देश की ऊर्जा जरूरतों की तुलना में भले ही कम लगें लेकिन यही वे सारे संसाधन हैं, जहाँ भरपूर संभावनाएँ भी छिपी हुई हैं। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश समेत कई राज्य देश के वैकल्पिक ऊर्जा दायित्व में आधे हिस्से का योगदान भी नहीं दे पा रहे हैं। भारत के सबसे बड़े स्वचालित इलेक्ट्रॉनिक व्यापार विनिमय इंडियन एनर्जी एक्सचेंज (आईईएक्स) के मुताबिक भारत में ऐसे 16 राज्य हैं, जिन्होंने देश के वैकल्पिक ऊर्जा दायित्व में 70 फीसदी से कम योगदान दिया है।
पवन ऊर्जा की वैश्विक स्थिति
सन 1990 में भारत में पवन ऊर्जा के विकास पर ध्यान दिया गया और देखते ही देखते इस वैकल्पिक ऊर्जा का योगदान काफी बढ़ गया और हमारी ऊर्जा का योगदान लगातार बढ़ती रही लेकिन इसके मुकाबले हमारे पास संसाधन बहुत सीमित हैं। यही कारण है कि विश्वभर में वैकल्पिक ऊर्जा की हर तरफ बात हो रही है। विश्वभर में आज नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। वर्ष 2013 में अमेरिका ने इसके लिये 35.8 प्रतिशत निवेश, यूरोपीय संघ ने 48.4, चीन ने 56.3 जबकि इनके तुलना में भारत ने मात्र 6.1 प्रतिशत निवेश प्रतिवर्ष नवीकरणीय ऊर्जा पर किया है। इसी कड़ी में हम देखते हैं कि जर्मनी ने सौर ऊर्जा क्षमता 114 से बढ़कर 36 हजार मेगावाट और पवन ऊर्जा 6000 से बढ़कर 35 हजार मेगावाट तक पहुँच गई।
2020 तक कुल ऊर्जा में अक्षय ऊर्जा की भागीदारी 35 प्रतिशत और 2050 तक 80 प्रतिशत बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। पवन ऊर्जा के क्षेत्र में चीन सालाना 66 फीसदी की दर से विकास कर रहा है। सौर ऊर्जा के मामले में भी चीन दूसरे देशों की तुलना में काफी आगे है। सौर प्लेट के निर्माण के मामले में चीन दुनियाभर में अव्वल है। पवन ऊर्जा के मामले में स्पेन ने भी दुनिया के लिये एक उदाहरण पेश किया है। पवन ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने के लिये वहाँ की सरकार ने काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है और यह कार्य पूरी तरह से योजना बनाकर किया गया है। अमेरिाक में कुल बिजली उत्पादन में पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी महज एक फीसदी है। पर वहाँ की नीति निर्माताओं ने 2020 तक इसे बढ़ाकर 15 फीसदी तक पहुँचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
पवन ऊर्जा के उत्पादन के मामले में ब्रिटेन अभी शीर्ष पर है। अभी वहाँ 404 मेगावाट बिजली का उत्पादन हवा के झोंकों से किया जा रहा है। जिससे तकरीबन तीन लाख घरों की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ण रूप से पूर्ति की जा रही है। उल्लेखनीय है कि विंड फार्म की अवधारणा भी सबसे पहले ब्रिटेन में ही 1991 में आई थी। विंड फार्म से तात्पर्य यह है कि एक खास जगह पर बड़ी संख्या में टरबाइन लगाकर बड़े पैमाने पर पवन ऊर्जा का उत्पादन। वहाँ के सरकारी आँकड़ों के मुताबिक अभी ब्रिटेन में ऐसी 155 परियोजनाओं के तहत 1900 टरबाइन पवन ऊर्जा का उत्पादन कर रहे हैं, जिसका लाभ तकरीबन 13 लाख घरों को मिल रहा है। इसका सकारात्मक असर पर्यावरण पर पड़ रहा है। क्योंकि इससे कार्बन उत्सर्जन में तकरीबन 52 लाख टन की कमी आई है।
सौर ऊर्जा
भारत सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे गैर परंपरागत स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के दोहन के लिये पर्याप्त कदम उठा रहा है। भारत का लक्ष्य अपनी अक्षय ऊर्जा क्षमता को मौजूदा 25000 मेगावाट से बढ़ाकर वर्ष 2017 तक दोगुना से भी ज्यादा यानी 55000 मेगावाट करने का है। ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत को वैकल्पिक ऊर्जा प्रणालियों में निजी और सरकारी स्तर पर 2050 तक 6,10,000 करोड़ रुपये सालाना निवेश करने की जरूरत बताई गई थी। इस निवेश से भारत को जीवाश्म ईंधन पर खर्च किए जाने वाले सालाना एक खरब रुपये की बचत होगी और इस नए निवेश के कारण अगले कुछ सालों में ही भारत रोजगार के 24 लाख नए अवसर भी पैदा कर सकेगा। अगर भारत सरकार रिपोर्ट के आधार पर इन उपायों को लागू करती है तो 2050 तक भारत की कुल ऊर्जा जरूरतों का 92 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त किया जाएगा। और सबसे चौंकाने वाली बात यह होगी कि उस वक्त भी हम आज से भी सस्ती बिजली प्राप्त कर सकेंगे। फिलहाल देश में पवन ऊर्जा तकनीक से करीब 1,257 मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है। पर्यावरण प्रदूषण बचाने में पवन ऊर्जा को सबसे कारगर उपाय माना जाता है। यही वजह है कि पवन ऊर्जा के मामले में ब्रिटेन दुनिया में सबसे आगे है। चीन, स्पेन, अमेरिका में भी पवन ऊर्जा के क्षेत्र में तेजी से विकास हो रहा है। देश में भी इसकी गति बढ़ाने की जरूरत है।
जलवायु राजनय
विज्ञान की प्रगति आज तक इसका दूसरा विकल्प नहीं खोज पाई है लेकिन ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी उन्नति ने धरती को काफी सुरक्षित कर दिया है। एक आम धारणा है कि पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियर के पिघलने से पर्यावरण एवं पृथ्वी को खतरा है लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि सबसे बड़ा खतरा मानव जाति के लिये है। बाकी जीव जंतु तो किसी तरह से अपना अस्तित्व बचा सकते हैं लेकिन समस्त कलाओं के बावजूद मनुष्य के लिये यह मुमकिन है।
गौरतलब है कि जलवायु राजनय के लिये यह साल बेहद महत्त्वपूर्ण वर्ष इसलिए भी है क्योंकि पेरिस में होने जा रही कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज को वैश्विक नतीजे पाने के लिहाज से अहम माना जा रहा है। असल में विश्व को एक न्यायसंगत जलवायु समझौते की जरूरत है, जो वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखे, वरना इसके नतीजे बहुत विनाशकारी साबित हो सकते हैं। दुनिया के कई नाजुक हिस्सों में इसके दुष्परिणाम देखे जा रहे हैं। हालाँकि दिसंबर में होने वाले महा-सम्मेलन से पहले भारत ने एक व्यापक व न्यायसंगत करार करने के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र को आश्वासन दिया है कि वह वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33-35 फीसद कटौती करेगा। यह कमी 2005 को आधार मानते हुए की जाएगी।
इसके साथ ही भारत ने 2030 तक अजीवाश्मीय ईंधन स्रोतों के जरिए 40 फीसदी बिजली उत्पादन का भी फैसला लिया है। यह पिछले लक्ष्य का ही विस्तार है। एमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है जो 1 डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री के अनुसार भारत ने आईएनडीसी में आठ गोल तय किए हैं। इनमें सबसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य वर्ष 2030 तक गैर जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाकर 40 प्रतिशत करने का है। बता दें कि ये फ्यूल परंपरागत फ्यूल सोर्सेज से तैयार किए गए फ्यूल की तुलना में कम प्रदूषण फैलाते हैं। इसके अलावा इतने जंगल विकसित किए जाएंगे, जो 2.5 से 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखेंगे। शुरुआती अनुमान के मुताबिक, भारत को इसके लिये करीब 14 लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे।
बहरहाल, दुनिया के किसी भी देश को जहाँ एक ओर अपने विकास दर को बनाकर रखना होता है वहीं दूसरी ओर पर्यावरण की समुचित चिंता करना उसका पहला कर्तव्य है लेकिन ग्लोबल वार्मिंग कई साल से पूरी दुनिया के लिये चिंता की वजह बनी हुई है। वैश्विक आँकड़ों को देखें तो चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला (करीब 25 प्रतिशत) कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने वाला देश है। यहाँ जैव ईंधन की सबसे ज्यादा खपत है। जबकि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमेरिका दूसरे नंबर पर (लगभग 19 फीसदी) सबसे अधिक प्रदूषण फैलाता है। ये दोनों देश मिलकर दुनिया के आधे प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं और तीसरे नंबर पर भारत (करीब छह फीसदी) है। ये सभी देश आज जैव ईंधन की बसे ज्यादा खपत करते हैं इस आधार पर कहा जा सकता है कि चीन, अमेरिका और भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषण उत्पन्न करने वाले देश हैं। यहाँ तक कि पर्यावरण बचाने की वकालत करने और खुद को इसका झंडाबरदार बताने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन की बात है तो यह भी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष 10 देशों में शुमार हैं। बहरहाल पूरी दुनिया के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे कम किया जाए।
क्रियान्वयन की चुनौतियाँ
हालाँकि इस घोषणा से भारत के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी हो सकती हैं। यहाँ अभी गरीबी की स्थिति है और भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन बेहद कम, यानि करीब 3.5 टन है जबकि अमेरिका और चीन का कार्बन उत्सर्जन प्रति व्यक्ति 12 टन है। भारत के पास दुनिया की कुल भूमि का 2.5 प्रतिशत हिस्सा है जबकि उसकी जनसंख्या विश्व की कुल आबादी की 17.5 प्रतिशत है और उसके पास दुनिया का कुल 17.5 प्रतिशत पशुधन है। भारत की 30 प्रतिशत आबादी अब भी गरीब है, 20 प्रतिशत के पास आवास नहीं है, 25 प्रतिशत के पास बिजली नहीं है। जबकि करीब 9 करोड़ लोग पेयजल की सुविधा से वंचित हैं। इतना ही नहीं, देश की खाद्य सुरक्षा के दबाव में भारत का कृषि क्षेत्र कार्बन उत्सर्जन घटाने की हालात में नहीं है। सबके लिये भोजन मुहैया कराना फिलहाल प्राथमिकता है भारत में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 17.6 फीसद है। कार्बन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र की कुल हिस्सेदारी में सबसे बड़ा हिस्सा पशुओं का है। पशुओं से करीब 56 फीसद उत्सर्जन होता है। सबको भोजन देने की सरकार की योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बन चुका है।
इसके तहत देश की 67 फीसद आबादी को अतिरियायती दर में अनाज उपलब्ध कराया जाना है। इसके लिये 6.10 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न की जरूरत हर साल पड़ेगी। दूसरी बड़ी चुनौती भारत की असिंचित खेती की है, जो पूरी तरह मानसून पर निर्भर है। लगातार पिछले चार सीजन से खेती सूखे से प्रभावित है। मानसून के इस रुखे व्यवहार को जलवायु परिवर्तन से ही जोड़कर देखा जा रहा है। ऐसे में भारत ने एक संतुलित आईएनडीसी तैयार किया है। गौर करने वाली बात यह है कि अभी तक 85 प्रतिशत देश अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (ईएनडीसी) कर चुके हैं। लेकिन उनकी प्रतिबद्धता धरती के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से रोकने के लिये काफी नहीं है। भारत जैसे देश को अभी विकसित होना है और उसे गरीबी मिटानी है, इसलिए वह कार्बन गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं कर सकता है। प्रधानमंत्री ने 2030 तक 375 मेगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य रखा है। यदि यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तो संभव है कि भारत का कार्बन उत्सर्जन कम हो जाए।
बहरहाल, आज मानव सभ्यता विकास के चरम पर है। भौतिक एवं तकनीकी प्रगति ने जीवन को बहुत आसान बना दिया है लेकिन भौतिक एवं तकनीकी प्रगति की इस आपसी प्रतिस्पर्धा ने आज मानव जीवन को बहुत खतरे में डाल दिया है। मानव के लिए पृथ्वी ही सबसे सुरक्षित ठिकाना है। विज्ञान की प्रगति आज तक इसका दूसरा विकल्प नहीं खोज पाई है लेकिन ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी उन्नति ने धरती को काफी सुरक्षित कर दिया है। एक आम धारणा है कि पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियर के पिघलने से पर्यावरण एवं पृथ्वी को खतरा है लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि सबसे बड़ा खतरा मानव जाति के लिये है। बाकी जीव जंतु तो किसी तरह से अपना अस्तित्व बचा सकते हैं लेकिन समस्त कलाओं के बावजूद मनुष्य के लिये यह मुमकिन है। आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिये जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है। भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है। वायु शुद्धता का स्तर, भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही खराब रहा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल 24 करोड़ लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। पूर्व में भी वायु प्रदूषण को रोकने के अनेक प्रयास किए जाते रहे हैं पर प्रदूषण निरंतर बढ़ता ही रहा है।
यूँ कहें मानवीय सोच और विचारधारा में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि भविष्य की जैसे मानव को कोई चिंता ही नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमानवीय कृतियों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है और पर्यावरण के प्रति चिंतित नहीं है। जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलन के चलते भूमंडलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल स्तर को बढ़ाना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितयाँ उत्पन्न होने लगी हैं। आज यह सारा किया कराया मनुष्य का है और आज विचलित, चिंतित भी स्वयं मनुष्य ही हो रहा है। बीते दो दशकों में यह स्पष्ट हुआ है कि वैश्वीकरण की नवउदारवादी और निजीकरण ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। जिससे आर्थिक विकास के मॉडल लड़खड़ाने लगे हैं। खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल गरीब देश पर असर डाला है बल्कि पूर्व के धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। हमारे जलवायु ईंधन और जैव-विविधता से जुड़े संकटों ने आर्थिक विकास पर असर दिखाया है।
उपसंहार
बहरहाल, ग्लोबल वार्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन आज पृथ्वी के लिये सबसे बड़ा संकट बन गया है। इसे लेकर पूरी दुनिया में हाय तोबा मची हुई है। इसको लेकर कई तरह की भविष्यवाणियाँ भी की जा चुकी हैं, दुनिया अब नष्ट हो जाएगी, पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी, सृष्टि का विनाश हो जाएगा। ज्यादातर ऐसा शोर पश्चिम देशों से उठता रहा है, जिन्होंने अपने विकास के लिये न जाने प्रकृति के विरुद्ध कितने ही कदम उठाए हैं और लगातार उठ ही रहे हैं। आज भी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करने वाले देशों में 70 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी देशों का ही है जो विकास की अंधी दौड़ का परिणाम है। मगर वे इस पर जरा भी कटौती नहीं करना चाहते। हालाँकि प्रत्येक साल इस गंभीर समस्या को लेकर विश्व स्तर पर शिखर सम्मेलन का भी आयोजन किया जाता है लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही रहते हैं। जबकि दुनिया को जलवायु परिवर्तन के भीषण असर से बचाने के लिये ऐसा करना नितांत आवश्यक है। असल में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है, जो पूरी दुनिया के लिये चिंता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है। भूमंडलीकरण के कारण आज पूरा विश्व एक विश्वग्राम में तब्दील हो चुका है। वक्त कुछ करने का है न कि सोचने का। जाहिर सी बात है कि इसके लिये कुछ देश एवं कुछ संगठन तब तक ज्यादा कुछ नहीं कर पाएँगे जब तक दुनिया के धनी देश प्रयास न करें।
भारत की दमदार पहल : सूर्य पुत्र देशों का संगठन
प्रधानमंत्री ने अपनी लंदन यात्रा के दौरान सूर्य पुत्र वाले राष्ट्रों को जोड़ने की बात कही है। पीएम का कहना है कि विश्व में 102 देश ऐसे हैं, जो सूर्य पुत्र हैं, यानी जहाँ सौर ऊर्जा का अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। उन्होंने कहा भारत सूर्य शक्ति राष्ट्र बन सकता है। इसके लिये हमने सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा और अक्षय ऊर्जा से 150 गीगावाट ऊर्जा पैदा करने का कार्य शुरू किया है। पीएम का मानना है कि हरित वित्त तथा प्रौद्योगिकी में अनुभव के चलते हम सुरक्षित, सस्ती तथा टिकाऊ ऊर्जा की आपूर्ति को प्रोत्साहन देने तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये बेहतर स्थिति में हैं। इतना ही नहीं उन्होंने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये मिलकर काम करने की प्रतिबद्धता जताई। दोनों मुल्कों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन इस सदी की वैश्विक चुनौतियों में से एक है, जिसका राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।
दोनों देशों के बीच ऊर्जा सहयोग बढ़ाने और विद्युत बाजार सुधार, ऊर्जा दक्षता, तटीय पवन, सौर ऊर्जा, स्मार्ट ग्रिड, ऊर्जा भंडारण और ऑफ ग्रिड नवीकरणीय ऊर्जा सेवाओं जैसे क्षेत्रों में भावी सहयोग को बढ़ावा देने के लिये दोनों मुल्कों ने अपनी सहमति जताई। साथ ही, दोनों नेताओं ने दिसंबर 2015 में पेरिस जलवायु सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर युनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएपसीसीसी) के तहत व्यापक समझौते के लिये मिलकर काम करने के लिये भी प्रतिबद्धता जताई है। ताकि उससे वैश्विक तापमान को दो डिग्री की सीमा से नीचे पहुँच के दायरे में रखा जा सकेगा। कैमरन ने वर्ष 2050 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कम से कम 80 प्रतिशत की कटौती करने की ब्रिटेन की प्रतिबद्धता पर जोर दिया। भारत ने भी 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कम से कम 80 प्रतिशत तक की कटौती करने की भारत की प्रतिबद्धता जताई।
क्लाइमेट जस्टिस से मानव कल्याण
इसी साल सितंबर माह में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 70वीं वर्षगांठ पर अमेरिका में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने पर्यावरण का जिक्र करते हुए कहा कि अगर हम जलवायु परिवर्तन की चिंता करते हैं तो कहीं न कहीं हमारे निजी सुख को सुरक्षित करने की बू आती है लेकिन यदि हम क्लाइमेट जस्टिस की बात करते हैं तो गरीबों को प्राकृतिक आपदाओं में सुरक्षित रखने का एक संवेदनशील संकल्प उभरकर आता है। क्योंकि जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव सबसे अधिक निर्धन और वंचित लोगों पर होता है। जब प्राकृतिक आपदा आती है, तो सबसे ज्यादा मुसीबत इन्हीं पर टूटती है। जब बाढ़ आती है, ये बेघर हो जाते हैं। जब भूकम्प आता है तो इनके घर तबाह हो जाते हैं। जब सूखा पड़ता है, सबसे ज्यादा प्रभाव इनपर पड़ता है और जब कड़ाके की ठंड पड़ती है, तब भी बे-घरबार लोग सबसे ज्यादा मुसीबतें झेलते हैं।
इसलिए मैं मानता हूँ कि चर्चा जलवायु परिवर्तन की बजाय जलवायु न्याय पर हो। बहरहाल, क्लाइमेट चेंज की चुनौती से निपटने में उन समाधानों पर बल देने की आवश्यकता है, जिनसे हम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकें। हमें एक वैश्विक जन-भागीदारी का निर्माण करना होगा। जिसके बल पर टेक्नोलॉजी, इन्नोवेशन और फाइनेंस का उपयोग करते हुए कम क्लीन और रिन्यूबल एनर्जी को सर्व सुलभ बना सकें। इसके अलावा हमें अपनी जीवन शैली में भी बदलाव करने की आवश्यकता है, ताकि ऊर्जा पर हमारी निर्भरता कम हो और हम सस्टेनेबल कंजप्शन की ओर बढ़ें। साथ ही एक ग्लोबल एजूकेशन प्रोग्राम शुरू करने की आवश्यकता है, जो हमारी अगली पीढ़ी को प्रकृति के रक्षण एवं संवर्धन के लिये तैयार करें। क्योंकि ऐसा किये बिना विश्व शांति, न्यायोचित व्यवस्था और सतत विकास संभव नहीं हो सकता।
असल में समूचा विश्व एक दूसरे से जुड़ा हुआ है और एक दूसरे पर निर्भर है। और एक दूसरे से संबंधित है, इसलिए हमारी अन्तरराष्ट्रीय साझेदारी भी पूरी मानवता के कल्याण को अपने केंद्र में रखना होगा। ऐेसे में पीएम ने क्लाइमेट जस्टिस शब्द को सामने रखकर कहा कि विकसित देश क्लाइमेट चेंज पर कमिटमेंट पूरा करें और हम सब स्वच्छ पर्यावरण के लिये जीवन शैली बदलें। सस्टेनेबल डेवलपमेंट सभी देशों के लिये राष्ट्रीय उत्तरदायित्व का विषय है। क्योंकि हम सभी यह मानते हैं कि अन्तरराष्ट्रीय साझेदारी अनिवार्य रूप से हमारे सभी प्रयासों के केंद्र में होनी चाहिए। फिर चाहे यह डेवलपमेंट हो या जलवायु परिवर्तन की चुनौती हो, हमारे सामूहिक प्रयासों का सिद्धांत है कॉमन बट डिफरेंशिएटिव रिस्पांसिबिलिटी। हम एक ऐसे विश्व का निर्माण करें, जहाँ प्रत्येक जीव मात्र सुरक्षित महसूस करे, उसे अवसर उपलब्ध हों और सम्मान मिले, अपनी भावी पीढ़ी के लिये अपने पर्यावरण को और भी बेहतर स्थिति में छोड़कर जाए। निश्चित रूप से इससे अधिक महान कोई और उद्देश्य नहीं हो सकता। परंतु यह भी सच है कि कोई भी उद्देश्य इससे भी अधिक चुनौतीपूर्ण नहीं है।