1853 का चार्टर एक्ट
1853 के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन किए गए, परन्तु इससे शासकीय नीति तथा प्रशासन की कार्यकुशलता में बिल्कुल वृद्धि नहीं हुई।
एक्ट के पास होने के कारण
1853 के चार्टर की पृष्ठभूमि अनोखी थी। जिस समय ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में 1833 के एक्ट पर विचार-विमर्श चल रहा था, उस समय केवल अंग्रेज व्यापारियों तथा ईसाई मिशनरियों ने उसका विरोध किया था। जब 1853 में इस अधिकार-पत्र को फिर से नया करने का समय आया, तब इस अधिनियम के विरोध में भारतीयों ने भी उनका साथ दिया। बंगाल, मद्रास तथा बम्बई प्रान्तों के निवासियों ने बहुत बड़ी संख्या में हस्ताक्षरों से एक प्रार्थना-पत्र ब्रिटिश पार्लियामेन्ट को भेजा, जिसमें कम्पनी के अधिकार-पत्र की अवधि बढ़ाने का विरोध किया गया था।
सन् 1833 के एक्ट की धारा 87 की घोषणा से भारतीयों को बहुत प्रोत्साहन मिला था। अनेक भारतीय युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गए, लेकिन भारत लौटने पर उन्हें निराश ही हाथ लगी, क्योंकि उन्हें काले-गोरे की भेद नीति के कारण उच्च पदों पर नौकरी नहीं मिल सकी। गवर्नर जनरल की कौंसिल के एक सदस्य मि. कैमरोन ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार कहा, पिछले 20 वर्षों एक भी भारतीय को किसी ऐसे पद की प्राप्ति नहीं हुई, जिस पर वह सन् 1833 से पूर्व नियुक्त होने का अधिकारी नहीं था।
इस व्यवस्था से भारतीयों को बहुत दुःख तथा निराशा हुई तथा उनमें तीव्रगति से असन्तोष फैला। बंगाल, बम्बई तथा मद्रास के निवासियों ने भारतीय प्रशासन में परिवर्तन के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट को प्रार्थना-पत्र भी भेजे। इन प्रार्थना-पत्रों में कलकत्ता के निवासियों द्वारा भेजा गया पत्र विशेष रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें-
(i) भारत में कानून बनाने के लिए एक अलग विधान-मण्डल की व्यवस्था करने
(ii) प्रादेशिक सरकारों को आन्तरिक स्वतंत्रता देने की
(iii) भारत पर शासन करने का अधिकार एक भारत सचिव तथा उसकी कौंसिल को सौंप देने की
(iv) ब्रिटिश सिविल परीक्षा के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था करने की माँग की गई थी।
इसके अतिरिक्त कम्पनी के प्रशासन की त्रुटियों को दूर करने के लिए कुछ और भी सुझाव दिए गए। इस प्रकार, विभिन्न प्रेसीडेन्सियों की सरकारों की ओर से संसद में भारतीय प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए अनेक प्रभावशाली सुझाव पेश किए गए थे। अतः ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1852 में इन सब बातों की जाँच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की और उसकी रिपोर्ट के आधार पर 1853 का चार्टर एक्ट पास किया गया था।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबन्ध - 1853 ई. के एक्ट की धाराएँ अथवा उपबन्ध निम्नलिखित थे-
(1) कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था को सम्बन्धित धाराएँ
(i) इस एक्ट द्वारा भारतीय प्रदेशों तथा उनके राजस्व का प्रबन्ध कम्पनी को सौंप दिया गया, परन्तु पहले की तरह उसमें कोई निश्चित अवधि नियत नहीं की गई, केवल इतना कहा गया कि कम्पनी का शासन भारत में तब तक चलता रहेगा, जब तक कि ब्रिटिश संसद कोई अन्य व्यवस्था न करे अर्थात् ब्रिटिश संसद को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह किसी भी समय भारतीय प्रदेशों का शासन अपने हाथ में ले सकती थी। इस प्रकार, कम्पनी को भारतीय प्रदेशों पर अपना आधिपत्य ब्रिटिश साम्राज्ञी तथा उसके उत्तराधिकारियों की ओर से ट्रस्ट के रूप में रखने की आज्ञा दी गई।
(ii) इस एक्ट में संचालक मण्डल की शक्ति को कम करने के लिए उनके सदस्यों की संख्या 24 में घटाकर 18 कर दी गई। इनमें से 6 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। इसी प्रकार संचालक मण्डल की बैठकों में कोरम की पूर्ति के लिए सदस्यों की संख्या 13 से घटाकर 10 कर दी गई, जिससे सम्राट द्वारा नियुक्त सदस्यों का बहुमत सम्भव हो सके। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी के मामलों में ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण और अधिक प्रभावी हो गया।
(iii) नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों का वेतन कम्पनी देगी। उनके वेतन का निर्धारण साम्राज्ञी द्वारा किया जाएगा। अधिनियम में यह कहा गया था कि बोर्ड के अध्यक्ष का वेतन किसी भी दशा में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के वेतन से कम नहीं होगा।
(iv) संचालकों से कम्पनी के उच्च सैनिक पदाधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार छीन लिया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल से नियुक्तियों के बारे में नियम बनाने का अधिकार दिया गया। भविष्य में अनुबन्धित सेवाओं में रिक्त स्थानों पर नियुक्ति प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर करने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार सिविल सर्विस में भर्ती के लिए लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। इस परीक्षा में भारतीय युवकों को भी भाग लेने की सुविधा दी गई।
(v) न्यायायिक, वित्तीय और राजनीतिक विषयों की देखभाल के लिए संचालकों ने तीन उप-समितियाँ बनाई। तीन संचालकों की गुप्त समिति पूर्ववत बनी रही।
(2) भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i) गवर्नर जनरल को बंगाल के शासन भारत से मुक्त कर दिया गया। बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस एक्ट द्वारा यह भी निश्चित किया गया कि बंगाल के गवर्नर नियुक्त होने तक, गवर्नर जनरल संचालक मण्डल की अनुमति से बंगाल के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्त कर सकता है। बंगाल में अलग गवर्नर तो 1912 ई. तक नियुक्त नहीं किया गया, परन्तु 1854 में एक लेफ्टिनेंट गवर्नर बंगाल के लिए और दूसरा पंजाब के लिए नियुक्त कर दिया गया।
(ii) कम्पनी के भारतीय भू-क्षेत्र के बढ़ जाने से संचालक मण्डल को मद्रास तथा बम्बई की भाँति एक अन्य प्रेसीडेन्सी के निर्माण का अधिकार दिया गया। परिणामस्वरूप 1859 में पंजाब के प्रान्त की रचना हुई।
(iii) 1833 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कौंसिल में बढ़ाया गया था, जो कानून बनाने के कार्य में उसकी सहायता करता था। विधि सदस्य कौंसिल की केवल उन्हीं बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून के उद्देश्य से बुलाई गई हों। इसलिए उसको शासन सम्बन्धी मामलों का ठीक तरह से ज्ञान नहीं हो सकता था। 1853 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का नियमित सदस्य बना दिया गया। अब उसे शासन सम्बन्धी कार्यों पर विचार करने के लिए बुलाई गई बैठकों में बाग लेने तथा वोट देने का अधिकार दिया गया।
(iv) इस एक्ट द्वारा पहली बार सपरिषद् गवर्नर जनरल की विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। विधि निर्माण के उद्देश्य से 6 और सदस्य बढ़ाकर गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्तार कर दिया गया। ये अतिरिक्त सदस्य थे-बंगाल का मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट का एक जज तथा बम्बई, बंगाल, मद्रास एवं उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त की सरकारों के 4 प्रतिनिधि। प्रान्त के 4 प्रतिनिधियों की नियुक्ति प्रान्तीय सरकारों उच्च पदाधिकारियों में से करती थीं। इस तरह से कानून बनाने के लिए परिषद् में 12 सदस्य हो गए-गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापति, गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य तथा 6 नये सदस्य। वैध रूप से हो रही परिषद् की बैठक के लिए सात सदस्यों को कोरम नियत गया था। विधान-मण्डल द्वारा पास किए गए सब विधेयक गवर्नर जनरल की स्वीकृति प्राप्त होने पर अधिनियम बन सकते थे। गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को रद्द कर सकती थी। पुन्निया के शब्दों में, 1853 के अधिनियम के विधि-निर्माण सम्बन्धी उपबन्धों में कार्यकारिणी परिषद् से भिन्न एक विधान परिषद् का आभार स्पष्ट रूप में दिखाई पडता है।
(v) गवर्नर जनरल की कौंसिल में ब्रिटिश संसद से मिलता-जुलता कानून बनाने का तरीका अपनाया गया। इसे कार्यपालिका से प्रश्न पूछने तथा उसकी नीतियों पर वाद-विवाद करने का अधिकार दिया गया।
(vi) एक्ट ने भारतीय विधि आयोग, जो समाप्त हो चुका था, सिफारिशों की जाँच और उन पर विचार करने के लिए एक इंग्लिश लॉ कमिश्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की। इस कमीशन के प्रयत्नों के फलस्वरूप इण्डियन पैनल कोड तथा दीवानी और फौजदारी कार्यविधियों को कानून का रूप दिया गया।
एक्ट का महत्व
1853 के एक्ट के द्वारा यद्यपि सरकार की नीति तथा प्रशासन में किसी नवीनता का संचार नहीं हुआ, तथापि यह एक्ट संवैधानिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण पग था। विभिन्न विशेषताओं के कारण इस एक्ट का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।
(i) 1853 के एक्ट के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारतीय प्रशासन उसी समय तक कम्पनी के अधिकार में रहेगा, जब तक कि पार्लियामेन्ट अन्य कोई व्यवस्था न कर दे। कम्पनी के अधिकार-पत्र को निश्चित अवधि के लिए न बढ़ाकर यह स्पष्ट कर दिया गया कि उसका अन्त बहुत निकट है। इस एक्ट के बनने के केवल पाँच वर्ष बाद ही पार्लियामेन्ट ने भारतीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया। इस प्रकार, भारत से कम्पनी का राज्य सदा के लिए समाप्त हो गया।
(ii) इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल की शक्तियाँ घटा दी गईं, जिसके कारण उसकी सत्ता तथा सम्मान को गहरा आघात पहुँचा। इसके सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें से 6 सदस्य ब्रिटिश सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। संचालकों को भारत के अधिकारियों को नियुक्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इसके स्थान पर हाऊस ऑफ कॉमन्स को संचालकों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया। अब सरकार के लिए भारतीय मामलों से परिचित कम्पनी के रिटायर्ड कर्मचारियों को संचालक मण्डल का सदस्य नियुक्त करना भी सम्भव हो गया। इस नई व्यवस्था के परिणामस्वरूप संचालकों की सत्ता तथा सम्मान को भारी आघात पहुँचा और उन पर ब्रिटिश सम्राट का प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया। पुन्निया के शब्दों में, इसलिए इन परिस्थितियों में जब 1873 ई. में पार्लियामेन्ट स्वाभाविक रूप से इस विषय पर विचार करती, तब भारतीय राज्य-क्षेत्र को कम्पनी से सम्राट को हस्तान्तरित करने में कोई बाधा न होती। विद्रोह ने तो केवल इतना किया हि इस प्रक्रिया की चाल को तेज कर दिया।
(iii) इस अधिनियम ने भारत के प्रशासनिक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए। पहले गवर्नर जनरल अन्य प्रदेशों की निगरानी के अतिरिक्त बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य करता था, परन्तु इस एक्ट के अनुसार बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर की व्यवस्था की गई, जिससे गवर्नर जनरल का काफी बोझ हल्का हो गया। अब उसके लिए सारे भारत के शासन की देखभाल के लिए ध्यान देना आसान हो गया। इस तरह से प्रशासनिक कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। भारत के प्रशासनिक ढाँचे में वस्तुतः: यह एक बहुत बड़ा सुधार था।
(iv) इस एक्ट ने नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष का वेतन इंग्लैण्ड के एक सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के बराबर नियत किया। इससे अध्यक्ष की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।
(v) 1853 के एक्ट द्वारा 1833 की महान् घोषणा को व्यावहारिक रूप दिया गया। अब भारतीयों के लिए सब पद खोल दिए गए और इस हेतु उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने की अनुमति दे दी गई। इस एक्ट द्वारा सिविल सर्विस में भर्ती के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा का स्थान निश्चित किया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को इस सम्बन्ध में नियम और विनियम बनाने का आदेश दिया। इस तरह से नौकरियों में नामजदगी के सिद्धान्त का महत्व समाप्त हो गया। इतना सब कुछ होते हुए भी भारतीयों को व्यावहारिक रूप में इस नई व्यवस्था से कोई लाभ नहीं हुआ। प्रथम तो इसलिए कि परीक्षाएँ लन्दन में होती थी। अतः प्रत्येक भारतीय उम्मीदवार के लिए धन खर्च करके परीक्षा के लिए लन्दन जाना सम्भव नहीं था। दूसरे, इस परीक्षा में बैठने की आयु बहुत कम रखी गई। तीसरे, परीक्षा प्रश्नों के उत्तर अंग्रेजी भाषा में देने पड़ते थे। अंग्रेजों की मातृभाषा अंग्रेजी होने के कारण वे भारतीय उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक निपुण सिद्ध होते थे।
(vi) इंग्लिश लॉ कमीशन की नियुक्ति करके भी इस एक्ट ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया। इस कमीशन के 8 सदस्यों ने लॉ कमीशन के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए तीन वर्ष तक अथक परिश्रम किया। उनके प्रयासों से भारतीय दण्ड संहिता और दीवानी तथा फौजदारी कार्यविधियों की संहिताओं को कानून का रूप दिया गया। उन्हें इस एक्ट का महत्वपूर्ण योगदान समझा जा सकता है।
(vii) एक्ट का महत्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्तार कर दिया गया। मोंटफोर्ड रिपोर्ट के रचयिताओं ने इस सम्बन्ध में लिखा है, 1853 में ही विधि निर्माण को पहली बार शासन का एक ऐसा विशेष कृत्य माना गया, जिसके लिए यंत्रजात और विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।
वस्तुतः: इस अधिनियम ने छोटे से विधायी निकाय को एक छोटी पार्लियामेंट का रूप दे दिया। इसने बिल को पास करने के लिए वही तरीका अपनाया, जो आजकल भी प्रचलित है। गवर्नर जनरल की इस कानून बनाने वाली कौंसिल में सरकार की नीति की आलोचना की जाती थी। इस तरह 1853 ई. में एक ऐसी संस्था का आरम्भ हुआ, जिसका विकसित रूप आज भारतीय संसद के रूप में विद्यमान है।
एक्ट के दोष
इन महत्वपूर्ण देनों के बावजूद भी यह एक्ट दोषमुक्त नहीं था। इसके प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(i) इस एक्ट द्वारा कानून बनाने वाली कौंसिल में केवल अंग्रेज सदस्यों को ही रखा गया, जिन्हें भारतीय दशाओं का ज्ञान नहीं था। भारतीयों को इस कौंसिल में न रखने से असंतोष बढ़ा और यह बात विद्रोह का एक सबसे बडा कारण सिद्ध हुई।
(ii) अनेक प्रकार के भेदभावों, अत्यधिक खर्च तथा इंग्लैण्ड की लम्बी दूरी के कारण भारतीयों को कम्पनी सरकार में उच्च पद प्राप्त करना सपना ही रहा।
(iii) बंगाल के लोगों ने जो प्रान्तीय स्वराज्य के लिए प्रार्थना-पत्र दिया था, उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया।
(iv) इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि इससे इंग्लैण्ड में दोषपूर्ण द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त नहीं किया गया।
1854 का गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट
ब्रिटिश संसद ने 1854 ई. में भारत अधिनियम पास किया। इसके द्वारा कुछ महत्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन किए गए। इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह संचालक मण्डल तथा विधान-मण्डल की स्वीकृति से कम्पनी के किसी भी क्षेत्र की व्यवस्था और नियंत्रण को अपने हाथ में ले सकता है। उसे उस क्षेत्र के प्रशासन के सम्बन्ध में सब आवश्यक आदेश तथा निर्देश जारी करने का अधिकार भी दिया गया।
उपर्युक्त उपबन्धों के आधार पर असम, मध्य प्रदेश, उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त, बर्मा, बलुचिस्तान और दिल्ली में चीफ कमिश्नरों की नियुक्ति की गई।
सी. एल. आनन्द के शब्दों में, इस अधिनियम का प्रभाव यह हुआ कि सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रान्त के ऊपर सीधा नियंत्रण रखने के कार्य से छुटकारा मिल गया। इसके बाद से भारत सरकार ने देश के समूचे प्रशासन पर केवल पर्यवेक्षक और निदेशक प्राधिकारी का ही रूप धारण कर लिया।
इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति भी प्रदान की गई कि वह प्रान्तों की सीमाओं को समिति और निर्धारित कर सके। इस एक्ट में यह भी कहा गया कि गवर्नर जनरल अब से बंगाल का गवर्नर की उपाधि धारण नहीं करेगा।
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