दो ध्रुवीयता का अंत
दो धु्वीयता का अन्त
1917 में महान बोल्शेविक क्रान्ति के पश्चात समाजवादी सोवियत गणराज्य का निर्माण हुआ। बोल्शेविक क्रान्ति ने पूंजीवाद का विरोध व निजी सम्पत्ति का अन्त कर समानता के सिद्धान्त पर आधारित समाज का निर्माण हेतु कार्य किया। बोल्शेविक दल ने इस कार्य में अहम भूमिका का निर्वहन किया इसमें अन्य राजनीति दल के लिए कोई जगह नहीं थी। इसिलिए बोल्शेविक नियन्त्रित प्रणाली को सोवियत प्रणाली कहा गया। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात सोवियत संघ ने एक ओर सोवियत क्रान्ति के प्रसार हेतु उग्र नीति अपनाई तथा दूसरी और पश्चिमी प्रभावों से पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों को बचाने के लिए ‘‘लोह आवरण‘‘ की नीति का सहारा लिया। चेकोस्लोवाकिया, हंगरी,अल्बानिया,बल्गारिया एवं युगोस्लोवाकिया पर साम्यवादी विचारधारा से युक्त सरकारों की स्थापना की। इन्ही समाजवादी खेमे के देशों को ‘‘दूसरी दुनिया‘‘ के देश कहा गया जिन पर समाजवादी सोवियत गणराज्य का प्रभाव था।
द्वितीय विश्व युद्व के पश्चात सोवियत संघ महाशक्ति के रूप में उभरा इसके पास अपार ऊर्जा संसाधन (खनिज तेल,लोहा,इस्पात) थे, सोवियत संघ सरकार ने अपने सभी नागरिकों को न्यूनतम जीवन स्तर (रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा आदि) उपलब्ध कराया था तथा लोगों को रोजगार मिल रहा था। उत्पादन एवं वितरण के समस्त साधनों पर राज्य का ही स्वामित्व था। फिर भी सोवियत प्रणाली दुर्गुणों से बच नही सकी जिन्हे हम निम्नाकित बिन्दुओं से समझ सकते हैं।
ऽ सोवियत प्रणाली में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही थी।
ऽ सोवियत संघ में अफसर शाही और नौकरशाही से आम जनता त्रस्त थी।
ऽ सोवियत संघ में केवल कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था और इस दल का सभी संस्थाओं पर एकाधिकार था।
ऽ कम्युनिस्ट पार्टी आम लोगों के प्रति उत्तरदायी नहीं थी।
ऽ लोकतन्त्र की अनुपस्थिति तथा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता समाप्त हो गई।
सोवियत संघ 15 गणराज्यों का समूह था लेकिन वास्तविक प्रभुत्व रूस का था अतः अन्य क्षेत्रों की जनता अपने को उपेक्षित महसूस करती थी।
सोवियत संघ हथियारों के मामले में अमेरिका को बराबर की टक्कर दी लेकिन सोवियत संघ प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढांचे (परिवहन,ऊर्जा,सड़क,यातायात) में यूरोपिय देशों से पिछड़ गया। सोवियत संघ ने 1979 में अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया जिससे यहां कि अर्थव्यवस्था पर काफी कुप्रभाव पड़ा। 1970 के दशक के आखिर में सोवियत अर्थव्यवस्था जीर्ण शीर्ण अवस्था में आ चुकी थी।
गोर्बाच्योव और सोवियत संघ का विघटन-
मिखाइल गोर्बाच्योव 1985 में सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने। उस समय पश्चिमी यूरोप के देशों में सूचना और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में क्रान्ति हो चुकी थी और सोवियत संघ इन देशों के मुकाबले काफी पिछड़ चुका था। इस स्थिति से निपटने के लिए और सुधार प्रक्रिया प्रारम्भ करने के लिए गोर्बाच्योव ने पेरेस्त्रोइका (पुनर्निमाण या आर्थिक सुधार) तथा ग्लासनोस्त (खुलापन या राजनीतिक सुधार) की नीति को अपनाया। गोर्बाच्योव ने पश्चिम के देशों के साथ संबंध सामान्य बनाने तथा सोवियत संघ को लोकतान्त्रिक रूप देने का निर्णय लिया। इन नीतियों के कारण पूर्वी यूरोप के देश जो सोवियत खेमे में आते थे उन्होने सोवियत नियन्त्रण का विरोध प्रारम्भ किया और पूर्वी यूरोप में सोवियत सरकारें गिरती चली गई। अपनी सुधार नीतियों के कारण गोर्बाच्योब को बाहरी विरोध के साथ-साथ आंतरिक विरोध भी झेलना पड़ा। कम्यूनिस्ट
पार्टी के नेता इन नीतियों का विरोध कर रहे थे। लेकिन सोवियत संघ के विघटन की रफ्तार निरन्तर बढ़ती गई। ग्लासनोस्त की नीति का परिणाम सर्व प्रथम लिथुआनिया में नजर आने लगा वहां सोवियत संघ से आजादी के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हो गया और शीघ्र ही यह आन्दोलन एस्टोनिया और लातविया में भी फैल गया। अक्टूबर 1989 में गोर्बाच्योब ने यह घोषणा की वारसा संधि में शामिल देश अपना भविष्य तय करने के लिए स्वतन्त्र हैं। और नवम्बर 1989 में बर्लिन की दीवार को गिरा दिया गया। फरवरी 1990 में सोवियत संसंद ड्युमा के चुनाव हुए उसमें गोर्बाच्योब ने अन्य राजनीतिक दलों को भी चुनाव मंे भाग लेने का मौका दिया और बरसों से चली आ रही एक दलीय प्रथा को समाप्त कर बहुदलीय प्रथा को शुरू किया।
चुनावों में 72 वर्षो से शासन करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की हार हुई। इससे उत्साहित होकर मार्च 1990 में लिथुआनिया ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी तथा जून 1990 में रूसी गणराज्य की संसद ने सोवियत संघ से अपनी आजादी की घोषणा कर दी। मिखाइल गोर्बाच्योव के पश्चात बोरिस येल्तसिन रूस के प्रथम राष्ट्रपति चुने गये। सन् 1991 में बोरिस येल्तसिन के नेतृत्व में सोवियत संघ के तीन बड़े गणराज्य रूस,यूक्रेन और बेलारूस ने सोवियत संघ की समाप्ति की घोषणा की। तथा सोवियत संघ के सभी 15 गणराज्य अब स्वतन्त्र राज्य बन गये। कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लग गया तथा लोकतन्त्र और पूंजीवाद को परवर्ती सोवियत संघ में अपनाया गया। रूस को सोवियत संघ का उत्तराधिकारी राज्य घोषित किया गया और रूस को सोवितय संघ की सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता प्राप्त हुई। सोवियत संघ ने जितनी भी अन्तर्राष्ट्रीय संधिया की थी उनको निभाने की जिम्मेदारी रूस को दी गई।
सोवियत संघ के विघटन के कारण –
1. जन असंतोष- जारशाही के शासन काल में लोगों का जीवन स्तर बिल्कुल न्म्नि स्तर का था लेकिन साम्यवादी क्रान्ति के पश्चात लोगों को विश्वास दिलाया की अनका आर्थिक जीवन स्तर बहुत सुधर जाएगा ऐसा हुआ भी लेकिन जितना सुधार होने का दावा किया था उतना नही हुआ तथा इनके मुकाबले पश्चिम के देशों का आर्थिक स्तर काफी उन्नत होने से नागरिकों में असन्तोष फैल गया।
2. कम्युनिस्ट पार्टी (साम्यवादी दल) की निरंकुशता- सोवितय संघ में एक दलीय व्यवस्था थी। केवल कम्युनिस्ट दल का ही शासन होने से सत्ता निरंकुश होने लगी जिससे लोगों में आक्रोश बढ़ गया। सोवियत संघ में 72 वर्षो तक पार्टी का एक छत्र शासन रहा जिससे पार्टी के सदस्यों व अधिकारियों का जीवन स्तर काफी आम नागरिकों के मुकाबले काफी उन्नत था जिससे आम जनता अपने को उपेक्षित महसूस करने लगी।
3. रूस का प्रभुत्व- सोवियत संघ में रूस के बढ़ते प्रभुत्व से संघ के अन्य राज्य दमित और शोषित महसूस करने लगी।
4. आर्थिक संसाधनों का दुरूपयोग- सोवियत संघ ने अपनी प्रतिस्पर्धी महाशक्ति अमेरिका को चुनौती देने के लिए अपार धन संपदा आणविक अस्त्रों में झोंक दी जिससे अमेरिका तो आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरा लेकिन सावियत संघ की आर्थिक स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती चली गई।
5. गोर्वाच्योव की ग्लासनोस्त और पेरस्त्रोइका नीति- जब गोर्वाच्योव ने इन नीतियों को लागू किया तब जनता को यह अहसास हुआ कि पश्चिमी जगत इनसे काफी आगे निकल चुका हैं। जिससे जनता का समाजवादी राज्य व्यवस्था से मोह भंग हो गया।
6. अफगानिस्तान में हस्तक्षेप-ब्रझनेव के शासन काल में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया जिससे उनको फायदा तो कुछ भी नहीं हुआ बल्कि सोवियत संघ को उसकी भारी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी।
7. गणराज्यों में सोहार्द तथा समरसता का अभाव- सोवियत संघ के विभिन्न गणराज्यों के बीच सदैव समरसता का अभाव रहा क्योंकि रूसी गणराज्य यूक्रेन, बेलारूस, जार्जिया तथा बाल्टिक देश के लिथुआनिया, लाटविया और एस्टोनिया को हमेशा यह लगता रहा कि मध्य एशिया के पिछड़े गणराज्यों के कारण उनकी आर्थिक उन्नति नहीं हो रही हैं क्योंकि संसाधनो का बहुत बड़ा हिस्सा पिछड़े गणराज्यों पर खर्च हो रहा था।
8. पूर्वी यूरोप के देशों के विकास पर खर्च- द्वितीय विश्व युद्व के पश्चात पूर्वी यूरोप के देशों पर सोवियत संघ का प्रभुत्व हो गया। इन देशों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए सोवियत संघ को अपने संसाधनों का बड़ा हिस्सा इनके आर्थिक विकास मे खर्च करना पड़ा जिससे सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा।
9. राष्ट्रीयता और संम्प्रभुता की भावना का विकास- सोवियत संघ के सभी गणराज्यों के नागरिको में राष्ट्रीयता और संप्रभुता की भावना का जबरदस्त विकास हुआ जो सोवियत संघ के विघटन का अंतिम और तात्कालिक कारण बना।
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