भारत के क्षेत्रीय परिषद
भारत में क्षेत्रीय परिषदें / आंचलिक परिषदें (Zonal Councils in India)
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भारत के संविधान में क्षेत्रीय या आंचलिक परिषदों के सम्बन्ध में कोई भी प्रावधान नहीं है। इनके सृजन का विचार भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु द्वारा उस समय रखा गया जब राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा की जा रही थी। उन्होंने सुझाव दिया कि पुनर्गठित किए जाने के लिए प्रस्तावित राज्यों को चार या पांच अंचलों में समूह-बद्ध किया जाए जिसमें इन राज्यों के बीच ‘सहयोग पूर्ण ढंग से कार्य करने की आदत विकसित’ करने के लिए सलाहकार परिषद हो।
पंडित नेहरु द्वारा यह सुझाव उस समय दिया गया जब भाषाई पद्धति के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप भाषाई विद्धेष और कडुवाहट हमारे राष्ट्र की मूल भावना के लिए खतरा बन गई थी। इस स्थिति के हल के रूप में सुझाव दिया गया कि इन विद्धेषों के प्रभाव को कम करने और अंतर-राज्य समस्याओं को हल करने की दृष्टि से स्वस्थ अंतर-राज्य और केन्द्र-राज्य वातावरण का सृजन करने तथा संबंधित अंचलों का संतुलित सामाजिक आर्थिक विकास करने के लिए एक उच्च स्तरी सलाहकार फोरम स्थापित किया जाना चाहिए।
क्षेत्रीय परिषदों का गठन
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पंडित नेहरु के दृष्टिकोण के संदर्भ में राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के भाग-।।। के तहत पांच आंचलिक परिषदें स्थापित की गई थीं। इन आंचलिक परिषदों का वर्तमान गठन निम्नवत है:-
1. उत्तरी आंचलिक परिषद – इसमें हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, पंजाब, राजस्थान राज्य, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और संघ राज्य क्षेत्र चंडीगढ़ शामिल हैं।
2. मध्य आंचलिक परिषद – इसमें छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्य हैं।
3. पूर्वी आंचलिक परिषद – इसमें बिहार, झारखंड, उड़ीसा, सिक्किम और पश्चिम बंगाल राज्य हैं।
4. पश्चिमी आंचलिक परिषद – इसमें गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र राज्य और संघ राज्य क्षेत्र दमण और दीव और दादरा और नगर हवेली है, और
5. दक्षिणी आंचलिक परिषद – इसमें आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलाडु, राज्य और संघ राज्य क्षेत्र पुडुचेरी हैं।
पूर्वोत्तर राज्य अर्थात् असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय और नागालैंड को आंचलिक परिषदों में शामिल नहीं किया गया है। उनकी विशेष समस्याओं को पूर्वोत्तर परिषद अधिनियम, 1971 के तहत गठित पूर्वोत्तर परिषद द्वारा हल किया जाता है।
सिक्किम राज्य को दिनांक 23 दिसम्बर, 2002 में अधिसूचित पूर्वोत्तर परिषद (संशोधन) अधिनियम, 2002 के तहत पूर्वोत्तर परिषद में शामिल दिया गया है।
क्षेत्रीय परिषदों का संगठनात्मक ढांचा
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आंचलिक परिषदों का गठन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है। इनका संगठन निम्नानुसार होता है:
1. अध्यक्ष- केन्द्रीय गृह मंत्री, इन प्रत्येक परिषदों के अध्यक्ष होते हैं।
2. उपाध्यक्ष – प्रत्येक आंचलिक परिषद में शामिल किए गए राज्यों के मुख्यमंत्री, रोटेशन से एक समय में एक वर्ष की अवधि के लिए उस अंचल के आंचलिक परिषद के उपाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं।
3. सदस्य – मुख्यमंत्री और प्रत्येक राज्य से राज्यपाल द्वारा यथा नामित दो अन्य मंत्री और अंचल में शामिल किए गए संघ राज्य क्षेत्रों से दो सदस्य।
4. सलाहकार – प्रत्येक क्षेत्रीय परिषदों के लिए योजना आयोग द्वारा एक व्यक्ति को नामित किया गया, क्षेत्र में शामिल किए गए प्रत्येक राज्यों द्वारा मुख्य सचिवों एवं अन्य अधिकारी/विकास आयुक्त को नामित किया गया।
आवश्यकता पड़ने पर क्षेत्रीय परिषदों की बैठकों में भाग लेने के लिए केन्द्रीय मंत्रियों को भी आमंत्रित किया जाता है।
क्षेत्रीय परिषदों की भूमिका और उद्देश्य
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क्षेत्रीय परिषदें एक बेहतर मंच प्रदान करती हैं जहाँ पर केन्द्र एवं राज्यों के बीच तथा राज्यों की आपसी अमान्यताओं को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष विचार-विमर्शों तथा परामर्शों के माध्यम से सुलझाया जा सकता है। सलाहकारी निकाय होने के नाते, उनकी बैठकों में विचारों के स्वतंत्र एवं निष्पक्ष आदान-प्रदान की पूर्ण गुंजाईश होती है।
हालांकि केन्द्र सरकार के तत्वावधान में राष्ट्रीय विकास परिषद, अन्तर-राज्यीय परिषद, राज्यपालों/मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन तथा अन्य आवधिक उच्च-स्तरीय सम्मेलनों जैसे बड़ी संख्या में अन्य मंच मौजूद हैं, परन्तु क्षेत्रीय परिषदें विषय-वस्तु एवं प्रकृत्ति दोनों ही रूपों में भिन्न हैं। ये आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े राज्यों के लिए सहयोगात्मक प्रयास के क्षेत्रीय मंच हैं।
संक्षिप्त उच्च स्तरीय निकाय होने और विशेष रूप से संबंधित क्षेत्रों के हितों की देखरेख करने के लिए अभिप्रेत होने के नाते, यह राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए क्षेत्रीय पहलुओं को शामिल कर विशिष्ट मामलों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए सक्षम है।
क्षेत्रीय परिषदों की स्थापना करने का मुख्य उद्देश्य निम्नानुसार है:
1. राष्ट्रीय एकीकरण को साकार करना;
2. तीव्र राज्यक संचेतना, क्षेत्रवाद तथा विशेष प्रकार की प्रवृत्तियों के विकास को रोकना;
3. केन्द्र एवं राज्योंन को विचारों एवं अनुभवों का आदान-प्रदान करने तथा सहयोग करने के लिए सक्षम बनाना;
4. विकास परियोजनाओं के सफल एवं तीव्र निष्पादन के लिए राज्यों के बीच सहयोग के वातावरण की स्थापना करना।
परिषदों के कार्य
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प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद की एक सलाहकारी निकाय है और यह किसी भी मामले पर विचार कर सकती है जिसमें उस परिषद में भागीदारी करने वाले कुछेक अथवा समस्त राज्यों या केन्द्र एवं उस परिषद में भागीदारी करने वाले एक अथवा अधिक राज्यों का सामान्य हित होता है और यह केन्द्र सरकार तथा प्रत्येक संबंधित राज्य सरकार को सलाह देती है कि ऐसे प्रत्येक मामले पर क्या कार्रवाई की जानी चाहिए।
विशेष रूप से, एक क्षेत्रीय परिषद निम्नलिखित के संबंध में विचार कर सकती है और अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कर सकती है:
1. आर्थिक एवं सामाजिक आयोजना के क्षेत्र में सामान्य हित का कोई मामला;
2. सीमा विवादों, भाषायी अल्पसंख्यकों अथवा अन्तर-राज्यीय परिवहन से संबंधित कोई मामला; तथा
3. राज्यव पुनर्गठन अधिनियम के अंतर्गत राज्यों के पुनर्गठन से संबंधित अथवा उसके संबंध में उठने वाला कोई मामला।
क्षेत्रीय परिषदों की बैठकें
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राज्य पुनर्गठन अधिनियम की धारा 17(1) के अनुसार, प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद को ऐसे समय पर बैठक करनी होती है, जैसा परिषद के अध्यक्ष इस संबंध में निर्धारित करते हैं।
क्षेत्रीय परिषदों में विचार-विमर्श के बाद आन्तरिक सुरक्षा, तटीय सुरक्षा, महानगर पुलिस व्यवस्था, संबंधित राज्यों द्वारा अपराध एवं अपराधियों पर जानकारी का आदान-प्रदान, जेल सुधार, साम्प्रदायिक सौहार्द्र तथा महिलाओं एवं बच्चों की तस्करी जैसी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन तथा आपदा प्रबंधन संबंधी तैयारी के सुदृढ़ीकरण, सूचना का अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन, राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी विधेयक के कार्यान्वयन, तटीय सुरक्षा तथा बेहतर शासन इत्यादि के संबंध में महत्वपूर्ण पहलों की शुरुआत हुई।
क्षेत्रीय परिषदों की बैठकों से संबंधित कार्य
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क्षेत्रीय परिषदों के कार्यों का निष्पादन राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 तथा समस्त पांच क्षेत्रीय परिषदों की क्रियाविधि नियमावली के अनुसार किया जाता है जिसे अनुलग्नक I-VI में देखा जा सकता है। राज्यी पुनर्गठन अधिनियम, 1956 एक प्रकाशित वैधानिक दस्तावेज है। क्षेत्रीय परिषदों की क्रियाविधि नियमावली भी प्रकाशित की गई है और जनता की मांग पर उपलबध करा दी गई है (जब भी आवश्यक समझा जाता है, गृह मंत्रालय द्वारा इस नियमावली को अद्यतन किया जाता है)। क्षेत्रीय परिषदों की बैठकों के आयोजन से संबंधित समस्त मामलों को गृह मंत्रालय के सी एस डिवीजन के माध्यम से केन्द्रीय गृह मंत्री के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
क्षेत्रीय परिषदों की समितियां
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प्रत्येक आंचलिक परिषद में एक स्थाई समिति का गठन किया गया है जिसमें उनकी अपनी-अपनी आंचलिक परिषदों के सदस्य, राज्यों के मुख्य सचिव शामिल होते हैं। ये स्थाई समितियां, मुद्दों को हल करने या आंचलिक परिषदों की होने वाली बैठकों के लिए आवश्यक आधारभूत कार्य करने के लिए समय-समय पर बैठकें करती हैं। योजना आयोग और अन्य केद्रीय मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारी भी आवश्यकतानुसार इन बैठकों में भाग लेते हैं।
क्षेत्रीय परिषदों का सचिवालय
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निकाय द्वारा स्वयं ही क्षेत्रीय परिषदों के सचिवालय का गठन भी किया गया है। राज्य पुनर्गठन अधिनियम की धारा 19 क्षेत्रीय परिषदों के कर्मचारियों से संबंध रखती है जबकि धारा 20 परिषद के कार्यालय तथा इसके प्रशासनिक व्यय से संबंध रखती है।
क्षेत्रीय परिषद सचिवालय की संगठनात्मक संरचना
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राज्य् पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा 19(1) के अनुसार प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में सचिवालय कर्मचारी होंगे जिसमें एक सचिव, एक संयुक्त सचिव और ऐसे अन्य अधिकारी होंगे जिन्हें नियुक्त करना अध्यक्ष महोदय आवश्यक समझते हों।
ऐसी क्षेत्रीय परिषदों में प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यों के मुख्य सचिव बारी-बारी से संबंधित परिषद के सचिव के रूप में कार्य करते हैं, जो एकबारगी एक साल की अवधि के लिए पद पर होते हैं। क्षेत्रीय परिषदों के संयुक्त सचिव अखिल भारतीय सेवा अथवा केन्द्रीय सचिवालय सेवा के निदेशक स्तर के अधिकारी होते हैं।
संयुक्त सचिव की सहायता करने के लिए क्षेत्रीय परिषद सचिवालय में अन्य 19 स्वीकृत पद हैं। संयुक्त सचिव, उप सचिव और चौकीदार के पद अस्थायी हैं जबकि अन्य पद स्थायी हैं।
क्षेत्रीय परिषद सचिवालय क्षेत्रीय परिषदों/स्थायी समितियों में विचार-विमर्श के लिए संगत मामलों का पता लगाने हेतु राज्य सरकारों, केन्द्र सरकार तथा योजना आयोग जैसी संस्थाओं के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। तथापि, प्रबुद्ध नागरिकों के लिए यह खुला है कि वे ऐसे मामलों का पता लगाएँ और उसे क्षेत्रीय परिषद सचिवालय की जानकारी में लाएं।
क्षेत्रीय परिषद सचिवालय के प्रशासनिक कार्य
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समस्त प्रशासनिक एवं वित्तीय कार्य भारत सरकार के वर्तमान नियमों एवं निर्देशों के अनुसार निष्पादित किए जाते हैं। जब भी आवश्यक समझा जाता है, संबंधित नोडल मंत्रालयों द्वारा इन नियमों एवं आदेशों को अद्यतन किया जाता है। इसके बाद, दिन-प्रतिदिन के कार्यालय कार्य को निपटाने में कार्यालय पद्धति पुस्तिका के अन्तवर्गत दिए गए दिशानिर्देशों का अनुसरण किया जाता है। जबकि कार्यालय प्रमुख की हैसियत से क्षेत्रीय परिषद सचिवालय के उप सचिव तथा परिषदों कें शाखा अधिकारी, प्रशासन और हिन्दी अनुभाग अपने सौंपे गए अधिकारों के अधीन दिन-प्रतिदिन के कार्य को निपटाते हैं, विभाग प्रमुख के अनुमोदन की अपेक्षा रखने वाले महत्वपूर्ण मामलों पर वे क्षेत्रीय परिषद सचिवालय के संयुक्त सचिव से आदेश हासिल करते हैं।
क्षेत्रीय परिषदों और उनकी स्थायी समितियों की कार्यसूचियाँ एवं कार्यवाहियाँ स्थायी रिकॉर्ड हैं, जिन्हें जिल्दसाजी कर समुचित सुरक्षा में रख दिया गया है। क्षेत्रीय परिषदों की कार्यवाहियों को संसद के पुस्तकालय में भी रखा गया है। सेवा रिकार्डों को गृह मंत्रालय/कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा जारी किए गए संगत आदेशों/निर्देशों के अनुसार रखा जाता है।
क्षेत्रीय परिषदों का कार्यालय
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राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 की धारा 20(1) के अनुसार, प्रत्येक क्षेत्र के लिए क्षेत्रीय परिषद का कार्यालय क्षेत्र के अंदर ऐसी जगह पर स्थित होना चाहिए जैसा कि परिषद द्वारा निर्धारित किया जाए। तथापि, समस्त क्षेत्रीय परिषदों के कार्य की देखरेख करने वाला एक एकल सचिवालय नई दिल्ली में कार्यरत है। यह सचिवालय 9/11, जामनगर हाउस, नई दिल्ली में स्थित है और यह गृह मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन कार्य कर रहा है।
क्षेत्रीय परिषदों के सचिवालय केन्द्र-राज्य, अन्तर-राज्यीय तथा क्षेत्रीय मामलों का पता लगाते हैं जिन पर परिषदों अथवा स्थायी समितियों द्वारा विचार-विमर्श किया जाना होता है। सचिवालय, यदि आवश्यक हुआ तो अध्यक्ष एवं अन्य केन्द्रीय मंत्रियों/मुख्य मंत्रियों का ध्यान आकर्षित करते हुए, परिषदों/ स्थायी समितियों की सिफारिशों पर अनुवर्त्ती कार्रवाई भी करता है।
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