मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चों का प्रशिक्षण एककला है जिसके लिए रचनात्मकता, समय, धन और ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बच्चो के प्रशिक्षण में प्रयोग की जानेवाली ऊर्जा का अधिकांश भाग, उनके लिए कार्यक्रम बनानेऔर बच्चों के खाली समय को सही ढंग से भरने में ख़र्च होता है। अलबत्ता कार्य कापरिणाम सदैव संतोष जनक नहीं होता क्योंकि बहुत से माता-पिता या अभिभावक, बच्चों के खाली समय को भरने के लिए उचित कार्यक्रम बनाने में सफल नहीं होपाते। बहुत से बच्चे यहां तक कि उनके माता-पिता मनोरंजन के लिए अन्य संचारमाध्यमों की तुलना में टेलिविज़न देखने और कम्प्यूटर गेम्स के चयन को अधिक महत्वदेते हैं जबकि अनियमित ढंग से टेलिविज़त देखने या हिंसक खेल खेलने के दुष्परिणामबहुत अधिक होते हैं। बचपन के एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में और विभिन्न अध्धयनोंमें प्रभावी होने के कारण वर्तमान समय में विश्व में बहुत से लोग और संगठन समाज केइस वर्ग की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयासरत हैं और वे इसके प्रति लोगों कोजागरूक भी बना रहे हैं। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार वर्तमान समय में संसार में लगभगदो अरब से अधिक बच्चे रहते हैं और प्रतिदिन उनमें से लाखों बच्चों के अधिकारों काहनन होता है। इनकी महत्वपूर्ण समस्याओं में उचित पोषण, स्वच्छ जल, चिकित्सा सहायता, शिक्षा और आवास जैसी उनकीप्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति न किये जाने की ओर संकेत किया जा सकता है। हालियाकुछ वर्षों के दौरान बहुत से शोधकर्ताओं, चिंतकों, और समाज शास्त्रियों ने वर्तमान समय में बच्चों के प्रशिक्षण को एसा विषयबताया है जिसे विभिन्न प्रकार की बाधाओं और समस्याओं का सामना है। सामाजिकसमस्याओं की समीक्षा यह दर्शाती है कि किशोर अवस्था तथा युवा अवस्था में होने वालेमनोरोगों और सामाजिक बुराइयों में बचपन के दौरान प्रशिक्षण की शैली का बहुत प्रभावपड़ता है। इस प्रक्रिया में टेलिविज़न, सिनेमा, वीडियो, उपग्रह, और टेलिविज़न जैसे संचारमाध्यमों के प्रभाव का उल्लेख किया जा सकता है और नई पीढ़ी के प्रशिक्षण में इनकीमहत्वपूर्ण भूमिका है। अपने जन्म के समय से ही बच्चों का संपर्क टेलिविज़न से होजाता है और उसकी आवाज़ें अब उसे वातावरण का भाग हैं जिसमे वह रहता है। अलबत्ता आयुके बढ़ने के साथ ही साथ टेलिविज़न देखने के आदर्श बदलते रहते हैं। दो तिहाई बच्चेअधिकांश एक लक्ष्य के अन्तर्गत टेलिविज़न देखते हैं। एसे बच्चे दो या ढाई वर्षोंमें टेलिविज़न के स्थाई दर्शक बन जाते हैं और वे उसके विभिन्न कार्यक्रम देखतेहैं। शोध दर्शाते हैं कि बच्चे के आरंभिक दस वर्षों में उनपर टेलिविज़न का प्रभावया उसकी पकड़ आश्चर्यचकित करने वाली होती है। 6 वर्ष के 90 प्रतिशत बच्चेटेलिविज़न का नियमित रूप से प्रयोग करते हैं। इस आधार पर किसी भी संचार माध्यम कीतुलना में टेलिविज़न, बच्चे को सामाजिक जीवन औरव्यक्तिगत व्यवहार के लिए तैयार करने में अधिक भूमिका निभाता है। यह संचार माध्यमबच्चों द्वारा किसी अन्य संचार माध्यम के चयन के लिए निर्णय लेने वाला होता है औरभविष्य मे भी यह उसके जीवन पर सीधा प्रभाव डालता है। कम्यूनिकेशन साइंस केशोधकर्ता डा. नासिर बाहुनर का मानना है कि टेलिविज़न, एक बहुत ही शक्तिशाली शिक्षक है किंतु संभव है कि एक ख़तरनाक शिक्षक हो। वेकहते हैं कि अधिकांश संबोधक यह बात नहीं जानते हैं कि संचार माध्यमों के प्रयोग केसमय वे कुछ सीख रहे होते हैं। वे सूचनाएं जो बच्चों के मत में प्रविष्ट हो जातीहैं वे अनजाने ढंग से उनके भीतर स्थान बना लेती हैं। बच्चों द्वारा टेलिविज़नसंदेशों और सूचनाओं को ग्रहण करने की शैली की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं किबच्चों को जिस चीज़ की आवश्यकता होती है वह केवल मनोरंजन ही नहीं है बल्कि वे कुछसीखना चाहते हैं। यह बातें उनके भीतर सामाजिक संबन्धों को बनाने की भावना उत्पन्नकरती हैं। इस आधार पर डा. बाहुनर कहते हैं कि संचार माध्यमों का मुख्य दायित्व, इस प्रकार से प्रशिक्षण का प्रबंध करना है कि वह बच्चे के व्यक्तित्व केविकास में सहायता करे। इसका कारण यह है कि प्रशिक्षण का अर्थ होता है व्यक्तित्वको स्वरूप देने के लिए गंभीर प्रयास। इस विशेषज्ञ का मानना है कि संचार माध्यमोंको बच्चों के प्रशिक्षण के लिए नैतिकता, धार्मिक एवं आध्यात्मिकमूल्यों, तथा शारीरिक एवं मानसिक आयामों की ओर ध्यान रखना चाहिए।बच्चों के प्रशिक्षण में उनके बौद्धिक विकास पर ध्यान बहुत ही आवश्यक है क्योंकिइसका उनके पूरे अस्तित्व से गहरा संबन्ध है। बल्कि दूसरे शब्दों में यह उनपरवर्चस्व रखता है। इसके उचित प्रशिक्षण से मनुष्य परिपूर्णता तक पहुंचता है। इसलिएसंचार माध्यमों के संचालकों को चाहिए कि वे आवश्यक दूरदर्शिता के साथ बच्चों मेंचिंतन और तर्कशक्ति को बढ़ावा दें। यह क्षमता जहां एक ओर बौद्धिक दक्षता है वहींआलोचना की भावना को भी सुदृढ़ करती है तथा आगामी पीढ़ियों को बहुत से अंधविश्वासोंऔर बुराइयों से सुरक्षित रखती है।बच्चों के बौद्धिक प्रशिक्षण के बहुत सेसकारात्मक परिणाम निकलते हैं। जिज्ञासा की भावना को सुदृढ बनाना, भूमण्डल की खोज के प्रति झुकाव और उसके रहस्यों को समझने जैसी बातें बच्चे केमन में जिज्ञासा की एसी भावना उत्पन्न करती हैं जो उसकी आयु के अंत तक उसके साथरहती है। अतः यदि किसी संचार माध्यम का आधार दूरदर्शिता में वृद्धि, और उसको सुदृढ़ करने पर डाला गया हो तो फिर संबोधक भी उसके कार्यक्रमों से मूल्यवानबातें सीखेंगे और यह विषय उनके प्रशिक्षण पर सीधा प्रभाव डालता है। क्योंकि बच्चोंके लिए जटिल बातों का समझना कठिन होता है इसलिए इस आयु वर्ग के लिए यह बातेंअनुपयोगी होती हैं। बच्चों के लिए प्रस्तुत किये जाने वाले कार्यक्रमो की आकर्षकढंग से प्रस्तुति और सरल भाषा के प्रयोग को संचार माध्यमों की प्राथमिकताओं मेमाना जाता है। बच्चों के लिए कहानियों और उदाहरणों की प्रस्तुति बहुत उपयोगी सिद्धहोती है। कम आयु के बच्चों के लिए धार्मिक शिक्षा हेतु आकर्षक शैली अपनाई जानीचाहिए। अलबत्ता बच्चों के बौद्धिक रूप से वयस्क बनाने और उन्हें अच्छे तथा बुरे केबीच अंतर को समझने के लिए संचार माध्यमों की शैली में थोड़ा सा परिवर्तन भी कियाजा सकता है और इसके लिए कलात्मक गतिविधियों और इसी प्रकार की अन्य गतिविधियों कोअपनाया जा सकता है। बच्चे अपनी आयु के आरंभिक चरणों में ईश्वर, उसकी विभूतियों और उसकी कृपा से अवगत हो सकते हैं। वर्षा, हिमपात, फूलों का खिलना, पशुओं के बच्चों को देखनाऔर आकर्षक प्राकृतिक दृश्य जैसी बातें बच्चे के मन मस्तिष्क में ईश्वर की याद कोजीवित कर सकती हैं और उसे ईश्वर का मित्र बना सकती हैं। संचार माध्यम और उनकेकार्यक्रम बच्चे के मन में इस कल्पना को उत्पन्न कर सकते हैं कि ईश्वर उनको पसंदकरता है और उसने उनके लिए इतना सुन्दर संसार बनाया है। अतः बच्चों के धार्मिकप्रशिक्षण में ईश्वर की कृपा पर बल, एक महत्वपूर्ण विषय है।भविष्य के प्रति सकारात्मक विचार रखना, सुव्यवस्था के आधार परसंसार की सृष्टि, परलोक में मनुष्य के कर्मों के प्रभाव जैसी बातें भीबच्चों के प्रशिक्षण के कुछ एसे नियम हैं जिनपर संचार माध्यमों को बच्चों के लिएबनाए जाने वाले कार्यक्रमों में ध्यान देना चाहिए। इसी प्रकार धर्म के महापुरूषोंको पहचनवाना और आदर्श बनाने के लिए उनकी जीवनी का प्रयोग, बच्चों के प्रशिक्षण में विशेष भूमिका निभाता है और यह उनके व्यक्तित्व केनिर्माण में सहायक सिद्ध हो सकता है। सूचनाओं के संसार में यदि हम बच्चों कोहोशियारी के साथ प्रविष्ट करेंगे तो फिर बच्चों पर संचार माध्यमों के प्रभाव केप्रति हमें अधिक चिंता नहीं होगी। वास्तविकता यह है कि आधुनिक संसार में जीवनव्यतीत करने के लिए बच्चे को तत्पर करने का एकमात्र मार्ग यह है कि हम इस संसार कोउचित ढंग से पहचानें।