गन्दी बस्ती की समस्या
भारत में गंदी बस्तियाँ – यधपि भारत में औद्योगिकक्रांति की लहर काफी देर से आई और आज भी यह विश्व के अन्य देशों की तुलना से अत्यंत ही धीमी है, फिर भी भारत इस समस्या से अछुता नहीं रहा है ।भारत में इन गंदी बस्तियों का विकास औधोगीकरण और श्रमिकों का एक स्थान पर आकार निवास करने के फलस्वरूप है ।औद्योगिकक्षेत्रों में काम करने के लिए श्रमिकों की आवश्यकता होती है ।उधोगपति श्रमिकों को काम पर तो लगते जाते हैं किन्तु उनके रहने के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं करते हैं ।नगरों में मकानों का किराया अधिक होता है और मजदूर जितनी भी मजदूरी पाते हैं उससे वे अपनी “रोटी” की समस्या को ही सही ढंग से नहीं सुलझा पाते हैं ; किराये से अच्छा मकान लेकर रहना तो स्वप्न मात्र होता है ।फिर, शहरों में तो रहना ही पड़ेगा क्योंकि रोजी-रोटी का प्रश्न है ।ऐसी स्थिति में अत्यंत ही गंदे और जर्जर मकानों को किराये में लेते हैं और उनमें पशुओं की भांति कई परिवार के व्यक्ति निवास करते हैं ।ब्रिटिश श्रमिक संघ कांग्रेस का एक शिष्ट मंडल 1928 में भारत आया था ।इसने भारतीय श्रमिकों की आवास व्यवस्था पर जो टिप्पणी की है, वह निम्नलिखित हैं:
“हम जहां कहीं भी ठहरे वहां श्रमिकों के निवास स्थानों को देखने के लिए गये और यदि हमने उन्हें नहीं देखा होता, तो हमें इस बात का कभी भी विशवास नहीं हो सकता था कि इतने खराब मकान हो सकते हैं ।”
मकानों की यही दशा गंदी बस्तियों का मूल कारण है ।देश में नगरीकरण और औधोगीकरण की प्रक्रिया अत्यंत ही तीव्र है ।यदि हम भारत के व्यावसायिक आंकड़ों की ओर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि प्रधान देश होते हुये भी भारत में कृषि-व्यवसाय ओर आश्रित व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर कमी आती जा रही है और व्यवसायों पर आश्रित रहने वाले व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर वृधि होती जा रही है ।यधपि भारत में कुटीर उधोगों को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गयी है, किन्तु इस क्षेत्र में प्रगति नहीं हुई है ।ऐसा लगता है कि भारतीय जनता की कुटीर उधोग में अधिक आस्था नहीं है ।भारत में विशाल उधोगों के क्षेत्र में ही प्रगति हुई है ।ये विशाल उधोग नगरों में ही स्थापित किये गये हैं क्योंकि नगरों में सभी प्रकार की सुविधाएं प्राप्त हैं ।भारतीय गाँव आजादी के 60 वर्ष बाद भी इन सिवुधाओं से काफी दूर हैं ।यहां कुछ प्रमुख भारतीय नगरों में विकसित और स्थापित गंदी बस्तियों की विवेचना ही पर्याप्त है ।यह विवेचना निम्नलखित हैं :
(अ) 91.24 प्रतिशत परिवार ऐसे थे जो एक ही कमरे वाले मकानों में निवास करते थे,
(आ) इन चालों में रहने वाली जनसंख्या में 74 प्रतिशत श्रमिक थे,
(इ) 79 प्रतिशत मकानों में शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं थी, और
(ई) 81 प्रतिशत कमरों में पानी को कोई भी व्यवस्था नहीं थी ।
बम्बई के श्रमिकों की एक बस्ती का वर्णन करते हुए बी.शिवाराव ने लिखा है कि “जब बम्बई में श्रमिकों की एक बस्ती में एक लेडी डॉक्टर एक मरीज को देखने गयी तो उसने देखा कि एक कमरे में 4 गृहस्थियाँ रहती थी, जिनके सदस्यों की संख्या 14 थी ।”
बम्बई में श्रमिकों की दयनीय दशा को देखते हुए श्री हर्स्ट ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं “रहने की दशाएं यहां सबसे ख़राब हैं ।एक संकरी गली में, जिसमें कि दो व्यक्ति एक साथ नहीं जा सकते हैं, (लेखक के ) घुसने के बाद इतना अँधेरा था कि हाथ से टटोलने पर ही कमरे का दरवाजा मिला ।उस कमरे में सूर्य का लेशमात्र भी प्रकाश नहीं था ।ऐसी दशा में दिन के 12 बजे थे ।एक दियासलाई जलाने के बाद ज्ञात हुआ कि ऐसे कमरों में भी श्रमिक रहते हैं”
शाही श्रम आयोग ने भी इसी प्रकार के दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं – “अधिकतर चालों में कोई सुधार करने की गुंजाइश नहीं है और उनको नष्ट कर देने की आवश्यकता है ।”
उपयुर्क्त आयोगों के प्रतिवेदनों और विचारकों, लेखकों तथा समाजसुधार कार्यकर्ताओं के विचारों का मनन और चिंतन करने से स्पष्ट हो जाता है कि बम्बई की यह गंदी बस्तियाँ, जिन्हें चाल के नाम से जाना जाता है, मानव पतन की पराकाष्ठ के चित्र प्रस्तुत करती हैं ।इनको देखकर किसी भी इंसान का ह्रदय स्वभावत: पीड़ा और वेदना से भर जाता है ।इन चालों में रहकर व्यक्ति सभी प्रकार के समाज- विरोधी कार्यों को सम्पादित करने के लिए बाध्य होता है ।
“एक बस्ती में बहुत से कच्चे मकान होते हैं जिसमें सड़कों, नालियों, प्रकाश और जल की कोई व्यवस्था नहीं होती है ।यह बस्तियाँ दुःख, कुकर्म, गंदगी रोग और बीमारियों को जन्म देती है ।इन बस्तियों में बहुधा हरे और दूषित जल से भरे हुए तालाब पाये जाते हैं जिनमें प्राय: वहां के निवासी सड़ी हुई सब्जियां और पशुओं का मलमूत्र फेंकते रहते हैं और यह वहां सड़ता रहता है ।अधिकतर श्रमिक अपने दैनिक प्रयोग के लिए पानी इन तालाबों ही से प्राप्त करते हैं ।इन बस्तियों में सम्पूर्ण परिवार निवास करता है वे एक कमरे के मकान में भोजन करते हैं और रहते हैं तथा पुरे परिवार को एक नम और भींगे हुए फर्श पर चटाई बिछाकर सोना पड़ता है ।
कलकत्ता कार्पोरेशन प्रशासन ने जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था, उसे एक शताब्दी से भी अह्दिक समय हो गया है ।किन्तु आज भी कलकत्ता ही इन बस्तियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, परिवर्तन यदि हुआ भी है तो वह यही कि इन बस्तियों की हालत निरन्तर बद-से-बद्तर होती जा रही है ।स्वतंत्रता के बाद भी इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है और आज भी मानव इन बस्तियों में पतन और समाज-विरोधी कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित होता है ।इधर कुछ मिल मालिकों ने श्रमिकों के आवास के लिए मकानों के निर्माण का कार्य किया है किन्तु यह कार्य पर्याप्त नहीं हैं ।दूसरी ओर इन बस्तियों को समाप्त करने या सुधार करने की दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है ।
कानपुर श्रमिक जाँच समिति ने अपने प्रतिवेदन में इन आहातों के बारे में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं :
1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरु कानपुर की इन बस्तियों को देखने गये, तो उनका मानव ह्रदय उद्वेलित हो गया, वे अपनी भावनाओं को दबा नहीं सके तथा क्रोध और आवेश में आकार उन्होंने कहा था कि “ये गंदी वस्तियाँ से अधिक वीभत्स और घृणास्पद नहीं होंगे ।यहां पर व्यक्ति नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं, छोटे से कमरे में कई परिवारों के जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कार्य इसी एक कमरे में ही होते हैं ।इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का अधोपतन होता है और वह स्वभावतः समाजविरोधी कार्यों की ओर अग्रसर हो जाता है ।
चेरी – मद्रास भी इस भीषण समाजिक समस्या से परे नहीं हैं ।मद्रास में भी देश के अन्य नगरों की भांति ही गंदी बस्तियाँ हैं और वहां इन बस्तियों को चेरी या चेरिज के नाम से पुकारते हैं ।मद्रास में अधिकांश चेरियां कूम नदी के किनारे बनी हुई हैं ।इसके अतिरिक्त नगर के अन्य क्षेत्रों में भी चेरियां हैं ।इन बस्तियों में कमरों की औसत नाप 8 X 6 होती है ।यह कच्ची मिटटी के बने मकान होते हैं, इसलिए वर्षा में इनकी हालत अत्यंत ही ख़राब हो जाती है ।इनमें रहने वाले व्यक्ति अत्यंत ही दयनीय अवस्था में अपना जीवन व्यक्तित करते हैं ।महात्मा गांधी ने मद्रास की इन चरियों की दशा निम्नलिखित शब्दों में किया है :
“एक चेरी जिसे देखने मैं गया था, उसके चारों ओर पानी और गंदी नालियां थी ।वर्षा ऋतु मनुष्य जाने कैसे वहां रहते होंगे ? एक बात यह है कि चेरियां सड़क के स्तर से नीची हैं और वर्षा ऋतु में उनमें पानी भर जाता है ।इनमें सड़कों, गलियों की कोई व्यवस्था नहीं होती है और अधितकर झोपड़ियों में नाममात्र के रोशनदान भी नहीं होते हैं ।यह चेरियां इतनी नीची होती हैं कि बिना पूर्णतया झुके उनमें प्रवेश नहीं किया जा सकता है ।यहां की सफाई न्यूनतम स्तर की सफाई से भी कहीं ख़राब होती है”
गांधी जी ने मद्रास की एक चेरी का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह वास्तव में ह्रदय को दहला देनेवाला है ।इससे स्पष्ट हो जाता है कि चेरियां को सामन्य दशाएं कितनी अमानवीय है तथा इनमें पशुओं से भी ख़राब जिंदगी व्यतीत करता है ।मद्रास में अनुमानत: इन चेरियों की संख्या 200 से अधिक है ।इनमें से अधिक चेरियां निजी स्वामित्व की हैं और बाकी सरकारी, मद्रास नगर की कार्पोरेशन तथा ट्रस्टों की हैं ।
भारत में उपर जिन चारों नगरों की गंदी बस्तियों की चर्चा की गई है, इनके अतिरिक्त भी अनके ऐसे नगर हैं जहां गंदी बस्तियाँ विकसित की गई है ।इन नगरों में अहमदाबाद, इंदौर, जबलपुर, दिल्ली आदि का नाम प्रमुख है ।आज भारतीय नगरों में तीव्रता के साथ औद्योगिकविकास होता जा रहा है ।इस औद्योगिकविकास के कारण अचानक एक स्थान पर बड़ी मात्रा में व्यक्तियों को निवास करने के लिए बाध्य होना पड़ता है ।चूँकि औधोगीकरण के साथ –ही साथ आवास-वाव्स्था का समुचित सुधार नहीं होता है, इसलिए गंदी बस्तियां विकसित होती हैं ।
भारत में खानों और बागान क्षेत्रों में भी गंदी बस्तियाँ विकसित हो गयी हैं ।इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में अधिक मात्रा में काम करने वाले मजदूर रहते हैं और उनके निवास आदि की उचित व्यवस्था न होने से ये गंदी बस्तियों के रूप में परिवर्तित होते हैं ।Gandeo bastiyon ka ullekh kijiye
भारत में गन्दी बस्तियों की प्राकृति समस्या तथा उसका निदान विस्तारपूर्वक लिखिए
बाद में गंदी बस्तियों की कोई दो समस्या को करने की
भारत में गंदी बस्तियों की कोई दो समस्याओं का वर्णन कीजिए
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1. गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की समस्या
2. गंदी बस्ती में रहने वाले लोगों की आर्थिक सामाजिक और शैक्षणिक समस्याओं का पता लगाना
3. गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की आपसी समस्याओं का पता लगाना
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ॻन्दी बस्ती से कौन सा रोग फैलता है
Problems of Gandhi basti
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