सूक्ष्मजीव के प्रकार
पोखर से लिए गए पानी की एक छ का सूक्ष्मदर्शी यंत्र में परीक्षण करने पर हम पाएंगे कि उसमें बहुत बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीव होंगे तथा इनके रूप व आकार में बहुत अधिक भिन्नताएं होंगी । यह भिन्नताएं उनके कार्यों तथा जीवन प्रक्रिया में भी पाई जाती हैं ।
वास्तव में यही विज्ञान की एक शाखा के अध्ययन का आधार है जिसे हम सूक्ष्मजीव विज्ञान (माइक्रोबॉयलॉजी) कहते है । सूक्ष्मजीवी के बहुत छोटे आकार के कारण इसमें अधिक शौकिया गतिविधियों का संचालन करना कठिन है । फिर भी आगे के भाग में हम इनसे परिचित होने का प्रयत्न करेंगे ।
i. जीवाणु (बैक्टीरिया):
एक माइक्रोमीटर (एक मिलीमीटर का एक हजारवां भाग) की श्रेणी के आकार के ये जीवाणु स्वतंत्र रूप से जीवित रहने वाले सबसे छोटे जीव हैं । वे पृथ्वी पर विकसित होने वाले सबसे पहले जीव हैं तथा इनकी शारीरिक संरचना तथा कार्यों की दृष्टि से यह सबसे सरल जीव हैं । फिर भी ये जीव जिन्हें एक पृथक जीवित कोशिका के रूप में सोच सकते हैं, हमारे आस-पास पाये जाने वाले सबसे सामान्य जीव होते हैं ।
जीवाणु हवा, पानी, मिट्टी, भोजन सामग्री, अन्य जीवों के शरीर अथवा मृत जीवों में पाए जाते हैं । हमें किसी प्रकार से प्रभावित किए बिना जीवाणु अस्तित्व में रहते हैं । कुछ जीवाणु हमारे लिए सहायक होते हैं तथा अपरिहार्य भी होते हैं । वहीं कुछ जीवाणु हमारे लिए हानिकारक भी होते हैं ।
यद्यपि ये इतने छोटे होते हैं कि इन्हें हम देख नहीं सकते और न ही इन्हें प्रत्यक्ष रूप से महसूस कर सकते हैं किन्तु इनकी उपस्थिति का एहसास हमें इनके कार्यों से होता है । जीवाणुओं के कुछ कार्यों से हम भली-भांति परिचित हैं, जैसे दूध का दही के रूप में जमना, भोजन सामग्री का सड़ना, जैविक अवशेषों का अपघटित होना, घावों का पकना तथा कॉलरा, तपेदिक जैसी बीमारियों का होना आदि ।
ii. प्रोटोजोआ:
आकार व जटिलता की दृष्टि से अगले पायदान के रूप में प्रोटोजोआ आते हैं, जिन्हें पूर्व में प्राणी समझा जाता था । अब इन विभिन्न प्रकार के एक कोशिका वाले जीवों को एक पृथक श्रेणी में रखा गया है जिसे किंगडम ऑफ प्रोटिस्टा कहते हैं वे किस प्रकार विचरण करते हैं । इस आधार पर उन्हें और श्रेणियों में बांटा गया है ।
इनमें से कुछ अधिक परिचित प्रोटोजोआ हैं- अमीबा, पैरामिशियम, यूग्लीना, ट्रिपैनोसोमा तथा प्लासमोडियम । अधिकांश प्रोटोजोआ हानिकारक नहीं होते । कुछ तो मानव के लिए सहायक होते हैं, किन्तु कुछ प्राणियों पर रोगजनक परजीवियों (पैथोजेनिक पैरासाइट) के रूप में रहते हैं ।
मलेरिया उत्पन्न करने वाले प्लासमोडियम तथा एंटामिबा हिस्टोलिका जिनसे आमातिसार (अमीबिक डिसैन्ट्री) होती है, के बारे में इस देश के लोगों को भली-भांति मालूम हैं । ट्रिपैनोसोमा अफ्रीकन सोने के रोग के रोगमूलक प्रोटोजोआ होते हैं । उपयोगी प्रोटोजोआ में वे प्रोटोजोआ आते हैं जो मवेशियों व दीमक की आतीं में रहते है जो इन प्राणियों द्वारा खाए गए घास व लकड़ी के सेलुलोज को पचाते हैं ।
iii. यूग्लीना तथा पैरामिशियम:
यूग्लीना व पैरामिशियम दो रोचक प्रोटोजोआ होते हैं । अधिकांश यूग्लीना प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से स्वयं का भोजन बनाते हैं । फिर भी इनमें यह क्षमता होती है कि प्रकाश उपलब्ध न होने पर भी ये अपने परिवेश से भोजन आत्मसात कर लेते हैं । इस प्रकार इनमें पौधों व प्राणियों, दोनों के लक्षण होते हैं ।
यूग्लीना उस पानी में बड़ी संख्या में उत्पन्न होते हैं जो समृद्ध जैविक वस्तुओं जैसे खाद द्वारा दूषित होता है । कभी-कभी कृषि फार्म के अंदर के पोखर का पानी हरा सा लगता है यह इन्हीं यूग्लीना के कारण होता है जिनमें हरा प्रकाश संश्लेषणात्मक वर्णक (फोटोस्यिन्थेटिक पिग्मेंट) क्लोरोफिल रहता है ।
पैरामिशियम अपने एक कोशिकीय ढाचें के होते हुए भी एक जटिल जीव होता है ये कीचड़ युक्त पानी में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं । विशेष कर उस झाग में जो पानी की सतह पर तैरता है । उसके चप्पल समान ढांचे तथा पलटने के लक्षण के कारण हम पैरामिशियम को एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र के नीचे आसानी से पहचान सकते हैं इसके सामने जब बाधा आती है तो यह विपरित दिशा में पलट जाता है ।
यूग्लीना पर प्रकाश का प्रभाव:
यूग्लीना युक्त पानी के प्रकाश के प्रति आकर्षण को दिखाने के लिए एक रोचक गतिविधि की जा सकती है । एक पारदर्शी जार में हरा सा पानी लें । जार के मुंह को काले मोटे कागज से ढक दें । एक ओर थोड़ी सी दरार छोड़ दें । इसे किसी प्रकाशयुक्त कमरे में रख दें । एक या दो दिन बाद बिना पानी के हिलाए कागज को निकाल लें । फिर बाजू से देखे । आपको यूग्लीना का हरा रंग भिन्नता लिए दिखाई देगा ।
पैरामिशियम विकसित करना:
कुछ भूसा व सुखी घास लें व उसके छोटे-छोटे टुकड़े करें इन्हें पानी में भिगोएं तथा उस पर किसी पोखर या नाली का कुछ कीचड़ युक्त पानी डालें कुछ दिनों बाद पानी को सूक्ष्मदर्शी यंत्र के नीचे देखें पानी में बहुत बड़ी संख्या में आपको पैरामिशियम दिखेंगें ।
फफूंदों के आकार में अत्यधिक भिन्नता पाई जाती है । इनमें एक कोशिकीय खमीर (यीस्ट) भी शामिल है जिन्हें सूक्ष्मदर्शीय यंत्र की सहायता से देखा जा सकता है और इनमें एक किलोग्राम वजन के बड़े मशरूम भी शामिल हैं । यद्यपि अधिकांश फफूंद कोशिकीय होते हैं परन्तु उन्हें उनकी सरल संरचना व कम विकसित चयापचयी (मेटाबॉलिक) प्रक्रिया के कारण सूक्ष्मजीव ही माना जाता है ।
फफूंद अपना भोजन स्वयं बनाते हैं और बाहर से भी आत्मसात करते हैं । चूंकि वे विचरण नहीं कर सकते इसीलिए उन्हें अपने भोजन स्रोतों के पास ही उगना होता है । वास्तव में अधिकांश फफूंद अपनी भोजन सामग्री पर या उसी में उगते हैं ।
एक फफूंद के शरीर की प्रारंभिक इकाई कवक तंतु (हाइफा) होती है । कवक तंतु डोरे के आकार के होते हैं और वे शाखाओं के रूप में तीव्र गति से बढ़ते हैं । वे एक ढेर सा बना देते हैं जो रुई के गद्दे के समान दिखता है । यह रुई के समान दिखने वाला ढेर जिसे कवकजाल (माइसीजियम) कहते हैं, उस पदार्थ पर फैल जाता है जिस पर फफूंद उगा रहता है । यह प्राय: मृत जीव होते हैं । कवकजाल के विशेष भाग भोजन सामग्री में प्रवेश कर जाते हैं तथा उनके पौष्टिक तत्व आत्मसात कर लेते हैं । ये टुकड़ी में विभक्त हो सकते हैं तथा प्रत्येक टुकड़ा नए फफूंद के रूप में बढ़ सकता है ।
बगीचे में एक नजर डालने पर हमें पंख फड़फड़ाती तितलियां नजर आ जाएंगी । यदि हम ध्यान से देखे तो मधुमक्खियां व भंवरे फलों के आस-पास मंडराते दिख जाएंगे । ऊंची घास में चलने पर उसमें से झिंगुर व टिड्डे उड़ते हुए दिखेंगे जो अपने प्रिय पत्तों पर बैठे होते हैं । किसी सुदूर कोने में मकड़ियां जाल बुनते हुए अथवा शिकार की घात में बैठी नजर आयेंगी । इन कीटों को पकड़ कर भोजन बनाने की ताक में छिपकलियां व मेंढक भी हम देख सकते हैं ।
जिस अन्य जगहों पर कीट तथा सूक्ष्म जीव जाते हैं, वह गीली छायादार जमीन होती है । इसलिये इनमें से कुछ प्राणियों को हम पत्थरों अथवा सड़ी हुई पत्नियों के नीचे पा सकते हैं, ये प्राय: छायादार वृक्ष के नीचे अथवा पानी के स्रोत के पास मिलते हैं ।
एक सड़ी हुई लकड़ी का टुकड़ा भी इनके लिये एक अच्छा घर साबित हो सकता है और यदि हम उस लकड़ी के टुकड़े को पलटे तो हमें अनेक प्रकार के जीव देखने को मिल सकते हैं । बेहतर होगा कि हम उठाये हुए पत्थर अथवा लकड़ी के टुकड़े को पुन उसी स्थान पर रख दे जिससे ये कीट अबाधित रूप से वहां रह सकें ।
खाद का गड्ढा, एक बगीचे का स्वाभाविक हिस्सा होता है । इस गड्ढे में सूखे हुए पौधे व पत्तियां, जानवरों के अवशेष तथा रसोईघर के बचे हुए पदार्थ भी डाले जाते हैं, इस प्रकार यह कीटों के लिये भोजन का एक अच्छा स्रोत होता है तथा उन्हें आराम से रहने के लिये गर्मी व नमी भी मिल जाती है, इसलिये सूक्ष्म प्राणियों की तलाश में एक खाद के गड्ढे को छानना एक अच्छा विचार हो सकता है । यदि साधारण खाद का गड्ढा उपलब्ध न भी हो तो हम एक छोटा गड्ढा जमीन में बना सकते हैं, अथवा एक लकड़ी के खोके का प्रयोग भी खाद बनाने हेतु कर सकते हैं ।
यदि एक बड़ा बगीचा उपलब्ध हो तो उसका एक सुदूर कोना हम जंगल के रूप में विकसित कर सकते हैं । पानी के एक झरने को हम उस स्थान से गुजार सकते हैं अथवा वहां एक कृत्रिम पोखर बना सकते हैं । इस स्थान को पानी से सींचते रहें जिससे वहां वनस्पति शीघ्र बढ़ सकें । यदि यह स्थान बड़ी झाड़ियों के लिये भी पर्याप्त है तो यहां अन्य बड़े प्राणी भी आ सकते है जैसे पक्षी, सांप, खरगोश आदि ।
Sooksmjeev ke prekar
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