द्वैध शासन व्यवस्था की समीक्षा
पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण थी। उसका अधिक समय तक सुचारू रूप से कार्य करना कठिन था। इसका जन्मदाता पिट भी स्वयं उसकी त्रुटियों को भली-भाँति जानता था। उसने बिल प्रस्तुत करते समय यह शब्द कहे, भारत जैसे विशाल तथा सुदूर देश के लिए मेरे या किसी अन्य व्यक्ति के लिए एक त्रुटि-रहित शासन पद्धति की व्यवस्था करना असम्भव है। मि. फॉक्स ने भी अनेक सबल तर्कों के आधार पर इस शासन व्यवस्था की बड़े प्रभावशाली शब्दों में निन्दा की थी। इस व्यवस्था के मुख्य-मुख्य गुणों तथा अवगुणों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
इंग्लैण्ड में द्वैध शासन की स्थापना
द्वैध शासन व्यवस्था के दोष
द्वैध शासन व्यवस्था के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(1) इस द्वैध शासन व्यवस्था की प्रथम त्रुटि यह थी कि यह प्रणाली अस्वस्थ सिद्धान्तों पर आधारित थी। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दो ऐसे शासकीय संगठन थे, जो परस्पर हितों के विरोधी होने के कारण सुचारू रूप से काम नहीं कर सकते थे। अतः वे मतभेद होने की अवस्था में प्राय: षड्यन्त्र रचते थे, जो कि शासन प्रबन्ध की कुशलता तथा सुदृढ़ता के लिए घातक सिद्ध होते थे।
(2) इस शासन व्यवस्था की दूसरी त्रुटि यह थी कि इसमें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से निश्चित नहीं थीं। इसलिए इनमें झगड़ा होना स्वाभाविक था। चूँकि इस एक्ट के किसी मामले के लिए जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन था, अतः इससे गैर-जिम्मेदारी की भावना उत्पन्न हुई। परिणामस्वरूप सरकार की एकता नष्ट हो गई। 1853 ई. में लार्ड डिजरैली ने शासन की इस त्रुटि की ओर संकेत करते हुए कहा था, मेरी समझ में नहीं आता कि भारत जैसे विशाल साम्राज्य का वास्तविक शासक कौन है और किसको इस शासन के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
(3) इस दोहरी शासन व्यवस्था की तीसरी त्रुटि यह थी कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भारतीय शासन के सम्बन्ध में नीति तो निर्धारित करता था, परन्तु उसको लागू करने के लिए पदाधिकारी नियुक्त करना संचालक मण्डल का काम था। अतः संचालक जिन बातों को नहीं चाहता था, उसको लागू करने में बहाने कर विलम्ब कर सकता था। प्रो. एस.आर. शर्मा के शब्दों में, यदि कानून का अक्षरश: पालन किया जाता, इंग्लैण्ड स्थिति नियंत्रण मण्डल तथा संचालक मण्डल में भारतीय मामलों के नियंत्रण के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती और शीघ्र ही दोहरी शासन प्रणाली का पतन हो जाता। परन्तु सौभाग्य से ये दोनों अंग अपना-अपना कार्य इस प्रकार करते रहे कि त्रुटिपूर्ण होने पर भी यह पद्धति 1858 ई. तक कम्पनी के भारतीय प्रशासन का आधार बनी रही।
(4) चौथी त्रुटि यह थी कि इसमें देरी होने की बहुत सम्भावना थी। प्रत्येक कार्य सम्पन्न होने में आवश्यकता से अधिक समय लग जाता था। जब कोई भी आदेश-पत्र भारत में भेजना होता था, तो उसको पहले संचालक मण्डल तैयार करता था। पिर उसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष की सहमति के लिए प्रस्तुत किए जाता था। वहाँ पर उस पर विचार करने और संशोधित करने में कई दिन लग जाते थे। फिर वह संचालक मण्डल के पास भेजा जाता था। इस संशोधित पत्र के अनुसार संचालक मण्डल फिर एक नया प्रलेख तैयार करता था। इस तरह किसी काम को निपटाने में महीनों लग जाते थे। साधारणतः: भारत सरकार द्वारा लन्दन भेजे गये पत्र का उत्तर दो वर्ष के बाद प्राप्त होता था। इस असाधारण विलम्ब के लिए प्रशासन की इस त्रुटि पर प्रकाश डालते हुए कहा था, लन्दन से भारत को भेज जाने वाले प्रत्येक महत्वपूर्ण आदेश-पत्र को मण्डल के कार्यालय कैनन रो और संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाउस के बीच कई बार उधर से इधर और इधर से उधर आना-जाना पड़ता था। कार्य-विधि के चक्कर में उसे काफी देर लग जाती थी।
इस अनावश्यक तथा असाधारण देरी के कारण जब भारत सरकार को महीनों तक किसी मामले पर निर्देश प्राप्त नहीं होते थे, तो उसको विभिन्न शासकीय कठिनाइयों को सामना करना पड़ता था और अत्यावश्यक मामलों को भारत सरकार अपनी इच्छानुसार मजबूर होकर निपटा देती थी। परिणामस्वरूप बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की ओर से बाद में पहुँचने वाले आदेश-पत्र निरर्थक हो जाते थे। एस.आर.शर्मा के शब्दों में, इंग्लैण्ड से भारतीय मामलों का संचालक बहुत बार मरणोत्तर जाँच जैसा होता था।
(5) इस शासन व्यवस्था में कम्पनी के भारतीय प्रशासन पर ब्रिटिश पार्लियामेंट का प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था, क्योंकि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को भारत सरकार के खर्चे और आमदनी के वार्षिक हिसाब को पार्लियामेन्ट में रखना नहीं पड़ता था।
(6) इस शासन व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण दोष यह भी था कि गवर्नर जनरल को वापस बुलाने की शक्ति बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दोनों के पास थी। कई बार दोनों गवर्नर जनरल से अपनी-अपनी परस्पर विरोधी बातों के अनुसार कार्य करने के लिए दबाव डालते थे। इसलिए गवर्नर जनरल को विचित्र कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। वैसे भी उसके लिए दोनों स्वामियों को सन्तुष्ट तथा प्रसन्न रखना कठिन कार्य था। इससे भारतीय शासन में अदक्षता उत्पन्न होती थी।
(7) द्वैध शासन व्यवस्था 1784 ई. से 1858 ई. तक प्रचलित रही। इस दीर्घकाल में सिर्फ अफगान युद्ध के मामले को लेकर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल में मतभेद हुआ था। अधिकांश झगड़े उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति, उसको पदोन्नति देने अथवा व्यक्तिगत मतभेद के कारण होते रहे। 1786 ई. में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने कम्पनी के खर्चे पर चार ब्रिटिश रेजीमेण्ट भारत भेजी। इस प्रश्न को लेकर बोर्ड और संचालक मण्डल के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। संचालकों ने बोर्ड के इस पग का विरोध किया, क्योंकि उनके मतानुसार बोर्ड को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था। वह विवाद दो वर्ष तक चलता रहा। अन्त में पिट्स ने 1788 में एक बिल पेश किया, जिसके द्वारा बोर्ड को इस सम्बन्ध में सर्वोच्च अधिकार दे दिए गए।
द्वैध शासन व्यवस्था के गुण
यद्यपि द्वैध शासन व्यवस्था में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि वह अनेक गुणों के कारण 1858 ई. तक कम्पनी के शासन का आधार बनी रही। इस व्यवस्था की प्रथम विशेषता यह थी कि कम्पनी का व्यापारिक प्रबन्ध तथा पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार संचालक मण्डल के पास था। अतः संचालक भी इस अधिकारों से सन्तुष्ट थे। इसके अतिरिक्त भारत का प्रशासन संचालकों के हाथों में ही रहने दिया गया, परन्तु बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का उन पर अन्तिम नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। मि. पिट ने इस व्यवस्था के सम्बन्ध में यह शब्द कहे थे, इस नई शासन प्रणाली की व्यवस्था करने में न तो कम्पनी के अधिकार-पत्र में हस्तक्षेप किया गया है और नहीं उसे भारतीय प्रदेशों के वंचित किया गया है। केवल कम्पनी के संविधान में इस प्रकार के परिवर्तन किए गए हैं, जिनसे वह राष्ट्रीय हितों की उचित ढंग से सेवा कर सके।
1786 का अधिनियम
रेग्यूलेटिंग एक्ट का एक प्रमुख दोष यह था कि गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल के समक्ष असहाय था। इस दोष को दूर करने के लिए 1786 ई. तक कोई कदम नहीं उठाया गया। जब लार्ड कार्नवालिस वारेन हेस्टिंग्स के स्थान पर गवर्नर जनरल बना, तब उसने गवर्नर जनरल के पद को स्वीकार करने के लिए अपनी एक शर्त रखी कि गवर्नर जनरल को कौंसिल के निर्णय पर वीटो लगाने और विशेष परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार अपनी इच्छापूर्वक काम करने का अधिकार दिया जाए। 1786 ई. में 1784 एक्ट का संशोधन कर दिया गया और लार्ड कार्नवालिस को निषेधाधिकार प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त उसे कौंसिल की इच्छा के विरूद्ध निर्णय लेने का अधिकार भी दिया गया।
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