राजस्थानी चित्रकला राजस्थान की चित्रकारी
Rajasthani ChitraKala Rajasthan Ki Chitrakari
राजस्थानी चित्रकला की विशेषताएँ
राजस्थानी चित्रकला का आरम्भ
मारवाड़ी शैली
किशनगढ़ शैली
बीकानेर शैली
हाड़ौती शैली/बूंदी व कोटा शैली
ढूँढ़ाड शैली / जयपुर शैली
अलवर शैली
आमेर शैली उणियारा शैली डूंगरपूर उपशैली देवगढ़ उपशैली
भारतीय चित्रकला में राजस्थानी चित्रकला का विशिष्ट स्थान है, उसका अपना एक अलग स्वरूप है। यहाँ की इस सम्पन्न चित्रकला के तरफ हमारा ध्यान सर्वप्रथम प्रसिद्ध कलाविद आनन्दकंटक कुमारस्वामी ने अपनी पुस्तक राजपूत पेन्टिंग’ के माध्यम से दिलाया। कुछ उपलब्ध चित्रों के आधार पर कुमारस्वामी तथा ब्राउन जैसे विद्वानों ने यह धारणा बनाई कि राजस्थानी शैली, राजपूत शैली है तथा नाथद्वारा शैली के चित्र उदयपुर शैली के हैं। परिणामस्वरूप राजस्थानी शैली का स्वतंत्र अस्तित्व बहुत दिनों तक स्वीकार नहीं किया जा सका। इसके अलावा खंडालवाला की रचना ठलीवस फ्रॉम राजस्थान (मार्ग, भाग-त्ध्, संख्या 3, 1952) ने पहली बार विद्वानों का ध्यान यहाँ की चित्रकला की उन खास पहलुओं की तरफ खींचा जो इन पर स्पष्ट मुगल प्रभावों को दर्शाता है।
वास्तव में राजस्थानी शैली, जिसे शुरु में राजपूत शैली के रुप में जाना गया, का पादुर्भाव 15 वीं शती में अपभ्रंश शैली से हुआ। समयान्तर में विद्वानों की गवेषणाओं से राजस्थानी शैली के ये चित्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगे।
इन चित्रकृतियों पर किसी एक वर्ग विशेष का समष्टि रुप में प्रभाव पड़ना व्यवहारिक नहीं जान पड़ता। धीरे-धीरे यह बात प्रमाणित होती गई कि राजस्थानी शैली को राजपूत शैली में समावेशित नहीं किया जा सकता वरण इसके अन्तर्गत अनेक शैलियों का समन्वय किया जा सकता है। धीरे-धीरे राजस्थानी चित्रकला की एक शैली के बाद दूसरी शैली अपने कुछ क्षेत्रीय प्रभावों व उनपर मुगलों के आंशिक प्रभावों को लिए, स्वतंत्र रुप से अपना पहचान बनाने में सफल हो गयी। इनको हम विभिन्न नामों जैसे मेवाड़ शैली, मारवाड़ शैली, बूंदी शैली, किशनगढ़ शैली, जयपुर शैली, अलवर शैली, कोटा शैली, बीकानेर शैली, नाथ द्वारा शैली आदि के रुप में जाना जाता है। उणियारा तथा आमेर की उपशैलियाँ भी अस्तित्व में आयी जो उसी क्षेत्र की प्रचलित शैलियों का रूपान्तरण है।