आधुनिक भारत का इतिहास-द्वैध शासन व्यवस्था के दोष

Dvaidh Shashan Vyavastha Ke Dosh

द्वैध शासन व्यवस्था के दोष 
बंगाल के दोहरे शासन में अनेक गम्भीर दोष विद्यमान थे, जिसके कारण शासन में अव्यवस्था फैल गई और जन-साधारण को विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। नवाब ने द्वैध शासन व्यवस्था की आलोचना करते हुए अंग्रेज रेजिडेण्ट को 24 मई, 1769 ई. को एक पत्र लिखा, बंगाल का सुन्दर देश, अब तक भारतीयों के अधीन था, तब तक प्रगतिशील और महत्वपूर्ण था। ब्रितानियों की अधीनता में आने के कारण उसका अधःपतन अन्तिम सीमा पर पहुँच गया। प्रो. चटर्जी इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि क्लाइव ने जो द्वैध शासन व्यवस्था लागू की थी, वह एक दूषित शासकीय यन्त्र था। इसके कारण बंगाल में पहले से भी अधिक अव्यवस्था फैल गई और जनता पर ऐसे अत्याचार ढाये गये,जिसका उदाहरण बंगाल के इतिहास में कहीं नहीं मिलता।

बंगाल की द्वैध शासन व्यवस्था के दो प्रमुख दोष निम्नलिखित थे- 
(1) दोहरे शासन का सबसे बड़ा दोष यह था कि कम्पनी के पास वास्तविक सत्ता थी, परन्तु वह शासन प्रबन्ध के लिए जिम्मेवार नहीं थी। दूसरे शब्दों में, उसने अपने कठपुतलों को शासन करने और उसका उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए विवश कर दिया। इसके विपरीत बंगाल के नवाब को प्रान्तीय शासन प्रबन्ध सौंप दिया था उसके पास शासन कार्य चलाने के लिए आवश्यक शक्ति नहीं थी। ऐसी शासन व्यवस्था कभी भी सफल नहीं हो सकती थी, जिसमें शासन का उत्तरदायित्व उठाने वालों के हाथ में वास्तविक सत्ता न हो। द्वैध शासन व्यवस्था की इस मौलिक त्रुटि के कारण बंगाल में शीघ्र ही अव्यवस्था फैल गई। कहा जाता है कि इस व्यवस्था के दौरान चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई। Kaiyi ने ठीक ही लिखा है कि, इसने अव्यवस्था को अव्यवस्थित कर दिया और भ्रष्टाचार को और भ्रष्ट। कम्पनी अधिक से अधिक धन वसूल करने में ही अपनी शक्ति का व्यय कर रही थी। उसने जनता की देखभाल नवाब को सौंप दी थी। इससे जनता की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई। के.एम. पन्निकर ने लिखा है, भारतीय इतिहास के किसी काल में भी, यहाँ तक कि तोरमान और मुहम्मद तुगलक के समय में भी, भारतीयों को एसी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा जो कि बंगाल के निवासियों को इस द्वैध शासनकाल में झेलनी पड़ी। मुर्शिदाबाद के प्रेसीडेन्ट ने 1769 में ठीक ही लिखा था कि, यह क्षेत्र जो अत्यधिक निरंकुश और स्वेच्छाचारी सरकार के अन्तर्गत फला-फूला, बर्बादी की ओर आगे बढ़ रहा है।

(2) द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी ने बंगाल की रक्षा का कार्य अपने हाथ में ले लिया। इस कारण केवल कम्पनी ही सेनाएँ रख सकती थी। नवाब को सेना रखने का अधिकार नहीं था। वह केवल उतने ही सैनिक रख सकता था, जितने कि उसे शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए आवश्यक थे। इस प्रशासनिक व्यवस्था से नवाब की सैन्य शक्ति को गहरा आघात पहुँचा।

(3) द्वैध शासन व्यवस्था के कारण देशी न्याय व्यवस्था बिल्कुल ही पंगु हो गई। कम्पनी के कर्मचारी बार-बार न्यायायिक प्रशासन में हस्तक्षेप करते थे, इतना ही नहीं अनुचित रूप से लाभ उठाने के लिए नवाब के कर्मचारियों को डराते-धमकाते भी थे। उनके हस्तक्षेप के कारण देशी जजों का निष्पक्षता और ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो गया।

(4) आर्थिक शोषण में इंग्लैण्ड की सरकार ने भी पीछे नहीं रही। 1767 ई. में उसने कम्पनी से 4 लाख पौण्ड का ऋण मांगा, जिसके कारण कम्पनी की आर्थिक स्थिति पहले से भी अधिक दयनीय हो गई। कम्पनी ने इस रकम को एकत्रित करने के लिए भारतीय सूबों को ही चुना। बोल्ट्स के शब्दों में, जब राष्ट्र फल के पीछे पड़ा हुआ था, कम्पनी और उसके सहयोगी पेड़ ही उखाड़ने में जुटे थे।

(5) द्वैध शासन की व्यवस्था की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए कम्पनी के कर्मचारियों ने राजनीतिक सत्ता का दुरूपयोग कर बहुत अधिक धन कमाया। उनके निजी व्यापार के दोष भी चरम सीमा पर पहुँच गये थे, क्योंकि अब उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। उन्होंने अपने दस्तकों का इतना अधिक दुरूपयोग किया कि भारतीय व्यापारियों का ब्रितानियों के मुकाबले में व्यापार करना असम्भव हो गया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार हो गया और भारतीय व्यापारियों को अपना पैतृक धन्धा छोडने के लिए बाध्य होना पड़ा। स्वयं क्लाइव ने कॉमन्स सभा में कहा था, कम्पनी के व्यापारी एक व्यापारी की भाँति व्यापार न करके, संप्रभु के समान व्यवहार करते थे और उन्होंने हजारों व्यापारियों के मुँह से रोटी छीन ली थी और जो भारतीय पहले व्यापार करते थे, वे अब भीख माँगने लगे हैं।

(6) द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी के कर्मचारी व्यक्तिगत व्यापार के द्वारा धनवान होते चले गये, परन्तु कम्पनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई। कम्पनी के कर्मचारियों की धनलोलुप प्रवृत्ति के कारण व्याभिचार और बेईमानी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। 18वीं शताब्दी के एक अंग्रेज कवि विलियम कोपर ने कम्पनी के अधिकारियों की धन लोलुपता का वर्णन करते हुए लिखा है,
"न तो यह अच्छा है और न हो प्रशंसनीय ही, कि घर पर तो चोरों को फाँसी लगे, परन्तु वे जो डाल लेते हैं। अपनी मोटी तथा पहले भी भरी हुई थैली में, भारतीय प्रान्तों में रजवाड़ों का धन बच जाते हैं। भारतीय प्रान्तों में रजवाड़ों का धन बच जाते हैं।"

परिणामस्वरूप कम्पनी की स्थिति दिन-प्रतिदिन कम होती गई। 1770 ई. तक वह स्वयं दिवालिये की स्थिति में पहुँच गई।

(7) द्वैध शासन व्यवस्था से भारतीय व्यापार तथा उद्योगों को बहुत हानि पहुँची। विदेशी व्यापारियों को विशेष छूट दी गई, जिसके कारण भारतीय व्यापारी उनके साथ प्रतिद्वन्द्विता में नहीं टिक सके। कम्पनी की अपनी शोषण नीति के कारण बंगाल का रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग चौपट हो गया। कम्पनी के अधिकारी तथा उनके प्रतिनिधि भारतीय जुलाहों को एक निश्चित समय में एक निश्चित प्रकार का कपड़ा बना के लिए बाध्य करते थे और अपनी इच्छानुसार उनको कम मुल्य देते थे। जिन कारीगरों ने निश्चित समय पर ब्रितानियों की माँग की पूर्ति नहीं की अथवा उनकी कम कीमत को लेने से इनकार कर दिया, तो उनके अंगूठे काट दिए गए। परिणामस्वरूप वस्त्र उद्योग में लगे हुए कारीगर बंगाल को छोड़कर भाग गए। ब्रितानियों ने अपनी बेईमानी और अत्याचार से बंगाल के कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया।

(8) द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कृषि का भी सर्वनाश हो गया। भूमि-कर वसूली का काम अधिक से अधिक बोली लगाने वाले ठेकेदार को दिया जाता था। ठेकेदार उस भूमि से अधिक से अधिक लगान वसूल करना चाहते थे, ताकि उनको अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त हो सके, क्योंकि इस बात को कोई गारन्टी नहीं होती थी, कि अगले वर्ष उन्हें पुन: लगान वसूली का काम मिल जाएगा। कम्पनी अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए ठेकेदारों से अधिक से अधिक माँग करती थी। इस प्रकार कम्पनी और ठेकेदारों को बढ़ती हुई लगान की माँग के कारण किसानों का शोषण बढ़ता गया।

डॉ. एम.एस. जैन ने लिखा है कि कम्पनी को दीवानी देने से पूर्व बंगाल व बिहार से 80 लाख रूपया भू-राजस्व प्राप्त होता था, वहाँ 1766-67 में, 2,24,67,500 रूपये ही भू-राजस्व के प्राप्त हुए। स्पष्ट है कि कृषकों की कमर टूट गई। कम्पनी और ठेकेदारों दोनों की ही भूमि की उन्नति में रुचि नहीं थी। अतः किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। अनेक किसान खेती छोड़कर भाग गए और चोर बन गए तथा खेती की योग्य भूमि जंगल में परिवर्तित हो गई। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। इसमें बंगाली की एक तिहाई जनता समाप्त हो गई। इस समय भी सरकारी कर्मचारियों ने लगान माफ करने के स्थान पर दुगुना कर दिया। इतना ही नहीं, किसानों के घरों का सामान नीलाम करवा दिया, जिससे वे बेघरबार हो गए। दुर्भिक्ष की विभीषिका का वर्णन करते हुए सर जॉन ने लिखा है-

वह प्रचन्ड विभीषिका दुर्भिक्ष की
दिग्भ्रमित जन देख मृत, मृतप्रायः को,
गीदड़ों की चीख, गृद्धों की विषवरम,
गूँजता था स्वर भयानक कुक्कुरों का, चिल-चिलाती धूप में जो,
अनाक्रान्त शिकार हित संघर्षरत थे।

मुर्शिदाबाद निवाकी कम्पनी रेजीडेन्ट श्री बेचर ने कृषकों की दयनीय स्थिति पर दुःख व्यक्त करते हुए 1769 ई. में लिखा, जब में कम्पनी ने बंगाल की दीवानी को सम्भाला है, इस प्रदेश के लोगों की दशा पहले से भी खराब हो गई है। वह देश जो स्वेच्छारी शासकों के अधीन भी समृद्धशाली था, अब विनाश की ओर जा रहा है। लार्ड कार्नवालिस ने इंग्लैण्ड की संसद में द्वैध शासन व्यवस्था के बारे में कहा था, मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि विश्व में कोई ऐसी सभ्य सरकार नहीं रही, जो इतनी भ्रष्ट, विश्वासघाती और लोभी हो, जितनी कि भारत में कम्पनी की सरकार थी। वेरेलस्ट के शब्दों में, ऐसी विभाजित और जटिल व्यवस्था ने शोषण और षड्यन्त्र को जन्म दिया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि द्वैध शासन व्यवस्था में कई दोष विद्यमान थे। इसलिए जब 1722 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज अंग्रेज कम्पनी का गवर्नर बनकर बंगाल आया, तो उसे दोहरे शासन को समाप्त करने के लिए स्पष्ट आदेश दिए गये। अतः उसने भारत आते ही इस व्यवस्था को समाप्त करने का आदेश दिया। इस प्रकार द्वैध शासन व्यवस्था का 1772 ई. में अन्त हुआ।


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