आधुनिक भारत का इतिहास-1793 का चार्टर एक्ट

1793 Ka Charter Act

1793 का चार्टर एक्ट

लार्ड कार्नवालिस के शासन काल के अन्तिम दिनों में संसद ने 1793 का चार्टर एक्ट पारित किया। इस एक्ट की धाराएँ संख्या में बहुत अधिक थीं, परन्तु इसके द्वारा कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए। कीथ ने लिखा है कि यह एक्ट संगठन की दिशा में एक महत्वपूर्ण पग था, जिसमे पूर्वगामी एक्टों की बहुत-सी धाराओं को सम्मिलित किया गया था। डॉ. बनर्जी ने कहा कि, "दृढ़ भूतिकरण की संविधि द्वारा कोई बड़ा संवैधानिक परिवर्तन नहीं लाया गया।"

एक्ट के पास होने के कारण-
1773 ई. में कम्पनी को बीस वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने की आज्ञा दी गई थी। यह समय 1793 ई. में समाप्त हो गया। अतः कम्पनी के अधिकारियों ने चार्टर एक्ट के नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की। कम्पनी के सौभाग्य से उस समय सारे राष्ट्र की रूचि फ्रांस के साथ हो रहे युद्ध में थी। अतः इंग्लैण्ड के कुछ ही नगरों के व्यापारियों ने यह माँग कि भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता सबको दी जाए, लेकिन बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष तथा पिट कम्पनी के पक्ष में थे, इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने बिना किसी विशेष आनाकानी के 1793 के एक्ट पारित कर कम्पनी के चार्टर का बीस वर्ष के लिए नवीनीकरण कर दिया। पिट के शब्दों में, यह एक्ट इतनी शान्ति के पास हुआ कि उसका उदाहरण संसद के इतिहास में उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि समाचार-पत्रों में भी इस एक्ट को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया। कीथ के शब्दों में, यह सारत: एक संघटित करने वाली कार्यवाही थी और इसमें जोर परिवर्तन हुए थे, उसका असर तफसील की बातों पर पड़ता था। डॉ. बनर्जी ने भी कहा है कि, इस संघटन के अधिनियम (स्टेच्यूट) द्वारा कोई संवैधानिक परिवर्तन नहीं किया गया।

एक्ट की प्रमुख धाराएँ
(1) इस एक्ट द्वारा कम्पनी को 20 वर्ष के लिए दुबारा पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया।
(2) इस अधिकार-पत्र के द्वारा कम्पनी के आर्थिक ढाँचे को नियमित किया गया। वह अनुमान लगाया गया कि कम्पनी को प्रतिवर्ष 12,39,241 पौण्ड की बचत होगी। इस वार्षिक बचत में से पाँच लाख पौण्ड तो कम्पनी के ऋणों को चुकाने के लिए दिए जाएँगे और पाँच लाख पौण्ड का उपयोग लाभांश को 8 से 10 प्रतिशत करने के लिए किया जाएगा। लेकिन जी.एन. सिंह के शब्दों में, यह कल्पित बचत कभी फलीभूत नहीं हुई और हालाँकि अंशधारियों को यह लाभ हो गया कि लाभांश 8 से 10 प्रतिशत कर दिया गया, किन्तु ब्रिटेन को अपने हिस्से के पाँच लाख पौण्ड प्रतिवर्ष कभी प्राप्त नहीं हुए।
(3) नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों और कर्मचारियों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। इस प्रथा के कई दुष्परिणाम निकले परन्तु यह प्रथा 1919 के अधिनियम के लागू होने तक जारी रही।
(4) प्रत्येक प्रान्त का शासन एक गवर्नर और तीन सदस्यों की कौंसिल को सौंप दिया गया। प्रान्तीय कौंसिल के सदस्य केवल वही व्यक्ति हो सकते थे, जिन्हें नियुक्ति के समय कम्पनी के कर्मचारी के रूप में काम करते हुए भारत में कम से कम बारह वर्ष हो गए हों।
(5) गवर्नर जनरल तथा गवर्नर को अपनी कौंसिल के उन निर्णयों की उपेक्षा करने का अधिकार दिया गया, जिनसे भारत में शान्ति-व्यवस्था, सुरक्षा तथा अंग्रेजी प्रदेशों के हितों पर किसी प्रकार का भी प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो। उन्हें न्याय, विधि तथा कर सम्बन्धी मामलों में कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था।
(6) प्रधान सेनापति किसी भी कौंसिल का सदस्य नहीं होता, जब तक उसको विशेष रूप से संचालकों द्वारा सदस्य नियुक्त न किया जाए। इससे पूर्व प्रधान सेनापति के लिए कौंसिल का सदस्य होना जरूरी था।
(7) सपरिषद् गवर्नर जनरल को प्रान्तीय सरकारों के सैनिक तथा असैनिक शासन प्रबन्ध, राजस्व संग्रह तथा भारतीय रियासतों के साथ युद्ध और सन्धि से सम्बन्धित मामलों पर नियंत्रण तथा निर्देशन का अधिकार दिया गया।

(8) गवर्नर जनरल, गवर्नर, प्रधान सेनापति तथा कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को भारत से बाहर जाने की छुट्टी नहीं मिल सकती थी, जब तक वे अपने पद पर कार्य करेंगे। यदि कोई अधिकारी बिना अनुमति लिए भारत से बाहर जाएगा, तो उसका त्याग-पत्र समझा जाएगा।
(9) यह व्यवस्था की गई कि जब गवर्नर जनरल किसी प्रान्त का दौरा करेगा, तो उस समय प्रांतीय शासन प्रबन्ध गवर्नर के स्थान पर गवर्नर जनरल के हाथों में होगा। गवर्नर जनरल बंगाल में अपने अनुपस्थिति के समय का काम चलाने के लिए किसी भी कौंसिल के सदस्य को अपनी कौंसिल का उपाध्यक्ष नियुक्त कर देगा।
(10) कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय का नौसैनिक क्षेत्राधिकार बढ़ाकर खुले समुद्रों तक कर दिया गया।
(11) इस अधिनियम में यह बात फिर दुहराई गई कि भारत में कम्पनी द्वारा राज्य विस्तार करना और विजय की योजनाओं चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, प्रतिष्ठा और उसके मान के विरूद्ध है। परन्तु जैसा कि जी.एन.सिंह ने लिखा है, परिस्थितियों के दबाव के कारण और मौके पर काम कर रहे व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाओं के कारण वास्तविक व्यवहार में इससे ठीक उल्टी ही नीति अपनाई गई।
(12) यह व्यवस्था की गई कि नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के लिए प्रिवी काउंसलर होना आवश्यक नहीं था।
(13) गवर्नर जनरल, गवर्नरों और प्रधान सेनापति की नियुक्ति के लिए इंग्लैण्ड के सम्राट की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई।
(14) कम्पनी के कर्मचारियों के सम्बन्ध में ज्येष्ठता के सिद्धान्त का कठोरता से पालन किया जाएगा। दूसरे शब्दों में, यदि गवर्नर जनरल या गवर्नर का पद रिक्त हो जाए, तो उस पद पर स्थायी नियुक्ति होने तक परिषद् के सदस्यों में सबसे ऊँचे ओहदे वाला सदस्य (प्रधान सेनापति के सिवाय) उस पद पर काम करेगा।
(15) शराब बेचने वालों के लिए लाइसेंस आवश्यक कर दिया गया।
(16) सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रेसीडेन्सी (बम्बई या मद्रास) के नागरिक सेवा के किसी भी सदस्य को शान्ति के न्यायाधीश नामक न्यायाधिकारी नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त किया गया। ये अधिकार कम्पनी के सम्मति-पत्रित कर्मचारियों में से नियुक्त किए जाने थे। (17) उपहार आदि लेना दुराचरण तथा अपराध घोषित किया गया और इसके लिए दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(18) कम्पनी के असैनिक कर्मचारियों को पदोन्नति देने के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।
(19) गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को प्रेसीडेन्सी नगरों में सड़कों की सफाई, देख-रेख और मरम्मत करने के लिए मेहतरों की नियुक्ति करने का अधिकार दिया गया। वे इन बस्तियों में स्वच्छता कर उप-शुल्क लगाकर इस कार्य के लिए आवश्यक घन भी प्राप्त कर सकते थे।
(20) कम्पनी को 20 वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया था, परन्तु साथ ही निजी व्यापार के लिए तीन हजार टन का माल व्यापार करने की अनुमति दे दी गई थी। परन्तु इस अधिकार के प्रयोग में अनेक प्रतिबन्ध थे। अतः इसका कभी भी प्रयोग नहीं किया गया।

एक्ट का महत्व
इस एक्ट का कोई संवैधानिक महत्व नहीं था। इसके द्वारा भारतीय शासन व्यवस्था में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था। फिर भी, भारतीय संविधान पर इसका प्रभाव बहुत लम्बी अवधि तक रहा। इस चार्टर की मुख्य विशेषता यह थी कि इसके द्वारा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्यों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। यह गन्दी प्रथा 1919 का एक्ट पास होने तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप भारत को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। जी.एन.सिंह ने लिखा है कि इस चार्टर के साथ यह बुरी रूढ़ि स्थापित हुई, जो 1919 ई. तक अपने बुरे परिणामों के साथ चलती रही।

पी.ई. रॉबर्टस् ने इस चार्टर एक्ट के सम्बन्ध में लिखा है, संयोग देखिए कि इधर कार्नवालिस कम्पनी की सेवा से निवृत हुआ और उधर कम्पनी के राजपत्र के नवीनीकरण की तिथि आ पहुँची। यह यह तिथि इस समय से एक वर्ष पहले उपस्थित हुई होती, तो कम्पनी को सचमुच एक भयंकर समस्या का सामना करना पड़ता, क्योंकि उस समय जन-भावना कम्पनी के कुशासन एवं व्यावसायिक एकाधिकार के एकदम विरूद्ध थी, किन्तु अब स्थिति कुछ ओर थी। कार्नवालिस के सुधारों ने जनाक्रोश को ठण्डा कर दिया था। इसलिए जब लिवरपूल, बिस्टल, ग्लासगो, मैनचेस्टर, नार्विख, पेल्जे तथा एक्जीटर नामक महत्वपूर्ण नगरों के कम्पनी के भारत व्यापार में हिस्सा बँटाने की याचिका प्रस्तुत की, तो मंत्रिमण्डल ने कम्पनी के राजपत्र की अवधि 24 वर्ष और बढ़ा दी एवं निजी समुद्र व्यापारियों को केवल 3000 टन वार्षिक पोत परिवहन की अनुमति दी।


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