5 Swatantrata Senani Ke Bare Me 5 स्वतंत्रता सेनानी के बारे में

5 स्वतंत्रता सेनानी के बारे में

GkExams on 12-05-2019

सैकड़ों वर्षों से ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ भारत सन 1947 में आज़ाद हुआ. यह आजादी लाखों लोगों के त्याग और बलिदान के कारण संभव हो पाई. इन महान लोगों ने अपना तन-मन-धन त्यागकर देश की आज़ादी के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया.



अपने परिवार, घर-बार और दुःख-सुख को भूल, देश के कई महान सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी ताकि आने वाली पीढ़ी स्वतंत्र भारत में चैन की सांस ले सके. स्वतंत्रता आन्दोलन में समाज के हर तबके और देश के हर भाग के लोगों ने हिस्सा लिया.



1. चंद्रशेखर आजाद 14 वर्ष की आयु में बनारस गए और वहां एक संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई की। वहां उन्होंने कानून भंग आंदोलन में योगदान दिया था। 1920-21 के वर्षों में वे गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुड़े। वे गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए। जहां उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतंत्रता और जेल को उनका निवास बताया।



उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई। हर कोड़े के वार के साथ उन्होंने, वन्दे मातरम्‌ और महात्मा गांधी की जय का स्वर बुलंद किया। इसके बाद वे सार्वजनिक रूप से आजाद कहलाए।> > जब क्रांतिकारी आंदोलन उग्र हुआ, तब आजाद उस तरफ खिंचे और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट आर्मी से जुड़े। रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आजाद ने काकोरी षड्यंत्र (1925) में सक्रिय भाग लिया और पुलिस की आंखों में धूल झोंककर फरार हो गए।



17 दिसंबर, 1928 को चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को घेर लिया और ज्यों ही जे.पी. साण्डर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकले तो राजगुरु ने पहली गोली दाग दी, जो साण्डर्स के माथे पर लग गई वह मोटरसाइकिल से नीचे गिर पड़ा। फिर भगत सिंह ने आगे बढ़कर 4-6 गोलियां दाग कर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया। जब साण्डर्स के अंगरक्षक ने उनका पीछा किया, तो चंद्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया।



इतना ना ही नहीं लाहौर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए, जिन पर लिखा था- लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया है। उनके इस कदम को समस्त भारत के क्रांतिकारियों खूब सराहा गया।

अलफ्रेड पार्क, इलाहाबाद में 1931 में उन्होंने रूस की बोल्शेविक क्रांति की तर्ज पर समाजवादी क्रांति का आह्वान किया। उन्होंने संकल्प किया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी।



इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने 27 फरवरी, 1931 को इसी पार्क में स्वयं को गोली मारकर मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दे दी। ऐसे वीर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्मस्थान भाबरा अब आजादनगर के रूप में जाना जाता है।







2.रानी लक्ष्मीबाई -

जन्म: 19 नवम्बर 1828, वाराणसी, उत्तर प्रदेश



मृत्यु: 18 जून 1858, कोटा की सराय, ग्वालियर



कार्यक्षेत्र: झाँसी की रानी, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना



रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थीं और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध बिगुल बजाने वाले वीरों में से एक थीं। वे ऐसी वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से मोर्चा लिया और रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गयीं परन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपने राज्य झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया।



प्रारंभिक जीवन



लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवारवाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी सप्रे। उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे। जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माँ के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये। वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया और लोग उसे प्यार से “छबीली” कहने लगे। शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गयी। सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयीं और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की पारपत हुई पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव परलोक सिधार गए। उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।



अंग्रजों की राज्य हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) और झाँसी



ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स’ नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया। हालाँकि रानी लक्ष्मीबाई ने अँगरेज़ वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया। अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया।



अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष



अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। झाँसी की आम जनता ने भी इस संग्राम में रानी का साथ दिया। लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया।



अंग्रेजों के खिलाफ रानी लक्ष्मीबाई की जंग में कई और अपदस्त और अंग्रेजी हड़प नीति के शिकार राजाओं जैसे बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे।



सन 1858 के जनवरी महीने में अंग्रेजी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च में शहर को घेर लिया। लगभग दो हफ़्तों के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया पर रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजी सेना से बच कर भाग निकली। झाँसी से भागकर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिलीं।



तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने जी-जान से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया पर 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयीं।



3. बिपिन चंद्र पाल

बिपिन चंद्र पाल एक भारतीय क्रांतिकारी, शिक्षक, पत्रकार व लेखक थे। पाल उन महान विभूतियों में शामिल हैं जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई। वे मशहूर लाल-बाल-पाल (लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक एवं विपिनचन्द्र पाल) तिकड़ी का हिस्सा थे। इस तिकड़ी ने अपने तीखे प्रहार से अंग्रेजी हुकुमत की चूलें हिला दी थी। विपिनचंद्र पाल राष्ट्रवादी नेता होने के साथ-साथ एक शिक्षक, पत्रकार, लेखक व बेहतरीन वक्ता भी थे। उन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों का जनक भी माना जाता है।



4. रानी गाइदिनल्यू

Rani Gaidinliu Biography in Hindi

स्वतंत्रता सेनानी

रानी गाइदिनल्यू

स्रोत: http://www.newindianexpress.com





जन्म: 26 जनवरी, 1915, मणिपुर



मृत्यु: 17 फ़रवरी, 1993



कार्य क्षेत्र: स्वाधीनता सेनानी



रानी गाइदिनल्यू एक प्रसिद्ध भारतीय महिला क्रांतिकारी थीं। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान नागालैण्ड में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। इस वीरांगना को आजादी की लड़ाई में तमाम वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए ‘नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है। मात्र 13 साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के ‘हेराका’ आन्दोलन में शामिल हो गयीं। प्रारंभ में इस आन्दोलन का स्वरुप धार्मिक था पर धीरे-धीरे इसने राजनैतिक रूप धारण कर लिया जब आन्दोलनकारियों ने मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंग्रेजों को खदेड़ना शुरू किया। हेराका पंथ में रानी गाइदिनल्यू को चेराचमदिनल्यू देवी का अवतार माना जाने लगा। अंग्रेजों ने रानी गाइदिनल्यू को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ़्तार कर लिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 16 साल थी। सन 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू उनसे शिल्लोंग जेल में मिले और उनकी रिहाई के प्रयास किए पर अंग्रेज़ों ने उनको रिहा नहीं किया। भारत की आजादी के बाद सन 1947 में उनकी रिहाई हुई। आजादी के बाद उन्होंने अपने लोगों के विकास के लिए कार्य किया।



वे नागाओं के पैतृक धार्मिक परंपरा में विश्वास रखती थीं इसलिए उन्होंने नागाओं द्वारा ईसाई धर्म अपनाने का घोर विरोध किया। भारत सरकार ने उन्हें ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का दर्जा दिया और ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया।



प्रारंभिक जीवन



रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 को मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के तौसेम उप-खंड के नुन्ग्काओ (लोंग्काओ) नामक गाँव में हुआ था। अपने माता-पिता की आठ संतानों में वे पांचवे नंबर की थीं। उनके परिवार का सम्बन्ध गाँव के शाषक वर्ग से था। आस-पास कोई स्कूल न होने के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं हो पायी।



जादोनाग की अनुयायी



मात्र 13 साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के ‘हेराका आन्दोलन’ में शामिल हो गयी थीं। जादोनांग एक प्रसिद्द स्थानिय नेता बनकर उभरा था। उसके आन्दोलन का लक्ष्य था प्राचीन नागा धार्मिक मान्यताओं की बहाली और पुनर्जीवन। धीरे-धीरे यह आन्दोलन ब्रिटिश विरोधी हो गया और ब्रिटिश राज की नागा क्षेत्रों से समाप्ति भी इस आन्दोलन का लक्ष्य बन गया। धीरे-धीरे कई कबीलों के लोग इस आन्दोलन में शामिल हो गए और इसने ग़दर का स्वरुप धारण कर लिया।



जादोनाग के विचारधारा और सिद्धान्तों से प्रभावित होकर रानी गाइदिनल्यू उसकी सेना में शामिल हो गयी और मात्र 3 साल में ब्रिटिश सरकार के विरोध में लड़ने वाली एक छापामार दल की नेता बन गयीं।



सन 1931 में जब अंग्रेजों ने जादोनाग को गिरफ्तार कर फांसी पर चढ़ा दिया तब रानी गाइदिनल्यू उसकी आध्यात्मिक और राजनीतिक उत्तराधिकारी बनी।



उन्होंने अपने समर्थकों को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुलकर विद्रोह करने के लिया कहा। उन्होंने अपने लोगों को कर नहीं चुकाने के लिए भी प्रोत्साहित किया। कुछ स्थानीय नागा लोगों ने खुलकर उनके कार्यों के लिए चंदा दिया।



ब्रिटिश प्रशासन उनकी गतिविधियों से पहले ही बहुत परेशां था पर अब और सतर्क हो गया। अब वे उनके पीछे लग गए। रानी बड़ी चतुराई से असम, नागालैंड और मणिपुर के एक-गाँव से दूसरे गाँव घूम-घूम कर प्रशासन को चकमा दे रही थीं। असम के गवर्नर ने ‘असम राइफल्स’ की दो टुकड़ियाँ उनको और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजा। इसके साथ-साथ प्रशासन ने रानी गाइदिनल्यू को पकड़ने में मदद करने के लिए इनाम भी घोषित कर दिया और अंततः 17 अक्टूबर 1932 को रानी और उनके कई समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया।







रानी गाइदिनल्यू को इम्फाल ले जाया गया जहाँ उनपर 10 महीने तक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। प्रशासन ने उनके ज्यादातर सहयोगियों को या तो मौत की सजा दी या जेल में डाल दिया। सन 1933 से लेकर सन 1947 तक रानी गाइदिनल्यू गौहाटी, शिल्लोंग, आइजोल और तुरा जेल में कैद रहीं। सन 1937 में जवाहरलाल नेहरु उनसे शिल्लोंग जेल में मिले और उनकी रिहाई का प्रयास करने का वचन दिया। उन्होंने ही गाइदिनल्यू को ‘रानी’ की उपाधि दी। उन्होंने ब्रिटिश सांसद लेडी एस्टर को इस सम्बन्ध में पटर लिखा पर ‘सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया’ ने इस निवेदन को अस्वीकृत कर दिया।



देश की आजादी और रानी गाइदिनल्यू की रिहाई



जब सन 1946 में अंतरिम सरकार का गठन हुआ तब प्रधानमंत्री नेहरु के निर्देश पर रानी गाइदिनल्यू को तुरा जेल से रिहा कर दिया गया। अपनी रिहाई से पहले उन्होंने लगभग 14 साल विभिन्न जेलों में काटे थे। रिहाई के बाद वे अपने लोगों के उत्थान और विकास के लिए कार्य करती रहीं।



सन 1953 में जब प्रधानमंत्री नेहरु इम्फाल गए तब वे उनसे मिलीं और रिहाई के लिए कृतज्ञता प्रकट किया। बाद में वे ज़ेलिआन्ग्रोन्ग समुदाय के विकास और कल्याण से सम्बंधित बातचीत करने के लिए नेहरु से दिल्ली में भी मिलीं।



रानी गाइदिनल्यू नागा नेशनल कौंसिल (एन.एन.सी.) का विरोध करती थीं क्योंकि वे नागालैंड को भारत से अलग करने चाहते थे जबकि रानी ज़ेलिआन्ग्रोन्ग समुदाय के लिए भारत के अन्दर ही एक अलग क्षेत्र चाहती थीं। एन.एन.सी.उनका इस बात के लिए भी विरोध कर रहे थे क्योंकि वे परंपरागत नागा धर्म और रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करने का प्रयास भी कर रही थीं। नागा कबीलों की आपसी स्पर्धा के कारण रानी को अपने सहयोगियों के साथ 1960 में भूमिगत हो जाना पड़ा और भारत सरकार के साथ एक समझौते के बाद वे 6 साल बाद 1966 में बाहर आयीं। परवरी 1966 में वे दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शाष्त्री से मिलीं और एक पृथक ज़ेलिआन्ग्रोन्ग प्रशासनिक इकाई की मां की। इसके बाद उनके समर्थकों ने आत्म-समर्पण कर दिया जिनमें से कुछ को नागालैंड आर्म्ड पुलिस में भर्ती कर लिया गया।



सन 1972 में उन्हें ‘ताम्रपत्र स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार’, 1982 में पद्म भूषण और 1983 में ‘विवेकानंद सेवा पुरस्कार’ दिया गया।



निधन



सन 1991 में वे अपने जन्म-स्थान लोंग्काओ लौट गयीं जहाँ पर 78 साल की आयु में उनका निधन 17 फरवरी 1993 को हो गया।





5. चम्पक रमन पिल्लई

Chempakaraman Pillai Biography in Hindi

स्वतंत्रता सेनानी

चम्पक रमन पिल्लई

स्रोत: http://www.indianetzone.com/photos_gallery/6/Champakraman_10218.jpg





जन्म: 15 सितम्बर 1891, तिरुवनंतपुरम, केरल



मृत्यु: 26 मई, 1934, जर्मनी



कार्य क्षेत्र: स्वाधीनता सेनानी



चम्पक रमन पिल्लई एक भारतीय राजनैतिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी थे। हालाँकि उनका जन्म भारत में हुआ था पर उन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर भाग जर्मनी में बिताया। पिल्लई का नाम उन महान क्रांतिकारियों में शामिल है जिन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर देश की आजादी के लिए प्राण गंवा दिए। वे एक ऐसे वीर थे जिन्होंने विदेश में रहते हुए भारत की आज़ादी की लड़ाई को जारी रखा और एक विदेशी ताकत के साथ मिलकर भारत में अंग्रेजी हुकुमत का सफाया करने की कोशिश की। हमारा दुर्भाग्य है कि आज उनको बहुत कम लोग ही याद करते हैं पर ये देश उनकी कुर्बानी का सदैव आभारी रहेगा।



प्रारंभिक जीवन



चम्पक रमन पिल्लई का जन्म 15 सितम्बर 1891 को त्रावनकोर राज्य के तिरुवनंतपुरम जिले में एक सामान्य माध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चिन्नास्वामी पिल्लई और माता का नाम नागम्मल था। उनके पिता तमिल थे पर त्रावनकोर राज्य में पुलिस कांस्टेबल की नौकरी के कारण तिरुवनंतपुरम में ही बस गए थे। उनकी प्रारंभिक और हाई स्कूल की शिक्षा थैकौड़ (तिरुवनंतपुरम) के मॉडल स्कूल में हुई थी। चम्पक जब स्कूल में थे तब उनका परिचय एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड से हुआ, जो अक्सर वनस्पतिओं के नमूनों के लिए तिरुवनंतपुरम आते रहते थे। ऐसे ही एक दौरे पर उन्होंने चम्पक और उसके चचेरे भाई पद्मनाभा पिल्लई को साथ आने का निमंत्रण दिया और वे दोनों उनके साथ हो लिए। पद्मनाभा पिल्लई तो कोलम्बो से ही वापस आ गया पर चम्पक सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड के साथ यूरोप पहुँच गए। वाल्टर ने उनका दाखिला ऑस्ट्रिया के एक स्कूल में करा दिया जहाँ से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की।



यूरोप में जीवन



स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद चम्पक ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए एक तकनिकी संस्थान में दाखिला ले लिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने ‘इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी’ की स्थापना की। इसका मुख्यालय ज्यूरिख में रखा गया। लगभग इसी समय जर्मनी के बर्लिन शहर में कुछ प्रवासी भारतीयों ने मिलकर ‘इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी’ नामक एक संस्था बनायी थी। इस दल के सदस्य थे वीरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त, ए. रमन पिल्लई, तारक नाथ दास, मौलवी बरकतुल्लाह, चंद्रकांत चक्रवर्ती, एम.प्रभाकर, बिरेन्द्र सरकार और हेरम्बा लाल गुप्ता। अक्टूबर 1914 में चम्पक बर्लिन चले गए और बर्लिन कमेटी में सम्मिलित हो गए और इसका विलय ‘इंटरनेशनल प्रो इंडिया कमेटी’ के साथ कर दिया। इस कमेटी का मकसद था यूरोप में भारतीय स्वतंत्रता से जुड़ी हुई सभी क्रांतिकारी गतिविधियों पर निगरानी रखना। लाला हरदयाल को भी इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए राजी कर लिया गया। जल्द ही इसकी शाखाएं अम्स्टरडैम, स्टॉकहोम, वाशिंगटन, यूरोप और अमेरिका के दूसरे शहरों में भी स्थापित हो गयीं।



इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी और ग़दर पार्टी तथाकथित ‘हिन्दू-जर्मन साजिश’ में शामिल थी। जर्मनी ने कमेटी के ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को हर तरह की मदद प्रदान की। चम्पक ने ए. रमन पिल्लई के साथ मिलकर कमेटी में काम किया। बाद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पिल्लई से मिले। ऐसा माना जाता है कि ‘जय हिन्द’ नारा पिल्लई के दिमाग की ही उपज थी।



प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार के बाद पिल्लई जर्मनी में ही रहे। बर्लिन की एक फैक्ट्री में उन्होंने एक तकनिसियन की नौकरी कर ली थी। जब नेता जी विएना गए तब पिल्लई ने उनसे मिलकर अपने योजना के बारे में उन्हें बताया।



भारत के अस्थायी सरकार में विदेश मंत्री



राजा महेंद्र प्रताप और मोहम्मद बरकतुल्लाह ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में भारत की एक अस्थायी सरकार की स्थापना 1 दिसम्बर 1915 को की थी। महेंद्र प्रताप इसके राष्ट्रपति थे और बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री। पिल्लई को इस सरकार में विदेश मंत्री का कार्यभार सौंपा गया था। दुर्भाग्यवश प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी के हार के साथ अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों को अफगानिस्तान से बाहर निकाल दिया।



इस दौरान जर्मनी के अधिकारी अपने निजी स्वार्थ के लिए भारतीय क्रांतिकारियों की सहायता कर रहे थे। हालाँकि भारतीय क्रांतिकारियों ने जर्मन अधिकारियों को ये साफ़ कर दिया था कि दुश्मन के खिलाफ लड़ाई में वे सहभागी हैं पर जर्मनी के अधिकारी भारतीय क्रांतिकारियों के ख़ुफ़िया तंत्र को अपने फायदे के लिए उपयोग करना चाहते थे।



विवाह और मृत्यु



सन 1931 में चम्पक रमन पिल्लई ने मणिपुर की लक्ष्मीबाई से विवाह किया। उन दोनों की मुलाकात बर्लिन में हुई थी। दुर्भाग्यवस विवाह के उपरान्त चम्पक बीमार हो गए और इलाज के लिए इटली चले गए। ऐसा माना जाता है कि उन्हें जहर दिया गया था। बीमारी से वे उबार नहीं पाए और 28 मई 1934 को बर्लिन में उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई उनकी अस्थियों को बाद में भारत लेकर आयीं जिन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ कन्याकुमारी में प्रवाहित कर दिया गया।



टाइम लाइन (जीवन घटनाक्रम)



1891: तिरुवनंतपुरम में जन्म हुआ



1906: सर वाल्टर स्ट्रिकलैंड के साथ यूरोप चले गए और ऑस्ट्रिया के एक स्कूल में दाखिल ले लिया



1914: इन्तेर्नतिओन प्रो-इंडिया कमेटी की जुरिख में स्थापना इसके अध्यक्ष बने



1914: अक्टूबर में बर्लिन गए जहाँ इंडियन इंडिपेंडेंट कमेटी में शामिल हो गए



1915: अफगानिस्तान में गठित भारत की अस्थायी सरकार में विदेश मंत्री बनाये गए



1919: विएना में सुभाष चन्द्र बोस से मिले



1931: मणिपुर निवासी लक्ष्मीबाई से विवाह किया



1934: 26 मई को बर्लिन में निधन हो गया

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Comments Roshan on 27-12-2023

Desh par Balidan hone wale kinhi 5 logo ke bare mein panktiyan likhe aur woh bhi 5 5

Vikas kumar on 14-11-2023

Svadhinta samtam senani ke bare me

sonal on 10-05-2023

Nie

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Jyo on 15-03-2023

Sval ,. 1. 5 karantikariyo ke naam photo ke saath or unka jivan Parichay

Aman on 27-12-2022

Chandrashekhar Azad in raj ki Raksha ke liye

Shadhu kesa hona chai on 24-12-2022

Sadhu kesa hona chau

Muskan saifi on 21-07-2022

Koi bhi 5 swatantrta sainani ke bare mai para graph

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manoj jeena on 03-03-2022

thank you very much

Shadhu kesa hona chai on 05-11-2021

Sadhu kesa hona chai

Anjali on 30-10-2021

savtantrta senani ke nam or dilling

Ranjit on 15-01-2021

Check the 4 Ranis last 3 paregraf
Beacus परवरी si not current word फरवरी is curr

Aanshi on 07-01-2021

Nice

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Simran on 07-06-2020

Bhagat Singh ka nhi hai Aapke pass

Tejal on 07-03-2020

Swatantrata senani ke barae me jaankari five


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