सोम (Som) = Som
सोम संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. प्राचीन काल की एक लता का नाम । विशेष— इस लता का रस पीले रंग का और मादक होता था और इसे प्राचीन वैदिक ऋषि पान करते थे । इसे पत्थर से कुच ल कर रस निकालते थे और वह रस किसी ऊनी कपड़े में छान लेते थे । यह रस यज्ञ में देवताओं को चढ़ाया जाता था और अग्नि में इसकी आहुति भी दी जाती थी । इसमें दूध या मधु भी मिलाया जाता था । ऋक् संहिता के अनुसार इसका उत्पत्ति स्थान मुंजवान पर्वत है; इसी लिये इसे 'मौजवत्' भी कहते थे । इसी संहिता के एक दूसरे सूक्त में कहा गया है कि श्येन पक्षी ने इसे स्वर्ग से लाकर इंद्र को दिया था । ऋग्वेद में सोम की शक्ति और गुणों की बड़ी स्तुति है । यह यज्ञ की आत्मा और अमृत कहा गया है । देवताओं को यह परम प्रिय था । वेदों में सोम का जो वर्णन आया है, उससे जान पड़ता है कि यह बहुत अधिक बलवर्धक, उत्साहवर्धक, पाचक और अनेक रोगों का नाशक था । वैदिक काल में यह अमृत के समान बहुत ही दिव्य पेय समझा जाता था, और यह माना जाता था कि इसके पान से हृदय से सब प्रकार के पापों का नाश तथा सत्य और धर्मभाव की बृद्धि होती है । यह सब लताओं का पति और राजा कहा गया है । आर्यों की ईरानी शाखा में भी इस लता के रस का बहुत प्रचार था । पर पीछे इस लता के पहचाननेवाले न रह गए । वहाँ तक कि आयुर्वेद के सुश्रुत आदि आचार्यों के समय में भी इसके संबंध में कल्पना ही कल्पना रह गई जो सोम (चंद्रमा) शब्द के आधार पर की गई । पारसी लोग भी आजकल जिस 'होम' का अपने कर्मकांड में व्यवहार करते हैं, वह असली सोम नहीं है । वैद्यक में सोमलता की गणना दिव्योषधियों में है । यह परम रसायन मानी गई है और लिखा गया है कि इसके पंद्रह पत्ते होते हैं जो शुक्लपक्ष में— प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक—एक एक करके उत्पन्न होते हैं और फिर कृष्ण पक्ष में—प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक— पंद्रह दिनों में एक एक करके वे सब पत्ते गिर जाते हैं । इस प्रकार अमावस्या को यह लता पत्रहीन हो जाती है । पर्या॰—सोमवल्ली । सोमा । क्षीरी । द्विजप्रिया । शणा । यश- श्रेष्ठा । धनुलता । सोमाह्नी । गुल्मवल्ली । यज्ञवल्ली । सोम- क्षीरा । यज्ञाह्मा ।
२. एक प्रकार की लता जो वैदिक काल के सोम से भिन्न है । विशेष—यह दूसरी सोम लता दक्षिण की सूखी पथरीली जमीन में होती है । इसका क्षुप झाड़दार और गांठदार तथा पत्रहीन
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