भारत में धार्मिक सुधार आंदोलन का महत्व
19वीं सदी को भारत में धार्मिक एवं सामाजिक पुनर्जागरण की सदी माना गया है। इस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से आधुनिक तत्कालीन युवा मन चिन्तनशील हो उठा, तरुण व वृद्ध सभी इस विषय पर सोचने के लिए मजबूर हुए। यद्यपि कम्पनी ने भारत के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के प्रति संयम की नीति का पालन किया, लेकिन ऐसा उसने अपने राजनीतिक हित के लिए किया। पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित लोगों ने हिन्दू सामाजिक रचना, धर्म, रीति-रिवाज व परम्पराओं को तर्क की कसौटी पर कसना आरम्भ कर दिया। इससे सामाजिक व धार्मिक आन्दोलन का जन्म हुआ। अंग्रेज़ हुकूमत में सदियों की रूढ़ियों से जर्जर एवं अंधविश्वास से ग्रस्त औद्योगिकी नगर कलकत्ता, मुम्बई, कानपुर, लाहौर एवं मद्रास में साम्यवाद का प्रभाव कुछ अधिक रहा। भारतीय समाज को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न प्रबुद्ध भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक सुधारकों, सुधारवादी ब्रिटिश गवर्नर-जनरलों एवं पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार ने किया।
भारत में ब्रिटिश सत्ता के पैर जमने के बाद यहाँ का जनमानस पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति के सम्पर्क में आया, परिणामस्वरूप नवजागरण की शुरुआत हुई। भारतीय समाज की आंतरिक कमज़ोरियों का पक्ष उजागर हुआ। अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारत के धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया। अंग्रेज़ी शिक्षा व संस्कृति का प्रभाव सर्वप्रथम भारतीय मध्यम वर्ग पर पड़ा। तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं वाह्म आडम्बरों को समाप्त करने में पाश्चत्य शिक्षा ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस शिक्षा के प्रभाव में आकर ही भारतीयों ने विदेशी सभ्यता और साहित्य के बारे में ढेर सारी जानकारियाँ एकत्र कीं तथा अपनी सभ्यता से उनकी तुलना कर सच्चाई को जाना। प्रारम्भ में अर्थात् 1813 ई. तक कम्पनी प्रशासन ने भारत के सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया, क्योंकि वे सदैव इस बात से सशंकित रहते थे कि, इन मामलों में हस्तक्षेप करने से रूढ़िवादी भारतीय लोग कम्पनी की सत्ता के लिए ख़तरा उत्पन्न कर सकते हैं। परन्तु 1813 ई. के बाद ब्रिटिश शासन ने अपने औद्योगिक हितों एवं व्यापारिक लाभ के लिए सीमित हस्तक्षेप प्रारम्भ कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप कालान्तर में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों को जन्म हुआ। 'हीगल' के मतानुसार-"पुनर्जागरण के बिना कोई भी धर्म सम्भव नहीं।"
इसके अंतर्गत हिन्दू धर्म तथा समाज में सुधार हेतु कई आन्दोलनों को चलाया गया, जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-
ब्रह्मसमाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंन 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- कलकत्ता ई. में विखण्डन हो चुका था। केशवचन्द्र सेन को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने आचार्य के पद से हटा दिया। फलतः केशवचन्द्र सेन ने 'भारतीय ब्रह्म समाज' की स्थापना की, और इस प्रकार पूर्व का ब्रह्मसमाज 'भारत के मौरवी नामक स्थान पर पैदा हुए स्वामी दयानंद को बचपन में ‘मूलशंकर’ के नाम से जाना जाता था। 21 वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने गृह त्याग कर घुमक्कड़ों का जीवन स्वीकार किया। 24 1867 ई. में देवबन्द, उत्तर प्रदेश) से की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए धार्मिक नेता तैयार करना, विद्यालय के पाठ्यक्रमों में अंग्रेज़ी शिक्षा एवं पश्चिमी संस्कृति को प्रतिबन्धित करना, मुस्लिम सम्प्रदाय का नैतिक एवं धार्मिक पुनरुद्धार करना तथा अंग्रेज़ सरकार के साथ असहयोग करना था।
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