आधुनिक भारत का इतिहास-पिट्स इण्डिया एक्ट की प्रमुख धाराएं अथवा उपबन्ध

Pits India Act Ki Pramukh Dharaein Athvaa Upbandh

पिट्स इण्डिया एक्ट की प्रमुख धाराएं अथवा उपबन्ध

(1) कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था से सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध
इस एक्ट द्वारा कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया। कम्पनी के शासन पर नियंत्रण रखने के लिए एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई, जबकि उसके व्यापारिक कार्य का प्रबन्ध कम्पनी के संचालकों के हाथों में रहने दिया गया।

(अ) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल
(i) पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल में राज्य सचिव तथा वित्त मंत्री के अतिरिक्त चार अन्य सदस्य रखे गये, जिनकी नियुक्ति और पदमुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। सदस्यों के वेतन आदि का खर्चा भारत के राजस्व से वसूल करने का निर्णय किया गया। यह नियंत्रण बोर्ड कम्पनी के संचालकों के ऊपर था और इसके अधीन की कम्पनी के मालिकों का बोर्ड भी था।
(ii) इस बोर्ड का अध्यक्ष राज्य सचिव होता था। इसकी अनुपस्थिति में वित्त मंत्री को बोर्ड के सभापति के रूप में कार्य करता था। यदि किसी विषय पर दोनो पक्षों में बराबर मत न हों, तो अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार था।
(iii) बोर्ड की तीन सदस्यों की उपस्थिति इसकी गणपूर्ति के लिए आवश्यक थी।
(iv) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की बैठकों के लिए इनके सदस्यों को कोई वेतन नहीं मिलता था। अतः उन्हें पार्लियामेंट की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था।
(v) कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल को नहीं दिया गया। पुन्निया के शब्दों में इस प्रकार संरक्षकता निदेशक समिति और कम्पनी के हाथों में ही रहने दी गई और देश इस प्रबन्ध से संतुष्ट हो था।
(vi) बोर्ड को कम्पनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व सम्बन्धी मामलों की देखभाल, निर्देशन तथा नियंत्रण के विस्तृत अधिकार दिए गए। बोर्ड कम्पनी के डाइरेक्टरों के नाम आदेश भी जारी कर सकता था। इस तरह ब्रिटिश सरकार को बोर्ड के माध्यम से कम्पनी के सब मामलों पर नियंत्रण स्थापित कर दिया। बोर्ड के सदस्यों को कम्पनी के समस्त रिकार्डों को देखने की सुविधा भी दे गई।

(vii) कम्पनी के संचालकों को भारत से प्राप्त तथा भारत को भेजे जाने वाले समस्त पत्रों की नकलें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सामने रखनी पड़ती थी। बोर्ड के सदस्यों को यह अधिकार दिया गया कि वह उनके सम्मुख प्रस्तुत किए गए आदेशों तथा निर्देशों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकें। उन्हें उनमें अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार भी दिया गया। उनको इतने व्यापक अधिकार थे कि वे संचालकों को द्वारा प्रस्तुत पत्रों में परिवर्तन करके उन्हें सर्वथा नया रूप दे सकते थे। इस प्रकार, बोर्ड द्वारा स्वीकृत किए गए या संशोधित किए गए आदेशों को संचालक भारत में अपने कर्मचारियों के पास भेजने के लिए बाध्य थे। परन्तु फिर भी कम्पनी के दैनिक कार्यों और नियुक्तियों में संचालकों का काफी प्रभाव था।
(viii) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बिना संचालन मण्डल की सहमति के भी भारत सरकार को आदेश भेज सकता था, परन्तु संचालन मण्डल को बोर्ड की अनुमति के बिना भारत में कोई भी आदेश भेजने का अधिकार नहीं था इसके अतिरिक्त कार्य को शीघ्रता से निपटाने के लिए बोर्ड संचालक मण्डल को किसी भी विषय पर पत्र या आदेश तैयार करने की आज्ञा दे सकता था। यदि वे 14 दिनों के अन्दर-अन्दर इस कार्य को न कर पाएँ, तो बोर्ड को यह अधिकार था कि वह स्वयं पत्र तैयार करके संचालकों को भेज दें। संचालक मण्डल ऐसे पत्रों को बिना उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन किए भारत सरकार को भेजने के लिए बाध्य था।
(ix) इस एक्ट के अनुसार संचालकों में से तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति गठित की गई, जिसके द्वारा बोर्ड अपने गुप्त आदेश भारतीय सरकार को भेज सकता था। इस समिति के सदस्य उन गुप्त आदेशों को दूसरे संचालकों को नहीं बता सकते थे और न ही वे उन आदेशों में कोई परिवर्तन या संशोधन कर सकते थे।

(ब) संचालक मण्डल
(i) संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की आज्ञाओं और निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया।
(ii) इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल के पास केवल कम्पनी के व्यापारिक कार्यों की संचालन की शक्ति रही। यदि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में हस्तक्षेप करे, तो उसे सपरिषद् इंग्लैण्ड नरेश के पास अपील करने का अधिकार दिया गया।
(iii) संचालक मण्डल को कम्पनी के समस्त पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया, किन्तु उन्हें वापस बुलाने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। संचालक मण्डल के अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भी किसी भी पदाधिकारी को भारत से वापस बुला सकता था। गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए संचालन मण्डल की स्वीकृति लेना आवश्यक था।

(स) स्वामी मण्डल
इस एक्ट का स्वामी मण्डल की शक्तियाँ बहुत कम कर दी गईं। उसको संचालक मण्डल के प्रस्ताव को रद्द या स्थगित करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया, यदि उस प्रस्ताव पर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने अपनी स्वीकृति दे दी हो।

(द) इंग्लैण्ड में कम्पनी की द्वैध शासन व्यवस्था
इस एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में कम्पनी के भारती शासन पर नियंत्रण करने की शक्ति को दो प्रकार के अधिकारियों के हाथों में थी। पहले अधिकारी डायरेक्टर थे, जिनका कम्पनी के समस्त मामलों पर सीधा नियंत्रण था। संचालक मण्डल के पास कम्पनी के समस्त अधिकारियों की नियुक्ति तथा व्यापारिक कार्यों के संचालन की शक्ति थी। दूसरे अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्य थे। ये ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि थे और इनका कम्पनी के शासन सम्बन्धी सब मामलों पर प्रभावशाली नियंत्रण था।

(2) भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i) इस एक्ट में यह निश्चित किया गया कि संचालक मण्डल केवल भारत में काम करने वाले कम्पनी के स्थायी अधिकारियों में से ही गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्य नियुक्त करेगा।
(ii) सपरिषद् गवर्नर जनरल को विभिन्न प्रान्तीय शासनों पर अधीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण का पूर्ण अधिकार दिया गया।
(iii) यह भी निश्चित कर दिया गया कि गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की अनुमति के बिना कोई युद्ध अथवा सन्धि नहीं कर सकेगा।
(iv) पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य के प्रदेश कहा गया। इस एक्ट में यह घोषणा की गई थी कि, भारत में राज्य विस्तार और विजय की योजनाओं को चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, मान और इच्छा के विरूद्ध है। इस प्रकार, प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण को दृढ़ बना दिया गया।

(3) प्रान्तीय सरकारों से सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध
(i) प्रादेशिक गवर्नरों की स्थिति को दृढ़ बनाने के लिए उनकी कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। इनमें एक प्रान्त का कमाण्डर-इन-चीफ भी होगा।
(ii) कम्पनी के केवल प्रतिज्ञाबद्ध कर्मचारियों से ही गवर्नर की कौंसिल के सदस्य नियुक्त किए जाने के व्यवस्था की गई।
(iii) गवर्नरों तथा उसकी कौंसिल के सदस्यों की नियुक्ति संचालकों द्वारा की जाती थी, परन्तु उनको हटाने या वापस बुलाने का अधिकार ब्रिटिश ताज ने अपने पास रखा।

(iv) बम्बई तथा मद्रास की सरकार के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों को पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
(v) प्रादेशिक सरकारों के लिए सभी प्रकार के निर्णयों की प्रतिलिपियाँ बंगाल सरकार की सेवा में प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया गया।
(vi) बंगाल की सरकार की आज्ञा के बिना प्रादेशिक सरकारें न तो युद्ध आरम्भ कर सकती थीं और नहीं उन्हें भारतीय राजाओं के साथ सन्धि आदि करने का अधिकार था।
(vii) बंगाल सरकार के आदेशों की अवहेलना करने पर वह अधीनस्थ सरकार के गवर्नर को निलम्बित कर सकती थी।

इस प्रकार ये उपबन्ध भारत के एकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। जी.एन. सिंह के शब्दों में, 1784 के एक्ट ने भारत के एकीकरण को और बढ़ा दिया, इससे मद्रास और बम्बई के सपरिषद् राज्यपालों पर सपरिषद् महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) की शक्तियाँ बढ़ा दीं और उनकी ठीक-ठीक सीमा भी निर्धारित कर दी।

(4) एक्ट के कुछ अन्य महत्वपूर्ण उपबन्ध
(i) कम्पनी के कर्मचारियों को आदेश दिया गया कि वे देशी राजाओं से रूपए-पैसे का कोई लेन-देन न करें।
(ii) कम्पनी के पदाधिकारियों को भेंट तथा रिश्वत लेने की सख्त मनाही कर दी गई।
(iii) कम्पनी को अपनी व्यवस्था ठीक करने और आवश्यक कर्मचारियों की संख्या में कमी करने के लिए भी कहा गया।
(iv) गवर्नरों को उन व्यक्तियों को गिरफ्तार करने का अधिकार दिया गया, जो किसी भी अधिकारी से गलत तथा गैर-कानूनी व्यवहार के दोषी पाए जाएँ।
(v) भारत में अपराध करने वाले कम्पनी के कर्मचारियों के मुकदमों की सुनवाई के लिए इंग्लैण्ड में एक न्यायालय स्थापित किया गया। इसमें तीन न्यायाधीश, चार लार्ड सभा के सदस्य और छ: कॉमन्स सभा के सदस्य होंगे।


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