स्वतंत्रता सेनानी 1857
नाना साहब का जन्म 1824 में महाराष्ट्र के वेणु गांव में हुआ था। बचपन में इनका नाम भोगोपंत था। इन्होंने 1857 की क्रांति का कुशलता पूर्वक नेतृत्व किया। नाना साहब सुसंस्कृत, सुन्दर व प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। नाना साहब मराठों में अत्यंत लोकप्रिय थे। इनके पिता का नाम माधव राव व माता का नाम गंगाबाई था।
जब 1827 में बाजीराव ब्रितानियों से संधि करके कानपुर चले गए तो नाना साहब (भोगोपंत) के माता पिता व उनका परिवार भी बाजीराव पेशवा की शरण में चला गया। जब बाजीराव ने बालक भोगोपंत को देखा तो वे उससे बहुत प्रभावित हो गये थे, और उन्होंने नाना साहब को गोद ले लिया। लेकिन बाजीराव की मृत्यु के बाद ब्रितानी सरकार ने नाना साहब को मराठों का पेशवा बनाकर गद्दी पर बैठाने से इंकार कर दिया।नाना साहब ने उनसे बदला लेने व भारत को आज़ाद करवानेकी ठान ली। उनके साथ तांत्या टोपे कुंवर सिंह, अजीमुल्ला खां जैसे क्रांतिकारी भी आज़ादी की लड़ाई में आगे आए। नाना साहब कुशल व दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे। इन सब क्रांतिकारियों का केंद्र बिठुर बन गया। सबने आज़ादी के लिये गांव-गांव तक क्रांति की लहर फ़ैलाई। धीरे-धीरे ये लहर कानपुर झांसी दिल्ली आदि जगह पहुंच गई। कई दिनों तक युद्ध चला। क्रांति का प्रमुख नेता नाना साहब को बनाया ग़या।
कुछ समय पश्चात कानपुर में आगजनी की घटनाएं हुई। मराठों ने ब्रितानियों के साथ युद्ध किया। बाद में नाना साहब को मराठों का राजा बना दिया गया। परंतु अभी ब्रितानी शांत नहीं हुए। उन्होंने फ़िर से अत्याचार का सिलसिला जारी रखा। जिससे मराठों में पुन: क्रांति के लिये जोश आया। क्रांति की लहर फ़तेहपुर, कानपुर तक फ़ेल गई जिससे घमासान युद्ध हुआ।
इस बार नाना साहब ब्रितानियों की विशाल सेना के सामने नहीं टिक पाए। 17 जुलाई को नाना साहब बिठुर चले गये, लेकिन फ़िर भी युद्ध के बादल फ़िर से मंडराने लगे परंतु नाना साहब ने हार नहीं मानी। उन्होंने नेपाल के राजा शमशेर जंग बहादुर से सहायता की याचना की लेकिन नेपाल नरेश ने उनका साथ नहीं दिया बल्कि क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार करवाने में ब्रितानियों का साथ दिया।अंत में, नाना साहब अपने साथियों के साथ नेपाल की तराइयों में चले गए। नाना साहब की मृत्यु कब कहां व कैसे हुई किसी को भी नहीं पता। परंतु देश की आज़ादी में उनके त्याग व संघर्ष को हम सदैव याद रखेंगे।
1857 की क्रांति के इस महानायक का जन्म 1814 में हुआ था। बचपन से ही ये अत्यंत सुंदर थे। तांत्या टोपे ने देश की आजादी के लिये हंसते-हंसते प्राणो का त्याग कर दिया। इनका जन्म स्थल नासीक था। इनके बचपन का नाम रघुनाथ पंत था। ये जन्म से ही बुद्धिमान थे। इनके पिता का नाम पांडुरंग पंत था। जब रघुनाथ छोटे थे उस समय मराठों पर पेशवा बाजीराव द्वितीय का शासन था। रघु के पिता बाजी राव के दरबार में कार्यरत थे। कई बार बालक रघु अपने पिता के साथ दरबार में जाते थे। एक बार बाजी राव बालक की बुद्धिमानी देखकर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बालक को एक टोपी उपहार में दी और उन्होंने उनको तांत्या टोपे नाम दिया। उसी दिन से लोग इन्हें इसी नाम से पुकारने लगे।उस समय ब्रितानी भारत में व्यापार करने के लिये आए थे। लेकिन भारत के राजा आपसी फ़ूट के कारण आपस में ही झगड़ा किया करते थे इसलिये फ़िरंगी आसानी से यहां अपने पैर जमा पाए और तानाशाही कर पाए। ब्रितानियों ने बाजी राव पेशवा की सम्पत्ति हड़प ली व उनकी राजधानी को अपने अधिकार में ले लिया व उसके बदले में उन्हें 8 लाख रुपये दे दिये। बाजी राव ने उनकी तानाशाही मान ली और वहां से कानपुर चले गये।कई मराठा भी उनके साथ चले गये। उनके साथ पांडुराव व उनका परिवार भी चला गया लेकिन सभी में क्रांति की लहर दौड़ गयी। कुछ समय बाद बाजीराव पेशवा की मृत्यु हो गई। उनकी जगह नाना साहब को पेशवा बनाया गया, ये बहुत बहादुर थे। नाना साहब तांत्या टोपे के मित्र व सलाहकार थे।
कानपुर में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, नाना साहब ने क्रांति की लहर फ़ैलाई। इन सबने युद्ध किया। तांत्या टोपे को भी युद्ध विद्या का प्रशिक्षण दिया गया। इस समय लार्ड डलहौजी गवर्नर जनरल था। उसने मराठों से उनकी जमीन छीन ली व उन पर अपना धर्म अपनाने के लिये दबाव ड़ाला, लेकिन नाना साहब कुंवर सिंह, लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे जैसे धर्मनिष्ठ व स्वतंत्रता प्रिय लोगों ने उनका विरोध किया व उनसे युद्ध करने को आमादा हो गए। लेकिन ब्रिटिश सरकार की सेना सशक्त्त थी व उनके पास घातक हथियार व गोला बारुद था जो भारतीयों के पास नहीं था, लेकिन मराठों ने हार नहीं मानी व साहस से उनका सामना किया। फ़लस्वरू प प्रबल सैन्य शक्ति के कारण मराठा उनका सामना अधिक समय तक नहीं कर पाये लेकिन उन्होंने कई ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया व कई लोग आजादी के लिये वीर गति को प्राप्त हो गये।तात्या टोपे न पकड़े गये न फाँसी लगी
1857 के स्वातंत्र्य समर के सूत्रधारो में तात्या टोपे का महत्वपूर्ण स्थान है। वे क्रांति के योजक नाना साहब पेशवा के निकट सहयोगी और प्रमुख सलाहकार थे। वे एक ऐसे सेना-नायक थे जो ब्रिटिश सत्ता की लाख कोशिशों के पश्चात भी उनके कब्जे में नहीं आए। इनको पकड़ने के लिए अंग्रेज सेना के 14-15 वरिष्ठ सेनाधिकारी तथा उनकी 8 सेनाएं 10 माह तक भरसक प्रयत्न करती रहीं, परन्तु असफल रहीं। इस दौरान कई स्थानों पर उनकी तात्या से मुठभेड़ें हुई परन्तु तात्या उनसे संघर्ष करते हुए उनकी आँखों में धूल झोंककर सुरक्षित निकल जाते।
उनको हुई कथित फाँसी के सम्बन्ध में तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने दस्तावेज तथा समकालीन कुछ अंग्रेज लेखक तथा बाद में वीर सावरकर, वरिष्ठ इतिहासकार आर. सी. मजूमदार व सुरेन्द्र नाथ सेन ने अपने ग्रंथों में तात्या टोपे को 7 अप्रैल, 1859 में पाड़ौन (नवरवर) राज्य के जंगल से, उस राज्य के राजा मानसिंह द्वारा विश्वासघात कर पकड़वाना बताया है। 18 अप्रैल, 1859 को शिवपुरी में उनको फाँसी देने की बात भी लिखी गई है। कुछ समय पूर्व तक यही इतिहास का सत्य माना जाता रहा है। परन्तु गत 40-50 वर्षो में कुछ लेखकों व इतिहासकारों ने परिश्रम पूर्वक अन्वेषण कर अपने परिपुष्ट तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर इस पूर्व ऐतिहासिक अवधारणा को बदल दिया है।"तात्या टोपे के कथित फाँसी - दस्तावेज क्या कहते हैं" नाम छोटी परन्तु महत्वपूर्ण पुस्तक के रचियता गजेन्द्र सिंह सोलंकी तथा च् तात्या टोपे छ नामक ग्रंथ के लेखक श्री निवास बाला जी हर्डीकर ऐसे लेखको में अग्रणी हैं। दोनों ही लेखक इस पर सहमत हैं कि 18 अप्रैल को शिवपुरी में जिस व्यक्ति को फांसी लगी थी वह तात्या नहीं थे बल्कि वह तात्या के साथी नारायण राव भागवत थे। इनका कहना है कि राजा मानसिंह तात्या के मित्र थे। उन्होंने योजनापूर्वक नारायण राव भागवत को अंग्रेजों के हवाले किया और तात्या को वहाँ से निकालने में मदद की। जिन दो पंडितों का उल्लेख अंग्रेज लेखकों तथा भारतीय इतिहासकारों ने घोड़ो पर बैठकर भाग जाने का किया है, वे और कोई नहीं, तात्या टोपे और पं. गोविन्द राव थे जो अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर निकल गए।
राजा मानसिहं स्वयं अंग्रेजों के शत्रु थे और उनसे बचने के लिए, छिपकर पाडौन के जंगलों में रह-रहे थे। अंग्रेजों ने चालाकी से उनके घर की महिलाओ को बंदी बना दिया और उनको छोड़ने की शर्त जो अंग्रेजों ने रखी थी वह थी मानसिंह द्वारा समर्पण करना तथा तात्या को पकड़ने में मदद करना। यह बात तात्या को पकड़ने वाले प्रभारी अंग्रेज मेजर मीड ने स्वयं अपने पत्र में लिखी है। इस शर्त के बाद तात्या टोपे तथा राजा मानसिंह ने गम्भीर विचार विमर्श कर योजना बनाई, जिसके तहत मानसिंह का समर्पण उनके परिवार की महिलाओं का छुटकारा तथा कथित तात्या की गिरफ्तारी की घटनाएं अस्तित्व में आई।
इसमें ध्यान देने की बात यह है कि जिसको स्वयं मेजर मीड ने भी लिखा है कि तात्या को पकड़ने के लिए राजा मानसिंहने अपने ऊपर जिम्मेदारी ली थी। यह तात्या को पकड़ने की एक शर्त थी, जिसे अंग्रेज सरकार ने (मेजर मीड के द्वारा) स्वीकार किया था। वास्तव में यह राजा मानसिंह व तात्या की एक चाल थी।
नारायणराव भागवत को लगी फाँसी के सम्बन्ध में जो एक महत्वपूर्ण तथ्य दोनों लेखकों के सामने आया, उसका उल्लेख उन दोनों ने इस प्रकार किया है- 'बचपन में नारायण राव (तात्या के भतीजे) ग्वालियर में जनकंगज के स्कूल में पढ़ते थे, उस समय स्कूल के प्राधानाचार्य रघुनाथराव भागवत नाम के एक सज्जन थे। एक दिन रघुनाथ राव ने बालक नारायणराव को भावना पूर्ण स्वर में बताया कि "तुम्हारे चाचा फाँसी पर नहीं चढ़ाए गए थे। उनकी जगह फाँसी पर लटकाये जाने वाले व्यक्ति मेरे बाबा थे।" दोनों लेखकों के अनुसार उन्होंने स्वयं भी रघुनाथराव भागवत के बाबा को हुई फाँसी की बात का अनुमोदन उनके पौत्र रघुनाथराव के प्राप्त किया।'
"तात्या टोपे की कथित फाँसी दस्तावेज क्या कहते हैं?" पुस्तक के लेखक गजेन्द्र सिंह सोलंकी स्वयं राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह से उनके निवास पर मिले थे। जब राजा मानसिंह के कथित विश्वासघात की बात हुई तो उन्होंने इस बात को झूठा बताया। आग्रह करने पर उन्होंने लेखक को उनके पास पड़ा पुराना बस्ता खोलकर उसमें पड़े कई पत्र और दस्तावेज खोलकर दिखाए। जिसमें दो और पत्र थे जो तात्या जी की कथित फाँसी के बाद तात्या को लिखे गए थे।
संवत् 1917 (सन् 1960) में लिखी चिट्ठी का नमूना लेखक ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ 54 पर इस प्रकार दिया है-
इस पत्र की मूल प्रति अभिलेखागार भोपाल में तात्या टोपे की पत्रावली में सुरक्षित है। यह चिट्ठी राजा नृपसिंह द्वारा तात्या को लिखी गई है। तात्या को कथित फाँसी संवत् 1919 (सन् 1859) में लगी थी।
इस प्रकार संवत् 1918 में लिखी दूसरी चिट्ठी महारानी लडई रानी जू के नाम है, जो राव माहोरकर ने लिखी है जिसमें तात्या के जिंदा रहने का सबूत है। इस पत्र की फोटो प्रति लेखक ने अपनी पुस्तक में दी है।
इसके अतिरिक्त 2 अन्य पत्रों के अंश भी उस्क पुस्तक में दिये गये हैं, जिसमें तात्या को सरदार नाम से सम्बोधित किया गया है। जिसमें पहला पत्र राजाराम प्रताप सिंह जू देव का लिखा हुआ है, जो तातिया को कथित फांसी के एक वर्ष दो माह बाद का लिखा हुआ है। यह पत्र राजा मानसिंह को सम्बोधित किया गया है।
दूसरा पत्र भी राजा मानसिंह को सम्बोधित है और वह पं. गोविन्दराव द्वारा कथित फाँसी के चार वर्ष बाद का लिखा हुआ है।प्रथम पत्र के अंश- "आगे आपके उहां सिरदार हमराह पं. गोविन्दराव जी सकुशल विराजते हैं और उनके आगे तीरथ जाइवे के विचार है आप कोई बात की चिन्ता मन में नल्यावें...."
दूसरे पत्र का अंश- "अपरंच आपको खबर होवे के अब चिंता को कारण नहीं रहियो खत लाने वारा आपला विश्वासू आदमी है कुल खुलासे समाचार देहीगा सरदार की पशुपति यात्रा को खरच ही हीमदाद (इमदाद) खत लाइवे वारे के हाथ भिजवादवे की कृपा कराएवं में आवे मौका मिले में खुसी के समाचार देहोगे।"
पाठकों को ज्ञात हो कि कालपी का युद्ध सरदार (तात्या) के नेतृत्व में लड़ा गया था। उसे सरदार घोषित किया गया था। जो बस्ता टीकमगढ़ से प्राप्त हुआ है उसमें भी तात्या को सरदार सम्बोधित किया गया है। इन दोनों चिट्टियों को राजा मानसिंह के प्रपौत्र राजा गंगासिंह ने पहली बार सन् 1969 में घ् धर्म युग ' में प्रकाशित कराया था। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. मथुरालाल शर्मा ने इन पत्रों की अनुकृतियों को देखकर प्रसन्नता प्रकट की तथा इसे सही घोषित करते हुए शोध के लिए उपयोगी बताया था।
तात्या के परिवार के सदस्य तात्या को फाँसी हुई नहीं मानते-
तात्या टोपे के परिवार के सदस्यों का भी यही कहना है कि उनको अंग्रेजों द्वारा फाँसी नहीं दी गई तथा उनकी मृत्यु बाद में हुई। इस सम्बन्ध में उपरोक्त दोनों लेखकों ने तात्या के परिवार के सदस्यों से हुई वार्ता का उपनी पुस्तकों में इस प्रकार उल्लेख किया है-1.बम्बई में 1857 के शताब्दी समारोह में तात्या टोपे के भतीजे प्रो. टोप तथा तात्या की भतीजी का सम्मान किया गया। अपने सम्मान का उत्तर देते हुए दोनों ने बताया कि तात्या को फाँसी नहीं हुई। उनका कहना था कि उनकी मृत्यु सन् 1909 ई. में हुई। तभी उनके विधिवत् संस्कार आदि किये गए थे।
2.तात्या के वंशज आज भी ब्रह्मावर्त (बिठूर) तथा ग्वालियर में रहते है। इन परिवारों का विश्वास है कि तात्या की मृत्यु फाँसी के तख्ते पर नहीं हुई। ब्रह्मावर्त में रहने वाले तात्या के भतीजे श्री नारायण लक्ष्मण टोपे तथा तात्या की भतीजी गंगूबाई (सन् 1966 में इनकी मृत्यु हो चुकी है) का कथन है कि वे बालपन से अपने कुटुम्बियों से सुनते आये हैं कि तात्या की कथित फाँसी के बाद भी तात्या अक्सर विभिन्न वेशों में, अपने कुटुम्बियों से आकर मिलते रहते थे। तात्या के पिता पांडुरंग तात्या 27 अगस्त 1859 को ग्वालियर के किले से, जहाँ वह अपने परिवार के साथ नजरबंद थे, मुक्त किये गए। मुक्त होने पर टोपे कुटुम्ब पुनः ब्रह्मावर्त वापिस आया। उस समय पांडुरंग (तात्या के पिता) के पास न पैसा था और न कोई मित्र था। इस संकट काल में तात्या वेश बदलकर अपने पिता से आकर मिले थे तथा घन देकर सहायता की थी।
3.सन् 1861 इं. में तात्या की सौतेली बहन (दूसरी माँ से) दुर्गा का विवाह काशी के खुर्देकर परिवार में हुआ था। श्रीनारायण राव टोपे का कथन है कि इस अवसर पर भी तात्या गुप्तवेश में उपस्थित हुए थे तथा उन्होंने विवाह के लिए आर्थिक सहायता की थी।
4.तात्या के पिता तथा उसकी सौतेली माता का कुछ ही महीने के अन्तर पर सन् 1862 में काशी में देहावसान हुआ। टोपे परिवार के लोगों का कहना है कि इस समय भी तात्या सन्यासी के वेश में अपने माता-पिता की मृत्यु-शय्या के पास उपस्थित थे।
5.ग्वालियर में रहने वाले श्री शंकर लक्ष्मण टोपे का कथन है कि जब वे 13 वर्ष के थे तो एक बार उनके पिता (तात्या के सौतेले भाई) बीमार हुए। उन्हें देखने के लिए एक संन्यासी आये। मेरे पिता ने मुझे बुलवाया और कहा कि ये तात्या हैं इन्हें प्रमाण करो। इस समय शंकर की आयु कोई 75 वर्ष की है। इनके अनुसार यह घटना सन् 1895 ई. के आस-पास की है अर्थात् तात्या की कथित फाँसी के 36 वर्ष बाद की।
नजरबंदी से मुक्त होने के बाद तात्या के भाइयों को आर्थिक संकट के कारण जीविका की खोज में इधर-उधर भटकना पड़ा। उनके एक भाई रामकृष्ण 1862 ई. में बडौदा के महाराजा गायकवाड़ के पास पहुँचा। उनको उसने परिचय दिया मैं तात्या का भाई हूँ तथा नौकरी की खोज में यहाँ आया हूँ। महाराजा ने उसे गिरफ्तार कर उसे वहाँ के अंग्रेज रेजीडैंट को सौंप दिया। उसने राम कृष्ण से अनेक प्रश्न किये। उनमें एक प्रश्न यह भी था कि, "आजकल तात्या टोपे कहां पर हैं?" तात्या की कथित फाँसी के 3 वर्ष बाद एक जिम्मेदार अंग्रेज अफसर द्वारा ऐसा प्रश्न करना आश्चर्यजनक और संदेहास्पद था। रामकृष्ण ने इसके उत्तर में तात्या के बारे में मालूम न होने की बात कही।
इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख " सोर्समेटेरियल फॉर द हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवनमेन्ट इन इंडिया। (बोम्बे गवर्नमेन्ट रिकॉर्ड्स) वाल्युम 1 पी. पी. 231-237 पर अंकित है।"
यह प्रश्न राव साहब पेशवा पर चले मुकदमे (1862 में) के दौरान भी उनसे पूछा गया था, जो राव साहब की केस की मूल पत्रावली (फाईल) में अंकित है। तात्या के सम्बन्ध में उक्त प्रश्न उनकी फाँसी पर अंग्रेजों में व्याप्त संदेह को प्रकट करते हैं।
इतिहास की इस नई जानकारी के पक्ष में और भी कई तथ्य उक्त पुस्तकों में दिये गए हैं, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं- पद्म स्व. डॉ. वाकणकर का कहना था कि अम्बाजी का प्रसिद्ध मंदिर तात्या टोपे द्वारा बनवाया गया। उस मंदिर के एक कोने में जो साधु वेश में चित्र लगा है, वह तात्या टोपे का ही है। गुजरात में नवसारी क्षेत्र में साधुवेश में उनकी प्रतिष्ठा चर्चित है।
बीकानेर के पुरालेखागार में 1857 के फरारशुदा लोगों की सूची में तात्या का भी नाम है। झांसी से प्रसारित एक भेंट वार्ता में तात्या के बच निकलने व उनकी मृत्यु के अनेक प्रसंग छपे हैं।
तात्या के मुकदमे में जो अत्यधिक शीघ्रता की गई उससे यह संदेह होने लगता है कि इस जल्दी की आड़ में सरकार कोई न काई बात छिपाने की कोशिश कर रही थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार तात्या टोपे के स्थान पर पकड़ गए व्यक्ति को जल्दी से जल्दी फाँसी पर लटकाकर छुट्टी पाना चाहती थी। पाठकों को मालूम हो कि कथित तात्या को 7 अप्रैल, 1859 को पड़ौन के जंगलों से पकड़ा गया। 15 अप्रैल 1859 को सैनिक अदालत में मुकदमा चलाया गया। उसी दिन फैसला सुनाकर 18 अप्रैल 1859 को सायंकाल फाँसी दे दी गई। शिवपुरी जहाँ उन्हें फाँसी दी गई वहाँ के विनायक ने अपनी गवाही में कहां कि में तात्या को नहीं पहचानता।
जो भी गवाह पेश किये गए वे सरलता पूर्वक अंग्रेज अफसरों द्वारा प्रभावित किये जा सकते थे। इनमे एक भी स्वतंत्र गवाह नहीं था। ब्रह्मवर्त (बिठूर) या कानपुर का एक भी गवाह नहीं था, जो तात्या को अच्छी तरह पहचानता हो।
फाँसी पर चढ़े तात्या टोपे ने अपने मुकदमे के बयान पर जो हस्ताक्षर किये वे मराठी भाषा की मोड़ी लिपि में इस प्रकार थे-"तात्या टोपे कामदार नाना साहब बहादुर" ये हस्ताक्षर फांसी पर चढ़े व्यक्ति ने अंग्रेजों को विश्वास दिलाने के लिए किये थे, क्योंकि अंग्रेज तात्या को इस नाम से पहचानते थे। महाराष्ट्र में हस्ताक्षर करने की जो पद्धति है उसमें सबसे पहले स्वयं का नाम, बाद में पिता का नाम तत्पश्चात् कुटुम्ब का नाम होता है। उसके अनुसार तात्या के हस्ताक्षर इस प्रकार होते- रामचन्द्र (तात्या का असलीनाम) पांडुरंग टोपे या रामचन्द्र राव या पंत टोपे। राव साहब पेशवा ने अपने मुकदमे के कागजों पर पांडुरंग राव ही हस्ताक्षर किये थे। उपरोक्त हस्ताक्षरों से स्पष्ट होता है कि वे तात्या के नहीं थे।
बिहार में स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियाँ वर्ष 1855 से ही प्रारम्भ हो गई थी। उस समय वहाबी मुसलमानों की गतिविधियों का केन्द्र बिहार ही था। नाना साहब पेशवा का संदेश मिलते ही पूरे बिहार में गुप्त बैठकों का दौर शुरू हो गया। पटना में किताबें बेचने वाले पीर अली क्रांतिकारी संगठन के मुखिया थे। सन् 57 की 10 मई को मेरठ के भारतीय सैनिकों की स्वतंत्रता का उद्घोष बिहार में भी सुनाई दिया। पटना का कमिश्नर टेलर बड़ा धूर्त था। मेरठ की क्रांति का समाचार मिलते ही उसने पटना में जासूसों का जाल बिछा दिया। दैवयोग से एक क्रांतिकारी वारिस अली अंग्रेजों की गिरफ्त मे आ गये। उनके घर से कुछ और लोगों के नाम-पते मिल गये। परिणाम स्वरूप अधिकांश स्वतंत्रता सैनानी पकड़ लिये गये और संगठन कमजोर पड़ गया। फिर भी पीर अली ने सबकी सलाह से 3 जुलाई को क्रांति का बिगुल बजाने का निर्णय ले लिया।
3 जुलाई को दो सौ क्रान्तिकारी शस्त्र सज्जित हो गुलामी का जुआ उतारने के लिये पटना में निकल पड़े, लेकिन अंग्रेजों ने सिख सैनिको की सहायता से उन्हें परास्त कर दिया। पीर अली सहित कई क्रांतिकारी पकड़ गये, और तुरत-फुरत सभी को फाँसी पर लटका दिया गया। पीर अली को मृत्यदण्ड दिए जाने का समाचार दानापुर की सैनिक छावनी में पहुँचा। छावनी के भारतीय सैनिक तो तैयार ही बैठे थे। 25 जुलाई को तीन पलटनों ने स्वराज्य की घोषणा करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ शस्त्र उठा लिये। छावनी के अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर क्रातिकारी भारतीय सैनिक जगदीशपुर की ओर चल पड़े। सैनिक जानते थे कि अंग्रेजों से लड़ने के लिये कोई योग्य नेता होना जरूरी है और जगदीशपुर के 80 साल के नवयुवक यौद्धा कुँवर सिंह ही सक्षम नेतृत्व दे सकते हैं। दानापुर के सैनिकों के पहुँचते ही इस आधुनिक भीष्प ने अपनी मूंछों पर हाथ फेरा और अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए रणभूमि में खड़े हो गये।
कुँवर सिंह के नेतृत्व में अब क्रांतिकारियों ने आरा पर आक्रमण कर वहां के खजाने पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने पीठ दिखाने में ही अपनी कुशल समझी। अब स्वातंत्र्य सैनिक पास की गढ़ी की ओर बढ़े तथा उसको घेर लिया। अंग्रेजों ने कप्तान डनबार की अगुवाई में एक सेना गढ़ी की घेराबन्दी तोड़ने को भेजी। यह सेना सोन नदी पार कर आरा के नजदीक आ गई। रात्रि का समय था किन्तु चाँद की रोशनी हो रही थी। डनबार अपने जवानों के साथ आरा के वन-प्रदेश में घुस गया। वीर कुँवर सिंह ने अब अपनी वृक-युद्ध कला का परिचय दिया। वृक-युद्ध कला छापामार युद्ध का ही दूसरा नाम है। इसका अर्थ है- शत्रु को देखते ही पीछे हट कर लुप्त हो जाओ और अवसर मिलते ही असावधान शत्रु पर हमला कर दो। कुँवर सिंह और तात्या टोपे दोनों ही इस रणनीति के निष्णात थे।
कुँवर सिहं ने जासूस डनबार की पूरी-पूरी खबर उन तक पहुँचा रहे थे। जैसे ही डनबार नजदीक आया, कुँवर सिंह ने गढ़ी का घेरा उठा कर सैनिकों को जंगल में छिपा दिया। जैसे ही डनबार जंगल में घुसा, पेड़ों में छिपे भारतीय सैनिकों ने गोली-वर्षा शुरू कर दी। कप्तान डनबार पहले ही दौर में धराशायी हो गया। अंग्रेज और उनका साथ दे रहे सिक्ख सैनिक भागे तो क्रांतिकारियों ने उनका पीछे किया। अंग्रेजों की ऐसी दुर्गति हुई कि पूरी सेना में से केवल 50 सैनिक जीवित बचे। इस करारी हार से अंग्रेज तिलमिला गये। अब मेजर आयर एक बड़ी भारी सेना लेकर आरा की ओर बढ़ा। उसके पास बढ़िया तोपों भी थीं। बीबीगंज के पास हुए भीषण युद्ध में तोपों ने पासा पलट दिया। कुँवर सिंह आरा से पीछे हट कर जगदीशपुर पहुँचे। मेजर आयर भी उनके पीछे-पीछे चले आ रहे थे। अंग्रेज सेना की एक और पलटन मेजर आयर की सहायता के लिये आ गई।
दुश्मन की बढ़ी हुई शक्ति देखकर कुँवर सिंह एक रात जगदीशपुर से सत्रह सौ सैनिकों सहित निकल गये। 14 अगस्त को आयर ने किले पर कब्जा कर लिया। कुँवर सिंह अब छापामार हमले कर अंग्रेजों को परेशान करने लगे। सोन नदी के किनारे पश्चिम बिहार के वन प्रदेश में कुँवर सिंह ने अपना स्थायी डेरा जमा लिया। यहीं से टोह लगा कर वे बाहर निकलते तथा गरूड़ झपट्ट से अंग्रेजों पर हमला करते। अंग्रेज कुछ समझते उसके पहले वे फिर वन-प्रदेश में लुप्त हो जाते। उनके अनुज अमर सिंह भी उनके साथ थे। छह महीनों तक इसी प्रकार वे फिरंगियों को परेशान करते रहे। इसी के साथ वे अपना सैन्य संगठन भी मजबूत कर रहे थे। उनके गुप्तचर पूरे क्षेत्र में फैले हुए थे और स्वातंत्र्य समर के सभी समाचार उन्हें दे रहे थे।
गुप्तचरों से उन्हें सूचना मिली कि पूर्वी अवध में अंग्रेजी सेना की पकड़ कमजोर है। अब कुंवर सिंह ने आजमगढ़, बनारस और इलाहाबाद पर हमला कर जगदीशपुर का बदला लेने की योनजा बनाई। 18 मार्च 1858 को बेतवा के क्रातिकारी भी उनसे मिल गये। संयुक्त सेना ने अतरौलिया पर आक्रमण कर दिया। कप्तान मिलमन की सेना को धूल चटाते हुए कुँवर सिंह ने उसे कोसिल्ला तक खदेड़ दिया। अब उन्होंने आजमगढ़ का रूख किया। रास्ते में कर्नल डेम्स को करारी शिकस्त दे स्वातंत्र्य सैनिकों ने आजमगढ़ को घेर लिया।
अनुज अमर सिंह को आजमगढ़ की घेरेबन्दी के लिए छोड़कर अब कुँवर सिंह बिजली की गति से काशी की ओर बढ़े। रातों-रात 81 मील की दूरी तय कर क्रांतिकारियों ने वाराणसी पर आक्रमण कर दिया। लखनऊ के क्रांतिकारी भी इस समय कुँवर सिंह के साथ हो गए। लेकिन अँग्रेज़ भी चौकन्ने थे। बनारस के बाहर लार्ड मार्ककर मोर्चेबन्दी किए हुए था, उसके पास तोपें भी थीं। भीषण युद्ध होने लगा। यहाँ कुँवर सिंह ने फिर वृक-युद्ध कला की चतुराई दिखाई। देखते-देखते क्रांतिकारी सैन्य युद्ध भूमि से लुप्त हो गया। वास्तव में कुँवर सिंह ने बड़ी दूरगामी रणनीति बनाई थी। वे शत्रु-सेना को अलग-अलग स्थानों पर उलझा कर जगदीशपुर की ओर बढ़ना चाहते थे। मार्ककर भी इस भुलावे में आ गया और आजमगढ़ की ओर चल पड़ा। उधर जनरल लुगार्ड भी आजमगढ़ को मुक्त कराने के लिए तानू नदी की ओर बढ़ रहा था। अँग्रेज़ इस भ्रम में थे कि कुँवर सिंह आजमगढ़ को जीतने के लिए पूरी ताक़त लगायेंगे। इस भ्रम को पक्का करने के लिए कुँवर सिंह ने तानू नदी के पुल पर अपनी एक टुकड़ी को भी तैनात कर दिया।
इस टुक़ड़ी ने अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए कई घंटों तक जनरल लुगार्ड को रोके रखा। इस बीच कुँवर सिंह गाजीपुर की ओर बढ़ गए। काफ़ी संघर्ष के बाद लुगार्ड ने पुल पार किया तो उसे एक भी स्वातंत्र्य सैनिक दिखाई नहीं दिया। सैनिक टुकड़ी अपना कर्तव्य पूरा कर आगे के मोर्चें पर जा डटी। हतप्रभ से लुगार्ड को कुछ समझ में नहीं आया। तभी उसे गुप्तचरों से सूचना मिली कि कुँवर सिंह तो गाजीपुर की ओर जा रहा था। लुगार्ड भी द्वुत-गति से पीछा करने लगा। कुँवर सिंह तो तैयार बैठे थे, मौका देख कर उन्होंने अचानक अँग्रेज़ों पर आक्रमण कर दिया। लुगार्ड की करारी शिकस्त हुई और वह पीठ दिखाकर भागने लगा। अब अँग्रेज़ सेनापतियों की समझ में आया कि कुँवर सिंह का लक्ष्य जगदीशपुर है तथा इसके लिए वह गंगा को पार करने की जगुत कर रहे हैं। कुँवर सिंह से युद्ध में पिटे मार्ककर और लुगार्ड के स्थान पर अब डगलस ने कुँवर सिंह को घेरने का मंसूबा बाँधा।
80 वर्ष के यौद्धा कुँवर सिंह लगातार नौ महीनों से युद्ध के मैदान में थे। अब वे गंगा पार कर अपनी जन्म-भूमि जगदीशपुर जाने की तैयार कर रहे थे। डगलस भी घोड़े दौड़ाता हुआ उनका पीछा कर रहा था। यहाँ कुँवर सिंह ने युक्ति से काम लिया। उन्होंने अफ़वाह फैला दी कि वे बलियाँ के निकट हाथियों से अपनी सेना को गंगा पार करायेंगे। कुँवर सिंह की पैतरे-बाज़ियों से परेशान हो चुके अँग्रेज़ों ने फिर करारा धोखा खाया। अँग्रेज़ सेनापति डगलस वहाँ पहुँच कर प्रतीक्षा करने लगा और इधर बलियाँ से सात मील दूर शिवराजपूर में नावों पर चढ़कर कुँवर सिंह की सेना पार हो रही थी। डगलस हैरान था कि आख़िर कुँवर सिंह गंगा पार करने आ क्यों नहीं रहे। तभी उसे समाचार मिला कि कुँवर सिंह तो सात मील आगे नावों से पुण्य-सलिला गंगा को पार कर रहे हैं। वह तुरंत उधर ही दौड़ा पर जब तक डगलस शिवराजपुर पहुँचता पूरी सेना पार हो चूकी थी। अंतिम नौका पार हो रही थी जिसमें स्वयं कुँवर सिंह सवार थे। अँग्रेज़ी सेना ने उन पर गोली बरसाना प्रारंभ कर दिया। एक गोली कुँवर सिंह के बाएँ हाथ में लगी। ज़हर फैलने की आशंका को देख कुँवर सिंह ने स्वयं अपनी तलवार से कोहनी के पास से हाथ काटकर गंगा को अर्पित कर दिया। 23 अप्रैल को विजय श्री के साथ कुँवर सिंह ने जगदीशपूर के राजप्रासाद में प्रवेश किया। लेकिन गोली का विष पूरे शरीर में फैल ही गया और 3 दिन बाद ही 26 अप्रैल को उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर दिया। गौरवशाली मृत्यु का वरण कर स्वतंत्रता संघर्ष में कुँवर सिंह अजर-अमरहोगए।
बहादुर शाह जफ़र का जन्म 24 अक्टूबर, 1775 कोदिल्ली में हुआ था। इनकी माता का नाम लाल बाई व पिता का नाम अकबर शाह ( द्वितीय ) था। 1837 को ये सिंहासन पर बैठे। ये मुगलों के अंतिम सम्राट थे। जब ये गद्दी पर बैठे उस समय भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था। इनको शायरी बेहद पसंद थी। ये उर्दू के जाने माने शायर थे व इनके दरबार में भी कई बडे़ शायरों को आश्रय दिया जाता था।
बहादुर शाह के समय भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था। कंपनी अपने निजी हितों को ध्यान में रख कर नये-नये कानुन बनाती थी। जब इस कंपनी ने मुगल सम्राट की उपाधि को खत्म करने का निश्चय किया तो सबमें असंतोष की लहर दौड गई। सरकार ने बहादुर शाह के बडे़ पुत्र मिर्जा खां बख्त को युवराज बनाने से इंकार कर दिया जिससे वह इस सरकार के विरुद्ध हो गये। वहीं दूसरी और उन्होंने उसके छोटे पुत्र कोयाश को युवराज बना दिया।
कोयाश ने उनकी अपमान जनक शर्तें स्वीकार कर ली। ये शर्तें निम्न थी। (1) आपको बादशाह की बजाय राजकुमार कहा जाएगा। (2) आपको दिल्ली का लाल किला खाली करना होगा। (3) आपको मासिक खर्च 1 लाख की बजाय 15 हजार मिलेंगे। बहादुर शाह को भी लाल किला खाली करने का आदेश दिया गया। इस बात से बहादुरशाह नाराज हो गये और उन्होंने क्रांति में हिस्सा लिया।
उन्होंने एक सेना संगठित की व इस सेना का खुद ने नेतृत्व किया। बहादुर शाह ने आदेश दिया कि हिन्दुस्तान के हिन्दुओं व मुसलमानों उठो खुदा ने जितनी बरकते इंसान को दी है उनमें सबसे कीमती बरकत (वरदान) आजादी है। हम दुश्मन का नाश कर डालेंगे और अपने धर्म तथा देश को खतरे से बचा लेंगे। बहादुर शाह की घोषणा से स्पष्ट होता है कि यह क्रांति हिन्दू व मुसलमानों को एकता के सूत्र में बांधना चाहती थी व देश को स्वतंत्रता दिलाना चाहती थी।
बाद में ब्रितानी सेना का विरोध करने केकारण उनको बंदी बनाकर बर्मा भेज दिया गया। उनके साथ उनके दोनों बेटों को भी कारावास में डाल दिया गया। वहां इनके दोनों बेटो को मार दिया गया व रंगून में 7 नवम्बर 1862 को इनकी मृत्यु हो गई।दो गज जमीं न मिली
1857 की क्रांति के थमने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत के अंतिम मुग़ल सम्राट अबू जाफर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुरशाह द्वितीय यानी बहादुरशाह जफर पर मुकदमा चलाया। झूठे साक्ष्यों और गवाहों के आधार पर उन्हें देश से निर्वासन की सजा सुनाई। उनकी ज़िंदगी के आखरी कष्टप्रद लम्हे रंगून में ही गुजरे।
जनवरी 1858 में बहादुरशाह जफर पर चला मुकदमा अनूठा था। मुकदमा चलाने वाले ब्रिटिश अफ़सर यह जानते थे कि वे कितने भी झूठे साक्ष्य और गवाह पेश करे, वे यह सिद्ध नह़ीं कर पाएंगे कि एक 82 साल के बुज़ुर्ग 1857 में ब्रितानियो के ख़िलाफ़ हुए ग़दर के लिए दोषी थे। बरहाल वे शुरू से ही यह जानते थे की जज को अपना फ़ैसला बहादुरशाह के ख़िलाफ़ ही देना था। 1857 के ग़दर को कुचलने के बाद ब्रितानियों ने 20 सितम्बर, 1857 को दिल्ली के राजमहल पर फिर से अधिकार कर लिया। ब्रितानियों ने उनके 24 शहज़ादों की हत्या कर दी और जफर, उनकी बेग़म ज़ीनत महल और शहज़ादे जवाँ बख़्त को नज़रबंद कर दिया। 27 जनवरी 1858 को उन्हें दिल्ली के लाल क़िले के दीवाने ख़ास में कोर्ट मार्शल के लिए पेश किया गया। कोर्ट मार्शल थोडी देर से शुरू हो पाया, क्योंकि कोर्ट के पुराने अध्यक्ष ब्रिगेडियर शॉवर्स के स्थान पर ले. कर्नल दावेस को नियुक्त किया गया था। कोर्ट के अन्य जजों में तीन मेजर और एक कैप्टन थे। बहादुरशाह हाथ में छड़ी लिए दीवाने ख़ास में आए। शहज़ादा जवाँ बख़्त और जफर के वकील ग़ुलाम अब्बास उन्हें सहारा दे रहे थे। ब्रितानियों के वकील मेजर एफ.जे. हैरियट ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि इस कोर्ट मार्शल के दौरान उन नियम विधानों की ओर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जाएगा, जिनका पालन अन्य मुकदमों में किया जाता था। सुनी सुनाई गवाहियों को भी मान्य किया जाएगा, बस वे विश्वसनीय होनी चाहिए। मुक़द्दमे की सच्चाई तो दरअसल हैरियट के इस वक्तव्य से ही ज़ाहिर हो गई थी। मुकदमा शुरू होते ही जजों ने जवाँ बख़्त को बाहर भिजवा दिया, क्योंकि उनके मुताबिक़ वह लगातार बातें कर जजों का ध्यान भंग कर रहे थे। अब बहादुरशाह अकेले रह गए। अदालत में क्या चल रहा है यह समझ पाना इन 82 साल के बुज़ुर्ग के लिए शायद संभव नहीं था। वे बस तभी ज़बान खोलते थे, जब उनसे पूछा जाता, 'तुम कसूरवार हो या बेकसूर।' वे कहते 'बेकसूर', यह जानते हुए भी कि ब्रितानियों के लिए उनके लिए जो सजा तय कररखी है, वह उन्हें मिलेगी ही। जफर के खिलाफ चार अभियोग लगाए गए थे-
(1) ब्रिटिश सरकार सेे पेंशन पाने वाले उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय अधिकारियों और सिपाहियों को सरकार के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए प्रेरित किया।
(2) उन्होंने अपने बेटे मिर्जा मुग़ल को राजद्रोह के लिए प्रेरित किया।
(3) भारत में ब्रिटिश सरकार की प्रजा होते हुए भी उन्होंने देश की सरकार के साथ गद्दारी कर खुद को मुल्क का बादशाह घोषित किया।
(4) उन्होंने 16 मई 1857 को महल में 49 युरोपीय लोगों की हत्या करवाई।
सबूत के तौर पर शाही दरबार से उन शाही हुक्मों की प्रतिलिपियाँ प्रस्तुत की गई, जो 11 मई से लेकर 20 सितम्बर 1857 तक जारी किए गए थे। सरकारी गवाह हकीम अहसानुल्लाह ने बहादुरशाह के दस्तख़तों की पहचान की। अगले दिन, जफर ने अर्ज़ी दी कि वे सरकारी गवाह बनने को तैयार हो गए। इस तरह ज़ोर डाल कर उनसे ऐसे बयान दिलवाए गए जो जफर के ख़िलाफ़ जाते थे। इतना ही नहीं ब्रितानियों ने बहादुरशाह के पूर्व सचिव मुकुन्दलाल के मुँह से भी यह झूठी गवाही दिलवाई कि महल में रहने वाले ब्रितानियों की हत्या बहादुरशाह के हुक्म से हुई थी। मुकुन्दलाल ने ब्रितानियों के प्रति अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करने के लिए अपनी गवाही में बहादुरशाह के साथ ज़ीनत महल, आगा बेग़म (उनकी पुत्री) और दो अन्य बेगमों नानी बेग़म और अशरफुत्तिमा को भी लपेट लिया और कहा कि ब्रितानियों कि हत्या का हुक्म इन सब ने मिलकर दिया था। 4 मार्च 1858 को बहादुरशाह ने अपने बेकसूर होने का बयान उर्दू में दिया। इसके बाद, सरकारी वकील हैरियट ने अपना बयान दिया जो 9 मार्च 1958 तक चला।
जैसे ही हैरियट का बयान ख़त्म हुआ, कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना दिया। उसकी पेश की गई गवाहियों के आधार पर बहादुरशाह जफर को उन चारों अभियोगों का सर्वसम्मति से और स्पष्ट रूप से दोषी पाए गए। अदालत ने उन्हें देश से निर्वासन की सजा सुनाई। 7 अक्टूबर 1858 को जफर को ज़ीनत महल और जवाँ बख़्त के साथ रंगून के लिए रवाना कर दिया गया। 8 दिसंबर 1858 को वे रंगून पहुँचे और वहीं 7 नवंबर, 1862 को उनकी मृत्यु हुई। जफर के आख़िरी दिन कितनी कितनी निराशा और तकलीफ़ में गुज़रे, इसकी याद उनका यह शेर आज भी दिलाता है-
मंगल पांडे 1857 की क्रांति के महानायक थे। ये वीर पुरुष आज़ादी के लिये हंसते-हंसते फ़ंासी पर लटक गये। इनके जन्म स्थान को लेकर शुरू से ही वैचारिक मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इनका जन्म जुलाई 1827 में उत्तर प्रदेश (बालिया) जिले के सरयूपारी (कान्यकुब्ज) ब्राह्मण परिवार में हुआ। कुछ इतिहासकार अकबरपुर को इनका जन्म स्थल मानते हैं। इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे था जो कि भूमिहार ब्राह्मण थे।
बड़े होकर वे कलकत्ता के बैऱकपुर की नेटिव इनफ़ेन्ट्री में सिपाही के पद पर नियुक्त हुए। वहां से 1849 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भर्ती हुए। उस समय इनकी आयु 22 साल की थी। मंगल पांडे शुरू से ही स्वतंत्रता प्रिय व धर्मपरायण व्यक्ति थे। वे इनकी रक्षा के लिये अपनी जान भी देने के लिये तैयार रहते थे।
जब वे सेना में थे तो एक दिन दमदम के निकट कुएं से पानी भर रहे थे तब एक निम्न जाति के व्यक्ति (अछूत) ने उनसे लोटा मांगा तो उन्होंने देने से इंकार कर दिया तब उस निम्न जाति के व्यक्ति ने कहा की आप मुझे (अछूत होने के कारण) लोटा मत दो लेकिन जब फ़ौज में गाय व सूअर की चर्बी वाले कारतूसों का उपयोग करना पड़ेगा तो आप अपने धर्म को कैसे बचाओगे। ये बात सुनकर मंगल पांडे का दिमाग ठनका। उन्होंने सोचा अब या तो धर्म छोड़ना पडे़गा या विद्रोह करना पड़ेगा। फ़िर तय किया की प्राण भले ही जाये पर धर्म नहीं छोडूंगा। फ़लस्वरू प नेताओं द्वारा निश्चित तिथि से पहले ही उन्होंने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। अंत में 31 मई को सारे देश में क्रांति की शुरू आत हो गई। इस क्रांति की शुरू आत परेड़ मैदान में हुई थी।29 मार्च की एक शाम को बैरकपुर में मंगल पांडे ने अपनी रेजिमेंट के लेफ़्टिनेन्ट पर हमला कर दिया। सेना के जनरल ने सब सिपाहियों को मंगल पांडे़ को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया, परन्तु किसी ने आदेश नहीं माना। इस पर मंगल पांडे़ ने अपने साथियों को विद्रोह करने के लिये कहा, लेकिन किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया।
इस क्रांति में मंगल पांडे ने कई ब्रितानी सिपाहियों व अधिकारियों को मौत के घाट उतारा व हिम्मत नहीं हारी। जब अंत में अकेले हो गये तो उन्होंने ब्रितानियों के हाथ से मरने के बजाय खुद मरना स्वीकार किया। उन्होंने खुद को गोली मार दी और बुरी तरह से घायल हो गये। कुछ समय तक अस्पताल में उनका इलाज चला।
ब्रिटिश सरकार ने 8 अप्रैल 1857 को मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल किया व उनको फ़ांसी पर चढ़ा दिया। रेजिमेन्ट के जिन सिपाहियों ने मंगल पांडे का विद्रोह में साथ दिया ब्रिटिश सरकार ने उनको सेना से निकाल दिया और पूरी रेजिमेन्ट को खत्म कर दिया। अन्य सिपाहियों ने इस निर्णय का विरोध किया। वे इस अपमान का बदला लेना चाहते थे। इसी विरोध ने 1857 की क्रांति को हवा दी धीरे -धीरे ये लहर हर जगह फ़ैलती गई। इलाहाबाद, आगरा आदि स्थानों पर तोड़फ़ोड़ व आगजनी की घटनाएँ हुई। नेताओं द्वारा तय की गई तिथि से पहले क्रांति की शुरू आात करने के कारण शायद यह क्रांति विफ़ल हो गई। फ़िर भी हम शहीद मंगल पांडे के बलिदान को कभी भी भुला नहीं पायेंगे ।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ज्वाज्वल्यमान नक्षत्रों में से एक मौलवी अहमदशाह भी थे। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी यह राष्ट्र-पुरूष कुशल संगठक, ओजस्वी वक्ता, क्रांतिकारी लेखक और छापामार युद्ध-कला के कुशल योद्धा थे। अंग्रेज उनसे ऐसा थर्ताते थे, कि उनकी सूचना देने वाले व्यक्ति को पचास हजार रूपयों (आज के हिसाब से दो करोड़ रू.) का पुरस्कार देने की घोषणा की गई थी।
ऐसे तेजस्वी और देश-प्रेम से ओतप्रोत मौलवी अहमदशाह मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के ताल्लुकेदार थे। नाना साहब का गुप्त संदेश मिलते ही उन्होंने पूरे अवध में जन-जागरण शुरू कर दिया। लखनऊ में दस-दस हजार लोगों की सभा में उन्होंने सिंह गर्जना कर दी कि, " यदि तुम स्वदेश और स्वधर्म का मंगल चाहते हो तो उसके लिये फिरंगियों को तलवार की धार उतारा देना ही एक-मात्र धर्म है। " आगरा में उन्होंने एक मजूबत संगठन बना दिया था। पूरे भारत में स्वातंत्र्य-देवी की उपासना का मंत्र फूँक रहे थे। जहाँ भी यह राष्ट्रीय संत पहुँचे, वहीं लोगों ने क्रांति-यज्ञ में सम्मिलित होने का निर्णय ले लिया। फलस्वरूप अंग्रेजों ने उनकी ताल्लुकेदारी छील ली औैर बन्दी बनाकर उन्हें प्राण दण्ड का आदेश भी कर दिया। किन्तु ऐसे तपोनिधि को फाँसी पर लटका देना क्या अंग्रेजों के लिये आसान था?
मेरठ में 10 मई को क्रांति का विस्फोट हो जाने के बाद भी लखनऊ पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार 31 मई तक शांत रहा। 31 मई को लखनऊ में सैनिक छावनी के भारतीय सैनिकों ने स्वतंत्रता की पताका फहरा दी। उसके बाद सीतापुर फर्रूखाबाद, बहराइच, गोण्डा, बलरामपुर आदि स्थानों से भी अंग्रेजी शासन समाप्त कर दिया गया। फैजाबाद में मौलवी अहमदशाह अंग्रेजों के बन्दी थे अतः वहाँ तो पहले ही से जनता में जबर्दस्त आक्रोश था। 5 जून को फैजाबाद में तैनात 15 वीं पलटन के जवानों और नागरिकों ने हर-हर महादेव का नारा लगते हुए सूबेदार दिलीप सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों को यमलोक भेज कर मौलवी अहमदशाह को कारागार से छुड़ा लिया। इसी के साथ 10 जून तक लगभग पूरा अवध स्वतंत्रता की खुली हवा का आनन्द लेने लगा। अवध के केन्द्र लखनऊ में भी अंग्रेज सत्ता तो समाप्त हो चुकी थी, किन्तु वहाँ के कमिश्नर हेनरी लारेंस ने एक हजार गोरे, 800 भारतीय सिपाहियों और कुछ तोपों के साथ लखनऊ की रेजीडेंसी में मोर्चा जमा लिया था। इस तरह पूरे अवध में अंग्रेज सत्ता उस रेजीडेंसी तक सिमट कर रह गई थी। नवाब वाजिदअली शाह की बेगम हजरत महल ने शासन अपने हाथ में ले लिया।
मौलवी अहमदशाह अब लखनऊ आ गये और बेगम हजरमहल की सहायता करने लगे। इसी के साथ वे अपने आग उगलते लेखों औैर भाषणों से अंग्रेजी सत्ता को निर्मूल कर देने का आह्वान भी कर रहे थे। उसी का परिणाम था कि अवध का बच्चा-बच्चा शस्त्र उठाकर क्रांति के महायज्ञ में कूद पड़ा। अकेले लखनऊ में बीस हजार से अधिक लोगों ने स्वातंत्र्य समर में अपना शीश चढ़ाया था। रेडीडेंसी में मोर्चा जमाये अंग्रेजों के साथ स्वातंत्र्य सैनिकों का घमासान अब पराकाष्ठा पर था। हेनरी लारेंस की मौत हो चुकी थी। जनरल हैवलाक ने कानपुर से लखनऊ आने के लिये गंगा पार करने की धृष्टता की ही थी, कि नाना साहब ने कानपुर पर धावा बोल दिया। परिणामस्वरूप हैवलाक को लौटना पड़ा। 20 सितम्बर को हैवलॉक फिर से लखनऊ की ओर बढ़ा। इस समय नील, आउट्रम और आयर जैसे कुशल सेनापति भी उसके साथ थे। 25 सितम्बर को 1 हजार फिरंगी सैनिक और जनरल नील की बलि चढ़ने के बाद हैवलॉक रेडीडेंसी तक पहुँचने में सफल हो गया। लेकिन स्वातंत्र्य सैनिकों ने अब हैवलोक को चारों ओर से घेर लिया।
23 नवम्बर को कोलिन केम्पवेल, आउट्रम और हडसन की संयुक्त सेनाओं ने भीषण संघर्ष के बाद रेजीडेंसी में घिरे अंग्रेजों को छुड़ा लिया, फिर भी हैवलाक की तो स्वातंत्र्य सैनिक के हाथों मुक्ति हो ही गई। लखनऊ के आलम बाग में जमी फिरंगी सेना अब क्रातिकारियों पर जबर्दस्त हमले की तैयार करने लगी। परिस्थिति निराशाजनक थी, किन्तु मौलवी अहमदशाह निरंतर लोगों में आशा का संचार कर रहे थे। अब युद्ध का मोर्चा खुद उन्होंने सम्भाला। 22 दिसम्बर को उन्होंने आलम-बाग में जमी अंग्रेज सेना पर हमला किया। युद्ध में वे घायल हुए तथा उन्हें पीछे हटना पडा। अब बेगम हजरतमहल ने रणक्षेत्र में तलवार उठाई, किन्तु अंग्रेजों की सहायता के लिये नई सेना आ गई इसलिए उनको भी पीछे हटना पड़ा। आखिर 14 मार्च 58 को जनरल कॉलिन ने तीस हजार सैनिकों के साथ गोमती को पार कर उत्तर की ओर से लखनऊ पर आक्रमण किया और इसे जीतने में सफलता पाई। बेगम हजरत महल तथा मौलवी अहमदशाह अंग्रेजों का घेरा तोड़ कर बच निकले।
मौलवी साहब ने अब अंग्रेजों के खिलाफ छापामार युद्ध करने का निर्यण लिया। उन्होंने लखनऊ से 45 कि.मी. दूर बारी में पड़ाव डाल दिया। बेगम छह बजार सैनिकों के साथ बोतौली में आ गई। अंग्रेज सेनापति होप ग्रांट उनके पीछे लगा हुआ था। इस समय अंग्रेजों की सेना लगभग 1 लाख सैनिकों की हो गई थी। रूईयागढ में होप ग्रांट को भी नरपतिसिंह ने सद्गति दे दी। अंग्रेजों का घेरा कसते देख अब मौलवी बरेली की ओर चल पड़े।अहमदशाह का रणरंग - बरेली रूहेलखण्ड की राजधानी थी। अंग्रेजों ने षड्यंत्रपूर्वक सन्-1801 में अवध के नवाब से इसे छीन लिया था। पूरे रूहेलखण्ड में स्वातंत्र्य समर के लिये गुप्त संगठन खान बहादुरखान ने खड़ा किया था। 1857 के इतिहास में इस वीर पुरूष का नाम भी स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिये। 31 मई 57 को बरेली और पूरा रूहेलण्ड स्वतंत्र हो गया। सेनानायक बख्त खाँ को एक बड़ी सेना के साथ दिल्ली भेज कर खान बदादुर ने रूहेलखण्ड में बादशाह के नाम पर प्रशासन चलाना शुरू कर दिया।
4 मई, 1858 को मौलवी साहब तथा बेगम हजरत महल के साथ-साथ श्रीमंत नाना सहाब पेशवा और दिल्ली के शहजादे फिरोजशाह भी बरेली पहुँच गये। खान बहादुर के साथ सभी ने यहाँ आगे के संघर्ष की रणनीति तय की। पीछे-पीछे अंग्रेज सेनापति केम्पबेल भी दौड़ा चला आ रहा था। यहाँ मौलवी अहमदशाहने वृक-युद्ध कला की बानगी दिखाई। 5 मई को केम्पबेल का घेरा पड़ते ही वे नाना साहब के साथ बरेली से निकल गये और शाहजहाँपुर पर धावा बोल दिया। कैम्पबेल पुनः लौटा तो मौलवी साहब बिजली की तेजी से अवध की ओर बढ़े तथा छापामार युद्ध से अंग्रेजों की नाक में दम करने लगे। पूरे क्षेत्र में वे हवा की तरह घूमते और मौका लगते ही अंग्रेजों पर अचानक हमला कर देते। हताश होकर अंग्रेजों ने उनकी सूचना देने वाले को पचास हजार रूपयों के पुरस्कार की घोषणा कर दी। पोवेन का देश द्रोही राजा जगन्नाथ इस लालच में आ गया। सहायता देने के बहाने उसने इस राष्ट्रीय संत को पोवेन बुलाया और धोखे से उन्हें पकड़ लिया। इसके बाद उस विश्वासघाती ने उनका शीस उतार कर अंग्रेजों के पास भिजवा दिया।
मौलवी अहमदाशाह ने ही विश्वस्त अमीर अली ने बाब रामचरण दास को श्रीराम जन्म-भूमि सौंप दी थी। बाद में अंग्रेजों ने 18 मार्च, 58 को इन दोनों ही देशभक्तों को मृत्युदण्ड दे दिया था।
अजीमुल्ला खाँ 1857 की क्रांति के आधार स्तंभो में से थे। उन्होंने नाना साहब द्युद्यूपंत के साथ मिलकर क्रांति की योजना तैयार की थी नाना साहब ने इनके साथ भारत के कई तीर्थ स्थलों की यात्रा भी की व क्रांति का संदेश भी फै़ लाया।
अजीमुल्ला खां का जन्म साधारण परिवार में हुआ था। इनके माता पिता बहुत गरीब थे। बहुत ही मुशकिल से कानपुर के एक स्कूल में इनको दाखिला मिला लेकिन ये पढ़ने में मेघावी थे, इसलिये इनकी फ़ीस माफ़ की गई व छात्रवृति भी दी ग़ई। बाद में बड़े होने पर वे इसी स्कूल में शिक्षक बन गये।अजीमुल्ला खां की योग्यता व ईमानदारी की कहानी नाना साहब के कानों तक पहुँची तो उन्होंने अजीमुल्ला खां को अपना मंत्री बना लिया। नाना साहब के यहाँ आने से पहले अजीमुल्ला खां एक ब्रितानी पदाधिकारी के यहां बावर्ची का काम करते थे। इसके सम्पर्क में आकर अजीमुल्ला खाँ ने अंग्रेजी व फ़्रांसीसी दोनों भाषाओ व ब्रितानियों के रीति-रिवाजों को सीखा। 26 जनवरी 1851 में जब बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई तो उनके दत्तक पुत्र घ्नाना साहबङ को पेशवा की उपाधि व व्यक्तिगत सुविधाओं से वंचित रखा गया।
1854 में नाना साहब ने अजीमुल्ला खां को अपना राजनैतिक दूत बनाकर इंग्लैंड भेजा। अजीमुल्ला खां ने ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों से मिलकर नाना साहब के लिये वकालत की। लेकिन उन्हे निराशा ही हाथ लगी। गवर्नर जनरल ने निर्णय सुनाया की बाजीराव के दत्तक पुत्र ( नाना साहब ) को अपने पिता की पेंशन नहीं दी जाएगी।
अजीमुल्ला खां निराश नहींं हुए। उन्होंने कुछ समय लंदन में ही रहना उचित समझा। वहाँ इनकी मुलाकात रंगो बापू जी से हुई जो सतारा के उत्तराधिकारी को उनके अधिकार दिलाने के लिये उनके प्रतिनिधि बन कर आये थे। लेकिन उनको भी सफ़लता नहीं मिली। धीरे-धीरे अजीमुल्ला खां व रंगों बापू दोनो का ह्रदय प्रतिशोध के लिये तड़प उठा। दोनो ने मिलकर कंपनी सरकार का विरोध करने की योजना बनाई। ये दोनो क्रांति की योजना बनाने लगे। रंगों बापू तो भारत लौट आये परन्तु अजीमुल्ला खाँ ने अन्य देशों की यात्राएँ की जिसका उद्धेश्य भारत की राजनैतिक स्थिति से विदेशियों को परिचित कराना था। भारत लौटने पर क्रांति की योजनाएँ बनाई जाने लगी। अजीमुल्ला खां 1857 की क्रांति के प्रमुख विचारक थे, जिन्होंने भले ही मैदान में युद्ध न किया हो पर युद्ध करने वालो के लिये कई नीतियां बनाई।
अजीमुल्ला खां की डायरी से पता चलता है कि उन्होंने इलाहाबाद, गया जनकपुर, पारसनाथ, जगन्नाथपुरी, पंचवटी, रामेश्वरम, द्वारिका, नासिक, आबू, आदि स्थानों की यात्रा की। 4 जून को कानपुर में क्रांति हो गई जिसका नेतृत्व नाना साहब ने किया। इस युद्ध में अजीमुल्ला खां का महत्वपूर्ण योगदान रहा। 17 जुलाई को क्रांति पुन: कानपुर में फ़ैल गई। अंत में क्रांतिकारी पराजित हो ग़ये क्योंकि उन लोगों के पास साधनों का अभाव था। क्रांति के विफ़ल होने पर अजीमुल्ला खां नेपाल की तराई की ओर चले गये। नेपाल का राजा राणा जंग बहादुर ब्रितानियों के हितैषी थे। ये क्रांतिकारियों को क्षति पहुँचाना चाहते थे।
यहां अजीमुल्ला खां को कई कष्ट उठाने पड़े, लेकिन उन्होंने ब्रितानियों के सामने घुटने नहीं टेके। अजीमुल्ला खां का देहांत अक्टूबर के महीने में में हुआ था। हम उनके बलिदान को हमेशा याद रखेंग़े।
भारत के स्वातन्त्र्य समर में हजारों निरपराध मारे गये, और यदि सच कहा जाये तो सारे निरपराध ही मारे गये, आखिर अपनी आजादी की मांग करना कोई अपराध तो नहीं है। ऐसे ही निरपराधियों में थे, 13 वर्षीय अमर शहीद फ़कीरचंद जैन। फ़कीरचंद जी लाला हुकुमचंद जी जैन के भतीजे थे। हुकुमचंद जैन ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
हुकुमचंद जैन हांसी के कानूनगो थे, बहादुरशाह जफ़र से उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे, उनके दरबार में श्री जैन सात साल रहे फ़िर हांसी (हरियाणा) के कानूनगो होकर ये गृहनगर हांसी लौट आये। इन्होंने मिर्जा मुनीर बेग के साथ एक पत्र बहादुरशाह जफ़र को लिखा, जिसमें ब्रितानियों के प्रति घृणा और उनके प्रति संघर्ष में पूर्ण सहायता का विश्वास बहादुरशाह जफ़र को दिलाया था। जब दिल्ली पर ब्रितानियों ने अधिकार कर लिया तब बहादुरशाह जफ़र की फ़ाइलों में यह पत्र ब्रितानियों के हाथ लग गया। तत्काल हुकुमचंद जी को गिरफ़्तार कर लिया गया, साथ में उनके भतीजे फ़कीरचंद को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था। 18 जनवरी 1858 को हिसार के मजिस्ट्रेट ने लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को फ़ांसी की सजा सुना दी। फ़कीरचंद जी को मुक्त कर दिया गया।
19 जनवरी 1858 को हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को हांसी में लाला हुकुमचंद के मकान के सामने फ़ांसी दे दी गई। 13 वर्षीय फ़कीरचंद इस दृश्य को भारी जनता के साथ ही खडे़-खडे़ देख रहे थे, पर अचानक गोराशाही ने बिना किसी अपराध के, बिना किसी वारंट के उन्हे पकड़ा और वहीं फ़ांसी पर लटका दिया। इस तरह आजादी के दीवाने फ़कीरचंद जी शहीद हो गये।
हुकुमचंद जैन का जन्म 1816 में हांसी (हिसार) हरियाणा के प्रसिद्ध कानूनगो परिवार में श्री. दुनीचंद जैन के घर हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा हांसी में हुई थी। जन्म जात प्रतिभा के धनी हुकुमचंद जी की फ़ारसी और गणित में रुचि थी। अपनी शिक्षा व प्रतिभा के बल पर इन्होंने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के दरबार में उच्च पद प्राप्त कर लिया और बादशाह के साथ इनके बहुत अच्छे सम्बन्ध हो गये।
1841 में मुगल बादशाह ने इनकों हांसी और करनाल जिले के इलाकों का कानूनगो व प्रबन्धकर्त्ता नियुक्त किया। ये सात साल तक मुगल बादशाह के दरबार में रहे, फ़िर इलाके के प्रबन्ध के लिए हांसी लौट आये। इस बीच ब्रितानियों ने हरियाणा प्रांत को अपने अधीन कर लिया। हुकुमचंद जी ब्रिटिश शासन में कानूनगो बने रहे, पर इनकी भावनायें सदैव ब्रितानियों के विरुद्ध रहीं।
1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा तब लाला हुकुमचंद की देशप्रेम की भावना अंगडाई लेने लगी। दिल्ली में आयोजित देशभक्त्त नेताओं ने इस सम्मेंलन में, जिसमें तांत्या टोपे भी उपस्थित थे, हुकुमचंद जी उपस्थित थे। बहादुर शाह से उनके गहरे सम्बन्ध पहले से ही थे अत: इन्होंने ब्रितानियों के विरुद्ध युद्ध करने की पेशकश की। इन्होंने सबको विश्वास दिलाया की वे इस संग्राम में अपना तन मन और धन र्स्वस्व बलिदान करने को तैयार है। इनकी इस घोषणा से बहादुर शाह ने भी हुकुमचंद जी को विश्वास दिलाया कि वे अपनी सेना, गोला-बारुद तथा हर तरह की युद्ध सामग्री सहायता स्वरुप पहुँचायेगे। हुकुमचंद जी इस आश्वासन को लेकर हांसी आ गये।
हांसी पहुँचते ही इन्होने देशभक्त्त वीरों को एकत्रित किया और जब ब्रितानियों की सेना हांसी होकर दिल्ली पर धावा बोलने जा रही थी, तब उस पर हमला किया और उसे भारी हानि पहुँचाई। हुकुमचंद व इनके साथियो के पास जो युद्ध सामग्री थी वह अत्यंत थोडी थी, हथियार भी साधारण किस्म के थे, दुर्भाग्य से जिस बादशाही सहायता का भरोसा इन्होंने किया था वह भी नही पहुँची, फ़िर भी इनके नेतृत्व में जो वीरतापूर्ण संघर्ष हुआ वह एक मिशाल है। इस घटना से ये हतोत्साहित नहीं हुए, अपितु ब्रितानियों को परास्त करने के उपाय खोजने लगे।
लाला हुकुमचंद जी व उनके साथी मिर्जा मुनीर बेग ने गुप्त रुप से एक पत्र फ़ारसी भाषा में मुगल सम्राट को लिखा, (कहा जाता है कि यह पत्र खून से लिखा गया था) जिसमें उन्हें ब्रितानियों के विरुद्ध संघर्ष में पूर्ण सहायता का विश्वास दिलाया, साथ ही ब्रितानियों के विरुद्ध अपने घृणा के भाव व्यक्त्त किये थे और अपने लिये युद्ध सामग्री की मांग की थी। हुकुमचंद जी मुगल सम्राट के उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए हांसी का प्रबन्ध स्वयं सम्हालने लगे। किन्तु दिल्ली से पत्र का उत्तर ही नहीं आया। इसी बीच दिल्ली पर ब्रितानियों ने अधिकार कर लिया और मुगल सम्राट् गिरफ़्तार कर लिये गये।
15 नवम्बर 1857 को व्यक्तिगत फ़ाइलों की जांच के दौरान लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग के हस्ताक्षरों वाला वह पत्र ब्रितानियों के हाथ लग गया। यह पत्र दिल्ली के कमीश्नर श्री सी.एस. सॉडर्स ने हिसार के कमिश्नर श्री नव कार्टलैन्ड को भेज दिया और लिखा की - घ्इनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जाये।
पत्र प्राप्त होते ही कलेक्टर एक सैनिक दस्ते को लेकर हांसी पहुँचे और हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग के मकानों पर छापे मारे गये। दोनों को गिरफ़्तार कर लिया गया, साथ में हुकुमचंद जी के 13 वर्षीय भतीजे फ़कीर चंद को भी गिरफ़्तार कर लिया गया। हिसार लाकर इन पर मुकदमा चला, एक सरसरी व दिखावटी कार्यवाही के बाद 18 जनवरी 1858 को हिसार के मजिस्ट्रेट जॉन एकिंसन ने लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को फ़ांसी की सजा सुना दी। फ़कीर चंद को मुक्त कर दिया गया।
19 जनवरी 1858 को लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग़ को लाला हुकुमचंद के मकान के सामने फ़ांसी दे दी गई। क्रूरता और पराकाष्ठा तो तब हुई जब लाला जी के भतीजे फ़कीर चंद को, जिसे अदालत ने बरी कर दिया था, जबरदस्ती पकड़ कर फ़ांसी के तख्ते पर लटका दिया गया। ब्रितानियों की क्रोधाग्नि इतने से भी शान्त नहीं हुई। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिये ब्रितानियों ने इनके रिश्तेदारों को इनके शव अन्तिम संस्कार हेतु नहीं दिये गये, बल्कि इनके शवो को इनके धर्म के विरुद्ध दफ़नाया गया। ब्रितानियों ने लाला जी की सम्पत्ति को कौड़ियों के भाव नीलाम कर दिया था।
ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष अमर शहीद अमरचंद बांठिया ऐसे देशभक्त महापुरुषों में से थे, जिन्होंने 1857 के महासमर में जूझ कर क्रांतिवीरों को संकट के समय आर्थिक सहायता देकर मुक्ति-संघर्ष के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया।अमरचंद बांठिया में धर्मनिष्ठा, दानशीलता, सेवाभावना, ईंमानदारी, कर्तव्यपरायण्ता आदि गुण जन्मजात ही थे, यही कारण था कि सिन्धिया राज्य के पोद्धार श्री वृद्धिचंद संचेती, जो जैन समाज के अध्यक्ष भी थे, ने अमरचंद को ग्वालियर राज्य के प्रधान राजकोष गंगाजली के कोषालय पर सदर मुनीम ( प्रधान कोषाध्यक्ष ) बनवा दिया।
अमरचंद बांठिया इस खजाने के रक्षक ही नहीं ज्ञाता भी थे। सेना के अनेक अधिकारियों का आवागमन कोषालय में प्रायः होता रहता था। बंाठिया जी के सरल स्वभाव और सादगी ने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। चर्चा-प्रचर्चा में ब्रितानियों द्वारा भारतवासियों पर किये जा रहे अत्याचारों की भी चर्चा होती थी। एक दिन एक सेनाधिकारी ने कहा कि आपको भी भारत माँ को दासता से मुक्त कराने के लिये हथियार उठा लेना चाहिये। बंाठिया जी ने कहा- भाई अपनी शारिरीक विषमताओं के कारण में हथियार तो नहीं उठा सकता पर समय आने पर ऐसा काम करुंगा, जिससे क्रांति के पुजारियों को शक्ति मिलेगी और उनके हौसले बुलन्द हो जावेंगे।
तभी 1857 की क्रांति के समय महारानी लक्ष्मीबाई उनके सेना नायक राव साहब और तांत्या टोपे आदि क्रांतिवीर ग्वालियर के रणक्षेत्र में ब्रितानियों के विरुद्ध डटे हुए थे, परन्तु लक्ष्मीबाई के सैनिकों और ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों को कई माह से वेतन नहीं मिला था, न हि राशन पानी का समुचित प्रबन्ध हो सका था। तब बंाठिया जी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए क्रांतिकारियों की मदद की और ग्वालियर का राजकोष लक्ष्मीबाई के संकेत पर विद्रोहियों के हवाले कर दिया।
ग्वालियर राज्य में सम्बन्धित 1857 के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, राजकीय अभिलेखागार, भोपाल आदि में उपलब्ध है। डा. जगदीश प्रसाद शर्मा, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली के इन दस्तावेजों और अनेक सरकारी रिकोर्डों के आधार पर विस्तृत विवरण घ्अमर शहीदङ अमरचंद बांठिया पुस्तक में प्रकाशित किया है, जिसके अनुसार- 1857 में क्रांतिकारी सेना जो ब्रितानी सत्ता को देश से उखाड़ फ़ेंकने हेतु कटिबद्ध होकर ग्वालियर पहंुची थी, राशन पानी के अभाव में उसकी स्थिति बडी ही दयनीय हो रही थी। सेनाओं को महीनों से वेतन प्राप्त नहीं हुआ था। 2 जून 1858 को राव साहब ने अमरचंद बांठिया को कहा कि उन्हें सैनिकों का वेतन आदि भुगतान करना है, क्या वे इसमें सहयोग करेगे अथवा नहीं? तत्कालिन परिस्थितियों में राजकीय कोषाग़ार के अध्यक्ष अमरचंद बांठिया का निर्णय एक महत्त्वपूर्ण निर्णय था, उन्होंने वीरांगना लक्ष्मीबाई की क्रांतिकारी सेनाओ के सहायतार्थ एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया जिसका सीधा सा अर्थ उनके अपने जीवन की आहुति से था। अमरचंद बांठिया ने राव साहब के साथ स्वेच्छापूर्वक सहयोग किया तथा राव साहब प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ग्वालियर के राजकीय कोषागार से समूची धन राशि प्राप्त करने में सफ़ल हो सके। सेंट्रल इंडिया ऐजेंसी आफ़िस में ग्वालियर रेजीडेस्ंाी की एक फ़ाइल में उपलब्ध विवरण के अनुसार- 5 जून 1858 के दिन राव साहब राजमहल गये तथा अमरचंद बांठिया से गंगाजली कोष की चाबिया लेकर उसका दृश्यावलोकन किया। तत्पश्चात दूसरे दिन जब राव साहब बडे़ सवेरे ही राजमहल पहुंचे तो अमरचंद उनकी अगवानी के लिये मौजूद थे। गंगाजली कोष से धनराशि लेकर क्रांतिकारी सैनिकों को 5-5 माह का वेतन वितरित किया गया।
महारानी बैजाबाई की सेनाओ के सन्दर्भ में भी ऐसा ही एक विवरण मिलता है। जब नरबर की बैजाबाई की फ़ौज संकट की स्थिति में थी, तब उनके फ़ौजी भी ग्वालियर आकर अपने अपने घोडे तथा 5 महीने की पगार लेकर लौट गये। इस प्रकार बांठिया जी के सहयोग से संकट-ग्रस्त फ़ौजो ने राहत की सांस ली। अमरचंद बांठिया से प्राप्त धनराशि से बाकी सैनिकों को भी उनका वेतन दे दिया गया। हिस्ट्री आफ़ दी इंडियन म्यूटिनी, भाग दो के अनुसार भी अमरचंद बांठिया के कारण ही क्रांतिकारी नेता अपनी सेनाओ को पगार तथा ग्रेच्युटी के भुगतान के रुप में पुरस्कृत कर सके थे।उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 1857 की क्रांति के समय यदि अमरचंद बंाठिया ने क्रांतिवीरो की इस प्रकार आर्थिक सहायता न की होती तो उन वीरों के सामने कैसी स्थिति होती, इसकी कल्पना नही की जा सकती। क्रांतिकारी सेनाओं को काफ़ी समय से वेतन नही मिला था, उनके राशन पानी की भी व्यवस्था नही हो रही थी। इस कारण निश्चय ही क्रांतिकारियों के संघर्ष में क्षमता,साहस और उत्साह की कमी आती और लक्ष्मी बाई, राव साहब व तांत्या टोपे को संघर्ष जारी रखना कठिन पड जाता। यधपि बांठिया जी के साहसिक निर्णय के पीछे उनकी अदम्य देश भक्ति कि भावना छिपी हुई थी, परन्तु अंग्रेजी शब्दकोष में तो इसका अर्थ था देशद्रोह या राजद्रोह और उसका प्रतिफ़ल था सजा ए मौत।अमरचंद बांठिया से प्राप्त इस सहायता से क्रांतिकारियों के हौसले बुलंद हो गये और उन्होंने ब्रितानियों की सेनाओ के दांत खट्टे कर दिये और ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। बौखलाये हुए ह्यूरोज ने चारो ओर से ग्वालियर पर आक्रमण की योजना बनाई।
योजनानुसार ह्यूरोज ने 16 जून को मोरार छावनी पर पुरी शक्ति से आक्रमण किया। 17 जून को ब्रिगेडियर स्मिथ से राव साहब व तांत्या टोपे का कड़ा मुकाबला हुआ। लक्ष्मीबाई इस समय आगरा की तरफ़ से आये सैनिकों से मोर्चा ले रही थी। दूसरे दिन स्मिथ ने पूरी तैयारी से फ़िर आक्रमण किया। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी दो सहायक सहेलियों के साथ पुरुषों की वेश-भूषा की कमान संभाली। युद्ध निर्णायक हुआ, जिसमें रानी को संगीन गोली एवं तलवार से घाव लगे तथा उनकी सहेली की भी गोली से मृत्यु हो गयी। यधपि आक्रमणकर्त्ताओं को भी रानी के द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। किन्तु घावों से वे मुर्छित हो गई। साथियों द्वार उन्हें पास ही बाबा गंगादास के बगीचे में ले जाया गया, जहां वे वीरगति को प्राप्त हुई। शीघ्र ही उनका तथा सहेली का दाह संस्कार कर दिया गया।
लक्ष्मीबाई के इस गौरवमय ऐतिहासिक बलिदान के चार दिन बाद ही 22 जून 1858 को ग्वालियर में ही राजद्रोह के अपराध में न्याय का ढोग्ंा रचकर लश्कर के भीड़ भरे सर्राफ़ा बाजार में ब्रिगेड़ियर नैपियर द्वारा नीम के पेड से लटकाकर अमरचंद बांठिया को फ़ांसी दे दी गई।बांठिया जी की फ़ंासी का विवरण ग्वालियर राज्य के हिस्टोरिकल रिकार्ड में उपलब्ध दस्तावेज के आधार पर इस प्रकार है- जिन लोगों को कठोर दंड दिया गया उनमें से एक था सिन्धिया का खजांची अमरचंद बांठिया, जिसने विद्रोहियो को खजाना सांैप दिया था। बांठिया जी को सर्राफ़ा बाजार में नीम के पेड़ से टांगकर फ़ांसी दी गई और एक कठोर चेतावनी के रुप में उसका शरीर बहुत दिनों (3 दिन) तक वहीं लटकाये रखा गया।इस प्रकार इस जैन शहीद ने आजादी की मशाल जलाये रखने के लिए कुर्बानी दी, जिसका प्रतिफ़ल हम आजादी के रुप में भोग रहे हैं। ग्वालियर के सर्राफ़ा बाजार में वह नीम आज भी है। इसी नीम के नीचे अमरचंद बांठिया का एक स्टेच्यू हाल ही में स्थापित किया गया है।
ग़ुजरात में सरदार वल्लभभाई के पिता झवेर भाई उत्तर भारतजाकर स्वातंत्र्य संग्राम मे भाग ले चुके थे। ग़ुजरात के करीब-करीब सभी भागों में ब्रितानियों और उनकी शोषणकारी, अत्याचारी नीतियों के विरोध में प्रजा का गुस्सा अन्दर पनप रहा था। ब्रितानी अधिकारी जो ग़ुजरात पर निगाह रखे थे वे अपने विवरणों में कह चुके थे कि ग़ुजरात में आम जनता के विभिन्न तबकांे में रोष बढ़ता जा रहा था। सबमंे यह भावना बार-बार उठ रही थी कि ब्रितानियों के, अत्याचारों से मुक्त होना जरुरी है, और अब सहना कठिन है। सूरत के लोगों ने 1844 और 1848 में नमक की चुंगी पर भारी आंदोलन किया था। तीन दिनों तक यह आंदोलन चला था। ग़ुजरात के छोटे-मोटे राजा ब्रितानियों के साथ थे। ब्रितानियों की उनके साथ संधियाँ थी। प्रजा इन राजाओं से भी उकता गई थी। उत्तर भारत के लोग़ों ने, सेना के भारतीय सिपाहयों ने ब्रितानियों के सामने हथियार उठा लिए थे। इन समाचारों से गुजरात की आम जनता भी वि द्रोह के लिए तैयार को गई थी।
12. जोधा माणेक
13. बापू माणेक
14. भोजा माणेक
15. रेवा माणेक
16. रणमल माणेक
17. दीपा माणेक
सौराष्ट्र में ओखा मंडल के रुप में एक अच्छा खासा राज्य था। उसके बेट स्थान पर ब्रितानियों के साथ1803 के झगड़े में वहाँके राजा नाराणजी मारे गए। 1804 में यहाँ के वाघेरों ने ओखा के एक जहाज को लूट लया था। ब्रितानियों को बहुत क्रोध आया और उन्होनंे एक युद्ध जहाज को लड़ाई के लिए भेजा, पर कोई नतीजा नहीं निकला। ब्रितानी इन वाघेरों से लड़ाई करते रहे और अंत में इन प्रदेश को राजा गायकवाड़ को सौप दिया।
वाघेरों में पुराना अंसतोष तो था ही उत्तर भारत में ब्रितानियों को भगाने की बात यहाँ भी पहुँची और वाघेरों के राजा जोधा माणेक ने ब्रितानियों के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। ओखा मंडल के अनेक स्थानों पर लड़ाई शुरु हो गई। ब्रितानी फ़ौज उन्हें दबाने और मारने के लिए वाघेर लोग आस-पास के पहाड़ों और जंगलो में छिप गए। फ़िर 1848 में अलग- अलग गाँवों के वाघेर इकठ्ठा हुए। इन में जोधा माणेक, बापू माणेक, भोजा माणेक, रेवा माणेक, रणमल माणेक, दीपा माणेक आदि वीर उपस्थित थे। सबने निर्णय लिया कि लड़कर अपना प्रदेश जीत लेगें। ब्रितानियों की सेना ने अनेक बार आक्रमण किएपर वाघेरों पर विजय नहीं पा सकें। राजा गायकवाड़ ने उनसे सुलेह-संधि करनी चाही पर सुलेह नहीं हो सकी। मुलू माणेक ने द्वारका पर चढ़ाई की और जीत हासिल की। बेट द्वारका भी अगले सात दिनों में जीत लिया। इस तरह सारे ओखा मंडल पर वाघेरों का आधिपत्य स्थापित हो गया। ब्रितानी सेनाऔर गायकवाड़ हार गए थे।
नांदोद में 1857 में सैयद अली ने ब्रितानियों के सामने बगावत कर दी। उसने 300-400 लोगों को एकत्र कर लड़ाई शुरु कर दी। ब्रितानी सेना उन्हें दबाने के लिए भेजी गई पर सैयद अली अपने साथियों के साथ राजपीपला के जंगलों में चले गए।
डाकोर के ठाकुर सूरजमल ने लुणावाड़ा पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए 1857 में लुणावाड़ा के राजा पर आक्रमण कर दिया। राजा ने ब्रितानियों का सहारा लया। सूरजमल गोधरा के पास पाल गांव के ठाकुर कानदास के पास गया उसने उसे आश्रय दिया। ब्रितानी सेना ने सारे गांव पर आक्रमण कर उसे फ़ूँक डाला। इसी तरह खानपुर, कानोरिया, दुबारा गांवों के लोगों को आग लगा कर जला दिया। पंचमहल के संखेड़ा के नायकदास ने भी विद्रोह का झंडा उठाया और रुपानायक तथा केवल बेट्स की सेना पर आक्रमण कर दिया। इसमें मुसलमानों ने साथ दिया। उन्होने चांपानेर और नरुकोट के बीच के प्रदेश को मुक्त कर दिया। ब्रितानियों ने दो वषोर् के संघर्ष के पश्चात इनभीलों पर काबू पाया। भीलों, कोलियों और अन्य पिछड़ी जातियों की स्वतंत्रता की भावना की मशाल अंयत्र मिलना दुर्लभ है।
20. गरबड़दास
21. मगनदास वाणिया
22. जेठा माधव
23. बापू गायकवाड़
24. निहालचंद जवेरी
25. तोरदान खान
उत्तर भारत में क्रान्ति कि ज्वाला जल रही थी उसे व्यक्तिगत रुप से आणंद के गरबड़दास आर जीवाभाई ठाकोर ने, पाट्ण के मगनदास वाणिया ने, विजापुर के जेठा माधव ने, बड़ौदा के बापू गायकवाड़ और निहालचंद जवेरी ने, दाहोद के तोरदान खान, चुन्नीलाल, द्वारिकादास ने गुजरात में प्रजा के पास जाकर क्रान्ति प्रज्जवलित करने का प्रयास किया था। इन लोगों ने अंग्रेजों के विरोध में गाँव- गाँव में इकटठा होकर क्रान्ति की मशाल को प्रज्जवलित रखा, इससे कुपित होकर अंग्रेजों ने गुजरात के तकरीबन एक सौ गाँवों में आग लगाकर उन्हें नष्ट कर दिया था। 10 हजार से अधिक लोग इन संग्रामो में मारे गए थे। गुजरात के सामान्य किसानों ने, कारीगरों ने इन छोटी-छोटी पर महत्त्वपूर्ण लड़ाइयों मेंं अंग्रेजों के राज के प्रति अपनी घृणा, तिरस्कृति और व्यापक रोष को मुखरित किया। इस क्रान्ति की पहली ज्वाला में आदिवासी, किसान, सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई जातियों से लेकर समाज के उच्चतम वर्गों का सहयोग मिला था और क्रान्ति की पहली ज्वाला 1847 से 1865 तक चली थी। गुजरात में भी क्रान्ति की मशाल प्रज्जवलित हो उठी थी। विशेषतया आदिवासी गाँवों के उन किसानों, मजदूरों और कारीगरों को मारने में अंग्रेजों ने कोई कसर नहीं रखी, जिन्होनें अंग्रेजों के शासन के विरुद्ध आवाज उठाई थी।इन वनवासी आदिवासी विस्तारों में पालचितरिया और मानगढ़ की निर्दोष महिलाओं को उनके बालकों के साथ अंधाधुंध गोलियाँ चलाकर जान से मार डाला। इन निह्त्थों पर यह असह्य अत्याचार था। भारत के इतिहास में इनके बलिदानां की याद में स्मारकों की रचना होनी चाहिए। ताजापुर में भी ऐसा ही बलिदान, समर्पण की गाथा का स्मारक बनाया गया है।
दिल्ली से सोनीपत जाने वाली सड़क के मोड़ पर कुछ नौजवान इस प्रतीक्षा में खड़े थे कि यदि यहाँ से ब्रितानी लोग निकलें तो उनका शिकार किया जाए। वे 1857 की क्रांति के दिन थे और ब्रितानी लोग परिवार के साथ जहाँ सुरक्षित स्थान मिलता, वहाँ शरण लेते थे। सोनीपत में उन लोगों का कैंप लगा हुआ था और बहुधा ही इक्के-दुक्के ब्रितानी परिवार ऊँट-गाड़ियों में सवार होकर दिल्ली से सोनीपत ज़ाया करते थे।
इसी सड़क से थोड़ा हटकर लिबासपुर नाम का एक छोटा-सा गाँव था। इस गाँव में जाट लोग रहते थे। उदमीराम इसी गाँव के नौजवान थे। वह देखने में सुंदर और शरीर से पुष्ट थे उन्होंने अपने ही जैसे कसरती नौजवानों का एक दल बना रखा था और ब्रितानियों से बदला लेने के लिए जो खेल रचा था, वह यही था कि इक्के-दुक्के ब्रितानियों को पकड़-पकड़कर वे एकांत में जाकर उन्हें समाप्त कर दिया करते थे।
एक दिन जब उदमीराम और उनके साथी शिकार की प्रतीक्षा में थे तो एक ऊँट गाड़ी उन्हें आती दिखाई दी। उन्होंने गाड़ी को रोका। उसमें एक ब्रितानी दंपती था। उन लोगों ने ब्रितानी को तो एकांत मे जाकर समाप्त कर दिया, पर भारतीय आदेश के अनुसार उस ब्रितानी महिला को उन्होंने लिबासपुर गाँव में ले जाकर एक घर के अंदर बंद कर दिया और उनकी देखरेख के लिए एक ब्राह्मण जाति की महिला को नियुक्त कर दिया। ब्रितानी महिला को गाँव मे रखने का समाचार इधर-इधर फैलने लगा। पास के गाँव राठधना के एक निवासी सीताराम को जब इस घटना का पता चला तो वह युक्ति लगाकर लिबासपुर के उस घर तक पहुँच गए, जिसमें वह ब्रितानी महिला रखी गई थी। ब्रितानी महिला ने उस ब्राह्मण जाति की महिला और सीताराम से कहा कि यदि वे उन्हें सोनीपत के कैंप तक पहुँचा दें तो वह उन लोगों को बहुत से पुरस्कार दिलाएगी। रात होने पर उन लोगों ने एक बैलगाड़ी का प्रबंध करके उस ब्रितानी महिला को सोनीपत कैंप पहुँचा दिया।
वे दिन तो ब्रितानियों की पराजय के दिन थे। जब उनका पलड़ा भारी हुआ और दिल्ली तथा आस-पास के क्षेत्र पर उनका पुन: अधिकार हो गया तो उस ब्रितानी महिला की सूचना पर ब्रितानी सेना के एक दल ने लिबासपुर ग्राम को घेर लिया। उदमीराम और उनके साथियों ने सोचा कि समर्पण करके ब्रितानियों के हाथों फाँसी चढ़ने के स्थान पर यह अच्छा होगा कि हम लोग युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त करें। बात पक्की हो गई। उन लोगों के पास बंदूकें आदि तो थीं ही नहीं, सभी लोग ग्रामीण हथियार, जैसे बल्लम, भाले, फरसे, कुल्हाड़ियाँ और गँड़ा से लेकर ब्रितानी सेना पर टूट पड़े। जी-जान से युद्द किया। कुछ सैनिकों को मार गिराने में उन्होंने सफलता भी प्राप्त की, पर ग्रामीण हथियारों से वे सुसज्जित ब्रितानी सेना के सामने कब तक टिकते। उसमें भी कुछ लोग मारे गए और शेष गिरफ़्तार कर लिए गए।
ब्रितानी सैनिकों ने पूरे गाँव को लूटा और महिलाओं के गहने उतारे। कई गाड़ियों में भरकर वे लूट का माल ले गए। ब्रितानियों के भक्त, देशद्रोही सीताराम ने अपराधियों को पहचानने की भूमिका निभाई जिन व्यक्तियों को गिरफ़्तार किया गया था, उन्हें राई स्थान पर ब्रितानियों के कैंप में लाया गया और कुछ लोगों को पत्थर के नीचे तथा भारी-कोल्हुओं के नीचे दबा-दबाकर मार डाला गया। उदमीराम को एक पीपल के वृक्ष से बाँध दिया गया। जब तक वह जीवित रहे, उन्हें खाने-पीने को कुछ भी नहीं दिया गया। पैंतीस दिन तड़प-तड़पकर वीर उदमीराम के प्राण निकले। ब्रितानियों की नृशंसता और एक वीर के बलिदान का यह उदाहरण बेजोड़ है।
हिंडोरिया के ठाकुर किशोर सिंह और उनकी पत्नी के बीच वार्तालाप चल रहा था। चर्चा का विषय यह था कि क्या ठाकुर किशोर सिंह को ब्रितानियों के विरुद्ध हथियार उठाने चाहिए या नहीं। चर्चा का आरंभ करते हुए ठकुराइन ने कहा- हमारे क्षेत्र के सभी जागीरदारों ने ब्रितानियों के विरुद्ध हथियार उठाकर न केवल अपने शौर्य का प्रदर्शन किया है, अपितु मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन भी किया है। केवल आप ही हैं जो अभी तटस्थ हैं।
अपनी पत्नी के मंतव्य को समझते हुए ठाकुर किशोर सिंह ने कहां- मेरे तटस्थ रहने का सबसे बड़ा कारण यह रहा है कि अभी तक सहयोग के लिए मुझे किसी ने आमंत्रित ही नहीं किया।
इस पर उनकी पत्नी ने कहा- विवाहोत्सवों या इसी प्रकार के व्यक्तिगत आयोजनों में तो निमंत्रण भेजने की प्रथा होती है, लेकिन सार्वजनिक हित के कार्यों में तो व्यक्ति को अपनी ओर से ही सहयोग देना चाहिए। आप अपनी तटस्थता अभी भी भंग कर सकते हैं। आपको अकेले ही ब्रितानी सेना से जूझ पड़ना चाहिए।
ठाकुर किशोर सिंह ने यहीं किया। उन्होंने अपनी सेना को संगठित करके अपने ज़िले दमोह के मुख्यालय पर स्थित ब्रितानी सेना पर आक्रमण कर दिया। दमोह वर्तमान में मघ्य प्रदेश का एक जिला है। उस समय वह कंपनी सरकार के अंतर्गत था। ठाकुर किशोर सिंह की सेना ने 10 जुलाई, 1857 को ब्रितानी सेना को परास्त करके दमोह पर अघिकार कर लिया। दमोह के डिप्टी कमिश्नर को भागकर नरसिंह पुर में शरण लेनी पड़ी।एक छोटे से जागीरदार के हाथों पराजित होना ब्रितानी सेना के लिए बड़ी शर्मनाक धटना थी। इस पराजय का बदला लेने के लिए बहुत बड़ी सेना खड़ी की गई और 25 जुलाई, 1857 को आक्रमण करने ब्रितानी सेना ने दमोह को वापस अपने अधिकार में लेने में सफलता प्राप्त की। ब्रितानी सेना ने अब ठाकुर किशोर सिंह की जागीर हिंडोरिया पर आक्रमण किया। ठाकुर किशोर सिंह ब्रितानियों के हाथ नहीं लग सके। वे जंगल में निकल गए। वह नरसिंह जीवन-भर जंगल में ही रहे। ब्रितानियों से संधि करने की बात कभी उनके मन में नहीं आई। ठाकुरकिशोर सिंह के सहयोगी और किशनगंज के सरदार रघुनाथ राव ने ब्रितानी सेना के साथ युद्ध जारी रखा। अंततोगत्वा वे गिरफ़्तार कर लिए गए और ब्रितानियों ने उन्हें फाँसी के फंदे पर झुला दिया।
बिहार के पर्वतीय प्रदेश में संथाल जाति और ब्रितानी सेना के बीच भयंकर लड़ाई चल रही थी। संथाल लोग अपनी भूमि को ब्रितानियों से मुक्त कराने के लिए लड़ रहे थे और ब्रितानी लोग संथाली विद्रोहियों को कुचलकर पर्वतीय प्रदेश को अपने अधिकार में लेने के लिए लड़ रहे थे संथाली विद्रोहियों के नेता थे तिलका माँझी और ब्रितानी सेना का संचालन कर रहा था ब्रितानी मजिस्टे्रट क्लीललैंड।ब्रितानी सेना कितनी दूर है, यह देखने के लिए वह बहुत ऊँचे ताड़ के वृक्ष पर चढ गया। उस समय ब्रितानी सेना पास ही झाड़ियों में छिपी हुई थी। क्लीवलैंड ने तिलका माँझी को ताड़ के वृक्ष पर चढ़ा हुआ देख लिया। स्थिति का लाभ उठाने के लिए वे घोड़े पर चढकर ताड़ के वृक्ष की ओर लपक पड़े। उनका इरादा था कि विद्रोही तिलका को या तो जीवित गिरफ़्तार कर लिया जाए या उन्हें मार दिया जाए। उन्होंने अपनी टुकड़ी को भी पीछे आने के लिए कहा। ताड़ वृक्ष के नीचे पहुँचकर क्लीवलैंड ने ललकारकर कहा- तिलका तुम अपना धनुष-बाण दो और वृक्ष से नीचे उतरकर हमारे सामने समर्पण कर दो।
वीर तिलका ने अपनी जाँघों में ताड़ वृक्ष को दबाकर अपने दोनों हाथ मुक्त कर लिए और कंधे पर टँगा घनुष उतारकर एक तीर क्लीवलैंड को निशाना बनाकर छोड़ दिया। तिलका का तीर क्लीवलैंड की छाती में गहरा घुस गया। वह घोड़े से गिरकर छटपटाने लगे। इस बीच तिलका फुर्ती के साथ उतरे और ब्रितानी सेना के आने के पहले जंगल में विलीन हो गए।
ब्रितानी सेना जब घटनास्थल पर पहुँची तो उसे अपने अफ़सर का शव ही हाथ लगा। तिलका माँझी छापामार युद्ध का सहारा लेकर ब्रितानी सेना के साथ युद्ध करते हुए मुंगेर, भागलपुर और परगना की चप्पा-चप्पा भूमि को रौंद रहे थे।
ब्रितानी सेना ने सर आर्थर कूट के नेतृत्व में तिलका को फँसाने के लिए अपनी चालाकी का जाल बिछाया। सेना ने कुछ दिन के लिए बिद्रोहियों का पीछा करना बंद कर दिया। तिलका और उनके साथियों ने सोचा कि ब्रितानी सेना निराश होकर पलायन कर गई है। विद्रोही संथाल विजयोत्सव मनाने में लीन हो गए। रात्रि को खीब नृत्य गान हुआ। जिस समय संथाल विजयोत्सव मनाने में लीन हो गए। रात्रि को छिपी हुई ब्रितानी फ़ौज ने उन लोगों पर ज़ोरदार आक्रमण कर दिया। बहुत से संथाली वीर या तो मारे गए या बंदी बना लिए गए। बड़ी मुश्किल से उनके नेता तिलका माँझी और उनके कुछ साथी निकलने में सफल हो गए। वह पर्वत श्रृंखला में छिप-छिप कर युद्ध करने लगे।
निरंतर पीछा होने के कारण तिलका के साथियों की संख्या कम होती जा रही थी। उन्हें खाद्य सामग्री भी नहीं मिल रही थी। तिलका और उनके बचे हुए साथी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भूख से मरने के स्थान पर तो आमने-सामने युद्ध में मरना अच्छा रहेगा।
दृढ़ संकल्पी तिलका और उनके साथी एक दिन ब्रितानी सेना पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध हुआ। संथाल विद्रोहियों ने बहुत से ब्रितानी सैनिकों को मार गिराया। जनहानि उठाकर भी ब्रितानी लोग तिलका को गिरफ़्तार करने में सफल हो गए। अपनी हानि और पराजयों का बदला लेने के लिए ब्रितानी सेना ने वीर तिलका को एक वट वृक्ष से लटकाकर फाँसी दे दी। अपने प्रदेश की आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए वीर तिलका माँझी स्वाधीनता संग्राम का पहला शहीद माने जाएँगे। उसके कार्यकाल के नब्बे वर्ष पश्चात् सन् 1857 का स्वाघीनता संग्राम छिड़ा।
तिलका माँझी का जन्म बिहार के आदिवासी परिवार में तिलकपुर में हुआ था। बचपन से ही तीर चलाने, जंगली का शिकार करने, नदियों को पार करने और ऊँचे-ऊँचे वृक्षों पर चढ़ने में कुशल हो गए थे। वह ब्रितानियों चरा अपनी जाति का शोषण सहन नहीं कर पाते थे। उन्होंने संकल्प कर लिया था कि वह ब्रितानियों के साथ युद्ध करेंगे। वीर तिलका ने अपने संकल्प को पूरा करने के लिए आज़ादी की बलिवेदी पर अपने प्राणों की भेंट चढ़ा दी।
जबलपुर के उत्तर में उस समय एक जागीर थी, जिसका नाम विजयराघवगठ था। पहले विजयराघवगठ और मैहर एक ही शासक के अधीन थे। जब जागीर का बँटवारा दो भाइयों में हुआ तो एक को मैहर और दूसरे को विजयराघवगठ मिला। विजयराघवगठ के जागीरदार की मृत्यु हो जाने पर कंपनी सरकार ने रियासत को प्रतिपाल्य अधिनियम (कोर्ट ऑफ वार्डस) के अंतर्गत लेकर वहाँ कंपनी सरकार का एक तहसीलदार नियुक्त कर दिया। यह व्यवस्था इसलिए की गई, क्योंकि रियासत के उत्तराधिकारी सर जू प्रसाद सिंह की अवस्था उस समय केवल पाँच वर्ष की थी।
सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय बालक सरजू प्रसाद सिंह सत्रह वर्ष के तरुण हो चुके थे। वह क्रांतिकारी स्वभाव के किशोर थे और ब्रितानियों से उन्हें घृणा थी। अपने अघ्ययन काल में उन्होंने तलवार व बंदूक चलाना अच्छी तरह सीख लिया था और उन्हें घुड़सवारी में महारत हासिल हो गई थी। उनमें नेतृत्व के गुण भी स्पष्ट रूप से दिखाई देते थे।
तरुण सरजू प्रसाद सिंह ने आस-पास के जागीरदारों को मिलाकर तीन हज़ार प्रशिक्षित सैनिकों की एक सेना खड़ी कर ली। विद्रोह के पथ पर जो पहला काम उन्होंने किया, वह यह था कि कंपनी सरकार द्वारा नियुक्त तहसीलदार को मारकर उन्होंने रियासत का प्रशासन प्रबल रूप से अपने हाथ में ले लिया। दूसरा काम जो उन्होंने किया, वह यह था कि कंपनी सरकार की घुड़सवार सेना पर अघिकार करने सवारों को मारकर भगा दिया और उनके स्थान पर अपने घुड़सवार नियुक्त कर दिए ।
सरजूप्रसाद सिंह की संगठित सेना को खतरा यह था कि मिर्जापुर मार्ग से आकर ब्रितानी सेना उन पर आक्रमण कर सकती थी। उन्होंने मिर्जापुर सड़क पर अपना अघिकार करके इस खतरे को भी दूर कर दिया ।
ब्रितानी सेना के कैप्टन ऊले के नेतृत्व में 30 अकटुबर 1857 को एक सेना ठाकुर सरतबप्रसाद सिंह से मुकाबला करने के लिए भेजी गई। उस सेना की सहायता के लिए 4 नवंबर को मेजर सुलीव्हान के नेतृत्व में भी एक सेना भेजी गई। सरजूप्रसाद सिंह की सेना ने उन दोनों ब्रितानी सेनाओं को छिन्न-भिन्न करके उनके हथियार लूट लिये। इस संयुक्त सेना को तहस-नहस करने के पश्यात् सरजूप्रसाद सिंह की सेना ने 6 नवंबर को मुरवाड़ा के समीप एक ब्रितानी सेना पर आक्रमण कर दिया। घायल होकर सेनापति टोटलहम भाग निकला ।
अपनी इन निरंतर पराजयों से खिन्न होकर ब्रितानियों ने एक विशाल सेना 14 नवंबर को जबलपुर से भेजी। इस सेना के मेजर जानकिंग के मारे जाने के कारण सेना स्वयं ही भाग ख़डी हुई। इसके पश्चात् एक और विशाल सेना जबलपुर से ही कैप्टेन ऊले के नेतृत्व में विद्रोहियों का दमन करने के लिए भेजी गई। इस सेना का सामना सरजूप्रसाद सिंह के सहयोगी ठाकुर देवी सिंह ने किया। वे पराजित होकर गिरफ्तार हो गए। ब्रितानियों ने अपनी सहायता के लिए रीव नरेश की सेना बुलवाई। बड़ी मुश्किल से रीवा और कंपनी सरकार की संयुक्त सेना विद्रोह का दमन कर सकी। सरजूप्रसाद सिंह को कई वर्ष बाद ब्रितानी सेना गिरफ्तार कर सकी।
ठाकुर देवी सिंह को फाँसी का दंड दिया गया और सरजूप्रसाद सिंह को आजीवन कारावास। उन विद्रोही तरूण सरजूप्रसाद सिंह ने जीवन-भर जेल की कोठरियों में सड़ने के स्थान पर जीवन-मुक्ति का उपाय अपनाया। एक दिन उन्होंने पेट में कटार मारकर आत्मबलिदान का पथ अपना लिया।
रूइया नाम के एक छोटे से किले के रक्षक-एक छोटे से जमींदार नरपतिसिंह ने जब सुना कि वालपोल जैसे इतिहास प्रसिद्ध सेनापति के नेतृत्व में विशाल और सुसज्जित ब्रितानी सेना उनके किले को तहस-नहस करने पहुँच रही है, तो वह भी राजपूती शान से प्रतिज्ञा कर बैठा- अपनी मुठी-भर सेना के बल पर यदि एक बार ब्रितानियों की विशाल सेना और उसके सेनापति वालपोल के दाँत खट्टे करके खदेड़ न दिया तो मैं क्षत्रिय ही क्या।
प्रतीज्ञा सचमुच ही बहुत कड़ी और असम्भव थी। उधर जब वालपोल ने नरपतिसिंह की प्रतीज्ञा सुनी तो वह भी कह बैठा- उस छिछोरे जमींदार की इतनी हिम्मत जो मुझे नीचा दिखाने के लिए प्रतीज्ञा करे। मैं उसे पीसकर ही दम लूँगा ।
तीखी-नोक दोनों ओर से बढ गई। नरपतिसिंह ने अपनी बात वालपोल तक पहँचाने के लिए एक युक्ति से काम लिया। कुछ गोरे सैनिक उनके किले में कैद थे उनमें से उन्होंने एक गोरे कैदी को कैद से मुक्त कर दिया और उसे समझा दिया कि वह जनरल वालपोल से कह दे कि नरपतिसिंह ने क्या प्रतीज्ञा की है। उस गोरे सैनिक ने जनरल को सबकुछ बता दिया। क्रांतिकारी सेना के संबंध में जानकारी देते हुए उन्होंने बताया कि नरपतिसिंह के पास कुल मिलाकर ढाई सौ सैनिकों से अधिक नहीं है। जनरल वालपोल के नेतृत्व में तो कई हजार सैनिक थे और उसके पास विशाल तोपखाना भी था। उन्होंने सोचा कि उस छोटे से जमींदार और उसके ढाई सौ सैनिकों को पीसकर रख दूँगा।
क्रोध और आवेश में आकर जनरल वालपोल ने अपनी सेना से कहा नरपतिसिंह के पास दो हजार सैनिक हैं। क्या तुम उनसे निबटने की क्षमता रखते हो? सेना की गवोंक्ति थी -दो हजार हों तो भी हम उनको पीसकर रख देंगे। वालपोल ने सोचा -जब ये लोग चार हजार सैनिकों को पीसकर रख देने का दम भरते हैं तो केवल ढाई सौ सैनिकों को तो ये पलक झपकते ही समाप्त कर देंगे। उन्होंने यहाँ तक सोचा कि जब तक मेरी सेना रुइया किले तक पंहुचेगी, तब तक तो नरपतिसिंह पीठ दिखाकर भाग चुकेगा।
वालपोल की सेना रुइया किले तक पहुँच गई। उन्होंने किले को चारों ओर से घेर लिया। किले की दीवार के ठीक नीचे तक ब्रितानी सेना पहुँच गई। किले की खाई के पास ब्रितानी सेना का जमाव अघिक था। गोलियों का आदान-प्रदान प्रारंभ हो गया। नरपतिसिंह के सैनिकों ने शत्रु सेना के जमाव के स्थान पर ही भयंकर गोलीवर्षा की। देखते-ही-देखते छियालीस गोरे सैनिक मारे गए। गोलियों की इस तीखी मार से घबराकर ब्रितानी तोपों ने गोले दागने का काम प्रांरभ कर दिया। वे गोले किले की दीवारों से टकराकर ब्रितानी सैनिकों पर ही गिरने लगे, जो दीवार के नीचे तक पहुँच गए थे। अब जनरल होपग्रंट भी जनरल वालपोल की सहायता के लिए अपनी सेना सहित पहुँच गया। नरपतिसिंह और अघिक भयानक युद्ध करने लगे। उनकी कोघ्र की अग्नि में जनरल होरग्रंट भस्म हो गया। ब्रितानी सैनिक होलों की तरफ भूजे जा रहे थे। उन्हें पटापट-पटापट गिरते देखकर ब्रितानी सेना के सामने पीछे हटने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। पराजित होकर ब्रितानी सेना पीठ दिखा गई।
नरपतिसिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दिखाई। ब्रितानी सेना के पलायन के पश्चात् अपने वीर सैनिकों को साथ लेकर वह स्वयं किला छोड़कर चले गये। 1857 की रक्तिम क्रांति में उन्होंने अपनी वीरता और आन-बान का एक अध्याय जोड़ दिया।
वर्तमान मध्य प्रदेश के रायपुर नगर के चौराहे पर जय-स्तम्भ बना हुआ है, जो आज भी प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में शहीद हुए असंख्य शहीदों की कीर्ति की कहानी की स्मृति को ताजा कर देता है। इसी स्थान पर 10 सितम्बर, 1857 ई. को अमर शहीद वीर नारायण सिंह को खुले आम फाँसी की सजा दी गई थी। अतः यह स्तम्भ आदिवासी महावीर नारायण सिंह के अद्भूत शौर्य का उद्घोषक भी है।
वीर नारायण सिंह आदिवासी क्षेत्र सोनाखान के जमींदार थे। उनके पिता का नाम श्री रामसहाय था, जिनमें वीरता, देशभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा एवं जनमंगल आदि गुण कूट-कूटकर भरे हुए थे। वीर नारायण सिंह को उनके पिता के गुण विरासत में प्राप्त हुए थे।
वीर नारायण सिंह ने 1830 ईं. में जमींदारी की बागडोर अपने हाथ में ली। इस पद पर कार्य करते हुए उन्होंने निर्भीकता एवं जनहित होने का परिचय दिया।
1856 ई. का कार्य सोनाखान की जमींदारी के लिए अभिशाप का वर्ष सिद्ध हुआ। इस वर्ष इस क्षेत्र में वर्षा नहीं होने से अकाल पड़ गया। लोग पीने के पानी के लिए तरस गए। धान का भण्डार कहा जाने वाला क्षेत्र भयंकर सूखा का शिकार हो गया।
सोनाखान के लोगों ने करोंद गाँव के एक व्यापारी से खेतों में बोने और खाने के लिए अनाज उधार देने के लिए प्रार्थना की, परन्तु उसने इन्कार कर दिया। तत्पश्चात् वहाँ के लोगों ने इस सम्बन्ध में अपने लोकप्रिय जमींदार वीर नारायण सिंह से प्रार्थना की। वीर नारायण सिंह ने अकाल पीड़ितों की सहायता करने हेतु उस व्यापारी से कहा, परन्तु उसने झूठ बोलकर बहाना बनाते हुए सहायता देने से इन्कार कर दिया।
इस पर वीर नारायण सिंह ने अपने कर्मचारियों को आदेश देकर व्यापारी का अन्न भण्डार खुलवाकर लोगों को अन्न बँटवा दिया और रायपुर के अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर को अपने इस कार्य के सम्बन्ध में सूचित कर दिया। उधर उस व्यापारी ने रायपुर के डिप्टी कमिश्नर के पास यह शिकायत की कि जमींदार वीर नारायण सिंह ने उसके घर पर डाका डालकर उसका सब कुछ लूट लिया है।
रायपुर का डिप्टी कमिश्नर वीर नारायण सिंह की जमींदार हड़पने और उन्हें दण्डित करने का अवसर ढूँढ रहा था। अतः उसने वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। जब वे तीर्थयात्रा से लौट रहे थे, तब उन्हें 24 अक्टूबर, 1956 ई. को बन्दी बना लिया गया और उन्हें रायपुर की जेल में डाल दिया गया। इस घटना से सोनाखान की जनता में बगावत की भावना प्रबल हो उठी।
धर प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम प्रारम्भ हो जाने के कारण जगह-जगह पर लड़ाईयाँ होने लगीं। नारायण सिंह रायपुर की जेल में बन्दी होने के कारण बैचेन थे, परन्तु वे इस मौके पर कुछ कर दिखाने के लिए बैचेन थे। उन्होंने उपने ऊपर तैनात तीसरी रेजीमेण्ट के पहरेदारों को अपनी ओर मिला लिया और जेल से भाग गए। शेर पिंजड़े से भाग चुका था और अंग्रेज सरकार हाथ मलती रह गई।
जेल से भागकर वीर नारायण सिंह अपने गाँव सोनाखान पहुँचे और ब्रितानीयों के विरूद्ध युद्ध की तैयारियाँ प्रारम्भ कर दीं। सर्वप्रथम उन्होंने अपने गाँव में आने-जाने वाले रास्तों पर अवरोध खड़े कर दिए और वहाँ सशस्त्रों से सुसज्जित एक विशाल सेना तैयार कर ब्रितानीयों के विरूद्ध संघर्ष करने हेतु तैयार हो गए। इसके अतिरिक्त उन्होंने आसपास के जमींदारों को भी साथ देने के लिए निमन्त्रण भेज दिए। रायपुर के कमिश्नर मि. इलियट ने लेफ्टिनेन्ट स्मिथ को आदेश दिया कि वह नारायण सिंह पर आक्रमण करके उन्हें बन्दी बना ले। स्मिथ ने एक विशाल सेना के साथ सोनाखान की ओर प्रस्थान किया। कुछ गद्दार जमींदार भी अपनी सेनाएँ लेकर स्मिथ के साथ हो लिए।
लेफ्टिनेन्ट स्मिथ ने अपनी सेना के साथ नवंबर, 1857 ई. को रायपुर के लिए प्रस्थान किया। नारायण सिंह के एक गुप्तचर ने स्मिथ की सेना को भटका दिया, जिससे वह ग़लत स्थान पर पहुँचा। अगले दिन स्मिथ को मालूम हुआ कि नारायण सिंह ने अपने गाँव के रास्ते में एक ऊँची दीवार बनाकर मार्ग को अवरुद्ध किया है और वह अँग्रेज़ों से संघर्ष हेतु पूर्ण रूप से तैयार है।
स्थिम ने करोंदी गाँव में अपना पड़ाव डालकर अपनी शक्ति में वृद्धि करके अचानक आक्रमण करने का निश्चय किया। उसने कटंगी, बड़गाँव एवं बिलाईगढ़ के ज़मीदारों को सेना सहित अपनी सहायता के लिए बुलाया। उसने नारायण सिंह के गाँव सोनाखान की ओर जाने वाले सारे रास्ते बंद कर दिए, ताकि वहाँ के लोगों को रसद एवं अन्य सामग्री प्राप्त न हो सके। स्मिथ के बिलासपुर से भी सहायता सेना की प्रार्थना की, परंतु उसे वहाँ से कोई सहायता प्राप्त नहीं हो सकी। इस पर रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने उसके पास अतिरक्ति सेना भेज दी। इसी समय कटंगी, बड़गाँव तथा बिलाईगढ़ के जमींदार भी अपनी सेनाओं को लेकर स्मिथ की सहायता के लिए पहुँच गए।
लेफिटनेन्ट स्मिथ ने सेना के साथ नीमतल्ला से देवरी के लिए प्रस्थान किया और अपने सहायकों को नाकाबंदी करने का आदेश दिया। नारायण सिंह के एक दूसरे गुप्तचर ने स्मिथ को मार्ग से भटका कर ग़लत स्थान पर पहुँचा दिया। बड़ी मुश्किल से वह 30 नवंबर को देवरी पहुँचा। सोनाखान से देवरी की दूरी 10 मील थी। देवरी के ज़मीदार रिश्ते में नारायण सिंह के काका थे, परंतु पारिवारिक वैमनस्यता के कारण वह स्मिथ की मदद करने के लिए तैयार हो गया।
स्मिथ ने देवरी के जमींदार के निर्देश में अपनी सेना को आगे बढ़ाया और वह सोनाखान से तीन मील दूरी तक पहुँच गई। जिधर अवरोध अधूरा रह गया था, उस रास्ते वह गद्दार जमींदार सेना को लेकर गया।
इधर वीर नारायण सिंह और स्मिथ सेनाओं के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया और वीर नारायण सिंह ने अपने गाँव सोनाखान को खाली कर दिया और कुछ चुने हुए यौद्धाओं को लेकर पहाड़ पर जा पहुँचा और वहाँ तगड़ी मोर्चाबंदी कर ली। उन्होंने अपने पुत्र तथा परिवार के अन्य लोगों को सोनाखान से बाहर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया।
अगले दिन स्मिथ सोनाखान गाँव पहुँचा, जो खाली हो चुका था। उसने पूरे गाँव में आग लगवा दी। रात को पहाड़ से स्मिथ की सेना पर गोलियों की बौछार शुरू हो गई। विवश होकर जान बचाने के लिए स्मिथ को पीछे हटना पड़ा।
प्रथम युद्ध में नारायण सिंह ने स्मिथ को सेना सहित पीछे हटने के लिए विवश कर दिया। अब स्मिथ ने और सेना एकत्रित करके पूरे पहाड़ को चारों ओर से घेर लिया। पहाड़ पर रसद सामग्री नहीं पहुँच सकती थी। देवरी का जमींदार (नारायण सिंह का काका) स्मिथ को सारी गुप्त सूचनाएँ दे रहा था। नारायण सिंह ने निरपराध लोगों की बलि देने स्थान पर स्वयं के प्राण देकर अपने साथियों की प्राण रक्षा करने का निश्चय किया। 5 दिसंबर, 1857 ई. को नारायण सिंह ने रायपुर पहुँच कर वहाँ के डिप्टी कमिश्नर मि. इलियट के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। उस देशभक्त के लिए अँग्रेज़ों के पास एक ही पुरस्कार था और वह था-फाँसी का फँदा।
वीर नारायण सिंह 10 दिसंबर, 1857 ईं. को चौराहे पर खुलेआम लोगों के सामने फाँसी पर लटका दिया गया। रायपुर के उस चौराहे पर खड़ा हुआ जय स्तंभ आज भी इस बलिदानी की वीरता एवं देशभक्ति की गाथा को ताजा कर देता है।
सन् 1857 की रक्तिम क्रांति के समय दिल्ली के बीस मील पूर्व में जाटों की एक रियासत थी। इस रियासत के नवयुवक राजा नाहरसिंह बहुत वीर, पराक्रमी और चतुर थे। दिल्ली के मुगल दरबार में उनका बहुत सम्मान था और उनके लिए सम्राट के सिंहासन के नीचे ही सोने की कुर्सी रखी जाती थी। मेरठ के क्रांतिकारियों ने जब दिल्ली पहुँचकर उन्हें ब्रितानियों के चंगुल से मुक्त कर दिया और मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को फिर सिंहासन पर बैठा दिया तो प्रश्न उपस्थित हुआ कि दिल्ली की सुरक्षा का दायित्व किसे दिया जाए? इस समय तक शाही सहायता के लिए मोहम्मद बख्त खाँ पंद्रह हजार की फौज लेकर दिल्ली चुके थे। उन्होंने भी यही उचित समझा कि दिल्ली के पूर्वी मोर्चे की कमान राजा नाहरसिंह के पास ही रहने दी जाए। बहादुरशाह जफर तो नाहरसिंह को बहुत मानते ही थे।
ब्रितानी दासता से मुक्त होने के पश्चात् दिल्ली ने 140 दिन स्वतंत्र जीवन व्यतित किया। इस काल में राजा नाहरसिंह ने दिल्ली के पूर्व में अच्छी मोरचाबंदी कर ली। उन्होंने जगह-जगह चौकियाँ बनाकर रक्षक और गुप्तचर नियुक्त कर दिए। ब्रितानियों ने दिल्ली पर पूर्व की ओर से आक्रमण करने का कभी साहस नहीं दिखाया। 13 सितंबर 1857 को ब्रितानी फौज ने कश्मीरी दरवाजे की ओर से दिल्ली पर आक्रमण किया। ब्रितानियों ने जब दिल्ली नगर में प्रवेश किया तो भगदड़ मच गई। बहादुरशाह जफर को भी भागकर हुमायूँ के मकबरे में शरण लेनी पड़ी। नाहरसिंह ने सम्राट बहादुरशाह से वल्लभगढ चलने के लिए कहा, पर सम्राट के ब्रितानी भक्त सलाहकार इलाहिबख्श ने एक न चलने दी और उन्ही के आग्रह से बहादुरशाह हुमायूँ के मकबरे में रुक गए। इलाहिबख्श के मन में बेईमानी थी। परिणाम वही हुआ जो होना था। मेजर हडसन ने बहादुरशाह को हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया और उनके शाहजादों का कत्ल कर दिया। नाहरसिंह ने बल्लभगठ पहुँचकर ब्रितानी फौज से मोरचा लेने का निश्चय किया। उन्होंने नए सिरे से मोरचाबंदी की और आगरा की ओर से दिल्ली की तरफ बढनेवाली गोरी पलटनों की धज्जियाँ उड़ा दी। बल्लभगढ़ के मोर्चे में बहुत बड़ी संख्या में ब्रितानियों का कत्ल हुआ और हजारों गोरों को बंदी बना लिया गया। इतने अघिक ब्रितानी सैनिक मारे गए कि नालियों में से खून बहकर नगर के तालाब में पहुँच गया और तालाब का पानी भी लाल हो गया।
जब ब्रितानियों ने देखा कि नाहरसिंह से पार पाना मुश्किल है तो उन्होंने धूर्तता से काम लिया। उन्होंने संधि का सूचक सफेद झंड़ा लहरा दिया। युद्ध बंद हो गया। ब्रितानी फौज के दो प्रतिनिधि किले के अंदर जाकर राजा नाहरसिंह से मिले और उन्हें बताया कि दिल्ली से समाचार आया है कि सम्राट बहादुरशाह से ब्रितानियों की संधि हो रही है और सम्राट के शुभचिंतक एवं विश्वासपात्र के नाते परार्मश के लिए सम्राट ने आपको याद किया है। उन्होंने बताया कि इसी कारण हमने संधि का सफेद झड़ा फहराया है।
भोले-भाले जाट राजा धूर्त ब्रितानियों की चाल में आ गये। अपने पाँच सौ विश्वस्त सैनिकों के साथ वह दिल्ली की तरफ चल दिए। दिल्ली में राजा को समाप्त करने या उन्हें गिरफ्तार करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में पहले ही ब्रितानी फौज छिपा दी गई थी। राजा का संबंघ उनकी सेना से विच्छेद कर दिया और राजा नाहरसिंह को गिरफ्तार कर लिया। शेर ब्रितानियों के पिंजरे में बंद हो गया। अगले ही दिन ब्रितानी फौज ने पूरी शक्ति के साथ वल्लभगढ पर आक्रमण कर दिया। तीन दिन के घमासान युद्ध के पश्चात ही वे राजाविहीन राज्य को अपने आधिपत्य में ले सके।
जिस हडसन ने सम्राट बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार किया था उनके शहजादों का कत्ल करके उनका चुुल्लू भरकर खून पिया था, वही हडसन बंदी नाहरसिंह के सामने पहुँचा और ब्रितानियों की ओर से उनके सामने मित्रता का प्रस्ताव रखा। वह नाहरसिंह के महत्व को समझ सकता था। मित्रता का प्रस्ताव रखते हुए वह बोला- नाहरसिंह मैंैं आपको फाँसी से बचाने के लिए ही कह रहा हूँ कि आप थोड़ा झुक जाओ। नाहरसिंह ने हडसन का अपमान करने की दृष्टि से उनकी ओर पीठ कर ली और उत्तर दिया- नाहरसिंह वह राजा नहीं है जो अपने देश के शत्रुओं के आगे झुक जाए। ब्रितानी लोग मेरे देश के शत्रु हैं। मैं उनसे क्षमा नहीं माँग सकता। एक नाहरसिंह न रहा तो क्या, कल लाख नाहरसिंह पैदा हो जाएँगे। मेजर हडसन इस उत्तर को सुनकर बौखला गया। बदले की भावना से ब्रितानियों ने राजा नाहरसिंह को खुलेआम फाँसी पर लटकाने की योजना बनाई। जहाँ आजकल चाँदनी चौक फव्वारा है, उसी स्थान पर वधस्थल बनाया गया, जिससे बाजार में चलने-फिरने वाले लोग भी राजा को फाँसी पर लटकता हुआ देख सकें। उसी स्थान के पास ही राजा नाहरसिंह का दिल्ली स्थित आवास था। ब्रितानियों ने जानबुझकर राजा नाहरसिंह को फाँसी देने क लिए वह दिन चुना, जिस दिन उन्होंने अपने जीवन के पैंतीस वर्ष पूरे करके छतीसवें वर्ष में प्रवेश किया था। राजा ने फाँसी का फंदा गले में डालकर अपना जन्मदिन मनाया। उनके साथ उनके तीन और नौजवान साथियों को भी फंदों पर झुलाया गया। वे थे खुशालसिंह, गुलाबसिंह और भूरेसिंह। दिल्ली की जनता ने गर्दन झुकाए हुए अश्रुपूरित नयनों से उन लोकप्रिय एवं वीर राजा को फंदे पर लटकता हुआ देखा।
फाँसी पर झुलाने के पूर्व हडसन ने राजा से पूछा था - आपकी आखिरी इच्छा क्या है? राजा का उत्तर था - मैं तुमसे और ब्रितानी राज्य से कुछ माँगकर अपना स्वाभिमान नहीं खोना चाहता हूँ। मैं तो अपने सामने ख़डे हुए अपने देशवासियों से कह रहा हूँ क्रांति की इस चिनगारी को बुझने न देना।
सआदत खाँ शरीर और मन दोनों से ही बलिष्ठ थे। वह देखने में भी निहायत ख़ूबसूरत थे। उनके पूर्वज जोधपूर और दिल्ली के बीच के क्षेत्र मेवात के निवासी थे। आजीविका की खोज में सआदत खाँ इंदौर राज्य में जा पहुँचे। उस समय इंदौर में तुकोजीराव होलकर शासक थे। सआदत खाँ की योग्यता से प्रभावित होकर उन्होंने उन्हें अपने तोपख़ाने का प्रमुख तोपची नियुक्त कर दिया।
सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम छिड़ने पर सआदत खाँ की देशभक्ति ने ज़ोर मारा वह अपने मादरें-वतन को फ़िरंगियों से आज़ाद करने के लिए उतावला हो उठे। सआदत खाँ की पहली वफ़ादारी अपने होलकर राज्य के प्रति थी। अपने एक फ़ौजी अधिकारी वंश गोपाल के साथ सआदत खाँ ने महाराज की बातचीत और उनके व्यवहार से उन लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि महाराज की सहानुभूति उन लोगों के साथ है।
महाराज तुकोजीराव होलकर से भेंट करने के पश्चात् सआदत खाँ ने सैनिकों को एकत्रित किया और उनसे कहा - तैयार जो हो जाओ। आगे बढो। ब्रितानियों को मार डालो। यह महाराजा साहब का हुक्म है।
अपने साथी की ओजस्वी वाणी सुनकर सेना के वीर हुंकार उठे और वे ब्रिटिश रेज़िडेंट कर्नल ड्यूरेंड पर हमला करने के लिए तैयार हो गए। अपने दल-बल के साथ सआदत खाँ रेजीडेंसी पर पहुँच गए और उसे घेर लिया। उस समय कर्नल ट्रेवर्स भी अपने महिदपुर कंटिजेंट के साथ इंदौेर रेजीडेंसी पर मौजूद था।
कर्नल ड्यूरेंड को यह समझते देर नहीं लगी कि सेना ने विद्रोह कर दिया है। वह अपनी कूटनीति और वाक् चाकरी के लिए मशहूर था। रेजीडेंसी के फ़ाटक पर पहुँचकर उसने अपने शब्दजाल में क्रांतिकारियों को फँसाना चाहा। सआदत खाँ इन चाल को भली भाँति जानते थे। उन्होंने कर्नल ड्यूरेंड पर गोली चला दी। सआदत खाँ की गोली कर्नल ड्यूरेंड के एक कान को उड़ाती हुई और उनके गाल को छिलती हुई निकल गई। कर्नल ड्यूरेंड भाग खड़ा हुआ। वह रेजीडेंसी के पिछले दरवाज़े से सपरिवार बाहर निकल गया और छिपता हुआ सीहोर जा पहुँचा। वहाँ ब्रितानी फ़ौज रहती थी। कर्नल ट्रेवर्स भी दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ। रेजीडेंसी में जितने ब्रितानी थे, वे सभी भाग खड़े हुए। कोठी पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया। कोठी तथा अन्य बग़लें लूटकर उजाड़ दिए गए।
4 जुलाई 1857 की रात को क्रांतिकारियों ने लूट का माल अपने साथ लेकर देवास की ओर बढना प्रारंभ कर दिया। क्रांतिकारियों के पास रेजीडेंसी ख़ज़ाने से लूटे गए नौ लाख रुपये, सभी तोपें, गोला बारूद, हाथी, घोड़े और बैलगाड़ियाँ आदि सामान था। होलकर नरेश की भी नौ तोपें वे अपने साथ ले गए।
उखडते-उखडते भी ब्रितानियों के पैर जम गए और उन्होंने विद्रोह का दमन कर दिया। इंदौर के क्रांतिकारियों में से वे सआदत खाँ को तो नहीं पकड़ सके, पर कई अन्य क्रांतिकारियों को गिरफ़्तार करके उन्हें निर्मम दंड दिए गए। ब्रितानी अत्याचारियों ने ग्यारह क्रांतिकारियों को गोलियों से भून डाला। इक्कीस सैनिकों तथा कुछ नागरिकों को तोपों के मुँह से बाँघकर उड़ाया गया और दो सौ सत्तर सौनिकों को आजीवन कारावास का दंड दिया गया।
सआदत खाँ को ब्रितानी लोग बीस वर्ष पश्चात् अर्थात् सन् 1877 में झालावाड़ से गिरफ़्तार कर सके। वह च्द्म नाम से वहाँ नौकरी करने लगे थे। वह इतने ईमानदार और नेक व्यकित थे कि उन्होंने लूट के माल में से अपने पास कुछ भी नहीं रखा था। जिस समय वह गिरफ़्तार किए गए, उस समय उनके पास दो समय की भोजन सामग्री के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
सआदत खाँ पर मुकदमा लगाया गया। उन्होंने किसी भी प्रकार की कमज़ोरी प्रकट नहीं की और न अपने किसी साथी को फँसाया। देशभक्ति का सवोर्च्च पुरस्कार- "फाँसी" का उपहार पाकर वह बहुत ख़ुश थे।
यह उनका दुर्भाग्य था कि उनकी आँखों के सामने ही उनके पुत्र और उनके रिश्तेदारों को कत्ल कर दिया गया। ब्रिटिश शासकों ने ऐसा इसलिए किया था, क्योंकि वे महान क्रांतिकारी सुरेंद्र साँय से बदला लेना चाहते थे। जब उनके सामने ही उनके रिश्तेदारों को कत्ल किया जाने लगा तो उन्होंने दोनों हाथों से अपनी आँखें ढक ली और कहा - "मैं अपनी आँखों से अपने रिश्तेदारों को कत्ल होते नहीं देख सकता"।
सुरेंद्र साँय के इस कथन को सुनकर ब्रितानी अधिकारी ने कहा, "ठीक है हम ऐसा कुछ किए देते हैं जिससे कि आपको अपनी आँखों पर अपने हाथ नहीं रखने पडें़गे और आप अपने रिश्तेदारों का कत्ल देखने से बच जाओगे"। हाँ, आप उनकी करुण चीत्कारें अवश्य सुन सकोगे।
ऐसा करने के लिए लोहे की गरम सलाख़ों से उस महान क्रांति वीर की दोनों आँखें फोड़ दी गई। सुरेंद्र साँय सचमुच ही तब अपनी अंधी आँखों से अपने रिश्तेदारों और सहयोगियों का वध तो नहीं देख सके, पर उनकी चीत्कारे उनके कानों को भेदने लगीं। जब उन्होंने अपने कानों पर अपने हाथ रखे तो उन्हें इस पीड़ा से मुक्त करने के लिए ब्रितानियों ने उन्हीं सलाख़ों से उनके कान भी फोड़ दिए। आख़िर वह दिन भी आ गया, जब ब्रितानियों ने अंधे और बहरे होने की पीड़ा से मुक्त करने के लिए उस वीर को 24 फ़रवरी 1884 को वर्तमान मध्य प्रदेश के असीरगढ के क़िले में फाँसी के फंदे पर झुला दिया। असीरगढ का क़िला मध्य प्रदेश के खंडवा और बुहरानपुर नगरों को देखने को मिलता है, पर बहुत कम लोगों को यह ज्ञात है कि उड़ीसा के महान् क्रांतिकारी, सुरेन्द्र साँय को ब्रितानियों ने इस दुर्गम क़िले में क़ैद करके रखा था और यहीं उन्हें फाँसी का दंड दिया गया था।
उड़ीसा के अंतर्गत संबल पुर ज़िले के बाबूखेड़ा में क्रांतिकारी सुरेंद्र साँय का जन्म 23 जनवरी, 1809 को हुआ था। सुरेंद्र साँय का संबंध राजघराने से था और उनकी दादी "रानी राजकुमारी" पश्चिम उड़ीसा की राजगद्दी पर आसीन थी। उन दिनों ब्रितानी शासन अपने राज्य विस्तार में लीन था और उड़ीसा के छब्बीस राज्यों में से अठारह राज्य ब्रितानियों के सामने धुटने टेक चुके थे। शेष आठ राज्य ब्रितानियों के साथ संघर्ष कर रहे थे।
सन् 1833 में ब्रितानी शासन ने रानी राजकुमारी को पेन्शन देकर राजगद्दी पर नारायण सिंह को बैठा दिया। रानी राजकुमारी के उत्तराधिकारी सुरेंद्र साँय ने जब गद्दी पर अपना दावा प्रस्तुत किया तो उसे ठुकरा दिया गया। सुरेंद्र साँय ने विवश होकर युद्ध का सहारा लिया और उन्होंने कई स्थानों पर ब्रितानी सेना को हराया। चालाक ब्रितानियों ने छल का सहारा लेकर सुरेंद्र साय को संधि के लिए आमंत्रित कर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और बिहार की हजारीबाग जेल में बंद कर दिया। सुरेंद्र साय की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी ने ब्रितानियों के साथ युद्ध जारी रखा।
उन दिनों सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम छिड़ चुका था। इस लहर का लाभ उठाकर विद्रोही सैनिकों की सहायता से सुरेंद्र साय हजारीबाग जेल से भाग निकले और अपनी पत्नी के साथ मिलकर ब्रितानियों के विरुद्ध युद्ध तेज कर दिया। इस बार उन्होंने ब्रितानियों के अधिकृत दुर्ग पर आक्रमण करके उसे हथियाना चाहा। माहौल सुरेंद्र सायं के पक्ष में था और उनकी विजय सुनिश्चित थी। इस बार भी ब्रितानियों ने चालाकी से काम लिया। उन्होंने दुर्ग पर संधि का सफ़ेद झंडा फहरा दिया। संधि वार्ता के लिए जब सुरेंद्र साय दुर्ग के अंदर पहुँचे तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और संबलपुर जेल में डाल दिया गया। सुरेंद्र साय सूझबूझ के धनी थे। तीन दिन के अंदर ही वह जेल से भाग निकले। इस बार उन्होंने 1858 से 1863 तक ब्रितानियों के साथ युद्ध करके कई मोरचों पर उनको हराया। उन्होंने ब्रितानी सेना का बहुत विनाश कर दिया। इस बार उनका कार्यक्षेत्र बिहार और मध्य प्रदेश भी था।
भारतवर्ष में जहाँ उद्भट वीर पैदा होते है, वही निकृष्ट विश्वास धाती और देशद्रोही भी पैदा होते है। सुरेंद्र साय को भी उन्हीं के एक अभिन्न मित्र दयानिधि मेहा ने विश्वास धात करके ब्रितानियों के हाथों गिरफ़्तार करवा दिया।
दो बार जेल तोड़कर भाग निकलने वाले क्रांतिकारी सुरेंद्र साय को इस बार ब्रितानियों ने धोर जंगल में बने हुए असीरगठ के क़िले में बंद करके उन पर सधन पहरा बैठा दिया। उसी क़िले में उन्हें 28 फ़रवरी, 1884 को फाँसी दे दी गई।
वह आधुनिक भामाशाह थे, जिनके दिल में देश की आज़ादी के लिए तड़प थी और जो न केवल अरबों रुपयों की संपत्ति देश की आज़ादी के लिए व्यय करने को तैयार थे, अपितु उनके मस्तिष्क में गुप्तचर विभाग और सैन्य संगठन की योजनाएँ भी थीं। उनका नाम था जगत् सेठ राम जी दास गुड़वाला।
सेठ रामजीदास गुड़वाला का सम्मान भारत के अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफर के दरबार में बहुत अधिक था। उन्हें शासन की ओर से कई उपाधियाँ दी गई थीं और दरबार में उनके बैठने के लिए विशेष आसन की व्यवस्था की जाती थी। उनके रहने के मकान में भी फ़ौज की विशेष व्यवस्था होती थी। दीपावली के समय सेठजी अपने धर पर जश्न मनाते थे, जिसमें मुग़ल सम्राट बहादुर शाह स्वयं उपस्थित रहते थे और सेठ साहब सम्राट को दो लाख अशर्फ़ियों का नज़राना भेंट करते थे।
उस समय सम्राट बहादुर शाह जफर के दरबार में अधिकांश दरबारी स्वार्थी व अय्याश थे तथा वे स्वयं चाहते थे कि सल्लनत हो और उन्हें कुछ बनने का मौक़ा मिले। सेठ रामजीदास गुड़वाला ने कई बार करोड़ों रुपये बहादुर शाह जफर को इसलिए दिए कि वे एक सुसंगठित फ़ौज का निर्माण करके ब्रितानियों से लोहा लें और मातृभूमि को उनकी दासता से मुक्त करें। गुप्तचर विभाग का निर्माण सेठ साहब ने स्वयं किया l जो ब्रितानियों की गतिविधियों की ख़बरें लाकर देता था ।
सन् 1857 की क्रांति की सफलता के लिए सेठ रामजीदास गुड़वाला ने दो बार करोड़ों रुपये सहयोग के रूप में और अरबों रुपये कर्ज़ रे रूप में बहादुर शाह जफर को दिए। इसके अतिरिक्त फ़ौज को रसद देने के लिए तो उनका भंडार खुला ही रहता था। ब्रितानी अधिकारी भी सेठ रामजीदास गुड़वाला के परिचित थे और वे स्वयं सहायता के लिए सेठ साहब के पास पहुँचे थे, पर सेठ साहब ने उन्हें किसी भी प्रकार भी प्रकार की सहायता देने से इन्कार कर दिया था।
अपनी सफलता के दौर में ब्रितानियों ने जो पहले काम किया, वह यह कि उन्होंने दिल्ली के चाँदनी चौक में सरेआम शिकारी कुत्ते छोड़कर सेठ रामजीदास गुड़वाला को उन्होंने नोचवाया और घायल अवस्था में ही चौक में उन्हें फाँसी पर लटका दिया। हमारे आधुनिक भामाशाह देश की आज़ादी के लिए कुर्बान हो गए।
उनकी रगों में शुद्ध क्षत्रिय रक्त उबाल खा रहा था। मातृभूमि के शत्रुओं से दो-दो हाथ करने के लिए उनकी भुजाएँ फड़क रही थी। सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम प्रारंभ होकर अपने अंत की ओर बढ़ रहा था। ब्रितानियों ने अपनी स्थिति सँभाल ली थी और उनका विजय अभियान तेज़ी के साथ चल रहा था। ठाकुर रणमतसिंह ने ब्रितानियों से टक्कर लेने का संकल्प कर डाला।
रणमतसिंह रीवा नरेश महाराज रधुराजसिंह की सेना में सरदार के उच्च पद पर आसीन थे। उन दिनों देशी रियासत में रणमतसिंह ने पॉलिटिकल एजेंट ओसवान के विरुद्ध बग़ावत कर दी। इनके साथियों ने ओसवान के बग़लें पर आक्रमण कर दिया। ओसवान अपने प्राण बचाने में सफल हो गया।
ठाकुर रणमतसिंह का शिकार उनके हाथों से निकल गया। एक ब्रितानी न सही तो दूसरा सही। उन्होंने नागोद राज्य के रेज़िडेंट पर हमला बोल दिया। वह रेजीडेंट भी भागकर अजयगढ़ राज्य की शरण में पहुँच गया। अजयगढ़ नरेश ने अपनी शरण में आए हुए ब्रितानी की रक्षा करने के लिए केशरीसिंह बुदेला के नेतृत्व में एक सेना भेज दी भाजसाँय स्थान पर भंयकर युद्ध हुआ। ठाकुर रणमतसिंह शत्रु सेना को काटते हुए केशरीसिंह के सामने जा पहुँचे। दो दिग्गजों की तलवारबाज़ी देखने ही बनती थी। आख़िर ठाकुर रणमतसिंह ने अपनी तलवार के एक वार से केशरीसिंह के दो टुकड़े कर डाले ।
इस विजय से प्रोत्साहित होकर ठाकुर रणमतसिंह ने नौगाँव की ब्रितानी छावनी पर हमला बोल दिया। वे पीरवर तात्या टोपे से अपने संबंध स्थापित करना चाहते थे। अपने इस मनसूबे को वे पूरा कर सके। उन्होंने बरौंधा नामक स्थान पर ब्रितानी सेना का मुक़ाबला करके इसको तहस-नहस कर दिया।
कई बार जाल डालने पर भी ब्रितानी ठाकुर रणमतसिंह को गिरफ़्तार करने में सफल नहीं हो रहे थे। आख़िर उन्होंने वही नीच चाल चली, जो वे हमेशा चलाते आए थे। ठाकुर रणमतसिंह एक दिन जब अपने एक मित्र विजय शंकर नाग के धर जलपा देवी के मंदिर के तहखाने में विश्राम कर रहे थे, तो धोखे से उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और सन् 1859 में अनंत चतुर्दशी के दिन आगरा जेल में उन्हें फाँसी पर झुला दिया गया। उनका जन्म सन 1825 में हुआ था ।
इंग्लैंड की राजधानी लंदन में एक भारतीय व्यक्ति जहाँ भी जाता लोगों के आकर्षण और मनोरंजन का केंद्र बन जाता था। महाराष्ट्रियन ढंग की पंडिकाऊ धोती, घुटनों तक लटकने वाला बंद गले का कोट, कंधे पर झूलता हुआ दुपट्टा, सिर पर भारी पगड़ी, घनी और काली मूँछें तथा माथे पर आड़ा तिलक - यह थी उनकी वेशभूषा एवं बाह्य कृति। लोगों का अनुमान था, कि वह व्यक्ति ब्रितानी नह़ीं जानता होगा। पर जब वे उन्हें धाराप्रवाह ब्रितानी बोलते हुए देखते तो दंग रह जाते थे। उस व्यक्ति का नाम था रंगो बापूजी गुप्ते। वह भारत में महाराष्ट्र के सतारा राज्य के राजा प्रतापसिंह की ओर से उनके कार्य के लिए लंदन गए थे। लंदन में उनकी भेंट अजीमुल्ला खाँ से हुई, जो नाना साहब पेशवा के कार्य से वहाँ गए हुए थे।
परिस्थितियाँ ही व्यक्ति को बागी बनाती हैं। रंगो बापूजी गुप्ते अपने राजा की वकालत के लिए लंदन गए थे, पर वहाँ पहुँचकर वे पूर्णरूप से बागी बन गए। उनके मन में ब्रितानियों के प्रति धृणा ओर विद्धेष के भाव जाग्रत हो गए। संपूर्ण इंग्लैंड में उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता के दर्शन होते थे, पर भारत में इसके विपरीत दशा थी, जहाँ भारतीयों को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी ब्रितानियों के आचरण के इस विरोघाभास ने उन्हें ब्रितानियों का कट्टर शत्रु बना दिया। इंग्लैंड में यधपि उन्हें अपने कार्य में सफलता तो नही मिली, पर अपने हदय में वैचारिक क्रांति का लहराता हुआ सागर लेकर वे सागर-सतरण करके भारत लौट आए ।
फ्रांस की राज्य क्रांति में जो महत्व वाल्टेयर का है, वही स्थान 1857 की भारतीय सशस्त्र क्रांति में अजीमुल्ला खाँ और रंगो बापुजी गुप्ते का है। अजीमुल्ला खाँ ने उतर भारत में और रंगो बापुजी गुप्ते महाराष्ट्र में क्रांति की संरचना करके ब्रितानी साम्राज्य के लिए मुसीबत पैदा कर दी। इन महानुभावों ने लोगों को केवल उकसाया ही नहीं, वे स्वयं भी क्रांति यज्ञ में कूद पड़े।
सन् 1853 में लंदन से लौटने के पश्चात रंगो बापूजी गुप्ते ने कोल्हापुर, बेलगाँव, धारवाड़ और सतारा के संपूर्ण क्षेत्र में बंड़े गोपनीय ढंग से उग्र क्रांति का प्रसार किया। सन् 1858 में उनके एक निकट के मित्र ने विश्वासधात करके उन्हें ब्रितानियों के हाथों गिरफ्तार कराने का प्रयत्न किया, पर इस विश्वाधात की गंध पाकर के फरार हो गए । पता नहीं कब और इन महान क्रांतिकारी का देहावसान हो गया ।
उस दिन कर्नाटक के अंचल में स्थित नरगुंद राज्य में विषाद छा गया। नरगुंद के लोकप्रिय महाराज भास्कर राव बाबासाहब नरगुंदकर को निराशा ही नहीं हुई, उन्हें अपमान का कड़वा घूँट भी पीना पड़ा। बाबासाहब के कोई पुत्र नहीं था। राज्य का उतराअधिकारी निश्चित करने के लिए उन्होंने धारवाड़ के कलेक्टर तथा बेवगाँव के कमिश्नर के नाम पत्र लिखकर प्रार्थना की कि उन्हें दत्तक पुत्र की अनुमति दी जाए। उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की गई। बाबसाहब ने बंबई की सरकार को भी इस आशय से पत्र लिखा, पर वहाँ से भी इनकार का ही उपहार मिला। इतना ही नहीं पोलिटिकल एजेंट जेम्स मेंशन ने बाबासाहब का अपमान करने के लिए उद्ंडतापूर्ण भाषा में उन्हें एक पत्र लिखा। यह पत्र पाकर बाबसाहब तिलमिला गए और वे अपमान का बदला लेने का उपाय सोचने लगे ।
बाबाससाहब नरगुंदकर अपने राज्य में बहुत लोकप्रिय थे। वे विद्वान, साहसी, वीर और योद्धा थे। वे विद्धानों का आदर करते थे। उन्होंने अपने महल में संस्कृत के लगभग चार हजार चुने हुए ग्रथों संग्रह कर रखा था। उनके स्वभाव की एक विशेषता यह थी कि वे किसी की चुनौती को अस्वीकार करना नहीं जानते थे। यही कारण था कि पोलिटिकल एजेंट जेम्स मेंशन के प्रति उनके मन में विद्धेषग्नि भड़क उठी। उन दिनो उतर भारत में 1857 का स्वाधीनता समर चल रहा था। बाबासाहब ने सोचा कि यह समय अच्छा है। क्यों दक्षिण भारत में भी यह अग्नि सुगला दी जाए ।
एक दिन बाबासाहब को मालूम हुआ कि जेम्स मेंशन पास के ही एक गाँव में ठहरा हुआ है। उन्होंने सोचा कि मेंशन से अपमान का बदला लेने के लिए यह समय अच्छा है। उन्होंने अपने 5-6 विश्वस्त वीरों के साथ जेम्स मेंशन पर धावा बोल दिया। जेम्स मेंशन भागा और एक मारुति मंदिर में छिप गया। बाबासाहब ने उसे खोज निकाला और यह कहकर कि मारुति भगवान् ने शिकार के लिए मुझे एक दानव दिया है, अपनी तलवार के वार से मेंशन का मस्तक उसके धड़ से अलग कर दिया ।
बाबासाहब ने अपमान का बदला तो ले लिया था, पर अभी ब्रितानियों को सबक सिखाना बाकी था। उन्होंने जेम्स मेंशन के कटे हुए सिर को अपने भाले की नोक में खोंसकर उसे नरगुंद नगर में धुमाया और उसी भाले को चौराहे पर गाड़ दिया। जिससे आस-पास के गाँव के लोग भी आकर उन्हें देख सकें। पाचँ दिन तक वह सिर प्रदर्शन के लिए टँगा रहा ।
ब्रितानी लोग अपनी जाति के इस अपमान को कैसे सह सकते थे। ब्रितानी सेनापति मालकर ने सेना एकत्रित करके नरगुंद पर हमला बोल दिया। पहली लड़ाई में बाबासाहब ने ब्रितानी सेना को पीछे धकेल दिया। ब्रितानियों ने अपनी सेना की संख्या बढा दी ।
अगले दिन बाबासाहब अपने कुछ साथियों के साथ किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए किले के बाहर निकल गए। ब्रितानियों को इस बात का पता चल गया और उनका पीछा किया गया। बाबासाहब नरगुंदकर को गिरफ्तार कर लिया गया ।
बाबासाहब के ऊपर पोलिटिकल एजेंट जेम्स मेंशन का मुकदमा चलाया गया। न्यायालय ने उन्हें फाँसी का दंड सुनाया । 12 जून 1858, को बाबासाहब नरगुंदकर फाँसी पर झुलकर भारत माता की गोद में सदैव के लिए सो गए ।
उस समय पूना में ब्रितानी फौज का दबदबा था। फौज के वित्त विभागीय कार्यालय में एक तेजवंत नवयुवक उस दिन निबटाई जानेवाली फाइलों को उपने ब्रितानी साहब के सामने प्रस्तुत करने के लिए तैयार कर रहा था। यह काम उन्हें नित्य ही करना पड़ता था और नित्य ही घर पहुँचने में उन्हें काफी देर हो जाती थी। आज वह दफ़्तर का समय समाप्त होते ही जल्दी छूट जाना चाहते थे, क्योकि नगर के सार्वजनिक सभास्थल पर आज परम देशभक्त न्यायमूतिर् रानडे का भाषण आयोजित था। वह इस भाषण से वंचित नहीं होना चाहते थे l क्योंकि वह रानडे महोदय के विशेष भक्त थे और उनके उत्तेजक भाषणों से उनके मन को प्रेरणा मिलती थी। इन तेजवंत नवयुवक का नाम वासुदेव बलवंत फड़के था ।
फड़के फाइलों का बंडल साहब के पास ले जाने वाले ही थे कि उसी समय उनके एक मित्र ने आकर समाचार दिया, आपके जन्म स्थान शिरठौन में आप्की माँ गंभीर रूप से बीमार हो गई हैं और वह आप्के नाम की रट लगाए हुए हैं।
समाचार सुमकर फड़के चिंतित हो उठे। फाइलों का बंडल ले जाकर उन्होंने साहब के टेबल पर रखा और विनीत भाव से बोल उठे- सर गाँव में मेरी माताजी गंभीर रूप से बीमार हो गई हैं। मुझे शीघ्र ही बुलाया हैं। मुझे एक हप्ते की छुट्टी दे दीजिए। आपकी बड़ी कृपा होगी। नहीं एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलेगी। साहब ने रूखा उत्तर दे दिया।
सर मेरी माँ को कुछ हो गया तो फिर मैं क्या करूँगा फड़के ने रुआँसे स्वर में कहा ।ज्यादा-से-ज्यादा तुम्हारी माँ मर जाएगी। यदि माँ का ही मोह था तो नौकरी करने क्यों आए। साहब ने और बेरूखी के साथ कहा ।
सर, तो मैं अपनी माँ के लिए नौकरी का मोह छोड़ रहा हूँ। मैं अपना त्याग-पत्र लिखकर आपको दिए जाता हुँ। मेरी माँ मुझे पुकार रही है। यह कहकर फड़के अपनी टेबल पर गए और त्याग -पत्र लिखकर साहब की टेबल पर पटक दिया। ब्रितानी साहब कुछ कहे, उसके पहले ही वह दफ्तर से बाहर हो गए । सार्वजनिक सभास्थल उनके घर के रास्तें मे ही पड़ता था। जिस समय वह उधर से निकले, कोई राजनेता भाषण दे रहे थे।
उनका अंतिम वाक्य था- नौजवानो को ब्रितानियों द्धारा दी गई चुनौती को स्वीकार करना चाहिए। वह तारूण्य ही कैसा जो कुछ करके दिखा न सके। अपने देश की स्वाधीनता के लिए आज के नौजवानों को फिर से महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी बनकर दिखाने की जरूरत है। वासुदेव बलवंत फड़के चले गए । उनके मन में वही वाक्य गूँजता रहा- अपने देश की स्वाधीनता के लिए आज के नौजवानों को फिर से महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी बनकर दिखाने की जरूरत है।
फड़के अपने गाँव शिरठौन जा पहुँचे। उनकी माँ बच तो नहीं सकी पर उन्हें संतोष था कि वह उनके अंतिम दर्शन और उनकी थोडी बहुत सेवा शूश्रूषा कर सके। अपनी माँ की मृत्यु के पश्चात् एक विचार उनके मन में बार-बार कौंधने लगा-
क्या हुआ जो मेरी माँ मर गई। देर-सबेर सभी माताएँ मरती हैं। कौन बचा सका है अपनी माँ को। पर एक माँ है, जिसको हम सबको मिलकर बचाना चाहिए। वह माँ हम सबकी माँ है। हमारी भारत माता को परदेशी फिरगिंयो ने दासता के बंधनों में जकड़ रखा है। हम सबको मिलकर अपनी भारत-माता को विदेशी दासता के चंगुल से मुक्त कराना चाहिए।
बार-बार कौंधकर इस विचार ने फड़के के मन में संक्लप का रूप धारण कर लिया। वह हमेशा के लिए अपना गाँव छोड़कर चला गया। जाते समय वह लौट-लौट कर उस गाँव तो देेखता रहा था, जिसकी पावन और प्राकृतिक गोद में 4 नवम्बर 1845 को उनका जन्म हुआ था। धीरे-धीरे गाँव उनकी दृष्टि से ओझल हो गया, पर अब उस गाँव के स्थान पर समूचा देश उनकी दृष्टि में था। अब उनकी दृष्टि में अपना देश था -भारत देश।
परिस्थितियों का अध्ययन कर वासुदेव बलवंत फड़के ने निश्चय किया कि ब्रिटिश शासन का पंजा भारत की भूमि पर दृढता से जम चुका है और अब आमने-सामने के युद्धो में उससे पार पाना मुश्किल है, अत: केवल छापानार युद्ध-प्रणाली से ही अग्रेंजी शासन के पंजे कुछ ढिला किया जा सकता है। यही तो रानडे महोदय ने कहा था कि आज के नौजवानो को महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी बनकर दिखाने की जरूरत है। उन्होंने निश्चय कर डाला कि वन्य -जातियों को सेना के रूप में संगठित करके ब्रितानियों की नींद हराम करनी है। उन्होंने खामोशी , नाईक और भील जातियो की सेनाएँ संगठित करके उन्हें गुलचेकड़ी तथा फग्यबसन की पहाड़ियों में सैन्य प्रशिक्षण देना प्रारंभ कर दिया। अपने इस अभियान में उन्हें विश्वसनीय सहयोगी भी मिल गए। दौलतराव रामोशी का अपनी जाति के लोगो पर अच्छा प्रभाव था। वह भी दल-बल सहित फड़के की सेना में सम्मिलित हो गए। गोविंदराव दावरे भी अत्यंत प्रभावशाली व्यकित थे। वह फड़के का दाहिना हाथ बन गए। लोग दावरे को जनरल दावरे और फड़के को शिवाजी द्वितीय के नाम से पुकारने लगे।
फड़के की सेना का आकार ओर आंतक बढने लगा। आवश्यकता पड़ने पर वह हैदराबाद के निजाम के राज्य में से पठानों और रुहेलो को भी अपनी सेना में भर्ती कर लिया करते थे। ब्रितानियों और शस्त्रागारों को छापे मारकर लूटा जाने लगा। शस्त्रार्जन के लिए पैसे की समस्या हल करने के लिए वह कभी-कभी बडे-बडे रईसों और सेठ साहुकारों के यहाँ डाके डालने से नहीं चूकते थे। अमीरों का धन लूटकर वह गरीबों नें बाँटते थे।समाजवाद का व्यावहारिक रूप वह जीवन में अपना रहे थे। जो कुछ वह लूटते उसका पंचवीमा करते थे। उनका कहना था कि देश के स्वाधिन होने पर लूटा हुआ धन वह ब्याज सहित वापस कर देंगे। पालस्पे के डाके में फड़के को साठ हजार रुपए हाथ लगे ।
अपनी सेना का संगठन फड़के ने लोकतांत्रिक ढंग से किया था। यद्यपि वह अपनी सेना के मुखिया थे, पर फिर भी वह सेना के अन्य सहयोगी नेताओं और सैनिकों के सलाह के सनुसार कार्य करते थे। एक दिन उन्होंने डायरी में लिखा-
मैं इसी बात (ब्रितानियों को निकालने ) पर दिन-रात विचार किया करता हूँ। सैकड़ो कष्ट देखकर मेरे ह्रदय ने निश्चय कर लिया है कि इस ब्रिटिश सता का खात्मा करूँगा। और कोई विचार मेरे मन में नहीं आते और न रातो को नींद ही आती है ।
सन 1976-77 में महाराष्ट्र में भयंकर अकाल पड़ा। भूख की पीड़ा से हजारों व्यक्त्ति काल के गाल में समा गए। इधर गौरांगदेव थे के अन्न पर पलकर, उन्हीं को दम तोड़ते हुए देखकर प्रसन्न होते थे। वासुदेव बलवंत फड़के से यह नहीं देखा गया। उनकी आत्मा विद्रोह कर बैठी। उन्होंने लिखा मेरे ये देशवासी उसी माता के पुत्र हैं, जिनका में हूँ। वे भूखें मरें और मैं जानवरों का जीवन व्यतीत करू, यह विचार भी असंभव है। उनकी सहायता करने और उन्हें स्वतंत्र कराने में प्राण न्योछावर कर देना कहीं अच्छा है ।
अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए फड़के जुट गए। ब्रितानियों के खजाने लूट-लूटकर वह गरीबों के पेट भरने लगे। सरकारी अफसर थर-थर काँपने लगे। अग्रेंज भक्त अखबार बौखला गए। गाँवो और छोटे-छोटे नगरों में रहनेवाले ब्रितानी भाग-भागकर पूना पहुँचने लगे। फड़के ने पूना तक उनका पीछा नहीं छोड़ा। उन्होंने उतार दिया। सतारा जिले को उन्होंने रौंद डाला। ऐसा लगता था जैसे महाराष्ट्र के सात जिलों में ब्रितानियों की हुकूमत उलटकर फड़के की हुकूमत कायम हो गई हो। उन्होंने ब्रिटिश जेलों पर धावे बोलकर कैदियों को मुक्त कर दिया। स्वभावत: वे कैदी उनकी सेना के सैनिक बन गए।
फड़के के आतंक से ब्रितानी हुकूमत की नींद हराम हो गई। सन् 1857 में असंख्य वीरों की छातियाँ गोलियों से छलनी करके, फाँसी के फंदो पर लचकाकर जीवित जलाकर, धोड़ों की टापों से कुचलवाकर और संगीनो से छेदकर ब्रितानियों ने सोचा था दमन चक्र में भारतीय फिर सिर उठाने का साहस नहीं करेंगे और न देश की आजादी की बात सोचेंगे किंतु उन्हें क्या पता था कि भारतीय क्रांतिकारी रक्तबीज होते हैं। एक शहीद के खून से सैकड़ों क्रांतिकारी पैदा होकर शहीदो की पंक्तियों में पहुँचने के लिए बेचैन हो उठते हैं। एसा ही एक प्रचड़ क्रांतिकारी थे- बलवंत फड़के।
फड़के के उरद्रवों से, ब्रिटिश सता लड़ख़डाने लगी। उन्हें पकड़ने के लिए जाल डाले जाने लगे। बंबई के गवर्नर रिचडॅ ने धोषित किया कि फड़के को पकड़ने या मारने वाले व्यकित को पाँच हजार रुपए पुरस्कार स्वरुप दिए जाएँगे। वीर फड़के कब चुप रहने वाले थे। उन्होंने भी घोषणा कर दी - जो कोई बंबई के गवर्नर सर रिचडॅ टैंपल का सिर लाकर मुझे देगा, मैं उसे दस हजार रुपए इनाम में दूँगा । बेचारे गवर्नर महोदय की नींद हराम हो गई। उन्होने बाहर घूमना-फिरना बंद कर दिया। सोते-सोते भी वे फड़के। फड़के। कहकर चिल्ला उठते थे ।
शासन ने अपने प्रयत्न और तेज कर दिए। फड़के को पकड़ने के लिए निजाम तथा ब्रितानियों की फौजें पीछा कर रही थीं। मेजर डेनियस और सेटीफेंसन के नेतृत्व में ब्रितानी सेनाओं ने उनका पीछा किया।
फड़के निजाम के राज्य में जा निकले। एक दिन निरंतर भागते रहने के कारण वह बहुत थक गए। बुखार ने भी उन पर आक्रमण कर दिया। आश्रय पाने कि लिए वह हैदराबाद राज्य के कलादगी जिले के एक गाँव में पहुँचे और देवी के मंदिर में विश्राम करने लगे। बुखार और थकान के कारण वह मूर्छित जैसै हो गए। जभी पीछा करती हुई ब्रिटिश सेना वहाँ पहुँच गई। मेजर डेनियल उनकी छाती पर ख़डा हो गया, और बूट पहने हुए उसने अपना एक पार फड़के के गले पर रख दिया और बोला - कहो फडके अब क्या चाहते हो ? तुमसे तलवार के दो-दो हाथ करना चाहता हूँ। फड़के का उत्तर था। डेनियल ने चुनौती स्वीकार नहीं की। हथकड़ियाँ डालकर वह उन्हें पूना ले गया।
पूना में फड़के पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। न्यायालय ने उन्हें आजन्म कारावास का दंड सुनाया। फड़के जैसे महाभयंकर कैदी को भारतभूमि की किसी जेल या अंडमान में रखना उचित नहीं समझा गया। उन्हें विदेश ले जाकर जेल में रखा गया ।
वीर फड़के ने वहाँ भी अपना पराक्रम दिखाया। वह जेल तोड़कर भाग निकले। यदि वह भारत की किसी जेल से भागे होते तो ब्रिटिश सरकार उनकी छाया भी नहीं छू सकती थी। वह अंडमान में थे। जेल से निकलकर वह जंगलों में भूखे-प्यासे भटकते रहे। भाषा की कठिनाई के कारण वह अंडमान के लोगों को अपना मंतव्य नहीं समझा सके।दीबापा पकड़कर वह फिर में ठूँस दिया गया। अंडमान की जेल में ही वीर वासुदेव बलवंत फड़के ने 17 फरवरी 1883 को जीवन की अंतिम साँस ली। भारत की भूमि से तो वह वीर विदा हो ही चुके थे l वह दुनिया से भी बिदा हो गए। हम उनको अलविदा भी न कह पाए ।
वहाबी आंदोलन वैसे तो धार्मिक आंदोनल था, लेकिन इस आंदोलन ने राजनीतिक स्वरुप ग्रहण कर लिया था और वह भारत से ब्रितानी शासन को उखा़डने की दिशा में अग्रसर हो चला था। वहाबी आंदोलन का प्रादुर्भाव अरब में अकुल वहाब नामक ने किया था। भारत में वहाबी आंदोलन के नेताओं में रायबरेली के सैयद अहमदशाह और के शाह वलीउल्ला थे। सैयद अहमदशाह के पश्चात् बिहार के मौलावी अहमदुल्ला इस संप्रदाय के नेता बने। वे पटना जिले के सादिकपुर के रहनेवाले थे।
मौलवी अहमदुल्ला के नेतुत्व में वहाबी आंदोलन ने स्पष्ट रूप से ब्रितानी विरोघी रुख घारण कर लिया। भारत में ब्रितानियों के विरुद्ध कोई सेना ख़डी नहीं की जा सकती थी, इस कारण मौलवी अहमदुल्ला ने मुजाहिदीनों की एक फौज सीमा पार इलाके के सिताना स्थान पर ख़डी की। उस सेना के लिए वे धन, जन तथा हथियार भारत से ही भेजते थे।
यधपि ब्रितानी शासक मौलवी अहमदुल्ला की गतिविघियों की ओर से शंकित थे, पर उनके प्रभाव को देखते हुए वे उनके विरूद्ध कोई कदम नहीं उठा सकते थे। जब सन 1859 में ब्रितानियों के विरुद्ध पटना में भी विद्रोह भड़क उठा तो वहाँ के कमिश्नर टेलर ने मौलवी साहब को शांति स्थापना के उपायों पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया और वहीं उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पटना के कमिश्नर टेलर के स्थानांतरण के पश्चात् हीं मौलवी साहब को मुक्त किया गया। मुक्त होने के पश्चात मौलवी अहमदुल्ला ने ब्रितानियों के विरूद्ध बाकायदा युद्ध का संचालन प्रारंभ कर दिया। ब्रितानियोंे के विरुद्ध मुजाहिदीनों ने तीन स्थानों पर लड़ाइयाँ लड़ीं। पहली लड़ाई सन् 1858 में शाहीनूनसबी स्थान पर हुई। जब ब्रितानी लड़ाइयों में नहीं जीत सके तो उन्होंने रिश्वत का सहारा लेकर अपना काम बनाया।
सन् 1865 में मौलवी अहमदुल्ला को बड़ी चालाकी के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमा चलाया गया। बहुत लोभ-लालच देकर ही शासन उनके विरुद्ध गवाही देने वालों को तैयार कर सका। इस मुकदमे में सेशन अदालत ने तो मौलवी साहब को प्राणदंड की सजा सुनाई, लेकिन हाईकोर्ट मे अपील करने पर वह आजीवन कालेपानी की सजा में परिवतिर्त हो गई। मौलवी साहब को कालेपानी की काल कोठरियों में डाल दिया गया।
यद्यपि मौलवी अहमदुल्ला कालेपानी की काल कोठरी में बंद थे, लेकिन वे वहाँ से भी भारत में चलने वाले वहाबी आंदोलन को निर्देशित करते रहे। वे सीमा पार के गाँव सिताना में मुजाहिदीनों की फौज को भी निर्देश पर बंगाल के चीफ जस्टिस पेस्टन नामॅन की हत्या अबदुल्ला नाम के एक वहाबी ने उस समय कर दी, जब वे सीढियों से नीचे उतर रहे थे। इतना ही नहीं, भारत के वाइसराय लॉर्ड मेयो जब सरकारी दौरे पर अंडमान गए तो मौलवी अहमदुल्ला की योजना के अनुसार ही 8 फरवरी, 1872 को एक वहाबी पठान शेर अली ने लॉर्ड मेयो की उस समय हत्या कर दी, जब वे मोटर बोट पर चढ़ रहे थे।
मौलवी अहमदुल्ला ने पूरे पच्चीस वर्ष तक ब्रितानियों के विरुद्ध संधर्ष का संचालन किया। स्वाधीन भारत उस महान देशभक्त का ऋ णी है।
ब्रितानियों को भारत से बाहर निकालने के लिए युगाब्द 4659 (सन् 1857) में हुआ स्वतंत्रता का युद्ध भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। देखा जाए तो स्वतंत्रता के संघर्ष की शुरुआत महाराणा हम्मीर सिंह ने की थी। वीरों में वीरोत्तम महाराणा हम्मीर ने मुस्लिम आक्रमणकारियों का बढ़ाव काफ़ी समय तक रोके रखा। वस्तुतः सिसोदिया वंश का पूरा इतिहास ही भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष का इतिहास है। लेकिन ब्रितानियों के ख़िलाफ़ पूरे भारत में एक साथ और योजनाबद्ध युद्ध सन् 1857 में लड़ा गया, इसीलिए इतिहासकारों ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया।
क्रांति के इस महायज्ञ को धधकाने की योजना अजीमुल्ला खाँ तथा रंगोबापूजी ने लंदन में बनाई थी। योजना बनाकर ये दोनों उत्कट राष्ट्र-भक्त पेशवा के पास आए और उन्हें इस अद्भुत समर का नेतृत्व करने को कहा। सैनिक अभियान के नायक के रूप में तात्या टोपे को तय किया गया। संघर्ष के लिए संगठन खड़ा करने तथा जन-जागरण का काम पूरे दो साल तक किया गया।
मौलवी, पंडित और संन्यासी पूरे देश में क्रांति का संदेश देते हुए घूमने लगे। नाना साहब तीर्थ-यात्रा के बहाने देशी रजवाड़ों में घूमकर उनका मन टटोलने लगे। आल्हा के बोल, नाटक मंडलियाँ और कठपुतलियों के खेल के द्वारा स्वधर्म और स्वराज्य का संदेश जन-जन में पहुँचाया जाने लगा। क्रांति का प्रतीक लाल रंग का कमल सैनिक छावनियों में एक से दूसरे गाँव में घूमते पूरे देश की यात्रा करने लगा। इतनी ज़बरदस्त तैयारी के बाद संघर्ष की रूप-रेखा बनी। यह सब काम इतनी सावधानी से हुआ कि धूर्त ब्रितानियों को भी इसका पता तोप का पहला गोला चलने के बाद ही लगा।
इस अपूर्व क्रांति-यज्ञ में राजसत्ता के सपूतों ने भी अपनी समिधा अर्पित की। देश के अन्य केंद्रों की तरह राजस्थान में भी सैनिक छावनियों से ही स्वतंत्रता-संग्राम की शुरुआत हुई। उस समय ब्रितानियों ने राजपूताने में 6 सैनिक छावनियाँ बना रखी थी। सबसे प्रमुख छावनी थी नसीराबाद की। अन्य छावनियाँ थी- नीमच, ब्यावर, देवली (टोंक), एरिनपुरा (जोधपुर) तथा खैरवाड़ा (उदयपुर से 100 कि.मी. दूर)। इन्हीं छावनियों की सहायता से ब्रितानियों ने राजपूताना के लगभग सभी राजाओं को अपने वश में कर रखा था। दो-चार राजघरानों के अतिरिक्त सभी राजवंश ब्रितानियों से संधि कर चुके थे और उनकी जी हजूरीमें ही अपनी शान समझते थे। इन छावनियों में भारतीय सैनिक पर्याप्त संख्या में थे तथा रक्त कमल और रोटी का संदेश उनके पास आ चुका था।
राजपूताने (राजस्थान) में क्रांति का विस्फोट 28 मई 1857 को हुआ। राजस्थान के इतिहास में यह तिथि स्वर्णाक्षरों में लिखी जानी चाहिए तथा हर साल इस दिन उत्सव मनाया जाना चाहिए। इसी दिन दोपहर दो बजे नसीराबाद में तोप का एक गोला दाग़ कर क्रांतिकारियों ने युद्ध का डंका बजा दिया। संपूर्ण देश में क्रांति की अग्नि प्रज्जवलित करने के लिए 31 मई, रविवार का दिन तय किया गया था, किंतु मेरठ में 10 मई को ही स्वातंत्र्य समर का शंख बज गया। दिल्ली में क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों के ख़िलाफ़ शस्त्र उठा लिए। ये समाचार नसीराबाद की छावनी में भी पहुँचे तो यहाँ के क्रांति वीर भी ग़ुलामी का कलंक धोने के लिए उठ खड़े हुए। नसीराबाद में मौजूद '15 वीं नेटिव इन्फेन्ट्री' के जवानों ने अन्य भारतीय सिपाहियों को साथ लेकर तोपख़ाने पर कब्जा कर लिया। इनका नेतृत्व बख्तावर सिंह नाम के जवान कर रहे थे। वहाँ मौजूद अँग्रेज़ सैन्य अधिकारियों ने अश्वारोही सेना तथा लाइट इन्फेन्ट्री को स्वतंत्रता सैनिकों पर हमला करने का आदेश दिया। आदेश माने के स्थान पर दोनों टुकड़ियों के जवानों ने अँग्रेज़ अधिकारियों पर ही बंदूक तान दी। कर्नल न्यूबरी तथा मेजर स्पाटवुड को वहीं ढेर कर दिया गया। लेफ्टिनेण्ट लॉक तथा कप्तान हार्डी बुरी तरह घायल हुए।
छावनी का कमांडर ब्रिगेडियर फेनविक वहाँ से भाग छूटा और उसने ब्यावर में जाकर शरण ली. नसीराबाद छावनी में अब भारतीय सैनिक ही बचे। वे सबके सब स्वातंत्र्य सैनिकों के साथ हो गए। छावनी को तहस-नहस कर स्वातंत्र्य सैनिकों ने दिल्ली की ओर कूच किया।
नसीराबाद के स्वतंत्रता संग्राम का समाचार तुरंत-फुरत नीमच पहुँच गया। 3 जून की रात नसीराबाद से तीन सौ कि. मी. की दूरी पर स्थित नीमच सैनिक छावनी में भी भारतीय सैनिको ने शस्त्र उठा लिए। रात 11 बजे 7वीं नेटिव इन्फेण्ट्री के जवानों ने तोप से दो गोले दागे। यह स्वातंत्र्य सैनिकों के लिए संघर्ष शुरू करने का संकेत था। गोलों की आवाज़ आते ही छावनी को घेर लिया गया तथा आग लगा दी गई। नीमच क़िले की रक्षा के लिए तैनात सैनिक टुकड़ी भी स्वातंत्र्य-सैनिकों के साथ हो गई। अँग्रेज़ सैनिक अधिकारियों ने भागने में ही अपनी कुशल समझी। सरकारी ख़ज़ाने पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया।
आक्रमणकारी फ़िरंगियों के विरुद्ध सामान्य जनता तथा भारतीय सैनिकों में काफ़ी ग़ुस्सा था। इसके बावजूद क्रांतिकारियों ने हिंदू-संस्कृति की परंपरा निभाते हुए न तो व्यर्थ हत्याकांड किए, नहीं अँग्रेज़ महिलाओं व बच्चों को परेशान किया। नसीराबाद से भागे अँग्रेज़ सैनिक अधिकारियों के परिवारों को सुरक्षित रूप से ब्यावर पहुँचाने में भारतीय सैनिकों व जनता ने पूरी सहायता की। इस तरह नीमच से निकले अंग्रेज महिलाओं व बच्चों को डूंगला गाँव के एक किसान रूंगाराम ने शरण प्रदान की और उनके भोजन आदि की व्यवस्था की। ऐसे ही भागे दो अँग्रेज़ डाक्टरों को केसून्दा गाँव के लोगों ने शरण दी। इसके उलट जब स्वातंत्र्य सैनिकों की हार होलने लगी तो ब्रितानियों ने उन पर तथा सामान्य जनता पर भीषण और बर्बर अत्याचार किए।
नीमच के क्रांतिकारियों ने सूबेदार गुरेसराम को अपना कमांडर तय किया। सुदेरी सिंह को ब्रिगेडियर तथा दोस्त मोहम्मद को ब्रिगेड का मेजर तय किया। इनके नेतृत्व में स्वातंत्र्य सैनिकों ने देवली को ओर कूच किया। रास्तें में चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा पड़ते थे। स्वातंत्र्य सेना ने तीनों स्थानों पर मौजूद अँग्रेज़ सेना को मार भगाया तथा शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा के महाराज ने क्रांतिकारियों का खुले दिल से स्वागत किया। दो दिन तक उनकी आवभगत करने के बाद अस्त्र-शस्त्र व धन देकर शाहपुरा नरेश ने क्रांतिकारियों को विदा किया। इसके बाद सैनिक निम्बाहेडा पहुँचे, जहाँ की जनता तथा जागीरदारों ने भी उनकी दिल खोलकर आवभगत की।
देवली ब्रितानियों की तीसरी महत्वपूर्ण छावनी थी। नसीराबाद तथा नीमच में भारतीय सैनिकों द्वारा शस्त्र उठा लेने के समाचार देवली पहुँच गए थे, अतः अँग्रेज़ पहले ही वहाँ से भाग छूटे। वहाँ मौजूद महीदपूर ब्रिगेड आज़ादी के सेनानियों की प्रतीक्षा कर रही थी। निम्बाहेड़ा से जैसे ही भारतीय सेना देवली पहुँची, यह ब्रिगेड भी उनके साथ हो गई। उनका लक्ष्य अब टोंक था, जहाँ का नवाब ब्रितानियों का पिट्ठु बने हुए थे। मुक्तिवाहिनी टोंक पहुँची तो वहाँ की जनता उसके स्वागत के लिए उमड़ पडी। टोंक नवाब की सेना भी क्रांतिकारियों के साथ हो गई। जनता ने नवाब को उसके महल में बंद कर वहाँ पहरा लगा दिया। भारतयीय सैनिकों की शक्ति अब काफ़ी बढ़ गई थी। उत्साहित होकर वह विशाल सेना आगरा की ओर बढ़ गई। रास्त में पड़ने वाली अँग्रेज़ फ़ौजों को शिकस्त देते हुए सेना दिल्ली पहुँच गई और फ़िरंगियों पर हमला कर दिया।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक दुःखद पक्ष यह था कि जहाँ राजस्थान की जनता और अपेक्षाकृत छोटे ठिकानेदारों ने इस संघर्ष में खुलकर फ़िरंगियों का विरोध किया, वहीं अधिकांश राजघरानों ने ब्रितानियों का साथ देकर इस वीर भूमि की परंपरा को ठेस पहुँचाई।
कोटा के उस समय के महाराव की भी ब्रितानियों से संधि थी पर राज्य की जनता फ़िरंगियों को उखाड़ फैंकने पर उतारू थी। कोटा की सेना भी महाराव की संधि के कारण मन ही मन ब्रितानियों के ख़िलाफ़ हो गई थी। भारतीय सैनिकों में आज़ादी की भावना इतनी प्रबल थी कि घ् कोटा कण्टीजेंट ' नाम की वह टुकड़ी भी गोरों के ख़िलाफ़ हो गई, जिसे ब्रितानियों ने ख़ास तौर पर अपनी सुरक्षा के लिए तैयार किया था। कोटा में मौजूद भारतीय सैनिकों तथा जनता में आज़ादी की प्रबल अग्नि प्रज्जवलित करने वाले देश भक्तों के मुख्य थे लाला जयदलाय तथा मेहराब खान। भारत माता के इन दोनों सपूतों के पास क्रांति का प्रतीक घ् रक्त-कमल ' काफ़ी पहले ही पहुँच चुका था तथा छावनियों में घ् रोटी ' के जरिये फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का संदेश भी भेजा जा चुका था।
गोकुल (मथुरा) के रहने वाले लाला जयदयाल को महाराव ने हाड़ौती एजेंसी के लिए अपना वकील नियुक्त कर रखा था। ब्रितानियों को 35 वर्षीय लाला जी की गतिविधियों पर कुछ संदेह हो गया, अतः उन्होंने उनको पद से हटवा दिया। जयदयाल अब सावधानी से जन-जागरण का काम करने लगे। इस बीच नीमच, नसीराबाद और देवली के संघर्ष की सूचना कोटा पहुँच चुकी थी। मेहराब खान राज्य की सेना की एक टुकड़ी घ् पायगा पलटन ' में रिसालदार थे। सेना को क्रांति के लिए तैयार करने में मुख्य भूमिका मेहराब खान की ही थी।
कोटा में मौजूद अँग्रेज़ सैनिक अधिकारी मेजर बर्टन को घेर लिया। संख्या में लगभग तीन हज़ार स्वराज्य सैनिकों का नेतृत्व लाला जयदयाल और मेहराब खान कर रहे थे। स्वातंत्र्य सेना ने रेजीडेंसी (मेजर बर्टन का निवास) पर गोलाबारी शुरू कर दी। संघर्ष में मेजर बर्टन व उसके दोनों पुत्रों सहित कई अँग्रेज़ मारे गए। रेजीडेन्सी पर अधिकार कर क्रांतिकारियो ने राज्य के भंडार, शस्त्रागारों तथा कोषागारों पर कब्जा करते हुए पूरे राज्य को ब्रितानियों से मुक्त करा लिया। पूरे राज्य की सेना, अधिकारी तथा अन्य प्रमुख व्यक्ति भी घ्स्वराज्य व स्वधर्म ' के सेनानियों के साथ हो गए।
राज्य के ही एक अन्य नगर पाटन के कुछ प्रमुख लोग ब्रितानियों से सहानुभूति रखते थे। स्वातंत्र्य सैनिकों ने पाटन पर तोपों के गोले बरसाकर वहाँ मौजूद ब्रितानियों को हथियार डालने को बाध्य कर दिया। अब पूरे राजतंत्र पर लाला जयदयाल और मेहराब खान का नियंत्रण था। छह महीनों तक कोटा राज्य में स्वतंत्रता सैनानियों का ही अधिकार रहा।
इस बीच कोटा के महाराव ने करौली के शासन मदन सिंह से सहायता माँगी तथा स्वराज्य सैनिकों का दमन करने को कहा। हमारे देश का दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं को अपने ही देशवासियों से युद्ध करना पड़ा। करौली से पन्द्रह सौ सैनिकों ने कोटा पर आक्रमण कर दिया। उधर मेजर जनरल राबर्ट्स भी पाँच हज़ार से अधिक सेना के साथ कोटा पर चढ़ आया। राजस्थान और पंजाब के कुछ राज घरानों की सहायता से अँग्रेज़ अब भारतीय योद्धाओं पर हावी होने लगे थे।
विकट परिस्थिति देख कर मेहराब खान तथा उनके सहयोगी दीनदयाल सिंह ने ग्वालियर राज के एक ठिकाने सबलगढ के राजा गोविन्दराव विट्ठल से सहायता माँगी। पर लाला जयदयाल को कोई सहायता मिलने से पहले ही मेजर जनरल राबर्ट्स तथा करौली और गोटेपुर की फ़ौजों ने 25 मार्च 1858 को कोटा को घेर लिया। पाँच दिनों तक भारतीय सैनिकों तथा फ़िरंगियों में घमासान युद्ध हुआ। 30 मार्च को ब्रितानियों को कोटा में घुसने में सफलता मिल गई। लाला जयदयाल के भाई हरदयाल युद्ध में मारे गए तथा मेहराब खान के भाई करीम खाँ को पकड़कर ब्रितानियों ने सरे आम फाँसी पर लटका दिया।
लाला जयदयाल और मेहराब खान अपने साथियों के साथ कोटा से निकलकर गागरोन पहुँचे। अँग्रेज़ भी पीछा करते हुए वहाँ पहुँच गए तथा गागरोन के मेवातियों का बर्बरता से कल्ते आम किया। ब्रितानियों की बर्बरता यहीं नहीं रुकी, भँवर गढ़, बड़ी कचेड़ी, ददवाडा आदि स्थानों पर भी नरसंहार तथा महिलाओं पर अत्याचार किए गए। उक्त सभी स्थानों के लोगों ने पीछे हटते स्वातंत्र्य-सैनिकों की सहायता की थी। ब्रितानियों ने इन ठिकानों के हर घर को लूटा और फ़सलों में आग लगा दी।
अब सभी स्थानों पर स्वतंत्रता सेनानियों की हार हो रही थी। लाला जयदयाल तथा मेहराब खान भी अपने साथियों के साथ अलग-अलग दिशाओं में निकल गए। अँग्रेज़ लगातार उनका पीछा कर रहे थे। डेढ़ साल तक अंग्रजों को चकमा देने के बाद दिसंबर, 56 में गुड़ गाँव में मेहराब खान ब्रितानियों की पकड़ में आ गए। उन पर देवली में मुकदमा चलाया गया तथा मृत्युदंड सुनाया गया।
इस बीच लाला जयदयाल की गिरफ़्तारी के लिए ब्रितानियों ने 12 हज़ार रू. के इनाम की घोषणा कर दी थी। जयदयाल उस समय फ़क़ीर के वेश में अलवर राज्य में छिपे हुए थे। रुपयों के लालच में एक देशद्रोही ने लाला जी को धोखा देकर गिरफ़्तार करवा दिया। उन पर भी देवली में ही मुकदमा चलाया गया। 17 सितम्बर 1860 को लाला जयदयाल और मेहराब खान को कोटा एजेंसी के बग़लें के पास उसी स्थान पर फाँसी दी गई जहाँ उन्होंने मेजर बर्टन का वध किया था। इस तरह दो उत्कट देशभक्त स्वतंत्रता के युद्ध में अपनी आहुति दे अमर हो गए। उनका यह बलिदान स्थान आज भी कोटा में मौजूद है पर अभी तक उपेक्षित पड़ा हुआ है।
जिस तरह से वीर कुँवर सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए अपना रण-रंग दिखाया उसी तरह राजस्थान में आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने भी अपनी अनुपम वीरता से ब्रितानियों का मान मर्दन करते हुए क्रांति के इस महायज्ञ में अपनी आहुति दी। पाली ज़िले का एक छोटा सा ठिाकाना था घ् आउवा ' , लेकिन ठाकुर कुशाल सिंह की प्रमुख राष्ट्रभक्ति ने सन् सत्तावन में आउवा को स्वातंत्र्य-संघर्ष का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। ठाकुर कुशाल सिंह तथा मारवाड़ का संघर्ष प्रथम स्वतंत्रता का एक स्वर्णिम पृष्ठ है।
जोधपुर के देशभक्त महाराजा मान सिंह के संन्यासी हो जाने के बाद ब्रितानियों ने अपने पिट्ठु तख़्त सिंह को जोधपुर का राजा बना दिया। तख़्त सिंह ने ब्रितानियों की हर तरह से सहायता की। जोधपुर राज्य उस समय ब्रितानियों को हर साल सवा लाख रुपया देता था। इस धन से ब्रितानियों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक सेना बनाई, जिसका नाम घ् जोधपुर लीजन ' रखा गया। इस सेना की छावनी जोधपुर से कुछ दूर एरिनपुरा में थी। अँग्रेज़ सेना की राजस्थान की छह प्रमुख छावनियों में यह भी एक थी। राजस्थान में स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत 28 मई, 1857 को नसीराबाद से हुई थी। इसके बाद नीमच और देवली के भारतीय सैनिक भी संघर्ष में कूद चूके थे। अब बारी थी एरिनपुरा के घ् जोधपुर लीजन ' की, जिसे फ़िरंगियों ने ख़ासकर अपनी सुरक्षा के लिए बनाया था।
जोधपुर के महाराज तख़्त सिंह ब्रितानियों की कृपा से ही सुख भोग रहे थे, अतः स्वतंत्रता यज्ञ की जवाला भड़कते ही उन्होंने तुरंत ब्रितानियों की सहायता करने की तैयार कर ली। जोधपुर की जनता अपने राजा के इस आचरण से काफ़ी ग़ुस्से में थी। राज्य की सेना भी मन से स्वाधीनता सैनानियों के साथ थी तथा घ् जोधपुर लीजन ' भी सशस्त्र क्रांति के महायज्ञ में कूद पड़ना चाहती थी। नसीराबाद छावनी में क्रांति की शुरुआत होते ही जोधपुर-नरेश ने राजकीय सेना की एक टुकड़ी गोरों की मदद के लिए अजमेर भेद दी। इस सेना ने ब्रितानियों का साथ देने से इंकार कर दिया। कुशलराज सिंघवी ने सेनापतित्व में जोधपुर की एक और सेना नसीराबाद के भारतीय सैनिकों को दबाने के लिए भेजी गई। इस सेना ने भी ब्रितानियों का साथ नहीं दिया। हिण्डौन में जयपुर राज्य की सेना भी जयपुर नरेश की अवज्ञा करते हुए क्रांतिकारी भारतीय सेना से मिल गई। इस सब घटनाओं का अंग्रेजों की विशेष सेना घ् जोधपुर लीजन ' पर भी असर पड़ा। इसके सैनिकों ने स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ने का निश्चय कर लिया।
अगस्त 1857 में इस घ् लीजन ' की एक टुकड़ी को रोवा ठाकुर के ख़िलाफ़ अनादरा भेजा गया। इस टुकड़ी के नायक हवलदार गोजन सिंह थे। रोवा ठाकुर पर आक्रमण के स्थान पर 21 अगस्त की सुबह तीन बजे यह टुकड़ी आबू पहाड़ पर चढ़ गई। उस समय आबू पर्वत पर काफी संख्या में गोरे सैनिक मौजूद थे। गोजन सिंह के नेतृत्व में जोधपुर लीजन के स्वतंत्रता सैनिकों ने दो तरफ़ से फ़िरंगियों पर हमला कर दिया। सुबह के धुंधलके में हुए इस हमले से अँग्रेज़ सैनिकों में भगदड़ मच गई। आबू से ब्रितानियों को भगा कर गोजन सिंह एरिनपुरा की और चल पड़े। गोजन सिंह के पहुँचते ही लीजन की घुड़सवार टुकड़ी तथा पैदल सेना भी स्वराज्य-सैनिकों के साथ हो गई। तोपखाने पर भी मुक्ति-वाहिनी का अधिकार हो गया। एरिनपुरा छावनी के सैनिकों ने मेहराब सिंह को अपना मुखिया चुना। मेहराब सिंह को घ् लीजन ' का जनरल मान कर यह सेना पाली की ओर चल पड़ी।
आउवा में चम्पावत ठाकुर कुशाल सिंह काफ़ी पहले से ही विदेशी (अँग्रेज़ी) शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने का निश्चय कर चुके थें। अँग्रेज़ उन्हें फूटी आँखों भी नहीं सुहाते थे। नाना साहब पेशवा तथा तात्या टोपे से उनका संपर्क हो चूका था। पूरे राजस्थान में ब्रितानियों को धूल चटाने की एक व्यापक रणनीति ठाकुर कुशाल सिंह ने बनाई थी।
सलूम्बर के रावत केसरी सिंह के साथ मिलकर जो व्यूह-रचना उन्होंने की उसमें यदि अँग्रेज़ फँस जाते तो राजस्थान से उनका सफाया होना निश्चित था। बड़े राजघरानों को छोड़कर सभी छोटे ठिकानों के सरदारों से क्रांति के दोनों धुरधरों की गुप्त मंत्रणा हुई। इन सभी ठिकानों के साथ घ् जोधपुर लीजन ' को जोड़कर कुशाल सिंह और केसरी सिंह ब्रितानियों के ख़िलाफ़ एक अजेय मोर्चेबन्दी करना चाहते थे।
इसीलिए जब जनरल मेहरबान सिंह की कमान में जोधपुर लीजन के जवान पाली के पास आउवा पहुँचे तो ठाकुर कुशाल सिंह ने स्वातंत्र्य-सैनिकों का क़िले में भव्य स्वागत किया। इसी के साथ आसोप के ठाकुर शिवनाथ सिंह, गूलर के ठाकुर बिशन सिंह तथा आलयनियावास के ठाकुर अजीत सिंह भी अपनी सेना सहित आउवा आ गए। लाम्बिया, बन्तावास तथा रूदावास के जागीरदार भी अपने सैनिकों के साथ आउवा आ पहुँचे। सलूम्बर, रूपनगर, लासाणी तथा आसीन्द के स्वातंत्र्य-सैनिक भी वहाँ आकर ब्रितानियों से दो-दो हाथ करने की तैयारी करने लगे। स्वाधीनता सैनिकों की विशाल छावनी ही बन गया आउवा। दिल्ली गए सैनिकों के अतिरिक्त हर स्वातंत्रता-प्रेमी योद्धा के पैर इस शक्ति केंद्र की ओर बढ़ने लगे। अब सभी सैनिकों ने मिलकर ठाकुर कुशाल सिंह को अपना प्रमुख चुन लिया।
आउवा में स्वाधीनता- सैनिकों के जमाव से फ़िरंगी चिंतित हो रहे थे अतः लोहे से लोहा काटने की कूटनीति पर अमल करते हुए उन्होंने जोधपुर नरेश को आउवा पर हमला करने का हुक्म दिया। अनाड़सिंह की अगुवाई में जोधपुर की एक विशाल सेना ने पाली से आउवा की ओर कूच किया। आउवा से पहले अँग्रेज़ सेनानायक हीथकोटा भी उससे मिला। 8 सितम्बर को स्वराज्य के सैनिकों ने घ् मारो फ़िरंगी को ' तथा घ् हर-हर महादेव ' के घोषों के साथ इस सेना पर हमला कर दिया। अनाड़सिंह तथा हीथकोट बुरी तरह हारे। बिथौड़ा के पास हुए इस युद्ध में अनाड़ सिंह मारा गया और हीथकोट भाग खड़ा हुआ। जोधुपर सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इस सेना की दुर्गति का समाचार मिलते ही जार्ज लारेंस ने ब्यावर में एक सेना खड़ी की तथा आउवा की ओर चल पड़ा। 18 सितम्बर को फ़िरंगियों की इस विशाल सेना ने आउवा पर हमला कर दिया। ब्रितानियों के आने की ख़बर लगते ही कुशाल सिंह क़िले से निकले और ब्रितानियों पर टूट पड़े। चेलावास के पास घमासान युद्ध हुआ तथा लारेन्स की करारी हार हुई। मॉक मेसन युद्ध में मारा गया। क्रांतिकारियों ने उसका सिर काट कर उसका शव क़िले के दरवाज़े पर उलटा लटका दिया। इस युद्ध में ठाकुर कुशाल सिंह तथा स्वातंत्र्य-वाहिनी के वीरों ने अद्भूत वीरता दिखाई। आस-पास से क्षेत्रों में आज तक लोकगीतों में इस युद्ध को याद किया जाता है। एक लोकगीत इस प्रकार है
ढोल बाजे चंग बाजै, भलो बाजे बाँकियो। एजेंट को मार कर, दरवाज़ा पर टाँकियो। झूझे आहूवो ये झूझो आहूवो, मुल्कां में ठाँवों दिया आहूवो।
इस बीच डीसा की भारतीय सेनाएँ भी क्रांतिकारियों से मिल गई। ठाकुर कुशाल सिंह की व्यूह-रचना सफ़ल होने लगी और ब्रितानियों के ख़िलाफ़ एक मजूबत मोर्चा आउवा में बन गया। अब मुक्ति-वाहिनी ने जोधपुर को ब्रितानियों के चंगुल से छुड़ाने की योजना बनाई। उसी समय दिल्ली में क्रांतिकारियों की स्थिति कमज़ोर होने के समाचार आउवा ठाकुर को मिले कुशल सिंह ने सभी प्रमुख लोगों के साथ फिर से अपनी युद्ध-नीति पर विचार किया। सबकी सहमति से तय हुआ कि सेना का एक बड़ा भाग दिल्ली के स्वाधीनता सैनिकों की सहायता के लिऐ भेजा जाए तथा शेष सेना आउवा में अपनी मोर्चेबन्दी मज़बूत कर ले। दिल्ली जाने वाली फ़ौज की समान आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह को सौंपी गई।
शिवनाथ सिंह आउवा से त्वरित गति से निकले तथा रेवाड़ी पर कब्जा कर लिया। उधर ब्रितानियों ने भी मुक्ति वाहिनी पर नज़र रखी हुई थी। नारनौल के पास ब्रिगेडियर गेरार्ड ने क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया। अचानक हुए इस हमले से भारतीय सेना की मोर्चाबन्दी टूट गई। फिर भी घमासान युद्ध हुआ तथा फ़िरंगियों के कई प्रमुख सेनानायक युद्ध में मारे गए।
जनवरी में मुम्बई से एक अंग्रेज फौज सहायता के लिए अजमेर भेजी गई। अब कर्नल होम्स ने आउवा पर हमला करने की हिम्मत जुटाई। आस-पास के और सेना इकट्ठी कर कर्नल होम्स अजमेर से रवाना हुआ। 20 जनवरी, 1858 को होम्स ने ठाकुर कुशाल सिंह पर धावा बोला दिया। दोनों ओर से भीषण गोला-बारी शुरू हो गई। आउवा का किला स्वतंत्रता संग्राम के एक मजबूत स्तंभ के रूप में शान से खड़ा हुआ था। चार दिनों तक ब्रितानियों और मुक्ति वाहिनी में मुठभेड़ें चलती रहीं। ब्रितानियों के सैनिक बड़ी संख्या में हताहत हो रहे थे। युद्ध की स्थिति से चिंतित होम्स ने अब कपट का सहारा लिया। आउवा के कामदार और क़िलेदार को भारी धन देकर कर्नल होम्स ने उन्हें अपनी ही साथियों की पीठ में छुरा घौंपने के लिए राज़ी कर लिया। एक रात क़िलेदार ने कीलें का दरवाजा खोल दिया। दरवाज़ा खुलते ही अँग्रेज़ क़िले में घुस गए तथा सोते हुए क्रांतिकारियों को घेर लिया। फिर भी स्वातंत्र्य योद्धाओं ने बहादुरी से युद्ध किया, पर अँग्रेज़ क़िले पर अधिकार करने में सफल हो गए। पासा पटलते देख ठाकुर कुशाल सिंह युद्ध जारी रखने के लिए दूसरा दरवाज़े से निकल गए। उधर ब्रितानियों ने जीत के बाद बर्बरता की सारी हदें पार कर दी। उन्होंने आउवा को पुरी तरह लूटा, नागरिकों की हत्याएँ की तथा मंदिरों को ध्वस्त कर दिया। क़िले कि प्रसिद्ध महाकाली की मूर्ति को अजमेर ले ज़ाया गया। यह मूर्ति आज भी अजमेर के पुरानी मंडी स्थित संग्रहालय में मौजूद है।
इसी के साथ कर्नल होम्स ने सेना के एक हिस्से को ठाकुर कुशाल सिंह का पीछा करने को भेजा। रास्ते में सिरियाली ठाकुर ने अंग्रेजों को रोका। दो दिन के संघर्ष के बाद अंग्रेज सेना आगे बढ़ी तो बडसू के पास कुशाल सिंह और ठाकुर शिवनाथ सिंह ने अंग्रेजों को चुनौती दी। उनके साथ ठाकुर बिशन सिंह तथा ठाकुर अजीत सिंह भी हो गए। बगड़ी ठाकुर ने भी उसी समय अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। चालीस दिनों तक चले इस युद्ध में कभी मुक्ति वाहीनी तो कभी अंग्रेजों का पलड़ा भारी होता रहा। तभी और सेना आ जाने से अंग्रेजों की स्थिति सुधर गई तथा स्वातंत्र्य-सैनिकों की पराजय हुई। कोटा तथा आउवा में हुई हार से राजस्थान में स्वातंत्र्य-सैनिकों का अभियान लगभग समाप्त हो गया। आउवा ठाकुर कुशाल सिंह ने अभी भी हार नहीं मानी थी। अब उन्होंने तात्या टोपे से सम्पर्क करने का प्रयास किया। तात्या से उनका सम्पर्क नहीं हो पाया तो वे मेवाड़ में कोठारिया के राव जोधसिंह के पास चले गए। कोठारिया से ही वे अंग्रेजों से छुट-पुट लड़ाईयाँ करते रहे।
ठाकुर कुशालसिंह के संघर्ष ने मारवाड़ का नाम भारतीय इतिहास में पुनः उज्ज्वल कर दिया। कुशाल सिंह पूरे मारवाड़ में लोकप्रिय हो गए तथा पूरे क्षेत्र के लोग उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का नायक मानने लगे। जनता का उन्हें इतना सहयोग मिला था कि लारेंस तथा होम्स की सेनाओं पर रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के ग्रामीणों ने भी जहाँ मौक़ा मिला हमला किया। इस पूरे अभियान में मुक्ति-वाहिनी का नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे से भी संपर्क बना हुआ था। इसीलिए दिल्ली में स्वातंत्र्य-सेना की स्थिति कमज़ोर होने पर ठाकुर कुशाल सिंह ने सेना के बड़े भाग को दिल्ली भेजा था। जनता ने इस संघर्ष को विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध किया जाने वाला स्वाधीनता संघर्ष माना तथा इस संघर्ष के नायक रूप में ठाकुर कुशाल सिंह को लोक-गीतों में अमर कर दिया। उस समय के कई लोक-गीत तो आज भी लोकप्रिय हैं। होली के अवसर पर मारवाड़ में आउवा के संग्राम पर जो गीत गाया जाता है, उसकी बानगी देखिये
वणिया वाली गोचर मांय कालौ लोग पड़ियौ ओ राजाजी रे भेळो तो फिरंगी लड़ियो ओ काली टोपी रो! हाँ रे काली टोपी रो। फिरंगी फेलाव कीधौ ओ काली टोपी रो! बारली तोपां रा गोळा धूडगढ़ में लागे ओ मांयली तोपां रा गोळा तम्बू तोड़े ओ झल्लै आउवौ! मांयली तोपां तो झूटे, आडावली धूजै ओ आउवा वालौ नाथ तो सुगाली पूजै ओ झगड़ौ आदरियौ! हां रे झगड़ौ आदरियो, आउवौ झगड़ा में बांकौ ओ झगडौ आदरियौ! राजाजी रा घेड़लिया काळां रै लारे दोड़ै ओ आउवौ रा घेड़ा तो पछाड़ी तोड़े ओ झगड़ौ होवण दो! हाँ रे झगड़ौ होवण दो, झगड़ा में थारी जीत व्हैला ओ झगड़ौ होवण दो! -------- पूनम किराणा स्टोर्स, ग्राम-बूसी (पाली)
प्रथम स्वातंत्र्य समर के समय देश की जनता ने तन-मन-धन से सहयोग दिया। धनाढ्य वर्ग भी इसमें पीछे नहीं रहा। उनमें से कुछ धनाढ्य ऐसे भी थे जिन्होंने भामाशाह की परम्परा को जीवन्त करते हुए अपना सारा धन स्वतंत्रता के संग्राम के लिए अर्पित कर दिया। उस काल के कुछ ऐसे भामाशाहों का जीवन परिचय प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है-
10 मई 1857 के दिन मेरठ में हिन्दुस्तानी सैनिकों ने ब्रितानियों को धूल चटाकर दिल्ली को भी ब्रितानियों की गुलामी से मुक्त करने में सफलता पाई थी। बहादुरशाह जफर से उनकी व्यक्तिगत पहचान थी। लाला मटोलचन्द अग्रवाल ने एक बार बहादुरशाह जफर के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि वे हिन्दुओं की गो-भक्ति की भावना की कद्र करके गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दें, जिसे बहादुरशाह ने स्वीकार कर लिया था। बादशाह ने अपना एक दूत डासना भेजा। उन्होंने बादशाह का पत्र लालाजी को दिया जिसमें उन्होंनेे दिल्ली पहुँचकर भेंट करने को कहा गया था। लाला मटोलचन्द अग्रवाल भगवान शिव के परम भक्त थे। सवेरे उठते ही उन्होंने भगवान शिव की पूजा अर्चना की तथा प्रार्थना की कि, "मैं देश के कुछ काम आ सकूं,ऐसीशक्तिदो।" लालाजी रथ में सवार होकर दिल्ली पहुँचे। बहादुरशाह जफर ने सूचना मिलते ही उन्हें महल में बुलवा लिया। बादशाह ने कहा- घ् सेठजी, हमारी सल्तनत ब्रितानियों से लड़ते-लड़ते खर्चे बढ़ जाने के कारण आर्थिक संकट में फँस गई है। हम सैनिकों का वेतन तक नहीं दे पाये हैं। ऐसी हालत में यदि आप हमारी कुछ सहायता कर सकें, कुछ रूपया उधार दे सकें, तो शायद हम इस संकट से उबर जायें। यदि दिल्ली की सल्तनत पर हमारा अधिकार बना रहा और ब्रितानियों की साजिश सफल नहीं हो पाई तो हम आपसे लिया गया पैसा-पैसा चुका देगें। '
लाला मटोलचन्द ने बादशाह के शब्द सुने तो राष्ट्रभक्ति से पूर्ण हृदय दुखित हो उठा। वे बोले, "में उस क्षेत्र का निवासी हूँ जहाँ के अधिकांश ग्रामीण महाराणा प्रताप के वंशज हैं। हो सकता है कि जब वे राणावंशी राजपूत मेवाड़ से इस क्षेत्र में आकर बसे हों, तो मेरे पूर्वज भी उनके साथ आकर बस गये हों। हो सकता है कि हम लोग भामाशाह जैसे दानवीर व राष्ट्रभक्त के ही वंशज हों। अतः हमारा यह परम कर्त्तव्य है कि विदेशी ब्रितानियों से अपनी मातृभूमि की मुक्ति के यज्ञ में कुछ न कुछ आहुति अवश्य दें। आप चिन्ता न करें जितना सम्भव हो सकेगा धन आपके पास पहुँचा दिया जायेगा।"
सेठ मटोलचन्द ने डासना पहुँचते ही अपने खजाने के सोने के सिक्के छबड़ो में भरवाये तथा उन्हें रथों व बैलगाड़ियों में लदवाकर दिल्ली की ओर रवाना कर दिया। जब ये सोने के सिक्कों से भरे छबड़े लाला जी के मुनीम ने बादशाह को पेश किये तो बादशाह अपने मित्र सेठजी की दरियादिली को देखकर भाव विभोर हो उठे। उन्होंने अपने वजीर से कहा-"मेरे राज्य में लाला मटोलचन्द अग्रवाल जैसे महान राष्ट्रभक्त दानी सेठ रहते हैं, इसका मुझे गर्व है।"
सेठ मटोलचन्द ने देश की स्वाधीनता के संघर्ष में अपना सारा खजाना अर्पित कर दानवीर भामाशाह का आदर्श प्रस्तुत किया। उन महान दानी सेठ की हवेली आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में डासना में खंडहर बनी हुई उस डेढ़ सौ वर्ष पुरानी गाथा की साक्षी हैं।
दिल्ली के अत्यन्त धनाढ़्य व्यक्ति थे जगत् सेठ रामजी दास गुड़वाला। अपने गुड़ के व्यवसाय में इन्होने अकूत सम्पत्ति बनाई थी। ये अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह के विशिष्ट दरबारी थे। देश भक्ति से ओत-प्रोत सेठजी ने आर्थिक संकट से जूझ रहे बादशाह की कई बार आर्थिक सहायता की। उन्होनें 1857 के स्वातंत्र्य समर के समय देश को ब्रितानियों के चंगुल से निकालने के लिये अपने सारा धन लगा दिया। सेठजी ने एक गुप्तचर विभाग का निर्माण भी किया जो ब्रितानियों तथा उनके भारतीय पिछलग्गुओं की गतिविधियों की जानकारी लाकर देता था।
जैसे ही मेरठ में क्रांति की चिन्गारी उठी और स्वातन्त्र्य सैनिक दिल्ली पहुँचे बादशाह ने सेठजी से सहायता माँगी। सेठजी ने अपना खजाना क्रांतिकारी सैनिकों के लिये खोल दिया। सैनिकों की रसद आदि के लिये उनके भण्डार हमेशा खुले रहते थे।
अस्त व्यस्त नेतृत्व तथा विश्वासघातियों के कारण दिल्ली पर पुनः ब्रितानियों ने कब्जा कर लिया। ब्रिटिश सेठ गुड़वाला से धन ऐंठना चाहते थे, इसके लिए कुछ ब्रिटिश अधिकारी उनके घर पर पहुँचे। ब्रिटिश अधिकारी ने सेठजी से विनम्रतापूर्वक कहा- घ् सेठ आप तो महान् दानी हैं। युद्ध की स्थिति के कारण हम आर्थिक तंगी में हैं, आप हमें आर्थिक सहायत करें तो ठीक रहे, आपका दिया हुआ धन दिल्लीवासियों के ऊपर खर्च किया जायेगा।'
सेठ गुडवाला ब्रितानियों की चाल को समझ गए। उन्होंने कहा कि "आप लोग ही मेरे देश में अशांति और इस युद्ध के लिए जिम्मेदार हैं। मैं क्रूर आक्रांताओ को धन नहीं दे सकता। आप लोगों ने नगरों को श्मशान बना डाला है। इस तरह के कुत्सित कार्य करने वालों को देने के लिये मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है।"
ब्रिटिश सेठ रामजी दास का उत्तर सुनकर अपमानित हो उस समय तो चले गये लेकिन दूसरे दिन सुबह-सबेरे ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया। ब्रितानियों ने अपनी क्रूरता दिखाते हुए गड़ढा-खुदवाकर सेठ जी को कमर तक उसमें गाड़ दिया फिर उनके ऊपर शिकारी कुत्ते छोड़ दिए। कुत्तो ने सेठजी को बुरी तरह घायल कर दिया। अत्याचारियों को इतने पर ही संतोष नहीं हुआ तथा घायल सेठजी को चाँदनी चौक में फाँसी पर लटका दिया। इस प्रकार देश का एक और भामाशाह स्वतंत्रता की बलिवेदी पर न्यौछावर हो गया।
प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जहाँ भारत की जनता ने पग-पग पर क्रांतिकारियों का साथ दिया, वहीं कुछ ब्रितानियों ने भी इस महासमर में भारत की स्वतंत्रता के लिए शस्त्र उठाकर स्वतंत्रता सैनानियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लडी। इनमें से एक थे रिचर्ड विलियम्स। ब्रिटेन में पैदा हुए रिचर्ड विलियम्स ब्रिटिश सिपाही के रूप में भारत आए। सन 1857 के स्वातंत्र्य समर के समय इनकी नियुक्ति मेरठ के रिसाले (घुड़सवार टुकड़ी) में थी। 10 मई 1857 को मेरठ की छावनी में क्रांति की ज्वाला धधक उठी। रिसाले के सैनिकों को क्रांतिकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया गया, लेकिन रिचर्ड विलियम्स ने इस आदेश की अवहेलतना करते हुए ब्रिटिश अधिकारी एडजुटेंट टकर को गोली मार दी और स्वतंत्रता सैनानियों से जा मिले। विलियम्स ब्रितानियों की साम्राज्यवादी नीति के घोर विरोधी थे। क्रांतिकारियों के साथ विलियम्स दिल्ली जा पहुँचे और उन्होंने तोपखाने का संचालन करते हुए दिल्ली को स्वतंत्र कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नेतृत्व की कमी व विश्वासघात के कारण जब दिल्ली का पतन हुआ तो रिचर्ड ने अपनी सूझबूझ से क्रांतिकारियों को नावों के द्वारा उफनती हुई यमुना नदी के पार उतारा। दिल्ली पतन के बाद विलियम्स क्रांतिकारियों का साथ देने अवध जा पहुँचे। रूइया के राजा नरपति सिंह नें उन्हें रूइयागढ़ी के किले की जिम्मेदारी सौंप दी। ब्रिटिश फौज ने किले का घेरा डाल दिया। ब्रिगेडियर एड्रियन होप अपनी सेना को निर्देश दे रहा था तभी किले के अन्दर रिचर्ड विलियम्स एक ऊँचे पेड़ पर बन्दूक लेकर चढ़े और उसे एक ही गोली से मार गिराया। उन्होंने अंग्रेजी सेना के किले के फाटक को बारूद से उड़ा देने के मंसूबों पर पानी फेरते हुए उनके तोपखाने को भी ठण्डा कर दिया। सन् 1858 के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजी सेनाएं फिर से हावी होने लगीं। पर रिचर्ड विलियम्स अन्त तक ब्रितानियों के हाथ नहीं आए। माना जाता है कि स्वातन्त्र्य समर के यह गोरे क्रांतिकारी अज्ञातवास में चले गए। उनका क्या हुआ, इस बारे में इतिहास मौन है।
प्रथम भारतीय स्वातंत्र्य समर को अंग्रेजी इतिहासकारों तथा ब्रितानियों के पिट्ठु भारतीय इतिहासकारों ने सिर्फ सैनिक विद्रोह का नाम दिया है, जबकि यह महासमर भारत के कोने-कोने में लड़ा गया था।
वीर सावरकर ने सबसे पहले इस महासमर को ब्रितानियों के खिलाफ भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम होना सिद्ध किया। साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स भी इसे स्वातंत्र्य-समर ही मानते थे, हालांकि यह मानने के पीछे उनके अपने कारण थे। कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी ईमानदारी का परिचय देते हुए 1857 के संघर्ष को स्वतंत्रता संग्राम ही बताया है। इनमें अर्नेस्ट जोंस ने दृढ़ता के साथ उक्त तथ्य का प्रतिपादन किया। वे ब्रितानियों की रीति-नीति के कटु आलोचक थे। एक बार उन्होंने कहा था "यह सही है कि ब्रिटिश शासन में सूर्य कभी नहीं डूबता है, पर यह भी सही है कि इस शासन में खून की नदियाँ भी कभी नहीं सूखती हैं।"
1857 की क्रांति ने बिहार को भी प्रभावित किया। यद्यपि यह सत्य है कि यहाँ आगरा, मेरठ तथा दिल्ली की भाँति क्रांति का जोर नहीं था, तथापि बिहार के कई क्षेत्रों में क्रांति ने भीषण रूप धारण कर लिया था। सैकड़ो ब्रितानियों को यहाँ मौत के घाट उतार दिया गया।
गया, छपरा, पटना, मोतिहारी तथा मुजफ्फरपुर आदि नगरों में क्रांति ने भीषण रूप धारण कर लिया। ब्रितानियों ने दानापुर में एक छावनी की स्थापना की, ताकि बिहार पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके। स्वदेशियों की सातवीं, आठवीं तथा चालीसवीं पैदल सेनाएँ भीं, जिन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक विदेशी कंपनी और तोप सेना रखी गई थी। इसका प्रधान सेनापति मेजर जनरल लायड था। टेलर पटना का कमिश्नर था, जो बहुत दूरदर्शी था। उसमें प्रशासनिक क्षमता अत्यधिक थी। उसका यह मानना था कि पटना के मुसलमान भी इस क्रांति में हिंदुओं के साथ भाग लेंगे। पटना में बहावी मुसलमानों की संख्या बहुत अधिक थी। अतः टेलर ने बहावी मुस्लिम नेताओं पर कड़ी नज़र रखना प्रारंभ कर दिया। पटना के नागरिकों ने कुछ वर्ष से ही क्रांति की तैयार शुरू कर दी थी, इसके लिए संगठन स्थापित किए जा चुके थे, जिसमें शहर के व्यवसायी एवं धनी वर्ग के लोग सम्मिलित थे। पटना के कुछ मौलवियों का लखनऊ के गुप्त संगठनों से पत्र व्यवहार चल रहा था। उनका दानापुर के सैनिकों से भी संपर्क हो चुका था। ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस वाले भी क्रांतिकारियों का सहयोग कर रहे थे। दानापुर के सैनिक भी वृक्षों के नीचे गुप्त बैठकें किया करते और क्रांति की योजना बनाते थे।
दानापुर के सैनिक मेरठ सैनिकों के असन्तोष के बारे में जानते थे, परन्तु वे अवसर की प्रतिक्षा में थे। टेलर को पता चला कि दानापुर के सैनिकों में असन्तोष व्याप्त है, तो उसने विस्फोट होने से पूर्व ही उसे कुचलना उचित समझा। इसके लिए उसने तुरन्त प्रभावशाली कदम उठाए, जिसके कारण वहाँ क्रांति भीषण रूप धारण नहीं कर सकी। हाँ, तीन जुलाई को एक छोटी सी क्रांति अवश्य हुई, जिसे ब्रितानियों ने सिक्ख सैनिकों की सहायता से कुचल दिया।
तिरहुत ज़िले के पुलिस जमादार वारिस अली पर ब्रितानियों को संदेह हुआ और उन्हेंे तुरंत गिरफ़्तार कर लिया गया। उसके घर छापा डाला गया, जिसमें आपत्तिजनक काग़ज़ात प्राप्त हुए। इस अभियोग में उन्हेंे फाँसी पर लटका दिया गया। तत्पश्चात् अनेक क्रांतिकारियों को बंदी बनाकर जेल में डाल दिया गया। नागरिकों के हथियार लेकर चलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। रात को नौ बजे घर से निकलने पर रोक लगा दी गई और कर्फ्यू लगा दिया गया। परिणाम स्वरूप क्रांतिकारी रात्रि को मीटिंग नहीं बुला सकते थे। बिहार के ही एक प्रमुख मुस्लिम क्रांतिकारी परी अली के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। वे सिर्फ़ मुसलमानों के ही नेता नहीं थे, अपितु उन्हें समस्त क्रांतिकारियों का विश्वास एवं समर्थन प्राप्त था।
पीर अली लखनऊ के रहने वाले थे। उनके बारे में विशेष जानकारी तो प्राप्त नहीं होती, पर इतना अवश्य पता चलता है कि वे एक साधारण व्यक्ति थे, जिनमें देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। व्यक्ति की महानता उसके वंश ऐश्वर्य आदि से नहीं, अपितु उनकी निष्ठा से आँकीं जाती है। हमारी दृष्टि में एक साधारण व्यक्ति, जिसमें देश भक्ति भावना हो, देश के लिए मर मिटने की लालसा हो, वह व्यक्ति प्रकांड पंडितों एवं करोड़पतियों से हज़ार गुना बेहतर है। पीर अली लखनऊ से पटना आकर बस गए। आजीविका के लिए उन्होंने पुस्तक ब्रिकी का व्यवसाय प्रारंभ किया। वे चाहते तो अन्य काम भी कर सकते थे। पर उनका मुख्य उद्देश्य लोगों में क्रांति संबंधित पुस्तकों का प्रचार करना था। वे पहले पुस्तक पढ़ते और इसके बाद दूसरों को पढ़ने के लिए देते थे। वह पुरुष धन्य है, जो अपने ज्ञान को अपने तक ही समिति नहीं रखकर समस्त जनता को लाभान्वित करता है।
पीर अली भारत माता को दासता की बेड़ियों से मुक्त करनवाना चाहते थे। उनका मानना था कि गुलामी से मौत ज्यादा बहेतर होती है। उनका दिल्ली तथा अन्य स्थानों के क्रांतिकारियों के साथ बहुत अच्छा सम्पर्क था। वे उनसे समय-समय पर निर्देश प्राप्त करते थे। जो भी व्यक्ति उनके सम्पर्क में आता, वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। यद्यपि वे साधरण पुस्तक विक्रेता थे, तथापि उन्हें पटना के विशिष्ट नागरिकों का समर्थन प्राप्त था। क्रांतिकारी परिषद्, पर उनका अत्यधिक प्रभाव था। उन्होंने धनी वर्ग के सहयोग से अनेक व्यक्तियों को संगठित किया और उनमें क्रांति की भावना का प्रसार किया। लोगों ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि वे ब्रिटिशी सत्ता को जड़मूल से नष्ट कर देंगे। जब तक हममें रक्त की धारा प्रवाहित होती रहेगी, हम फिरंगियों का विरोध करेंगे, लोगों ने कसमे खाईं।
टेलर ने पटना में दमन चक्र चलाना शुरू किया, तो पीर अली ने विद्रोह कर दिया। उनके स्वभाव में अद्भूत तीव्रता तथा उतावलापन था। वे देशवासियों का अपमान सहन नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने जनता को सरकार के विरूद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी और स्वंय संग्राम में कूद पड़े।
उन्होंने स्वयं कहा था, "मैं समय से पहले ही विद्रोह कर उठा था। " सरकार ने पीर अली को गििरफ़्तारकर लिया और उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें मृत्यु दण्ड की सजा दी गई। पीर अली ने निडर होकर हंसते-हसंते मृत्यु को आलिंगन कर लिया।
श्री विनायक दामोदर सावरकर ने पीर अली के मृत्यु दंड के समय का बहुत अच्छा वर्णन किया है।
"हाथों में हथकड़ियाँ, बाँहों में रक्त की धारा, सामने का फंदा, पीर अली के मुख पर वीरोचित मुस्कान मानों वे सामने कहीं मृत्यु को चुनौती दे रहे हों। महान शहीद ने मरते-मरते कहा था, "तुम मुझे फाँसी पर लटका सकते हों, किंतु तुम हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मर जाऊँगा, किंतु मेरे रक्त से सहस्त्रों योद्धा जन्म लेंगे और तुम्हारे साम्राज्य को नष्ट कर देंगे।" कमिश्नर टेलर ने लिखा है कि पीर अली के मृत्यु दंड के समय बड़ी वीरता तथा निडरता का परिचय दिया।
पीर अली का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी मृत्यु के बाद 25 जुलाई को दानापुर की देशी पलटनों ने अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। दानापुर के सैनिकों ने जगदीशपुर के बाबू कुंवरसिंह को अपना नेता स्वीकार कर लिया। यद्यपि कुंवरसिंह वृद्ध हो गए थे, तथापि उनमें बहुत जोश था। उनमें अद्भुत सैनिक शक्ति थी। वृद्ध कुंवरसिंह ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया और यह प्रमाणित कर दिया कि बिहार की भूमि में अद्भुत शक्ति है। यहाँ का एक वृद्ध भी ब्रितानियों को ललकार सकता है और उनके दाँत खट्टे कर सकता है।
एक कवि ने ठीक ही लिखा है कि जो व्यक्ति अपने राष्ट्र पर अभिमान नहीं करता, वह मुर्दे के समान है। " जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं निरा पशु है और मृतक समानहै। " अच्छे लोगों ने तो यहाँ तक माना है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है। प्रत्येक प्राणी की मृत्यु निश्चित है। कुछ लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु अपनी जान की बाजी लगा देते है, तो कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपनी मातृ भूमि के लिए मर मिटते है। इतिहास में केवल उन्हीं को याद किया जाता है, जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान कर दिया है। त्यागी व्यक्ति को अपने त्याग का फल एक न एक दिन अवश्य प्राप्त होता है।
हमारे देश का दुर्भाग्य रहा है कि हम अपने शत्रुओं को पहचानने में असफल रहे, यदि पहचान भी लिया, तो संगठित होकर उन्हें देश से बाहर निकालने का प्रयान नहीं किया। यदि समस्त भारतीय संगठित होकर मोहम्मद गोरी, बख्तियार खिल्जी, बाबर एवं लार्ड क्लाइव का विरोध करते, तो आज भारत वर्ष का इतिहास ही कुछ और होता।
प्रयास किया था। इससे पूर्व मेवाड़ के महाराणा प्रताप और महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी ने मुगलों की हुकुमत के विरूद्ध अपनी आजादी के लिए संघर्ष किया था। इसलिए आज भी हम प्रताप और शिवाजी का नाम लेते हुए अपने आपको गौरवान्वित समझते है।
1857 के अमर क्रांतिकारियों में वलीदाद खाँ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे बुलन्दशहर के रहने वाले थे और मालागढ़ से क्रांति का संचालन करते थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका सम्बन्ध दिल्ली के राजघराने से था। जो व्यक्ति अपने देश को प्यार करता है, वह अपनी सुख-सुविधा की परवाह नहीं करता।
वलीदाद खाँ कुछ कारणों से पहले से ही कम्पनी सरकार से नाराज थे। वे अवसर की तलाश में थे। जब 1857 ई. में क्रांति प्रारम्भ हुई, तो उन्होंने सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया। अपने थोड़े से साधनों के आधार पर ही ब्रितानियों के विरूद्ध लड़ाई प्रारम्भ कर दी। यद्यपि कुछ लोगों ने उनके देश भक्ति के कार्य की सराहना नहीं की, तथापि वीर पुरूष बिना प्रशंसा की परवाह किए हुए अपने उचित कार्य करते रहते हैं।
मालागढ़ वलीदाद खाँ की क्रांति का प्रमुख केन्द्र था। कुछ आसपास के लोगों का उन्हें समर्थन प्राप्त था। आदमी यदि हिम्मत से काम ले, तो अपने दुश्मन को भी शिकस्त दे ही सकता है। वलीदाद खाँ नेब्रितानियों के विरूद्ध जमकर युद्ध लड़ा और गुलावटी की सैनिक चौकी पर अधिकार कर लिया। वलीदाद खाँ ने आगरा और मेरठ के बीच ब्रितानियों की संचार व्यवस्था तहस-नहस कर दी। 10 सितम्बर को गुलावटी के समीप वलीदाद खाँ ने कम्पनी की सेना के साथ जमकर युद्ध लड़ा, जिसमें ब्रितानियों को वलीदाद खाँ को पराजित करने में सफलता नहीं मिली।
इसी बीच मेरठ के कमिश्नर ने सरकार को पत्र लिखा कि अगर वलीदाद खाँ की गतिविधियों पर नियन्त्रण स्थापित नहीं किया गया, तो उसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। वलीदाद खाँ बड़ी तीव्र गति से अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहे थे। उनके विरूद्ध कदम उठाना इसलिए आवश्यक था, ताकि वह सरकार के लिए सरदर्द न बन सके।
क्रांतिकारी सरकार की नीति के बारे में अच्छी तरह जानते थे। अतः वलीदाद खाँ ने अपनी सेना को एक नये सिरे से संगठित किया। उनकी वीरता से मुगल सम्राट बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें अलीगढ के सूबेदार के पद पर नियुक्त कर दिया।
वलीदाद खाँ कम्पनी की सेना से युद्ध करने के लिए तैयार थे। 24 सितम्बर 1857 ई. को उनका कम्पनी के सैनिकों से घनघोर युद्ध हुआ, जिसमें अनेक लोग हताहत हो गए। क्रांतिकारी ब्रितानियों की शस्त्रों से सुसज्जित सेना के समक्ष अधिक समय तक नहीं टिक सके। उन पर ब्रिटिश सैनिक निरन्तर गोलाबारी करते रहे। क्रांतिकारियों को बहुत नुकसान उठाना पडा। क्रांतिकारियों ने भी अनेक अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया, परन्तु अन्त में उनकी पराजय हुई। 29 सितम्बर को ब्रितानियों ने मालागढ़ के दुर्ग पर घेरा डाल दिया, जिसके कारण वलीदाद खां को विवश होकर अपने साथियों के साथ भागना पड़ा। ब्रितानियों का किले पर अधिकार हो गया, परन्तु सुरंग फट जाने के कारण लेफ्टिनेन्ट होम की मृत्यु हो गई।
यह पता नहीं कि वलीदाद खाँ की मृत्यु कब और कहाँ पर हुई। इतना सही है कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपने घुटने नहीं टके। अन्य प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेताओं के साथ भी उनका सम्पर्क था। खान बहादुर खाँ तथा नाना साहब से भी उनकी भेंट हुई थी। वलीदाद खाँ के त्याग एवं बलिदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
कुछ ब्रिटिश एवं भारतीय इतिहासकारों ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को केवल सिपाही विद्रोह माना है। यह सत्य है कि इस संग्राम में भारतीय सिपाहियों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। सर्वप्रथम मंगल पाण्डेय नामक भारतीय सिपाही ने ही बैरकपुर छावनी में क्रांति का बिगुल बजाया था, इस घटना ने उत्तर पश्चिमी के प्रांतों को ही प्रभावित किया। कानपुर, दिल्ली, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ, पटना एवं दानापुर आदि स्थानों पर सिपाहियों ने विद्रोह का झंडा खड़ा किया। इसके बावजूद हम इसे केवल सिपाही विद्रोह कहकर नहीं पुकार सकते।
वस्तुतः 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसा जन आंदोलन था, जिसमें राजा-महाराजा सामंत, सरकारी पदाधिकारी, साधु एवं संन्यासी आदि सभी ने सक्रिय रूप से भाग लिया। 1833 ई. के चार्टर एक्ट के शिक्षित वर्ग ने विद्रोह प्रारंभ कर दिया था। बंबई और मद्रास के कुछ लोगों के प्रयासों के कारण 1853 ई. के चार्टर एक्ट में कुछ बातें ऐसी थीं, जो भारतीय हितों से संबंधित थीं। पर 1833 के एक्ट की भाँति इसका भी उल्लंघन किया जाने लगा।
डलहौडी की नीति ने भारतीय राजघराने को असंतुष्ट कर दिया था। उच्च शिक्षित वर्ग को सरकारी नौकरियों से वंचित कर दिया गया था, अतः उनमें सरकार के विरूद्ध भयंकर असंतोष व्याप्त था। इसलिए सरकार ने लोटे के बदले मिट्टी का बरतन देना प्रारम्भ किया। क़ैदियों द्वारा इसका विरोध किया गया। विवश होकर सरकार को यह आदेश वापिस लेना पड़ा। इसके बहुत दूरगामी परिणाम हुए। इस घटना को कुछ लोगों ने 'लोटा विद्रोह' के नाम से संबोधित किया।
1857 की क्रांति का प्रसार बिहार में भी हुआ। पटना तथा दानापुर आदि स्थानों पर क्रांति की योजनाएँ बनने लगीं। जगदीशपुर के शासक कुँवर सिंह का नाना साहब से संपर्क था। हरकिशन सिंह और उनके समर्थक दानापुर छावनी में बिहार के सिपाहियों में क्रांति की भावना का प्रसार कर रहे थे। पटना के पीर अली मुसलमानों को संगठित कर रहे थे।
पटना के कमिश्नर एस. टेलर का यह मानना था कि बिहार में क्रांति का प्रसार निश्चित रूप से होगा। अतः उनके वहाँ पर सी.आई.डी. का जाल बिछा दिया। इसी समय उसे यह सूचना प्राप्त हुई कि तिरहुत ज़िले का पुलिस जमादार वारिस अली ब्रितानियों का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने क्रांतिकारियों से अपना संपर्क स्थापित कर रखा था। एक सरकारी पदाधिकारी का विद्रोहियों का साथ देना सरकार की दृष्टि में राजद्रोह था। सरकारी आदेश से उनके मकान को घेर लिया गया, उस समय वे गया के अली करीम नामक क्रांतिकारी को पत्र लिख रहे थे। इस छापे में उनके घर से बहुत आपत्तिजनक पत्र प्राप्त हुए। इसको आधार बनाकर 23 जून, 1857 ई. को उनको गिरफ़्तार कर मेजर होम्स के पास भेज दिया गया। मेजर होम्स ने उस दानापुर कचहरी के कमिश्नर के पास भेज दिया। वहाँ उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें मृत्यु दंड की सजा दी गई। 6 जुलाई, 1857 ई. को वारिस अली को फाँसी पर लटका दिया गया।
वारिस अली अपने वतन को बहुत प्यार करते थे। अतः उसके लिए उन्होंने अपनी ज़िंदगी तक कुर्बान कर दी। वे साधारण व्यक्ति थे। उनका दिल्ली के शाही घराने से संबंध था। उन्होंने कँपनी में नौकरी कब जोइन की, इस बारे में हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है।
वारिस अली की कुर्बानी के बाद सारे प्रांत में क्रांति की लहर फैल गई। इधर पटना में पीर अली को भी फाँसी पर लटका दिया गया। कमिश्नर टेलर ने अनेक क्रांतिकारियों को बंदी बना कर उन पर मुकदमे चलाए, उनके घर उजाड़ दिए गए। उसका मानना था कि क्रांति को कुचलने से वह रुक जाएगी पर उसका प्रभाव उल्टा हुआ। दानापुर के सिपाहियों ने भी क्रांति कर दी और वे बाबू कुंवरसिंह की सेना से जाकर मिल गए।
कुँवर सिंह के साथ युद्ध करते हुए डनवर मारा गया। ब्रिटिश सैनिक हताहत हुए। क्रांति का शीघ्र ही बिहार के अन्य भागों में भी प्रसार हो गया। गया, छपरा, आरा, मुजफ्फरपुर, भागलपुर आदि में क्रांति का प्रसार हो गया, गोरखपुर में भी विद्रोहियों का एक दल आ गया।
कहने का मतलब यह है कि वारिस अली का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। 1857 की क्रांति से कँपनी सरकार की जड़े हिल गई और अन्त में ब्रिटिश साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया ने भारत में कंपनी के शासन का अंत कर दिया और हिंदुस्तान के शासन का भार स्वयं अपनी सरकार के अधीन किया।
भारत में शासन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक भारतीय सचिव को नियुक्त किया गया। इस समय ब्रिटिश सरकार ने क्रांति की ज्वाला को शांत करने के लिए बड़े-बड़े वायदे किए, परंतु सरकार ने उनको पूरा नहीं किया। वारिस अली 1857 की क्रांति के एक महान योद्धा थे, जिनकी कुर्बानी को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
बाबू कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर का नेतृत्व अमर सिंह ने किया था। अमर सिंह ने सिंहासन पर बैठने के बाद एक ओर अँग्रेज़ों को पराजित करने का निश्चय किया और दूसरी ओर अपने राज्य में सुदृढ़ शासन प्रबंध स्थापित किया। वीर विनायक दामोदर सावरकर ने लिखा है, "अमर सिंह कुंवर सिंह की ही तरह वीर, उदार और पराक्रमी थे।"
अमर सिंह बाबू कुंवर सिंह के सबसे छोटे भाई थे। उनके पिता का नाम साहिबजादा था। वो उन्हें बहुत प्यार करते थे। अमर सिंह ने धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण भारत के प्रमुख तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया था। अमर सिंह की पढ़ने-लिखने में रुचि थी। एक इतिहासकार के अनुसार, वे रामायण एवं महाभारत का जमकर पाठ करते थे।
अमर सिंह पहले अँग्रेज़ों से संघर्ष के पक्ष में नहीं थे। उनका यह मानना था कि अँग्रेज़ बहुत शक्तिशाली है, परंतु बाबू कुवंरसिंह ने एक प्रमुख सरदार हर किशन के परामर्श पर क्रांति में भाग लेने का निश्चय किया। बाबू कुँवर सिंह ने अँग्रेज़ों का विरोध किया, तब अमर सिंह भी उनकी तरफ़ आकर्षित हुए। पहले हर किशन सिंह ही बाबू कुँवर सिंह के प्रधान परामर्शदाता थे। जब अमर सिंह ने अपने भाई को अँग्रेज़ों से संघर्ष करते हुए देखा, तो वे भी अँग्रेज़ विरोधी कैंप में सामिल हो गए। हर किशन सिंह अमर सिंह से ईर्ष्या करते थे, अतः उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। बाद में बाबू कुँवर सिंह की राजनीतिज्ञ सूझ-बूझ के चलते दोनों ने बाद में निष्ठा के साथ युद्ध किया।
जगदीशपुर छोटी रियासत होते हुए भी उसका प्रभाव बिहियाँ आदि स्थानों पर था। सम्राट शाहजहाँ ने जगदीशपुर के ज़मींदार को 'राजा' की उपाधि प्रदान की थी। जगदीशपुर के अंतिम शासक राजा अमर सिंह ही थे। कुँवर सिंह के गद्दी छोड़ने के बाद बिहार में अमर सिंह ने आठ महीनों तक क्रांति का नेतृत्व किया। उस समय कुँवर सिंह उत्तर-पश्चिमीक्षेत्रोंमेंलड़नेमेंव्यस्तथे।
जब आयर ने जगदीशपुर पर विजय प्राप्त कर ली, तब अमर सिंह ने पहाड़ी क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ना प्रारंभ किया और कंपनी के विरुद्ध छापामार युद्ध जारी रखा एवं सासाराम के बीच आवागमन के मार्ग को अमर सिंह ने अवरूद्ध कर दिया। मिस्टर कोस्टले के अनुसार सासाराम के आस-पास के क्षेत्रों पर अमर सिंह का दबदबा बहुत बढ़ गया। आरा के आस-पास के गाँवों में भी स्थिति भयावह है। उन्होंने लिखा है कि इन क्षेत्रों में पुलिस का कोई प्रभाव नहीं है।
पटना के कमिश्नर ने बंगाल सरकार के सचिव को 6 सितम्बर, 1857 ई. को पत्र लिखा कि जब तक अमर सिंह को आस-पास के क्षेत्रों में रहेगा, तब तक आरा ज़िले में शांति कभी स्थापित नहीं सकती। यह भी संभव है कि आरा पर पुनः विद्रोहियों का अधिकार हो जाए। यदि आरा में पुनः विद्रोही पनप गए, तो वह पटना, गया तथा संपूर्ण बिहार के लिए एक सिरदर्द हो जाएगा। सरकार ने घोषणा की कि जो कोई अमर सिंह को पकड़वाएगा, उसे दो हज़ार रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा, जिसे बाद में बढ़ाकर पाँच हज़ार रुपये कर दिया गया था। निशांत सिंह और हरकिशन सिंह को पकड़ने के लिए सरकार ने क्रमशः एक हज़ार एवं पाँच सौ रुपये देने की घोषणा की।
ग्रैण्ड ट्रंक रोड के निकट कुरीडीह में अमर सिंह ने टेलिफ़ोन लाइन काट दी और पहाड़ियों की ओर चले गए। दक्षिण शाहाबाद में कुछ माह तक अमर सिंह ने गुरिल्ला युद्ध में अँग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए। अमर सिंह की रणनीति अँग्रेज़ों के लिए बहुत धातक सिद्ध हुई। अधिकांश स्थानों पर अमर सिंह ने अँग्रेज़ों को पराजित किया। यदि उन्हें पता चलता कि अँग्रेज़ों की विजय निश्चित है, तो वे अपनी सेना को छोटे-छोटे दलों में बाँटकर अनेक पूर्व निश्चित दिशाओं में भेज देते। इस तरह अमर सिंह की सेना देखते ही देखते ग़ायब हो जाती और अँग्रेज़ सेना उसका पीछा करके कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाती। अँग्रेज़ हमेशा यही सोचते थे कि इस अदृश्य सेना का मुक़ाबला कैसे किया जाए। प्रत्येक लड़ाई में अँग्रेज़ों को अपनी विजय निश्चित लगती थी, पर वे विजय प्राप्त नहीं कर पाते थे। इस प्रकार दूसरे स्थल पर उन्हें फिर अमर सिंह की शक्तिशाली सेना से युद्ध करना पड़ता था।
अमर सिंह के युद्धकौशल एवं वीरता से निराश होकर ब्रिटिश जनरल ई. लूगार्ड ने 17 जून तो त्यागपत्र दिया और इंग्लैंड वापस चला गया। उसके स्थान पर जनरल डगलस को नियुक्त किया गया। उसकी सेना भी युद्ध क्षेत्र छोड़कर वापस शिविर में चली गई। 28 फ़रवरी, 1858 ई. को शाहाबाद के मजिस्ट्रेट बेक ने कमिश्नर को लिखा था कि उसने अमर सिंह तलाश का हर संभव प्रयास किया था।
अमर सिंह की मुठभेड़ सर ई. लुगार्ड के साथ हुई। लूगार्ड ने आरा से बिहिया की ओर प्रस्थान किया। जहाँ अमर सिंह के कुछ लोगों ने उन्हे बाधा पहुँचाने का प्रयास किया, पर उसने उन लोगों को जंगल में खदेड़ दिया।
अमर सिंह और लूगार्ड के बीच पुनः जगदीशपुर में लड़ाई हुई, परंतु यहाँ भी विद्रोही सेना को जंगल की ओर भागने के लिए विवश होना पड़ा। जगदीशपुर पर अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए लूगार्ड ने चार युरोपियन टुकड़ी और एक सिक्खों की कँपनी को कैप्टन नार्मन के नेतृत्व में रखा।
10 मई को यह सूचना प्राप्त हुई कि कर्नल कोरफील्ड पीरो में आर रहा है। दलीपपुर में कुछ मुठभेड़ हुईं. 13 मई को जब लुगार्ड पीरों में विश्राम कर रहा था, तब अमर सिंह की सेना ने अँग्रेज़ सेना को परास्त करके उनके कैंप में तहलका मचा दिया।
लूगार्ड ने 14 मई को जगदीशपुर से सेना के प्रधान को लिखा कि अँग्रेज़ सेना गर्मी से बहुत परेशान हो चुकी है और उसे बहुत क्षति उठानी पड़ी है। अब मैं विद्रोहियों पर अधिकार करने या भगाने में असमर्थ हूँ। 15 मई को अमर सिंह के सैनिकों ने लूगार्ड की सेना पर आक्रमण कर दिया, परंतु अँग्रेज़ सैनिक जगदीश पुर के दक्षिण जंगल की ओर भाग गए। 16 मई को अँग्रेज़ सैनिकों ने हरकिशन गाँव में आग लगाकर उसे बरबाद कर दिया। ब्रिटिश सेना ने अमर के मकान को भी नष्ट कर दिया।
सर लूगार्ड ने एक कैंप लगाया, ताकि आरा, डुमरॉव, बक्सर, भोजपुर तथा सासाराम में विद्रोहियों को शांत कर उन्हें वहाँ से हटाया जा सके। पटना प्रमंडल के आयुक्त के सरकार को लिखा था कि यथाशीघ्र जगदीशपुर के जंगल को कटवा दिया जाए, ताकि विद्रोही वहाँ पर नहीं छिप सकें।
20 मई को लूगार्ड तथा अमर सिंह के बीट मेटाही में मुठभेड़ हुई। डगलस के साथ भी अमर सिंह का संघर्ष हुआ, जिसमें अँग्रेज़ सेना ने उन्हें पीछे हटने किए विवश किया, पर वह उन पर कब्जा न कर सकी।
पटना के कमिश्नर एस. टेलर ने लूगार्ड को लिखा कि विद्रोहियों को तुरंत शाहाबाद से निकाल दिया जाए। कई स्थानों पर अमर सिंह की सेना का लूगार्ड के सैनिकों से संघर्ष हुआ। इस समय अँग्रेज़ सैनिकों ने क्रांतिकारियों के एक नेता निशान सिंह को पकड़ लिया और उन पर सासाराम के कमांडिंग ऑफ़िसर कोल स्टेटन ने सैनिक अदालत के द्वारा मुकदमा चलाने का आदेश दिया और निशान सिंह को गोली मार दी।
इस घटना के अमर सिंह हताश नहीं हुए। उन्होंने साहस से काम लेते हुए संघर्ष जारी रखा। वे 7 जून को कर्मनाशा नदी पार कर गहमर होते हुए गाजीपुर जिला के जमानियाँ परगना में पहुँचे। जनरल ई. लूगार्ड ने कैप्टन रैटरे को रूपसागर में एवं ब्रिगेडियर डगलस को बक्सर में और स्वयं दलीपपुर में रहा, ताकि अमर सिंह शाहाबद में न आ सके। परंतु इसके बावजूद अमर सिंह 1,500 सैनिकों सहित जंगलों को पार करके जगदीशपुर के निकट मदनपुर आ गए। 12 जून को अमर सिंह की कैप्टन रैटरे की सेना के साथ मुठभेड़ हुई, जिसकी सूचना सरकार को नहीं दी गई।
14 जून को कमिश्नर ने बंगाल के सचिव को लिखा कि छपरा में विद्रोही बहुत सक्रिय हो चूके हैं और उन्होंने आरा के निकट उदवन्त नगर को भी घेर लिया है। जुलाई के मध्य कैप्टन रैटरे ने सरनाम सिंह पकड़ने में सफलता प्राप्त की और उसके परिवार के समस्त पुरुषों को मौत की नींद सुला दिया।
अमर सिंह का अपने पाँच सौ सैनिकों के साथ समथा गाँव में लेफ्टिनेन्ट वाल्टर के साथ 7 जुलाई, 1858 ई. को संघर्ष हुआ। 30 जुलाई को पटना के कमिश्नर ने बंगाल के सचिव को लिखा कि अभी जगदीशपुर के आस-पास के क्षेत्र में एक ही व्यक्ति (अमर सिंह) का प्रभाव हैं। यहाँ तक कि उसी का शासन है। वही कर वसूल करता है और सरकार की भाँति अपने अधिकारियों की नियुक्ति भी करता है एवं अपराधियों को दंड भी देता है।
अमर सिंह ने एक सिपाही को सिर्फ़ इसलिए फाँसी पर लटका दिया क्योंकि उसने एक बनिया की हत्या की थी। उन्होंने हरकिशन सिंह को जगदीशपुर के शासन प्रबंध का प्रधान नियुक्त किया। उनका सैनिक संगठन बहुत सशक्त था। तरह-तरह के अधिकारी थे। जगदीशपुर के दो हज़ार सिपाहियों में से 1500 फायरमेन एवं 500 तलवार चलाने में निपुण थे।
अमर सिंह 29 जुलाई को कारीसाथ आए। 30 जुलाई को महौली में कर्नल वालटर से उनकी मुठभेड़ हुई, जिसमें 750 सैनिक मारे गए। अँग्रेज़ सेनापति ने 9 अक्टूबर को दानापुर से क्रांतिकारियों को कुचलने की एक योजना बनाईं, जिसके अनुसार जगदीश पुर, चौगाई, कारीसाथ में सैनिक भेज दिय गए।
24 अक्टूबर, 1858 ई. तक ब्रिगेडियर डगल ने अपनी संपूर्ण शक्ति से विद्रोहियों को पराजित करने का प्रयास किया। दूसरी और जनरल हैवलाक ने उसे सहायता दी। कैमूर की चोटी सैथियादाहर से विद्रोहियों को हटा दिया गया। फिर भी लड़ाई चलती रही।
13 अप्रैल, 1859 ई. को पटना के कमिश्नर मिस्टर फरगुसन ने सरकार को लिखा कि बहुत से क्रांतिकारी नेपाल की तराइयों में छिपे हुए हैं। अमर सिंह साहस के साथ घूम रहा है। 24 नवंबर, 1859 ई. को पलामू जिला के करौंधा गाँव में अमर सिंह विशाल सेना के साथ पाए गए। नाना साहब के नेपाल चले जाने के बाद अक्टूबर, 1859 में अमर सिंह तराई चले गए। वहाँ पहुँचने के बाद उन्होंने नाना साहब की सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व सँभाल लिया।
दामोदर सावरकर के अनुसार अमर सिंह कैमूर की पहाड़ियों को पार करते हुए कहीं अन्यत्र निकल पड़े। वे शत्रुओं के हाथों नहीं पकड़े गए। राज्य और वैभव ने उनका साथ छोड़ दिया, किंतु उनकी अजेय आत्मा उनके साथ रही। उन्होंने अंतिम क्षणों तक साहस नहीं छोड़। पर उनके अन्तिम दिन कहाँ और कैसे बीते, इसका कोई उत्तर नहीं है।" इसके विपरीत डॉ. के. के. दत्ता लिखा है कि, "अमर सिंह को नेपाल की तराइयों में महाराज जंग बहादुर के सैनिकों ने दिसंबर 1859 ई. में पकड़ लिया।" संयुक्त प्रांत की सरकार ने बंगाल की सरकार को लिखा कि अमर सिंह पर मुकदमा उसके जिला शाहाबाद में हो या गोरखपुर। उन्हें गोरखपुर जेल में रखा गया। बंगाल सरकार का विचार था कि शाहाबाद में ही मुकदमा हो तो ज़्यादा अच्छा है पर बीच 4 फरवरी, 1860 को उन्हें भयानक पेचिस के चलते गोरखुपर जेल के अस्पताल में भर्ती किया गया। जहाँ उनकी मृत्यु 5 फरवरी, 1860 ई. को हो गई।
अमर सिंह भारतीय स्वतंत्रता के एक ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र थे, जिनकी वीरता आज भी भारतीयों को राष्ट्र के लिए मर मिटने के लिए प्रेरणा देती है। निःसंदेह अमर सिंह कुँवर सिंह के लिए लक्ष्मण जैसे भाई थे।
इस विषय में मनोरंजन प्रमाद सिंह ने ठीक ही लिखा है-
"राम अनुज जगजान लखन, ज्यों उनके सदा सहाई थे। गोकुल में बलदाउ के प्रिय, जैसे कुंवर कन्हाई थे। वीर श्रेष्ठ आल्हा के प्यारे, ऊदल ज्यों सुखदायी थे। अमर सिंह भी कुँवर सिंह के वैसे ही प्रिय भाई थे। कुँवर सिंह का छोटा भाई वैसी ही मस्ताना था, सब कहते है अमर सिंह भी बड़ावीरमर्दानाथा।"
भारत की पुण्य भूमि पर अनेक संत, ऋषि एवं महर्षि हुए है, जिन्होंने ईश्वर की उपासना करते हुए समाज तथा राष्ट्र की सेवा भी की है। ऐसे ही सिद्ध संतों में एक थे-बंसुरिया बाबा, जिन्होंने भगवान का गुणगान करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में प्रकाश स्तंभ का कार्य किया।
1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में समस्त जातियों और वर्गों के लोगों ने खुलकर भाग लिया था। डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति के कारण झाँसी, सतारा, अवध एवं दिल्ली सभी कंपनी शासन के विरुद्ध हो चुके थे। नाना साहब और तात्या टोपे ने मिलकर बिठूर में क्रांति की योजना बनाई थी। क्रांति का संदेश भी गुप्त रूप से गाँव-गाँव में फैलाया गया था। क्रांति के संदेश को फैलाने में साधु-संतों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
बिहार में गुप्त रूप से क्रांति का प्रचार हो रहा था। पीर अली के नेतृत्व में क्रांति की योजना बनती थी एवं इसकी गुप्त बैठकें दानापुर में होती थीं। जगदीशपुर के बाबू कुंवरसिंह की ओर से बिहार के दानापुर छावनी के सिपाहियों में हरेकृष्ण सिंह एवं दल भनज सिंह क्रांति की लहर फैलाते थे।
भारत में संकट के समय साधु-संतों ने देश के उद्धार के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर किया हैं। कहीं-कहीं पर आंदोलन का संचालन भी किया है और आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी उठाई है।
त्रेता युग में जब लंका के राजा रावण ने आर्य सभ्यता एवं संस्कृति को संत्रस्त कर दिया था, तब महर्षि वशिष्ठ एवं अगस्त्य ने भगवान राम को उसके विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष हेतु तैयार किया था। राम ने अपने भाई लक्ष्मण तथा वानर सेना की सहायता से रावण को पराजित कर दक्षिण में आर्य संस्कृति की पताका लहराई थी। इसी प्रकार द्वापर युग में विदुर महाराज ने कौरव-पाँडव युद्ध में गुप्त रूप से पाँडवों की मदद की थी। साधु-संत हमेशा न्याय तथा धर्म का ही साथ देते हैं।
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'आनंद मठ' में लिखा है कि संन्यासियों ने अँग्रेज़ी साम्राज्य को नष्ट करने में अपूर्व सहयोग दिया। उन्होंने जन साधारण में राष्ट्रीय जागृति का शंखनाद किया।
भोजपुर की भूमि भारत की पवित्रतम् धरती मानी जाती है। महर्षि विश्वमित्र ने यहीं पर राम तथा लक्ष्मण को अपने सिद्धाश्रम में शस्त्रों की शिक्षा दी थी, ताकि वे राक्षसों का विनाश कर सकें। इसी भूमि के एक साधारण जागीरदार के निष्कासित पुत्र फरीद खाँ (शेरशाह) ने मुगल सम्राट हुमायूँ को पराजित कर सूर वंश का शासन स्थापित कर दिया था। हमारा कहने का अर्थ यह है कि भोजपुर की भूमि पर अनेक ऐसे रत्न पैद हुए हैं, जिन्होंने किसी न किसी रूप में भारत माँ की बहुमूल्य सेवा की है।
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान बाबूकुंवरसिंह एवं अमर सिंह ने बिहार के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। उन्हें इस हेतु बंसुरिया बाबा ने प्रेरणा प्रदान दी। ऐसा कहा जाता है कि उन दिनों जगदीशपुर के जंगलों में एक संत रहते थे, जिनकी बंशी की ध्वनि पर समस्त प्राणी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे स्वयं भगवान कृष्ण उनके रूप में भोजपुर की जनता को अपनी मुरली की धुन सुना रहे हैं। जिस प्रकार कृष्ण ने अत्याचारी कौरवों के विरूद्ध अर्जुन को युद्ध करने हेतु प्रेरित किया, उसी प्रकार बंसुरिया बाबा ने भी कंपनी के अत्याचारी शासन के विरुद्ध भोजपुर की जनता को संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान की। बाबा के आह्वान पर जनता अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो गई। बाबा कहते थे " बेटा अपना माथा ठीक रखो। शरीर स्वतः काम करेगा।" इसका अर्थ यह था कि अपने नेता की मदद करो। बाक़ी सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। अनुशासन में रहते हुए कँपनी के अत्याचारी शासन का अन्त करो।
बाबू कुंवरसिंह एवं अमर सिंह ने बाबा से प्रेरणा प्राप्त की। वे अपनी योजनाएँ बनाते, जिसके लिए बाबा हमेशा आशीर्वाद देते। ऐसा भी लिखित प्रमाण उपलब्ध होता है कि उन्होंने कुंवरसिंह से एक बार कहा था कि तुम्हारा नाम तुम्हारे वंश के कारण नहीं, अपितु तुम्हारी सेवाओं के कारण भारतीय इतिहास में अमर हो जाएगा।
बाबा की प्रेरणा से हज़ारों भोजपुरी युवक कुंवरसिंह की सेना में बिना वेतन के कार्य करने लगे। वे अँग्रेज़ों को विधर्मी बताकर जनता में उनके प्रति धृणा की भावना उत्पन्न करते थे। बाबा के मन में राष्ट्रीय भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे हर तरीके से अँग्रेज़ी राज्य की समाप्ति के इच्छुक थे। बाबा ने स्वयं तो शस्त्र नहीं उठाया, परंतु दूसरों को इस हेतु प्रेरित किया।
बाबा स्थान-स्थान पर घूमकर क्रांति के संदेशों का प्रचार करते थे। उनके प्रचार का तरीका बहुत सरल एवं आकर्षक था। बाबा का जन्म कहाँ हुआ था। उनके माता-पिता कौन थे। इस संबंध में हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। वास्तव में महान् संतों का कोई एक स्थान नहीं होता है। भोजपुरी में एक कहावत है कि 'रमता जोगी बहता पानी' का ही महत्व है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि बाबा चंबे क़द के दुबले-पतले अघेड़ अवस्था के संत थे। वे गाँजा पीते थे और हरदम बोलते रहे थे। दूध और फल खाते थे और गाँव के बाहर ही रहा करते थे।
कुंवरसिंह की मृत्यु पश्चात् अमर सिंह ने शासन का कार्य सँभाला और अँग्रेज़ों के विरूद्ध संघर्ष जारी रखा। उस समय भी बाबा अमर सिंह की प्रेरणा देते रहते थे। उनकी कृपा एवं आशीर्वाद से अमर सिंह कई बार दुश्मनों के हाथों से बाल-बाल बचे थे।
बाबा को जब यह पता चला कि बाबू कुंवरसिंह के भतीजे रिपुभंजन सिंह तथा गुमान भंजन सिंह अँग्रेज़ों से मिले हुए हैं, तब उन्हें बहुत दुःख पहुँचा। रिपुभंजन सिंह बाबू कुंवरसिंह की समस्त योनजाओं की जानकारी अँग्रेज़ों को दे देते थे। वे क्रांतिकारियों का भेद अँग्रेज़ों को देते थे और अँग्रेज़ सेना को रसद पहुँचाते थे। यही नहीं, विद्रोहियों को समझाकर क्रांति से दूर करना, अँग्रेज़ों से माफ़ी मँगवाना, उत्तेजित जनता को अँग्रेज़ों के पक्ष में करना आदि रिपुभंजन सिंह के प्रमुख कार्य थे।
बाबा रिपुभंजन सिंह के इन कार्यों से भयंकर नाराज़ थे। अतः उन्होंने अभिशाप दिया था कि रिपुभंजन सिंह का धन तथा यश दोनों ही नष्ट हो जाएँगे।
डॉ. भरत मिश्र ने जगदीशपुर की जनता से चर्चा करने के बाद बाबा के बारे में यह निष्कर्ष निकाला कि बाबू कुंवरसिंह से एक साधु का बहुत अच्छा संपर्क था। दुर्भाग्य की बात कि वैसे साधु-महात्मा का अवशेष नहीं है। उन पर विद्वानों को विशेष अनुसंधान करने की आवश्यकता है। आज हमारे देश को बंसुरिया बाबा जैसे संत की आवश्यकता है, जो देश की अखंडता एवं राष्ट्रीय एकता के लिए कार्य कर सके। हमारा यह प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए कि समस्त भारतवासी एक सूत्र में बँधे।
प्रसिद्ध राष्ट्र कवि स्वर्गीय रामधारीसिंह दिनकर का यह मानना था कि इतिहास सभी शहीदों के साथ एक जैसा न्याय नहीं करता। उन्होंने लिखा है-
"अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा जो चढ़ गए पुष्प वेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम आज उनकी जय बोल।"
निःसन्देह हमारे देश की अआज़ादीके लिए कई ऐसे व्यक्ति भी शहीद हुए हैं, जिनके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है। हम उन सभी ज्ञात-अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति नतमस्तक हैं, जो देश की आज़ादी के लिए हँसते-हँसते शहीद हो गए। अधिकांश लोग 1857 की क्रांति के प्रमुख क्रांतिकारियों को जानते हैं, परंतु बहुत से वीर तथा वीरांगनाएँ ऐसी भी हुई हैं, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। उन्हीं शहीदों में से एक गौड़ राजा शंकर शाह का नाम भी लिया जा सकता है। राजा शंकर शाह गढ़मंडल के विख्यात गौड़ राज परिवार के वंशज थे, जो प्रसिद्ध वीरांगना रानी दुर्गावती से संबंधित थे। राजा शंकर साह का निवास जबलपुर के निकट पुरवा नामक स्थान पर था।
1857 की क्रांति को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी माना जाता है। 1857 के मध्य तक भारत के अधिकांश भागों में क्रांति का प्रसार हो चुका था। बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं दिल्ली क्रांति की चपेट में आ चुके थे। इसके प्रमुख केंद्र कानपुर, लखनऊ, झाँसी, मेरठ, वाराणसी आदि थे। जबलपुर में भी वहाँ की जनता ने राजा शंकर शाह के नेतृत्व में अँग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ कर दिया था।
राजा शंकर शाह भी जगदीशपुर के बाबू कुंवरसिंह की भाँति अपने वंश पर अभिमान करते थे। उनकी तलवार में भी कुंवरसिंह से अधिक चमक-दमक थी। झाँसी की रानी और कुंवरसिंह की भाँति उनमें भी भारत माता को अँग्रेज़ों की दासता से मुक्त करवाने की भावना थी। जो भी व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार देश तथा समाज की सेवा करता है, वह निःसंदेह प्रशंसनीय है।
यद्यपि यह सत्य है कि राजा शंकर सिंह की आर्थिक दशा ख़राब थी। कभी उनका राज्य बहुत प्रभावशाली था, परंतु सभी दिन एक जैसे नहीं होते। 'हाथ भरा भी तो नौ लाख का।' वे दो पहर के प्रखर भास्कर के समान न होकर अस्ताचल सूर्य के समान थे। अतः अपने क्षेत्र के लोगों पर उनका दबदबा और व्यापक प्रभाव था। अँग्रेज़ सरकार उनको अपनी तरफ़ मिलाकर रखने के लिए पेन्शन भी देती थी।
शंकर शाह चाहते तो क्रांतिकारियों का विरोध करके अपनी पेन्शन में वृद्धि करवा सकते थे और कुछ भी लाभ उठा सकते थे, परंतु उन्होंने ग़रीबी में ही जीना पसंद किया। उन्होंने यह निर्णय लिया कि चाहे सरकार उनकी पेन्शन बंद कर दे, परंतु वे कंपनी के शासन का विरोध करने में क्रांतिकारियों का साथ देंगे और देश के लिए मर मिटेंगे।
मेरठ के सिपाहियों के विद्रोह के समाचार जबलपुर की 52वीं पलटन को मिल चुके थे। उसने भी कंपनी सरकार से संघर्ष करने का निश्चय कर लिया था। राजा शंकर शाह तथा उनके पुत्र रघुनाथ शाह को सक्रिय रूप से सहायता की। यह निश्चित हुआ कि वे लोग मोहर्रम के दिन अँग्रेज़ों पर आक्रमण कर देंगे। पर इसे क्रियान्वित नहीं किया जा सका। सरकार ने एक चपरासी को फ़क़ीर के रूप में भेजा। उसने राजा की गुप्त योजना का पता लगा लिया।
इसके बाद लेफ्टिनेन्ट क्लार्क ने 'राजा शंकर साह' को उनके पुत्र तथा परिवार के अन्य 13 सदस्यों सहित 14 सितम्बर, 1857 ई. को बंदी बना लिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उन्हें 15 सितम्बर बंदी बनाया गया था। तत्पश्चात् उनके घर की तलाशी ली गई, जिसमें कुछ आपत्तिजनक काग़ज़ात प्राप्त हुए। इसी समय सरकार को यह सूचना प्राप्त हुई कि कंपनी के कुछ सिपाही राजा को मुक्त करवाने पर तुले हुए हैं। इसलिए सिपाहियों पर सख़्त निगरानी रखी गई।
राजा शंकर शाह और उनके पुत्र पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया, जिसमें पिता-पुत्र को राजद्रोह के लिए अपराधी ठहराया गया। इसके बाद पिता-पुत्र को फाँसी नहीं देकर तोप के गोले से उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी गई। अँग्रेज़ों का यह मानना था कि शंकर शाह को दंड देने से स्थिति में परिवर्तन हो जाएगा, परंतु ऐसा नहीं हो सका।
52वीं पलटन ने विद्रोह कर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने भारत के बूढ़े सम्राट बहादुरशाह जफर को अपनी सेवाएँ अर्पित कीं।राजा शंकर शाह 1857 की क्रांति के एक प्रमुख योद्धा थे, जिन्होंने हरसम्भव भारत माता की सेवा का प्रयास किया। भारतवासी उनके बलिदान को कभी नहीं भूलेंगे और उनकी भाँति हमेशा बुराइयों एवं अत्याचारों के ख़िलाफ़ उठाते रहेंगे।
1857 की प्रथम क्रांति में असंख्य लोगों ने भाग लिया था, परन्तु उन्हीं की उपलब्धियाँ जनता तक पहुँची, जो बड़े परिवार में जन्मे थे अथवा राज या जमींदार थे। परन्तु हमारा यह मानना है कि ऐसे बहुत से लोगों ने भारत की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है, जिनकी जानकारी जनता को नहीं है। अतः ज्ञात व्यक्ति की भाँति अज्ञात व्यक्ति भी हमारे लिए उतनी ही श्रद्धा के पात्र हैं। सम्मभ है उनको इतिहास में समुचित स्थान नहीं मिला हो। किसी का इतिहास में उल्लेख हो या नहीं, इससे उसका त्याग और शौर्य कम नहीं हो जाता। हाँ, वे विस्मरणीय अवश्य हो जाते हैं। परन्तु महान् आत्माएँ इसकी परवाह न करते हुए निरन्तर अपने कर्तव्य-पथ की ओर अग्रसर होती रहती हैं। वे संसार को कुछ न कुछ देना ही अपना लक्ष्य रखते हैं। वे 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, अर्पित हो मेरा मनुज काय' के सिद्धान्त के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वे जननी तथा जन्मभूमि के लिए सर झुकाने के स्थान पर सर कटवाना पसन्द करते हैं।
1857 की क्रान्ति के प्रमुख नेताओं नाना साहब, तात्या टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम को तो हम जानते हैं, परन्तु जौधारा सिंह जैसे साधरण क्रान्तिकारी के बारे में कुछ नहीं जानते हैं।
जौधारा सिंह भारत माँ को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने उसे बेड़ियों से मुक्त करवाने की कसम खाई थी। उन्होंने साधारण ग्रामीण होते हुए भी अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए आवाज उठाई। उन्होंने गया के उत्तर-पश्चिम में क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया। अंग्रेजों ने उनके विरूद्ध एक पुलिस का दस्ता भेजा, जौधारा सिंह ने उस पुलिस के दस्ते को पीछे खदेड़ दिया।
जौधारा सिंह गया जिले के खमिनी गाँव के रहने वाले थे। उनका गाँव क्रान्ति का केन्द्र बन गया। क्रान्तिकारियों ने नवादा तथा शेरघार्टी की चौकियों पर अधिकार कर लिया। उन्होंने गया जेल के फाटक तोड़कर कैदियों को मुक्त कर दिया। बिहार शरीफ के मुन्सिफ की हत्या कर दी गई। क्रान्तिकारियों के दल ने टेफारी होते हुए सोनू की ओर प्रस्थान किया।
इधर कुंवरसिंह ने अरवल पर अधिकार कर लिया था। जहानाबाद के थाने पर आक्रमण किया गया और शहर में लूटमार मचा दी। सरकारी कचहरी को जलाकर राख कर दिया गया और दरोगा की हत्या कर दी गई। इतना होने पर भी कप्तान रॉट्री कुछ नहीं कर सका। जौधारा सिंह रफीगंज के नजदीक पहाड़ पर चले गए। वहाँ पर उनकी अंग्रेजों से मुठभेड़ हुई, जिसमें अंग्रेज बहुत कठिनाई से विजय प्राप्त कर सके।
विजय और पराजय का उतना महत्त्व नहीं है, जितना दुश्मनों के दाँत खट्टे करने का है। जौधारा सिंह निःसन्देह एक बहादुर क्रांतिकारी थे, जिनके त्याग, वीरता, शौर्य और समर्पण को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
राणा बेनी माधोसिंह अवध के प्रसिद्ध शक्तिशाली ताल्लुकदार थे, जिनका 1857 के क्रान्तिकारियों में एक प्रमुख स्थान है। जैसे शाहाबाद में प्रसिद्ध योद्धा बाबू कुंवरसिंह के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ तथा लोकगीत प्रचलित हैं, उसी प्रकार राणा बेनी के सम्बन्ध में भी शाहाबाद में कुछ लोकगीत प्रचलित हैं। आज भी वहाँ के किसान यह गीत गाते हैं-
"बाबू कुंवरसिंह तेगवा बहादुर बांगला पर उड़ता अबीर होरे लाल बांगला पर उड़ता अबरी।"
इस प्रकार बैसवाड़ा के निम्नलिखित लोकगीत राणा बेनी माधोसिंह के शौर्य एवं लोकप्रियता की कहानी पर प्रकाश डालते हैं-
"अवध में राणा भयो मरदाना। पहली लड़ाई भई बक्सर में, सिमरो के मैदाना, हुंवा से जाय पुरवा मां जीव्यो, तबै लाट घबराना। अवध में भयो मरदाना। भाई, बन्धु औ कुटुम्ब कबीला, सबका करौ सलामा, तुम तो जाय मिल्यो गोरन ते, हमका है भगवाना, अवध में राणा भयो मरदाना। हाथ में माला, बगल सिरोही, घोड़ा चले मस्ताना, अवध में राणा भयो मरदाना।"
मौलवी अहमदशाह की भाँति राणा माधोसिंह भी अपने सिद्धान्तों पर अटल थे। उन्होंने अंग्रेजों के सामने अपना सिर कभी नहीं झुकाया। यह अलग बात है कि उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। उनका अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का स्वप्न पूरा नहीं हुआ, परन्तु उनके शौर्य, वीरता एवं त्याग से हजारों युवकों को प्रेरणा मिली। वस्तुतः राणा बेनी माधोसिंह दृढ़ इच्छाशक्ति तथा साहस की प्रतिमूर्ति थे।
राणा बेनी माधोसिंह बैसवाड़ा के राजपूतों के सरदार माने जाते थे। वे कभी भी निराश नहीं होते थे। शंकरगढ़ के ताल्लुकेदार के कोई पुत्र नहीं होने से उन्होंने राणा बेनी माधोसिंह को गोद ले लिया था। राणा बेनी माधोसिंह चार गढ़ों के मालिक थे।
राणा बेनी माधोसिंह आध्यात्मिक पुरूष थे। वे हमेशा दुर्गा का पूजा-पाठ करते थे। अवध के नवाब वाजिदअली शाह ने उनके गुणों से प्रभावित होकर उन्हें 'दिलेर जंग' की उपाधि प्रदान की थी। अंग्रेजों ने हड़प नीति को अपनाते हुए शंकरगढ़ के ताल्लुकेदार बेनी माधोसिंह के 16 गाँव छीन लिए। अतः राणा उनके विरोधी हो गए। उन्होंने यह प्रतिज्ञा कि वे अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष में भाग लेंगे और उनके शासन को ध्वस्त करने का हरसम्भव प्रयास करेंगे।
जब क्रान्ति का बिगुल बजा, तो बेनी माधोसिंह ने भी इसमें खुलकर भाग लिया। मई, 1858 में उन्होंने अपनी सेना लखनऊ के निकट बनी के पास भेजी। बेगम हजरत महल ने उन्हें आलमनगर के युद्ध में शामिल होने के लिए आह्वान किया था।
राणा ने मई-जून, 1858 ई. में बहराइच से अंग्रेजों का मार भगाया। उन्होंने लखनऊ में अग्रेजों के विरूद्ध कई युद्धो में भाग लिया। बेलीगारद के युद्ध में राणा ने अपने एक हजार सैनिक भेजे थे। वे कुंवरसिंह की भाँति गोरिल्ला युद्ध पद्धति में विश्वास करते थे। इस युद्धकौशल में उन्होंने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए थे।
अंग्रेज अधिकारी राणा से बहुत भयभीत थे। बिहार में वृद्ध कुंवरसिंह ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था, तो लखनऊ के आस-पास बूढ़े माधोसिंह उनके लिए सरदर्द बने हुए थे।
अंग्रेजों ने राणा का सफाया करने का प्रयास किया, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। लखनऊ की पराजय के बाद भी राणा ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने क्रान्ति को तीव्रतर करने के लिए उसकी भागड़ोर अपने हाथ में ले ली। अंग्रेज जहाँ भी अपने राजस्व अधिकार अथवा अन्य अधिकारी की नियुक्त करते थे, तो बेनी सिंह उन्हें मौत की नींद सुला देते थे।
इंगलैण्ड की साम्राज्ञी का घोषणा पत्र राणा बेनी माधोसिंह को भेजा जाता है। राणा को यह सूचित किया जाता है कि उस घोषणा पत्र की शर्तों के अनुसार उनका जीवन आज्ञाकारिता प्रदर्शित करने पर ही सुरक्षित है। गवर्नर जनरल का विचार कठोर व्यवहार करने का नहीं है। परन्तु बेनी माधो के यह विदित् होना चाहिए की वह दीर्घ समय से शस्त्र विद्रोह कर रहे हैं और कुछ समय पूर्व ही उन्होंने अंग्रेजों की सेनाओं पर आक्रमण किया है। अतएव उन्हें अपने किलों तथा तोपों को पूर्ण रूप से समर्पित कर देना चाहिए और अपने सिपाहियों तथा सशस्त्र अनुयायियों को लेकर अंग्रेज सैनिकों के सम्मुख शस्त्र अर्पित कर देने चाहिए। तदुपरान्त ही सिपाही तथा उनके सशस्त्र अनुयायी बिना दण्ज या हानि के घर जा सकेंगे।
कैम्पबेल की सेना केशोपुर में रूकी हुई थी। होपग्रान्ट की सेना उसके दाहिने ओर तीन मील की दूरी पर थी। पश्चिम की ओर से ब्रिगेडयर इबेल की सेना बढ़ रही थी। कम्पनी के सैनिक अधिकारी बेनी माधोसिंह को तीनों ओर से आक्रमण कर शिकस्त देना चाहते थे।
यह सही है कि राणा अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहे। उनके लड़के ने अंग्रेज सैनिक अधिकारी को पत्र लिखा कि वह अपने पिता की मदद नहीं करेगा और आवश्यकता पड़ने पर वह अंग्रेजों की मदद करेगा। राणा ने अंग्रेज सरकार को यह स्पष्ट लिखा कि वह बिरजिसकद के साथ है। राणा बेनी माधोसिंह के पास 40 तोपें, 2,000 घोड़े एवं 4,000 सैनिक थे।
अंग्रेज अधिकारी राण के अकस्ताम आक्रमण से भयभीत एवं चिन्तित थे। अतःउन्होंने राण की गतिविधियों पर अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया। राणा भी अंग्रेज शक्ति के बारे में जानते थे। अतःउन्होंने 16 नवम्बर को अपना किला खाली कर दिया।
तत्पश्चात् राणा रायबरेली होते हुए डोडिया खेड़ पहुँचे। यहाँ पर उनकी अंग्रेजों के विरोधी रामबख्श सिंह से मुलाकात हुई। राणा ने रामबख्श सिंह के साथ मिलकर ब्रिगेडियर इबेल की सेना का मुकाबला किया। राणा की सेना ने युद्ध में असाधारण बहादुरी का प्रदर्शन किया, परन्तु वह विशाल अंग्रेजों की सेना के सामने अधिक समय तक नहीं टिक सकी। राणा की सेना की कैम्पबैल की सेना से पुनः नामपारा से 20 मील उत्तर बंकी नामक स्थान पर मुठभेड़ हुई, जिसमें राणा की पराजय हुई।
योद्धा पुरूष होकर भी कभी पराजय को स्वीकार नहीं करते। राणा ने भारत माँ को दासता से मुक्त करनावे के लिए संघर्ष किया। अंग्रेजों ने राणा को बंकी नामक स्थान पर परास्त किया। इसके बाद उन्होंने नेपाल की ओर प्रस्थान किया। यहाँ पर अधिकांश क्रान्तिकारी छिपने के लिए चले जाते थे, परन्तु उन्हें बहुत कष्ट उठाने पड़ते थे। कारण यह था कि उस समय नेपाल का राजा जंगबहादुर अंग्रेजों का परम मित्र था।
राणा बेनी माधोसिंह ने नेपाल में भी जंगबहादुर की सेना से युद्ध लड़ा, जिसमें वे वीरतापूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने अनेक कष्ट झेले, परन्तु कभी भी हिम्मत नहीं हारी। राणा का त्याग एवं बलिदान हमारी भावी पीढ़ी को राष्ट्र भक्ति की प्रेरणा देता रहेगा।
1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में राजस्थान के बहुत से क्रांतिकारी शहीद हो गए थे, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
झालावाड़ में रियासत के समय में झाला राजपूतों का शासन था। 1857 की क्रांति के दौरान वहाँ के मामू-भांजे देश की आजादी के लिए ब्रितानियों के विरूद्ध युद्ध करते हुए शहीद हुए। उनकी मज़ार आज भी वहाँ मौजूद है। झालावाड़ का मामू-भांजे का चौराहा आज भी उन शहीदों की स्मृति को ताजा कर देता है।
अकबर खान का जन्म 7 फ़रवरी, 1820 ई. को करौली में हुआ था। वे रिसालदार मोहम्मद खान के छोटे भाई थे और कोटा राज्य में अधिकारी के पद पर नियुक्त थे। कोटा स्टेट की आर्मी की टुकड़ियों ने मेहराब खान के नेतृत्व में अँग्रेज़ सरकार के विरूद्ध विद्रोह किया था, जिसमें अकबर खान ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। उन्होंने अँग्रेज़ी सेना व कोटा के महाराव की सेना के विरूद्ध कई लड़ाइयाँ लड़ीं। अंत में मार्च, 1858 में अँग्रेज़ सरकार ने इन्हें बंदी बना लिया तथा विद्रोह का दमन करने के पश्चात् इन्हें मार डाला।
सफरदायर खान के पिता का नाम तलवार खान था। वे राजस्थान में टोंक ज़िले के निवासी थे। उन्होंने टोंक छोड दिया। और मुग़ल कोटइ में कार्य करना आरंभ किया। 1857 ई. की क्रांति के समय उन्होंने अँग्रेज़ सेना के आक्रमण को रोकने का प्रयास किया। तत्पश्चात् वे दिल्ली से अलवर आकर रहने लग गए। दिसंबर, 1857 ई. में ब्रितानियों ने इन्हें बंदी बनाकर मृत्युदंड की सजादी । तत्पश्चात् दिल्ली में आपको फाँसी पर लटका दिया गया।
रोशन बेग का जन्म राजस्थान के कोटा शहर में हुआ था। वे कोटा स्टेट आर्टिलरी में कार्यरत थे। वे अँग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ कोटा में नागरिक एवं सैनिक क्रांति के अग्रणी नेता थे। इन्होंने अपने चार्ज में जितने भी अस्त्र-शस्त्र थे, उन्हें क्रांतिकारियों को सौंप दिया एवं महाराव की सेना पर आक्रमण कर दिया। अंत में कैथूनीपोल पर मेजर जनरल रॉबर्ट्स की सेना के विरूद्ध युद्ध करते हुए मार्च, 1858 ई. में मारे गए।
इनका जन्म 6 मई, 1824 वई. को राजस्थान के जोधपुर ज़िले में आसब नामक स्थान पर हुआ था। वे आसब के जागीदार के छोटे भाई थे. उन्होंने 1857 ई. की क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जनरल लॉरेन्स के नेतृत्व में लड़ रही ब्रिटिश सेना के विरूद्ध युद्ध में भाग लिया। सन् 1857 ई. में ब्रितानियों ने इन्हें आउवा में युद्ध करते हुए गिरफ़्तार कर लिया। तत्पश्चात् जोधपुर राज्य के अधिकारियों ने उन्हें कारावास की सजा सुनाई। इस कारावास की सजा के दौरन ही उनकी आउवा की हवेली में ही मृत्यु हो गई।
सरदार अली का जन्म 4 जून, 1830 ई. को राजस्थान के कोटा ज़िले में हुआ था। उनके पिता का नाम इसरार अली था। वे कोटा स्टेट आर्मी के नारायण पलटन में सहायक सेनाधिकारी के पद पर नियुक्त थे। सरदार अली ने कोटा स्टेट आर्मी द्वारा किए गए विप्लव में प्रमुख भूमिका निभाई। 15 अक्टूबर, 1857 ई. को कोटा एजेंसी पर आक्रमण हुआ था, जिसमें मेजर बर्टन मारा गया था। इस आक्रमण में सरदार अली ने खुलकर भाग लिया था। 1857 ई. में ही ब्रिटिश समर्थक कोटा महाराव की सेना के विरूद्ध लड़ते हुए कोटा के पास मारे गए।
इनका जन्म कोटा राज्य के करौली क्षेत्र में 1828 ई. में हुआ था। वे कोटा राज्य की सेना में जमादार थे। इनके छोटे भाई मेहराव खान विद्रोही सैनिकों के नेता थे। 1857 ई. की क्रांति में गुल मोहम्मद ने अँग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ एवं कोटा महाराव की सेना के विरूद्ध कई चड़ाइयाँ लड़ीं। अन्त में महाराव की सेना ने इन्हें गिरफ़्तार कर लिया। मार्च, 1858. में उनकी मृत्यु हो गई।
ये राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले के टोंक राज्य के निवासी थे और टोंक स्टेट की सेना में बंदूकची के पद पर नियुक्त थे। 1857 ई. की क्रांति के समय जो सेना मुग़ल सम्राट की सहायता के लिए टोंक से दिल्ली की तरफ़ जा रही थी, गुल महोम्मद ने इस विद्रोही सेना को सहयोग किया और अँग्रेज़ी सेना के विरूद्ध युद्ध किया। इस प्रकार ब्रितानियों के विरूद्ध संघर्ष करते हुए 1857 ई. में दिल्ली में मृत्यु को प्राप्त हुए।
1857 ई. की क्रांति में ताराचन्द ने असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया था। वे राजस्थान के टोंक ज़िले के निवासी थे और चित्तौड़गढ ज़िले की निम्बाहेड़ा तहसील में मुख्य पटेल थे। सितम्बर, 1857 ई. में कर्नल जैक्सन की सेना ने जब निम्बाहेड़ा पर आक्रमण किया, तब इन्होंने उसे रोकने का हरसम्भव प्रयास किया। 1857 में निम्बाहेड़ा पर अधिकार करने के बाद ताराचन्द को गिरफ़्तार कर उन्हें तोप से उड़ा दिया।
जोधा का जन्म 1816 ई. में जोधपुर ज़िले के गेराओं नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुर रणजीत सिंह था। भैरोसिंह जोधा गोराओं के जागीरदार थे। 1857 ई. की क्रांति में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1857 ई. में आउवा के युद्ध में लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए।
मिर्जा बेग का जन्म 1823 ई. में उत्तर प्रदेश के आगरा ज़िले में हुआ था। वे कोटा राज्य की सेना में दफादार के पद पर नियुक्त थे। इन्होंने 1857 में कोटा में ब्रिटिश राज्य के विरूद्ध सैनिक तथा नागरिक विद्रोह में मुख्य भूमिका निभाई। बेग ने अँग्रेज़ सेना तथा कोटा के महाराव की सेना से कई बार संघर्ष किया। बाद में महाराव के सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया। मार्च, 1858 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
इनका जन्म 15 अक्टूबर, 1825 ई. में राजस्थान के टोंक ज़िले में हुआ था। वे कोटा स्टेट आर्मी में अधिकारी के पद पर नियुक्त थे। इन्होंने 1857 ई. के विद्रोह के समय विदेशी सत्ता व महाराव की सेना के विरूद्ध कई लड़ाइयाँ लड़ीं। नवंबर, 1857 ई. में आपने क़िले पर आक्रमण करने वाली सेना का नेतृत्व किया और इस प्रकार वे लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
इनका जन्म 4 अप्रेल, 1818 ई. को जोधपुर राज्य के सिंहास नामक स्थान पर हुआ था। 1857 ई. की महान् क्रांति के समय उन्होंने जनरल लॉरेन्स के सेनापतित्व में ब्रिटिश सेना के विरूद्ध आउवा की सेना का नेतृत्व किया था। इस युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।
महेराब खान का जन्म राजस्थान के करौली ज़िले में 11 मई, 1815 ई. को हुआ था। वे कोटा स्टेट आर्मी में रिसालदार के पद पर नियुक्त थे। उन्होंने 1857 ई. के विद्रोह के समय विद्रोही सेना को संगठित करके कोटा के एजेंसी हाउस पर अक्टूबर, 1857 ई. में आक्रमण कर दिया, जिसमें राजनीतिक एजेन्ट बार्टन अपने दों पुत्रों तथा कई लोगों के साथ मारा गया। इसके बाद उन्होंने जन नेता लाला जयदयाल भटनागर के साथ कोटा राज्य का शासन अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने ब्रितानियों ने कई लड़ाइयाँ लड़ीं। 1859 ई. में ब्रितानियों ने उन्हें बंदी बनाकर मृत्युदंड दे दिया। तत्पश्चात् 1860 ई. में एजेंसी हाउस में उन्हें फाँसी पर लटका दिया।
मुनव्वर खान राजस्थान के टोंक ज़िले के निवासी थे। वे टोंक स्टेट आर्मी के सिपाही थे। विद्रोह सेना के एक सदस्य के रूप में उन्होंने 1857 की क्रांति के समय अँग्रेज़ सेना के विरूद्ध युद्ध में भाग लिया। यह विद्रोही सेना टोंक स्टेट से दिल्ली दरबार की सहायता के लिए रवाना हुई थी। मुनव्वर खान दिल्ली में अंग्रेज सेना के विरूद्ध युद्ध लड़ते हुए मारे गए।
अलमी खान का जन्म 1714 ईं. में टोंक राज्य में हुआ था। टोंक के नवाब की सेना की टुकड़ी ने राजकुमार मोहम्मद मुनी खाँ एवं अजीमुल्ला खाँ से मिलकर विद्रोह किया था, जिसका संगठन अलीम खान ने किया था। इन्होंने नीमच की सैनिक टुकड़ियों से सहयोग प्राप्त कर टोंक में विद्रोही सैनिकों का नेतृत्व किया था। अलीम खान ने कई स्थानों पर अँग्रेज़ी सेना के विरूद्ध युद्ध में भाग लिया। विद्रोह के दमन के पश्चात् वे वापस टोंक आ गए और दिसंबर, 1858 ई. में नवाब के अफ़सरों के साथ मुठभेड़ में मारे गए।
इनका जन्म 1817 ई. में भरतपुर ज़िले में कामा नामक स्थान पर हुआ था। आपके पिता का नाम रूपलाल भटनागर था, जो प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त थे। इन्होंने फ़ारसी भाषा में शिक्षा प्राप्त की एवं कोटा कोर्ट में नियुक्त हुए। इनके बड़े भाई जयदयाल भटनागर के नेतृत्व में 1857 ई. के विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस विद्रोह में हरदयाल जी ने खुलकर भाग लिया। उन्होंने मार्च, 1858 ईं. में कैथूनीपोल पर जनरल रॉबर्ट्स की सेना के विरूद्ध सेना के नेतृत्व में और युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
मोहम्मद खान का जन्म राजस्थान के करौली ज़िले में 5 जनवरी, 1817 ई. को हुआ था। वे कोटा स्टेट आर्मी में रिसालदार थे। उनके पिता का नाम नासिर खाँ था। उन्होंने 1857 ई. की क्रांति के समय ब्रितानियों के प्रति वफ़ादार कोटा महाराव की सेना के विरूद्ध युद्ध में सक्रिय रूप से भाग लिया। महाराव की सेना ने इन्हें बंदी बना लिया और मार्च, 1858 ई. में मौत के घाट उतार दिया गया।
इनका जन्म 8 जुलाई, 1818 को कोटा ज़िले के नान्ता नामक गाँव में हुआ था। ये कोटा राज्य की सेना में रिसालदार के पद पर नियुक्त थे। इन्होंने 1857 ई. की क्रांति के समय विद्रोही सैनिकों का नेतृत्व करते हुए ब्रिटिश सेना के विरूद्ध युद्द में भाग लिया। इस समय उन्होंने नवंबर, 1857 में कोटा क़िले पर अधिकार करने में भी भाग लिया। वे ब्रितानियों के प्रति वफ़ादार कोटा महाराव की सेना के विरूद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
जियालाल का जन्म 1790 ई. में चित्तौड़गढ़ ज़िले में निम्बाहेड़ा नामक स्थान पर हुआ था। इन्होंने निम्बाहेड़ा के कप्तान सी. एल. शावर्स के विद्रोह को दबाने के आदेशों का पालन करने से इन्कार कर दिया। निम्बाहेड़ा की रक्षा के लिए इन्होंने सैनिक टुकड़ियों को संगठित करके उसकी सहायता से अँग्रेज़ी सेना का मुक़ाबला किया। विद्रोहियों की पराजय के पश्चात् इन्हें बंदी बना लिया गया। दिसंबर, 1857 ई. ब्रिटिश टुकड़ियों की सार्वजनिक परेड के समय इन्हें मार दिया गया।
इनका जन्म 1819 ई. में कोटा में हुआ था। इन्होंने उर्दू एवं फ़ारसी में शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वे कोटा स्टेट की आर्मी के अधिकारी बने। 1857 ई. की क्रांति में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई थी। नवंबर, 1857 ई. में ब्रितानियों की समर्थक कोटा की वफादार सेना के अफ़सर ठाकुर चक्ष्मण दास की सेना के विरूद्ध युद्ध में कामदार ने भाग लिया। इसी युद्ध में लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए थे।
इनका जन्म 4 अप्रेल, 1812 ई. में भरतपुर स्टेट के कामां नामक गाँव में हुआ था। इनका उर्दू, फ़ारसी एवं अँग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अच्छा अधिकार था। इन्होंने कोटा राज्य में अँग्रेज़ी सत्ता के विरूद्ध विद्रोह का संगठन एवं नेतृत्व किया था। इन्होंने 1858 ईं. में अँग्रेज़ी सेना के विरूद्ध जनता एवं विद्रोही सैनिक टुकड़ियों का नेतृत्व किया था। अतः कोटा के महाराव ने इनकी गिरफ़्तारी के लिए दस हज़ार रुपये के इनाम की घोषणा की। इनके एक शिष्य ने विश्वासघात के कारण इन्हें जयपुर स्टेट के बैराठ ज़िले के गाँव में पकड़ लिया गया। बाद में उन पर मुकदमा चलाकर मृत्युदंड की सजा दी गई। 17 सितम्बर, 1860 ई. में इस क्रांतिकारी नेता को कोटा के एजेंसी हाउस में फाँसी दे दी गई।
ख्वास खान का जन्म कोटा राज्य में 1831 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम इनायतुल्ला खान था, जो कोटा स्टेट आर्मी में एक प्रसिद्ध योद्धा थे। इन्होंने अक्टूबर, 1857 ई. में कोटा के ब्रिटिश राजनीतिक के घर पर हुए आक्रमण में सक्रिय भूमिका निभाई थी। इन्होंने ब्रिटिश एजेन्ट की हत्या करने के बाद ब्रितानियों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी। अँग्रेज़ी हुकूमत ने इन्हें गिरफ़्तार कर मृत्युदंड की सजा दी और सन् 1860 ई. में एजेंसी हाउस में उन्हें फाँसी के फन्दे पर लटका दिया।
नबी शेर खाँ का जन्म 1815 ई. में राजस्थान के करौली ज़िले में हुआ था। वे कोटा स्टेट की आर्टिलरी में थे। उन्होंने कोटा आर्मी की टुकड़ियों को विद्रोह के समय सक्रिय रूप से सहायता की। 15 अक्टूबर, 1857 ई. में जब विद्रोहियों ने कोटा में एजेंसी हाउस पर आक्रमण कर दिया, तब कोटा के महाराव ने एजेन्ट मेजर बर्टन को बचाने का प्रयास किया, तो नबी शेर खाँ ने न केवल महाराव को रोका, अपितु विद्रोह सैनिकों की भी सहायता की। अँग्रेज़ सरकार ने मार्च, 1858 ईं. में इन्हें बंदी बनाकर गोली से उडा़ दिया।
ये टोंक के नवाब वज़ीर खाँ के मामा थे। इन्होंने सन् 1857 में टोंक की विद्रोही सेना का नेतृत्व सँभाला। बाद में यह नवाब के वफ़ादार सैनिकों द्वारा मार दिए गए। लेकिन दिल्ली के बहादुरशाह की सहायता में इन्होंने 600 सैनिक भेजने में सफलता प्राप्त की।
टोंक के जागीरदार नासिर मुहम्मद खाँ ने सन् 1858 ई. के शुरूआती समय में बन्दा के साथ टोंक पहुँचे, तात्या टोपे का साथ दिया। आलम खाँ के साथ मिलकर इन्होंने टोंक की विद्रोही सेना का नेतृत्व करते हुए मेजर ईडन की सेना से मुक़ाबला किया। परास्त होने पर ये अपने सैनिकों सहित नाथद्वारा की ओर भाग गए।
हिन्दी में एक कहावत प्रसिद्ध है- "लड़े सिपाही, नाम हवलदार का।" इसका अर्थ हम सभी जानते हैं। अतः व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। काम किसी ने किया, नाम किसी और का हुआ। ऐसे सौभाग्यशाली लोग भी हुए हैं, जिन्हें कार्यों के हिसाब से जीवन में प्रसिद्धि एवं यश भी प्राप्त हुआ है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य लोगों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था, परंतु उन्हें लोग याद नहीं करते हैं।आज बड़े-बड़े नेता अपने नाम पर संस्थाएँ बना लेते हैं, ताकि भावी पीढ़ी उनके नाम को याद रख सके।झूठे प्रमाण पत्रों के आधार पर कई लोग स्वतंत्रता सेनानी की पेन्शन ले रहे हैं। परंतु जिन्होंने देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया, उन्हें कितने लोग याद रखते हैं।
1857 के शहीदों में वृन्दावन तिवारी भी एक थे, जिनके बारे में लोग बहुत कम जानते हैं। बंसुरिया बाबा की भाँति वृन्दावन तिवारी भी 1857 के भूले-बिसरे एक शहीद हैं। वृन्दावन एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपनी जान की बाज़ी तक लगा दी थी।
वृन्दावन तिवारी पुलिस में थाना बरक़ंदाज़ थे। उनका प्रमुख कार्य नगर प्रशासन की व्यवस्था करना था। वे कहाँ के रहने वाले थे, कहाँ तक उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। इस संबंध में हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। डॉ. भरत मिश्र का मानना है कि वे या तो बिहार के शाहाबाद या सारण या उत्तर प्रदेश के निवासी होंगे। पहले कोलकाता में आधे से अधिक सिपाही बिहार तथा उत्तर प्रदेश के ही होते थे। अब तो बेरोज़गारी होने के कारण बंगाली युवक भी सिपाही में भरती हो रहे हैं।
उषा चंद्र के अनुसार वृन्दावन तिवारी एक साहसी व्यक्ति थे। वे मिदनापुर की जेल में वहाँ की दुर्दशा से बहुत दुःखी थे। मिदनापुर के मजिस्ट्रेट एस. लुशिंगटन ने क़ैदियों को अपने-अपने वार्ड में खाना पहुँचाने का आदेश दिया। वह सभी क़ैदियों को एक साथ मिलने नहीं देना चाहता था। कई बार लुशिंगटन बिना किसी अपराध के क़ैदियों को बेंत से पीटता था।
उषा चन्द्रा ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि वृन्दावन तिवारी ने सैनिक शिविर में जाकर सैनिकों को जेल में होने वाले अत्याचार के बारे में बताया। उन्होंने ओजस्वी भाषण देते हुए कहा-"सैनिक भाइयों, कल लुशिंगटन एवं एक सेना अधिकारी कारागृह में आए थे। उन्होंने बंदियों को गाय का मांस और सूअर का माँस खाने के लिए बाध्य किया। क्या आप इस अपमान को सहेंगे?" वृन्दावन तिवारी ने सैनिक अधिकारियों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
शेखावत बटालियन के कमांडर कर्नल फास्टर ने भारत सरकार के सचिव को वृन्दावन की गतिविधियों के बारे में जानकारी दी। वह वृन्दावन तिवारी को फाँसी पर लटकवाना चाहता था।
तिवारी ने हाथ में तलवार लेकर सिपाहियों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। इसी बीच दो सिपाहियों ने उन्हें पकड़कर अँग्रेज़ों को सुपुर्द कर दिया। उन पर मुकदमा चलाया गया। आरोप यह था कि उन्होंने सैनिकों में धार्मिक भावना फैलाकर उन्हें बगावत करने हेतु उकसाया है। सैनिक अदालत ने उन्हें फाँसी का दंड दिया। 18 जून, 1857 ई. को उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
वृन्दावन तिवारी का त्याग और बलिदान भारतीयों को हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।
महाराणा बख्तावर सिंह अमझेरा के विद्रोही नरेश थे। उनको इन्दौर के सियागंज स्थित छावनी के मैदान में फाँसी देने की पूरी तैयार की जा चुकी थी। छावनी के इलाके में फौजी गश्त कायम कर दी गई, ताकि महाराणा को बचाने के लिए उनकी कोई सहायक फौज आक्रमण न कर सके। सरकार को यह जानकारी मिली थी कि भील लोगों की एक टुकड़ी इन्दौर के आसपास मौजूद है।
महाराणा बख्तावर सिंह के साथ उनके सहयोगियों में से दीवान गुलाब राव, चिमन लाल एवं बशीर उल्ला खाँ को फाँसी दी जाने वाली थी। फाँसी से पूर्व महाराणा चाहते थे कि राजा होने के नाते सबसे पहले मुझे फाँसी दी जाए और उसके बाद किसी दूसरे को। सरकार ने इस विषय में यह निर्णय लिया महाराणा को सबसे अन्त में फाँसी पर लटकाया जाए, ताकि वे अपनी साथियों को मरते देखकर उस वेदना का दण्ड भी भोग सकें।
एक के बाद एक महाराणा बख्तावर सिंह के साथियों को फाँसी पर लटका दिया गया। जब महाराणा को फाँसी के तख्ते पर खड़ा किया, तब सूर्योदय हो चूका था। फाँसी से पूर्व महाराणा ने हाथ जोड़कर मातृभूमि की वन्दना की और उनका शरीर फाँसी के फँदे पर झूल गया। एक देशभक्त को अपनी मातृभूमि की आजादी के सच्चे प्रयत्नों का सर्वोच्च पुरस्कार मिल चूका था।
महाराणा बख्तावर सिंह मध्य प्रदेश के धार जिले के अन्तर्गत अमझेरा के शासके थे। वे न केवल वीरोंें का अपितु वीरों का आदर भी करते थे। उनके पूर्वज मूल रूप से जोधपुर (राजस्थान) के राठौड़ वंशीय राजा थे। मुगल सम्राट जहाँगीर ने प्रसन्न होकर उनके वंशजों को अमझेरा का शासक बनाया था। पहले अमझेरा राज्य बहुत बड़ा था, जिसमें भोपावर तथा दत्तीगाँव भी सम्मिलित थे। कालान्तर में अमझेरा, भोपावर और दत्तीगाँव पृथक-पृथक राज्य हो गए। सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय अमझेरा के शासक थे महाराणा बख्तावरसिंह। इनके पिता का नाम राव अजीतसिंह और माता का नाम रानी इन्द्रकुँवर था। महाराणा को शिक्षा-दीक्षा एवं अस्त्रों के संचालन का अच्छा प्रशिक्षण दिया गया था। उनके धार तथा इन्दौर के शासकों के साथ अच्छे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। इनकी गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने हेतु ही ब्रितानीयों ने यहाँ फौजी छावनी स्थापित की थी और पॉलिटिकल एजेन्ट भी नियुक्त किए थे।
इन्दौर के ए. जी. जी. लेफ्टिनेन्ट एच. एम. डूरंड ने भोपावर एवं सरदारपुर में सैनिक छावनी स्थापित की थी, ताकि अमझेरा राज्य की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके। महाराणा बख्तावरसिंह तथा इन्दौर के महाराजा तुकोजीराव होलकर द्वितीय के पास प्रथम स्वतन्त्रता के प्रारम्भ होने की सूचना थी। शीघ्र ही मंगल पाण्डे ने इस विद्रोह को प्रारम्भ कर दिया और इसकी आग मेरठ से दिल्ली तक जा पहुँची। देखते ही देखते इस विद्रोह की आग की लपटें देश में चारों ओर उठने लगीं।
इसी समय इन्दौर के महाराज तुकोजीराव होलकर ने रेजीडेन्सी पर आक्रमण कर दिया। अतः वहाँ का लेफ्टिनेन्ट डूंरड भागकर होशंगाबाद की ब्रिटिश छावनी में चला गया। इस अवसर का लाभ उठाकर महाराणा बख्तावरसिंह की सेना ने भी भोपावर के पॉलिटिकल एजेन्ट पर आक्रमण कर दिया, तांकि उनके जाजूसी के अड्डे को समाप्त किया जा सके। महाराणा ने अपनी सेना संदला के भवानी सिंह एवं अपने दीवान गुलाब राव के नेतृत्व में भेजी थी।
महाराणा की सेना के आक्रमण करते ही भोपावर की ब्रिटिश सेना के मालव भील महाराणा की सेना में आकर मिल गए। भोपावर की जनता ने भी क्रान्तिकारी सेना का साथ दिया। एजेन्सी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। अतः वहाँ के ब्रिटिश अधिकारियों एवं सैनिकों को झाबुआ की ओर भागने के लिए विवश होना पड़ा।
महाराणा ने अंग्रेज एजेन्सी पर आक्रमण करके अपने राज्य में क्रान्ति का बिगुल बजा दिया था। एक नागरिक मोहनलाल ने ब्रिटिश झण्डा उतारकर अपनी रियासत का झण्डा लगा दिया। महाराणा ने अमझेरा राज्य में कम्पनी के शासन को समाप्त कर दिया।
भोपावर के पॉलिटिकल एजेन्ट कैम्पनट एचिसन झाबुआ से भी भागकर इन्दौर पहुँच गए और वहाँ पर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। जब इन्दौर में क्रान्तिकारियों को कुचल दिया गया, तो होशंगाबाद से लेप्टिनेन्ट डूरंड पुनः इन्दौर आ गए और यह निश्चित् हुआ कि कैप्टन एचिसन को फिर से भोपावर पर अधिकार करने हेतु भेजा जाए।
24 जुलाई, 1857 ई. को एक विशाल सेना के साथ कैप्टन एचिसन ने भोपावर पर आक्रमण कर पुनः अधिकार कर लिया और दीवान गुलाबराव, कामदार भवानीसिंह एवं चिमनलाल को बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया गया। अतः महाराणा बख्तावर सिंह ने पुनः भोपावर पर आक्रमण कर दिया। कैप्टन एचिसन के कुछ सैनिक महाराणा की सेना में आकर मिल गए और कुछ भाग गए। भोपावर पर फिर क्रान्तिकारी सेना का अधिकार हो गया।
क्रान्तिकारी सेना ने भोपावर के बाद सरदारपुर पर आक्रमण कर दिया, जहाँ ब्रिटिश सेना ने क्रान्तिकारियों पर तोपों से गोले बरसाने शुरू कर दिए, परन्तु महाराणा ने सेना की एक टुकड़ी तो वहीं रखी और दूसरी टुकड़ी ने धार व राजगढ़ के क्रान्तिकारियों के सहयोग से नदी की और से सरदारपुर पर भयंकर आक्रमण कर दिया। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। अन्त में क्रान्तिकारियों की विजय हुई और उन्होंने सरदारपुर पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् क्रान्तिकारी सेना ने धार की ओर प्रस्थान किया, जहाँ के शासक भीमराव भौंसले ने उनका शानदार स्वागत किया।
अब महाराणा बख्तावर सिंह के नेतृत्व में क्रान्तिकारी सेना ने महु, मानपुर एवं मंडलेश्वर पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इस पर लेफ्टिनेन्ट डूरंड ने महाराणा को कहलवाया कि हम अमझेर को स्वतन्त्र राज्य मान लेंगे और अब वहाँ पर कोई पॉलिटिकल एजेन्टच नियुक्त नहीं करेंगे। उसने यह भी कहलवाया कि आप महू आकर सन्धि की विस्तृत शर्तें निश्चत् कर लें।
महाराणा ब्रितानीयों की चालाकी नहीं समझ पाए और वे उनके जाल में फँस गए। वे अपने दस योद्धाओं के साथ सन्धि वार्ता के लिए महू जा पहुँचे, जहाँ डूरंड ने उनका शानदार स्वागत किया।
एक दिन महाराणा अपने साथियों के साथ नदी में स्नान करने के लिए गए। उन्होंने हथियार नदी के किनारे रख दिए और स्नान के लिए नदीं में उतर गए। तब छिपे हुए ब्रिटिश सैनिकों ने उनके हथियारों पर कब्जा कर लिया और महाराणा को उनके साथियों सहित बन्दी बना लिया गया। तत्पश्चात् उन पर मुकदमा चलाकर 21 दिसम्बर, 1857 ई. को मृत्यु दण्ड की सजा सुनाई गई। 10 फरवरी, 1858 ई. को इन्दौर के सियागंज स्थित छावनी के मैदान मे महाराणा बख्तावर सिंह तथा उनके कुछ साथियों को फाँसी पर लटका दिया गया। स्वाधीनता के ये पुजारी हँसते-हँसते अपनी मातृभूमि के लिए जीवन का बलिदान कर गए।
झारखण्ड की राजधानी रांची के शहीद चौक पर हाथ में क्रांति की मशाल थामे दो मजबूत हाथों की आकृति लोगों को आकर्षित करती है। इसी शहीद चौक के निकट एक शासकीय विद्यालय है जिसका नाम झारखण्ड सरकार ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के नाम पर रखा है। इसी विद्यालय में स्थित एक पेड पर अमर शहीद ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को 16 अप्रैल, 1858 को फांसी दी गई थी। आज वह पेड तो नहीं है पर उस स्थान पर भव्य शहीद स्तम्भ हमें अमर शहीद विश्वनाथ शाहदेव के बलिदान की याद दिलाता है।
1857 के स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव झारखण्ड की एक छोटी सी रियासात बडकागढ़ के राजा थे। स्वाभिमान और देशभक्ति उनकी नसों में बहती थी। यही कारण था कि वह 1857 की क्रांति में बेझिझक कूद गए। वर्ष 1857 की क्रांति में मंगल पाण्डे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, बाबू कुंवर सिंह, नाना साहब पेशवा, तात्याटोपे, बहादुर शाह जफर जैसे अनगिनत क्रांतिकारियों ने मातृभूमि की रक्षा के लिये ब्रिटिश शासन से टक्कर ली थी, उनमें से एक ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव भी थे।
झारखण्ड के रांची, हजारीबाग, चतरा, चाईबासा, गुमला, दुमका में क्रांति की लौ सुलगने लगी थी। कम्पनी शासन को भगाने का लोगों ने बीडा उठा लिया था। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव सिर्फ बडकागढ को ही नहीं, समूचे झारखण्ड को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने की घोषणा कर चूके थे। उनके सिपाही जगह-जगह अंग्रेजों का सामना कर रहे थे। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के दीवान पाण्डेय गणपत राय थे। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने झारखण्ड की आजादी की कमान दीवान पाण्डेय गणपत राय को सौंपी। यह लडाई कई मोर्चो पर लडी गई। क्रांतिकारियों के एक जत्थे ने अंग्रेजों को पराजित कर अपनी वीरता की पताका को चतरा तक पहुंचाया था। इस जत्थे में एक दल का नेतृत्व ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और दूसरे जत्थे का नेतृत्व पाण्डेय गणपत राय कर रहे थे। इनका आक्रमण इतना तेज था कि अंग्रेजों को शहर छोडकर भागना पडा। रांची की कचहरी, थाना, जेल सब जगह क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया था। रांची शहर को आजाद घोषित कर दिया गया था, जो एक माह तक आजाद रहा, लेकिन देश के गद्दारों की वजह से यह ज्यादा समय तक आजाद न रह सका।
पिठोरिया के परगनाधीश जगतपाल सिंह ने अंग्रेजों को काफी मदद की इन वीर क्रांतिकारियों के आगे अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए थे। पाण्डेय गणपतराय के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने चाईबासा के अंग्रेजों के खजाने को लूटा। अंग्रेज घबरा गये। पलामू में नीलाम्बर-पीताम्बर, टिकैत उमराव और दीवान शेख भिखारी ने रांची के आस-पास बगावत का झण्डा फहराकर तबाही मचा रखी थी। जान की बाजी लगाने वाले वीर क्रांतिकारियों में जोश था। वह जगह-जगह संघर्ष कर रहे थे।
हजारीबाग, रांची, चतरा, लोहरदगा सब जगह क्रांतिकारी, अंग्रेजों की फौज का मुकाबला कर रहे थे, जिनका कुशल नेतृत्व ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव कर रहे थे, उनकी देखरेख में पूरे झारखण्ड की अनेक रियासतों में विद्रोह की ज्वाला जल उठी थी। जहां क्रांतिकारियों का एक दल नए जोश के साथ अंग्रेजी फौज से सामना करने के लिए खडा हो जाता था। इसी वजह से झारखण्ड की आजादी की लडाई निरंतर चलती रही।
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को पकडने के लिए अंग्रेज सरकार ने ईनाम घोषित किया। देशद्रोही दगाबाजों ने अंग्रेजों का साथ देकर मेजर कोटर और कैप्टन ऑक्स की सेना को मजबूत किया। इन लोगों के आगे भी ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के कदम नहीं रुके। वह अंग्रेजों के घेरों को तोडकर अपनी वीरता दिखाते हुए निकल जाते थे। बाद में जयचंद और मीरजाफर जैसे लोगों ने झारखण्ड के क्रांतिकारियों को अंग्रेजों की जेलों में डलवा दिया। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव और पाण्डेय गणपत राय को भी अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर फतह हासिल कर ली। शेख भिखारी और डकैत उमराव सिंह नीलाम्बर और पीताम्बर को गिरफ्तार कर लिया गया था।
अंग्रेजों ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को पकडने के बाद तत्काल सजा सुनाई। 16 अप्रैल, 1858 को रांची के चौराहे पर कदम्ब के वृक्ष पर उन्हें फांसी दी गई। फांसी के दौरान किसी भी नागरिक को फांसी नहीं देखने दी गई। 21 अप्रैल, 1858 को पाण्डेय गणपत राय को भी उसी जगह फांसी दी गई।
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