कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य
कांग्रेस के गठन से पूर्व देश में एक अखिल भारतीय संस्था के गठन की भूमिका तैयार हो चुकी थी। 19वीं शताब्दी के छठे दशक से ही राष्ट्रवादी राजनीतिक कार्यकर्ता एक अखिल भारतीय संगठन के निर्माण में प्रयासरत थे। किंतु इस विचार की मूर्त एवं व्यावहारिक रूप देने का श्रेय एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी ए.ओ. ह्यूम को प्राप्त हुआ। ह्यूम ने 1883 में ही भारत के प्रमुख नेताओं से सम्पर्क स्थापित किया। इसी वर्ष अखिल भारतीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। 1884 में उन्हीं के प्रयत्नों से एक संस्था ‘इंडियन नेशनल यूनियन’ की स्थापना हुयी। इस यूनियन ने पूना में 1885 में राष्ट्र के विभिन्न प्रतिनिधियों का सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया और इस कार्य का उत्तरदायित्व भी ए.ओ. ह्यूम को सौंपा। लेकिन पूना में हैजा फैल जाने से उसी वर्ष यह सम्मेलन बंबई में आयोजित किया गया। सम्मेलन में भारत के सभी प्रमुख शहरों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, यहीं सर्वप्रथम अखिल भारतीय कांग्रेस का गठन किया गया। ए.ओ. ह्यूम के अतिरिक्त सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस कांग्रेस के प्रमुख वास्तुविद (Architects) माने जाते हैं।
कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की तथा इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके पश्चात प्रतिवर्ष भारत के विभिन्न शहरों में इसका वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया जाता था। देश के प्रख्यात राष्ट्रवादी नेताओं ने कांग्रेस के प्रारंभिक चरण में इसकी अध्यक्षता की तथा उसे सुयोग्य नेतृत्व प्रदान किया। इनमें प्रमुख हैं- दादा भाई नौरोजी (तीन बार अध्यक्ष), बदरुद्दीन तैय्यब्जी, फिरोजशाह मेहता, पी. आनंद चालू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेश चंद्र दत्त, आनंद मोहन बोस और गोपाल कृष्ण गोखले। कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं में मदन मोहन मालवीय, जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, सी. विजयराघवाचारी तथा दिनशा ई. वाचा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम महिला स्नातक कादम्बिनी गांगुली ने 1890 में प्रथम बार कांग्रेस को संबोधित किया। इस सम्बोधन का कांग्रेस के इतिह्रास में दूरगामी महत्व था क्योंकि इससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष में महिलाओं की सहभागिता परिलक्षित होती है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अतिरिक्त प्रांतीय सभाओं, संगठनों, समाचार पत्रों एवं साहित्य के माध्यम से भी राष्ट्रवादी गतिविधियां संचालित होती रहीं।
कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रम
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्य एवं कार्यक्रम इस प्रकार थे-
क्या कांग्रेस की स्थापना के पीछे सेफ्टी वाल्व की अवधारणा थी?
कहा जाता है कि ए.ओ. ह्यूम ने राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में जिन मुख्य लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सहयोग दिया था उनमें सबसे प्रमुख था- अंग्रेजी शासन के विरुद्ध बढ़ते हुये जन असंतोष के लिये सुरक्षा कपाट (सेफ्टी वाल्व) की व्यवस्था करना। ऐसा कहा जाता है कि सरकारी अधिकारी के रूप में कार्य करते हुये ह्यूम को कुछ ऐसी सूचनायें प्राप्त हुयीं थीं कि शीघ्र ही राष्ट्रीय विद्रोह होने की सम्भावना है। यदि कांग्रेस का गठन हो जाए तो वह जनता की दबी हुई भावनाओं एवं उद्गारों को बाहर निकलने का अवसर प्रदान करने वाली संस्था सिद्ध होगी जो को किसी प्रकार की हानि होने से बचायेगी। इसीलिये ह्यूम ने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन से अनुरोध किया कि वे कांग्रेस की स्थापना में किसी तरह की रुकावट पैदा न करें। हालांकि भारत के आधुनिक इतिह्रासकारों में सेफ्टी वाल्व' की अवधारणा को लेकर मतएकता नहीं है। उनके अनुसार कांग्रेस की स्थापना भारतीयों में आयी राजनीतिक चेतना का परिणाम थी। वे किसी ऐसी राष्ट्रीय संस्था की स्थापना करना चाहते थे, जिसके द्वारा वे भारतीयों की राजनीतिक एवं आर्थिक मांगों को सरकार के सम्मुख रख सकें। यदि उन परिस्थितियों में भारतीय इस तरह की कोई पहल करते तो निश्चय ही सरकार द्वारा इसका विरोध किया जाता या इसमें व्यवधान पैदा किया जाता तथा सरकार इसकी अनुमति नहीं देती। किंतु संयोगवश ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो गयीं जिनमें कांग्रेस की स्थापना हो गयी।
बिपिन चंद्र के अनुसार, ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना के लिए ये तड़ित चालक या उत्प्रेरक का कार्य किया। जिससे राष्ट्रवादियों को एक मंच में एकत्र होने एवं कांग्रेस का गठन करने में सहायता मिली और इसी से ‘सेफ्टी वाल्व' की अवधारणा का जन्म हुआ।
कांग्रेस की स्थापना के पश्चात भारत का स्वतंत्रता आंदोलन लघु पैमाने एवं मंद गति से ही सही किन्तु एक संगठित रूप में प्रारंभ हुआ। यद्यपि कांग्रेस का आरंभ बहुत ही प्रारंभिक उद्देश्यों को लेकर किया गया था किंतु धीरे-धीरे उसके उद्देश्यों में परिवर्तन होता गया तथा शीघ्र ही वह राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवा बन गयी।
प्रारंभिक उदारवादियों के राजनीतिक कार्य या कांग्रेस का प्रथम चरण 1885-1905 ई.
कांग्रेस के इस चरण को उदारवादी चरण के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस चरण में आंदोलन का नेतृत्व मुख्यतः उदारवादी नेताओं के हाथों में रहा। इनमें दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, एस.एन. बनर्जी, रासबिहारी घोष, आर.सी. दत्त, बदरुद्दीन तैयबजी, गोपाल कृष्ण गोखले, पी. आर. नायडू, आनंद चालू एवं पंडित मदन मोहन मालवीय इत्यादि प्रमुख थे। इन नेताओं को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रथम चरण के नेताओं के नाम से भी जाना जाता है। ये नेता उदारवादी नीतियों एवं अहिंसक विरोध प्रदर्शन में विश्वास रखते थे। इनकी यह विशेषता इन्हें 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में उभरने वाले नव-राष्ट्रवादियों जिन्हें उग्रवादी कहते थे, से पृथक् करती है।
उदावादी, कानून के दायरे में रहकर अहिंसक एवं संवैधानिक प्रदर्शनों के पक्षधर थे। यद्यपि उदारवादियों की यह नीति अपेक्षाकृत धीमी थी किंतु इससे क्रमबद्ध राजनीतिक विकास की प्रक्रिया प्रारंभ हुयी। उदारवादियों का मत था कि अंग्रेज भारतीयों को शिक्षित बनाना चाहते हैं तथा वे भारतीयों की वास्तविक समस्याओं से बेखबर नहीं हैं। अतः यदि सर्वसम्मति से सभी देशवासी प्राथनापत्रों, याचिकाओं एवं सभाओं इत्यादि के माध्यम से सरकार से अनुरोध करें तो सरकार धीरे-धीरे उनकी मांगें स्वीकार कर लेगी।
अपने इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये उदारवादियों ने दो प्रकार की नीतियों का अनुसरण किया। पहला, भारतीयों में राष्ट्रप्रेम एवं चेतना जागृत कर राजनीतिक मुद्दों पर उन्हें शिक्षित करना एवं उनमें एकता स्थापित करना। दूसरा, ब्रिटिश जनमत एवं ब्रिटिश सरकार को भारतीय पक्ष में करके भारत में सुधारों की प्रक्रिया प्रारंभ करना। अपने दूसरे उद्देश्यों के लिये राष्ट्रवादियों ने 1899 में लंदन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी 'इंडिया' की स्थापना की। दादाभाई नौरोजी ने अपने जीवन का काफी समय इंग्लैंड में बिताया तथा विदेशों में भारतीय पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयास किया। 1890 में नौरोजी ने 2 वर्ष पश्चात (अर्थात 1892 में) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन लंदन में आयोजित करने का निश्चय किया किंतु 1891 में लंदन में आम चुनाव आयोजित किये जाने के कारण उन्होंने यह निर्णय स्थगित कर दिया।
उदारवादियों का मानना था कि ब्रिटेन से भारत का सम्पर्क होना भारतीयों के हित में है तथा अभी ब्रिटिश शासन को प्रत्यक्ष रूप से चुनौती देने का यथोचित समय नहीं आया है इसीलिये बेहतर होगा कि उपनिवेशी शासन को भारतीय शासन में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाये ।
[divide]
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों का योगदान
ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आर्थिक नीतियों की आलोचना
अनेक उदारवादी नेताओं यथा-दादाभाई नौरोजी, आर.सी. दत्त, दिनशा वाचा एवं कुछ अन्य ने ब्रिटिश शासन की शोषणमूलक आर्थिक नीतियों का अनावरण किया तथा उसके द्वारा भारत में किये जा रहे आर्थिक शोपण के लिये ‘निकास सिद्धांत' का प्रतिपादन किया। इन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों का परिणाम भारत को निर्धन बनाना है। इनके अनुसार, सोची-समझी रणनीति के तहत जिस प्रकार भारतीय कच्चे माल एवं संसाधनों का निर्यात किया जाता है तथा ब्रिटेन में निर्मित माल को भारतीय बाजारों में खपाया जाता है वह भारत की खुली लूट है। इस प्रकार इन उदारवादियों ने अपने प्रयासों से एक ऐसा सशक्त भारतीय जनमत तैयार किया जिसका मानना था कि भारत की गरीबी एवं आर्थिक पिछड़ेपन का कारण यही उपनिवेशी शासन है। इन्होंने यह भी बताया कि भारत में पदस्थ अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी वेतन एवं अन्य उपहारों के रूप में भारतीय धन का एक काफी बड़ा हिस्सा ब्रिटेन भेजते हैं जिससे भारतीय धन का तेजी से इंग्लैंड की ओर प्रवाह हो रहा है।
इन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर सभी उदारवादियों ने एक स्वर से सरकार से भारत की गरीबी दूर करने के लिये दो प्रमुख उपाय सुझायेः पहला भारत में आधुनिक उद्योगों का तेजी से विकास तथा संरक्षण एवं दूसरा भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
इसके अतिरिक्त उन्होंने भू-राजस्व में कमी करने, नमक कर का उन्मूलन करने, बागान श्रमिकों की दशा सुधारने एवं सैन्य खर्च में कटौती करने की भी मांग की।
व्यवस्थापिका संबंधी योगदान तथा संवैधानिक सुधार
1920 तक भारत में व्यवस्थापिकाओं को कोई वास्तविक प्रशासनिक अधिकार नहीं प्राप्त थे। सर्वप्रथम 1861 के भारत परिषद अधिनियमद्वारा इस दिशा में कुछ कदम उठाये गये। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय विधान परिषद का विस्तार किया गया। इसमें गवर्नर-जनरल और उसकी काउंसिल के सदस्यों के अतिरिक्त 6 से 12 तक अतिरिक्त सदस्यों की व्यवस्था की गयी। केंद्रीय विधान परिषद भारत के किसी भी विषय पर कानून बना सकती थी लेकिन इस परिषद में भारतीय सदस्यों की संख्या अत्यल्प होती थी। 1862 से 1892 के मध्य 30 वर्षों की अवधि में केवल 45 भारतीय ही इस परिषद के सदस्य बन सके। जिनमें से अधिकांश धनी, प्रभावशाली एवं अंग्रेजों के भक्त थे। नाममात्र के बौद्धिक व्यक्तियों एवं प्रख्यात लोगों को इसकी सदस्यता मिली। इनमें सैय्यद अहमद खान, क्रिस्टीदस पाल, वी.एन. मंडलीक, के.एल. नुलकर एवं रासबिहारी घोष प्रमुख हैं। इस प्रकार 1861 के एक्ट ने ब्रिटिश भारत में केंद्रीय स्तर पर एक छोटी सी विधानसभा को जन्म दिया।
1885 से 1892 के मध्य राष्ट्रवादियों की संवैधानिक सुधारों की मांगें मुख्यतया निम्न दो बिन्दुओं तक केंद्रित रही-
प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने लोकतांत्रिक स्वशासन हेतु लंबी कार्य योजना बनायी। इनकी संवैधानिक सुधारों की मांगों को सफलता तब मिली जब ब्रिटिश सरकार ने 1892 का भारतीय परिषद अधिनियम बनाया।
किन्तु इन अधूरे संवैधानिक सुधारों से कांग्रेस संतुष्ट नहीं हुई तथा अपने वार्षिक अधिवेशनों में उसने इन सुधारों की जमकर आलोचना की। इसके पश्चात् उसने मांग की कि-
यद्यपि ब्रिटिश सरकार की वास्तविक मंशा यह थी कि ये परिषदें भारतीय नेताओं के उद्गार मात्र प्रकट करने का मंच हो, इससे ज्यादा कुछ नहीं। फिर भी भारतीय राष्ट्रवादियों ने इन परिषदों में उत्साहपूर्वक भागीदारी निभायी तथा अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। राष्ट्रवादियों ने इनके माध्यम से विभिन्न भारतीय समस्याओं की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया। अक्षम कार्यपालिका की खामियां उजागर करना, भेदभावपूर्ण नीतियों एवं प्रस्तावों का विरोध करना तथा आधारभूत आर्थिक मुद्दों को उठाने जैसे कार्य इन राष्ट्रवादियों ने इन परिषदों के माध्यम से किये।
इस प्रकार राष्ट्रवादियों ने साम्राज्यवादी सरकार की वास्तविक मंशा को उजागर किया तथा स्वशासन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्ध हासिल की। उन्होंने देश के लोगों में राजनीतिक एवं आर्थिक चेतना जगाने का कार्य किया। राष्ट्रवादियों के इन कार्यों से भारतीयों में साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं का प्रसार हुआ। लेकिन इन उपलब्धियों के बावजूद राष्ट्रवादियों की सबसे प्रमुख असफलता यह रही कि वे इन कार्यक्रमों एवं अभियानों का जनाधार नहीं बढ़ा सके। मुख्यतः महिलाओं की भागदारी नगण्य रही तथा सभी को मत देने का अधिकार भी नहीं प्राप्त हुआ।
भारतीय परिषद अधिनियम-1892 लार्ड डफरिन के काल में कांग्रेस की दिनों-दिन बढ़ती लोकप्रियता के कारण विवश होकर ब्रिटिश सरकार को 1892 में एक अन्य अधिनियम पारित करना पड़ा, जिसे भारतीय परिषद अधिनियम 1892 के नाम से जाना जाता है। इस अधिनियम की मुख्य धारायें इस प्रकार थीं-
किन्तु 1892 के अधिनियम में कुछ त्रुटियां भी थीं। जैसे-
|
सामान्य प्रशासकीय सुधारों हेतु उदारवादियों के प्रयास
इसमें निम्न प्रयास सम्मिलित थे-
दीवानी अधिकारों की सुरक्षा
इसके अंतर्गत विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता, संगठन बनाने एवं प्रेस की स्वतंत्रता तथा भाषण की स्वतंत्रता के मुद्दे सम्मिलित थे। उदारवादी या नरमपंथियों ने इन अधिकारों की प्राप्ति के लिये एक सशक्त आंदोलन चलाया तथा इस संबंध में भारतीय जनमानस को प्रभावित करने में सफलता पायी। इसके परिणामस्वरूप शीघ्र ही दीवानी अधिकारों की सुरक्षा का मुद्दा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बन गया। उदारवादियों के इन कायों से भारतीयों में चेतना जाग्रत हुयी एवं जब 1897 में बाल गंगाधर तिलक एवं अन्य राष्ट्रवादी नेताओं तथा पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया तो इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुयी। नातू बंधुओं की गिरफ्तारी एवं निर्वासन के प्रश्न पर भी भारतीयों ने कड़ा रोष जाहिर किया।
प्रारंभिक राष्ट्रवादियों के कार्यों का मूल्यांकन
कुछ आलोचकों के मतानुसार भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में नरमपंथियों का नाममात्र का योगदान था इसीलिये वे अपने चरण में कोई ठोस उपलब्धि हासिल नहीं कर सके। इन आलोचकों का दावा है कि अपने प्रारंभिक चरण में कांग्रेस शिक्षित मध्य वर्ग अथवा भारतीय उद्योगपतियों का ही प्रतिनिधित्व करती थी। उनकी अनुनय-विनय की नीति को आंशिक सफलता ही मिली तथा उनकी अधिकांश मांगे सरकार ने स्वीकार नहीं कीं। निःसंदेह इन आलोचनाओं में पर्याप्त सच्चाई है। किंतु नरमपंथियों की कुछेक उपलब्धियां भी थीं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जैसे-
जन साधारण की भूमिका
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी काल में कांग्रेस का जनाधार सीमित था तथा जन सामान्य ने इसमें शिथिल या निष्क्रिय भूमिका निभायी। इसका मुख्य कारण था कि प्रारंभिक राष्ट्रवादी जन साधारण के प्रति ज्यादा विश्वस्त नहीं थे। उनका मानना था कि भारतीय समाज अनेक जातियों एवं उपजातियों में बंटा हुआ है तथा इनके विचार एवं सोच संकीर्णता से ओत-प्रोत हैं, फलतः प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने उनकी उपेक्षा की। उदारवादियों का मत था कि राजनीतिक परिदृश्य पर उभरने से पहले जातीय विविधता के कारकों में एकीकरण आवश्यक है। लेकिन ये इस महत्व को नहीं समझ सके कि इस कारक में विविधता के बावजूद उसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रारंभिक चरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
व्यापक जन समर्थन के अभात्र में उदारवादी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आक्रामक राजनीतिक रुख अख्तियार नहीं कर सके। किंतु बाद के राष्ट्रवादियों में उदारवादियों की इस सोच से अंतर था। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता के लिये जनसामान्य में व्यापक पैठ बनायी और जनाधार बढ़ाया। कालांतर में इसका लाभ आंदोलनकारियों को मिला।
ब्रिटिश सरकार का रुख
कांग्रेस के जन्म के प्रारंभिक वर्षों में ब्रिटिश सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कुछ समय के लिये सहयोगात्मक रुख बना रहा। उदारवादियों का विश्वास था कि भारत की स्थिति को ब्रिटिश शासन के अधीन रह कर ही सुधारा जा सकता है। किंतु 1887 के पश्चात कांग्रेस और सरकार के रिश्तों में कड़वाहट आने लगी। नरमपंथियों का भ्रम शीघ्र ही टूट गया क्योंकि शासन का वास्तविक स्वरूप उनके सामने आ गया। इस काल में कांग्रेस ने सरकार की आलोचना और तीव्र कर दी फलतः दोनों के आपसी संबंध और खराब हो गये। इसके पश्चात् सरकार ने कांग्रेस विरोधी रुख अखितियर कर लिया तथा वह राष्ट्रवादियों को ‘राजद्रोही ब्राह्मण’ एवं ‘देशद्रोही विप्लवकारी’ जैसी उपमायें देने लगी। लार्ड डफरिन ने कांग्रेस को ‘राष्ट्रद्रोहियों की संस्था’ कहकर पुकारा। कालांतर में सरकार ने कांग्रेस के प्रति ‘फूट डालो एवं राज करो’ की नीति अपना ली। सरकार ने विभिन्न कांग्रेस विरोधी तत्वों यथा सर सैय्ययद अहमद खान, बनारस नरेश राजा शिव प्रसाद सिंह इत्यादि को कांग्रेस के कार्यक्रमों की आलोचना करने हेतु उकसाया तथा कांग्रेस के विरोधी संगठन ‘संयुक्त भारत राष्ट्रवादी संगठन (यूनाइटेड इंडियन पेट्रियोटिक एसोसिएशन)’ की स्थापना में मदद की। सरकार ने सम्प्रदाय एवं विचारों के आधार पर राष्ट्रवादियों में फूट डालने का प्रयास किया तथा उग्रवादियों को उदारवादियों के विरुद्ध भड़काया।
किंतु अपने इन प्रयासों के पश्चात भी ब्रिटिश सरकार राष्ट्रवाद के उफान को रोकने में सफल नहीं हो सकी।
आप यहाँ पर gk, question answers, general knowledge, सामान्य ज्ञान, questions in hindi, notes in hindi, pdf in hindi आदि विषय पर अपने जवाब दे सकते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें
Culture
Current affairs
International Relations
Security and Defence
Social Issues
English Antonyms
English Language
English Related Words
English Vocabulary
Ethics and Values
Geography
Geography - india
Geography -physical
Geography-world
River
Gk
GK in Hindi (Samanya Gyan)
Hindi language
History
History - ancient
History - medieval
History - modern
History-world
Age
Aptitude- Ratio
Aptitude-hindi
Aptitude-Number System
Aptitude-speed and distance
Aptitude-Time and works
Area
Art and Culture
Average
Decimal
Geometry
Interest
L.C.M.and H.C.F
Mixture
Number systems
Partnership
Percentage
Pipe and Tanki
Profit and loss
Ratio
Series
Simplification
Time and distance
Train
Trigonometry
Volume
Work and time
Biology
Chemistry
Science
Science and Technology
Chattishgarh
Delhi
Gujarat
Haryana
Jharkhand
Jharkhand GK
Madhya Pradesh
Maharashtra
Rajasthan
States
Uttar Pradesh
Uttarakhand
Bihar
Computer Knowledge
Economy
Indian culture
Physics
Polity
इस टॉपिक पर कोई भी जवाब प्राप्त नहीं हुए हैं क्योंकि यह हाल ही में जोड़ा गया है। आप इस पर कमेन्ट कर चर्चा की शुरुआत कर सकते हैं।